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आप्तवाणी - १
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है, इसलिए कड़वा लगता है। उसमें खीर का क्या दोष? वैसे ही हमारे द्वारा दिए हुए 'अक्रम ज्ञान' से ज्यों-ज्यों बुखार कम होगा, तब सारे संसार के विषय नीरस होते अनुभव में आएँगे। विषयों का नीरस होते जाना थर्मामीटर है। खुद के बुखार का तो पता चलता है न?
'क्रमिक मार्ग' में भी विषय नीरस लगते हैं, पर वे अहंकार के कारण लेकर नीरस लगते हैं, मगर वे फिर सामने आएँगे। पर हमारे 'अक्रम मार्ग' में ऐसा झमेला ही नहीं न? हम तो विषयों के सागर में निर्विषयी हैं। निर्विषयी अर्थात् जलकमलवत् । हमने तो इस देह का स्वामित्व छोड़ दिया है, इसलिए हमें तो न कुछ छूता है न ही कुछ बाधक होता है। हममें तो स्वामित्व का अभाव है। हमारे महात्माओं का मालिकीपन भी हमने ले लिया है, और इसलिए वे जलकमलवत् रह पाते हैं। कल्पना से चित्रित करता है पुद्गल, पर उसमें आप 'खुद' तन्मयाकार हुए, तो आप हस्ताक्षर कर देते हैं। यदि तन्मयाकार नहीं हो और मात्र देखे और जाने, तो वह मुक्त ही हैं।
मुझे किसी ने पूछा कि यह ऐसा कोट क्यों पहना है? मैंने कहा, 'यह हमारा निर्विषयी विषय है।'
विषय के दो प्रकार हैं, एक विषयी विषय और दूसरा निर्विषयी विषय । जिस विषय में ध्यान नहीं होता, बिलकुल लक्ष्य ही नहीं होता, वह निर्विषयी विषय है।
जिसका जिस विषय में ध्यान होता है, वह उसमें बहुत ही चौकन्ना होता है । उसमें वह विशेष होता ही है। लोग अपने-अपने विषय में ही मस्त होते हैं, और वहीं पर वे बुद्ध जैसे दिखाई देते हैं, क्योंकि उसीमें ही तन्मयाकार हुए हैं। आत्मा निर्विषयी है। सारा जगत् विषयों से भरा हुआ है, उनमें से जिसे जो विषय भाया उसकी ही आराधना करने लगे हैं। जैसे कि तपस्वियों ने तप का विषय पसंद किया । त्यागी त्याग के विषय, व्याख्यानकार व्याख्यान के और संसारी, सभी संसार के विषयों की आराधना करने में लगे हैं, और फिर कहते
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हैं कि हम पुरुषार्थ करते हैं। ज्ञानी से पूछ तो सही कि पुरुषार्थ है कि क्या है? लोग अनिवार्य को ऐच्छिक मान बैठे हैं। आराधना विषयों की करते हैं और खोजते हैं निर्विषयी (आत्मा) को। अरे! इसका कभी अंत नहीं आएगा। अतः जो कुछ किया और उसमें अहंकार किया, तन्मय हुआ, एबव नोर्मल हुआ, वे सभी विषय हैं। ऐसा सच्चा ज्ञान किसी की समझ में आता नहीं है इसलिए उलटी राह चल पड़े हैं। उसमें उनका भी दोष नहीं है। यह तो जैसा है वैसा कहना पड़ता है, और वह भी अत्यंत करुणावश यह वाणी निकलती है। वर्ना हमें, ज्ञानी पुरुष को ऐसे कड़वे शब्दों का उपयोग करना होता है? पर क्या हो ? इस विचित्र काल के कारण सच्चा मार्ग मिलता नहीं है। वह दिखलाने के लिए ऐसी कड़क वाणी निकलती है। बाकी, ज्ञानी पुरुष तो करुणा के सागर होते हैं।
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विषय का आह्वान करने जैसा नहीं है। पुलिसवाला पकड़कर ले जाए और दो दिन भूखा रखकर, डंडे मारकर, जबरदस्ती माँस खिला दे, वैसा विषय के लिए रहना चाहिए और तभी गुनहगारी सहेतुक नहीं है। बरबस होने पर ही विषय होने चाहिए। विषय-अविषय दोनों परसत्ता हैं। जान-बूझकर पुलिसवाले के साथ जाने की इच्छा होती है? नहीं होती। जबरदस्ती के विषय, असल में विषय नहीं है। यह तो भगवान का न्याय
है । शरीर ने विषय भोगा, तो वह मुक्त हुआ और मन विषय भोगे, तो बीज पड़ता है। अवस्थित हुआ, तो व्यवस्थित होगा ही। विषयों अपार जलन जगत् में चल रही है। अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनकर, दूसरों के लिए (विषय) बीज डालने के निमित्त बनोगे, तो भी पेमेन्ट करना पड़ेगा। विषय का पृथक्करण बुद्धि से करके सोचें, तो भी गंदगी लगेगी। जहाँ फिसले, वही विषय ।
अचेतन के साथ का विषय अच्छा, मगर मिश्रचेतन के साथ का गलत है। आप छूटना चाहें, तब भी, सामनेवाला मिश्रचेतन रागी-द्वेषी होने के कारण आपको झट से छूटने नहीं देता। जब कि अचेतन तो वीतराग ही है। आपने छोड़ा कि छूट गया। आप छोड़ें उतनी ही देर ।