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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
है, पर साथ में दूसरों को भी डुबोता है। हम लघुत्तम हैं। हम तो डूबते नहीं हैं और किसी को डुबोते भी नहीं हैं। 'हम' हलके फूल जैसे होते हैं। हम तर गए हैं और सबको तारते हैं, क्योंकि हम तरण तारण हैं। खुद तर गए और दूसरे अनेकों को तारने का सामर्थ्य रखते हैं।
ही गुप्त रहे हैं। जितने विचार आते हैं, उतने संसार में मार्ग हैं। तुझे अनुकूल आए, उस मार्ग पर भटक और जब थक जाए, तो 'इस' मोक्ष के रास्ते पर आ जाना। तुझे स्वतंत्र होना हो तब आना। संसार गलत नहीं है, जगत् गलत नहीं है, जगत् में कुछ भी गलत नहीं है, पर तेरी समझ गलत है। जगत् में प्रति क्षण भय है, प्रति क्षण परवशता ही है, इसी कारण आप निरंतर डर रहा करता है।
कितनों ने तो 'यम और यमदूत' के नाम से लोगों को डरा दिया है। यमराज, यमराज ही तो! फिर लोगों ने तो तरह-तरह के यमराज के चित्र बनाए। भैंसे बनाई, बड़े-बड़े दाँतवाला राक्षसी रूप चित्रित किया और लोगों को डरा दिया। अरे! यमराज नाम का कोई जानवर नहीं है। वह तो नियमराज हैं। नियमराज ही सबकुछ चलाते हैं। नियमराज ही जीवित रखते हैं और नियमराज ही मारते हैं। यदि ऐसी सच्ची समझ मिले, तो फिर रहेगा किसी प्रकार का भय या डर?
किसी ने कहा हो कि यह जो जंगल के रास्ते पर तुझे जाना है, वहाँ बाघ-सिंह नहीं हैं। पर साथ-साथ इतना कहना भूल गया कि एक जगह पर बाघ-सिंह हैं, मगर वे पिंजरे में हैं। बस, इतना ही बताना रह गया और वह जंगल के रास्ते चल पड़ा। वहाँ एक ही बाघ गुर्राया और उसके छक्के छूट गए और वापस भाग आया। यदि उसे पहले से बता दिया होता कि बाघ-सिंह हैं, पर पिंजरे में हैं, तो उसे डर नहीं लगता। अत: ऐसे अधूरे ज्ञान से हल कैसे निकले? बतानेवाले के अधूरे ज्ञान से वह डरकर भाग गया।
गुरु किल्ली भगवान ने कहा था कि गुरु बनना मत और बनो, तो गुरु किल्ली साथ रखना, वर्ना कैफ़ चढ़ गया, तो डूबेगा। भगवान किसी के गुरु नहीं थे और आज ये सभी जगह-जगह गुरु बन बैठे हैं। घर पर दो बच्चे और बीवी रूपी, तीन घंट छोड़कर यहाँ दो सौ-पाँच सौ शिष्यों के घंट गले लटकाए हैं। मुए! डूब मरेगा। गुरु अर्थात् भारी। भारी खुद तो डूबता ही
भगवान ने भी कहा था कि गुरुपद जोखिमवाला पद है, ऐसा लक्ष्य में रखकर गुरु बनना, वर्ना मारा जाएगा। यदि गुरु बनना हो, तो ज्ञानी पुरुष के पास से गुरु किल्ली ले जाए, तभी काम होगा, नहीं तो भारी कैफ चढ़े ऐसा पद है। गुरुपद तो रिस्पोन्सिबिलिटी है।
लोगों के गुरु बन बैठे थे, ऐसे पाँच-छ: गुरु एकबार मेरे पास आए और मुझसे पूछने लगे, 'क्या लोगों को गुरु नहीं चाहिए?' मैंने बताया, सच्चे गुरु हों तो काम के! बाकी, गुरु अर्थात् भारी और भारी तो खुद डबें और दूसरों को डुबोएँ। मैं तो लघुत्तम पुरुष हूँ, गुरुत्तम पुरुष हूँ। मैं कच्चा नहीं हूँ कि लोगों का गुरु बन बैठें। यदि त् गरु बन बैठा है, तो जानना कि तू लघु है। वर्ना बिना लघुता के भान के बिना गुरु बनेगा, तो डूबेगा और डुबोएगा।
अगमज्ञान तो, सभी के लक्ष्य के बाहर ही गया है। कभी भी गम नहीं पड़े, वह अगम। हमने आपको अगम का ज्ञान दिया है। निगम का ज्ञान लोगों को होता है, मगर अगम का नहीं होता। गरुगम शब्द है, पर गुरु खुद ही उत्तर को दक्षिण समझें, तो क्या हो?
शुष्कज्ञान अर्थात् जो परिणमित नहीं होता, वह । पेड़ पर फूल लगते हैं, पर फल नहीं आते। उसी तरह आज जगह-जगह शुष्कज्ञान घर कर गया है। काल की विचित्रता है यह!
अक्रम ज्ञान - क्रमिक ज्ञान 'क्रमिक मार्ग' में, रिलेटिव धर्म की भाषा में, व्यवहार-निश्चय का जो विभाजन करने में आया है, वह समझ से ठीक है, परंतु अक्रम मार्ग की, रियल धर्म की ज्ञानभाषा में तो निश्चय व्यवहार है, अर्थात् निश्चय