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आप्तवाणी - १
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मिलता है। त्याग का प्रतिपक्षी ग्रहण है। जहाँ प्रतिपक्षी हैं, वे सभी विषय हैं।
भगवान कहते हैं कि जो कंट्रोल में नहीं हैं वे विषय हैं। 'मैं विषय भोगता हूँ' ऐसा अहंकार करता है। यदि तू विषय भोग रहा होता, तो तुझे संतोष होना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं है। 'विषय' को भोगता नहीं है। वह तो परमाणु का हिसाब है। प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय में निपुण है, पर दूसरे विषय में निपुण नहीं है। नाक को जलेबी चखाएँ, तो मीठी लगेगी क्या? परमाणुओं का जो हिसाब हो, वह चुकता हो, वह विषय नहीं है, मगर उसमें तन्मयता, वही विषय है। उसमें इन्द्रियों का भी कोई रोल (भूमिका) ही नहीं है। वे तो मात्र कन्वे ( सूचित) करती हैं। इसलिए ही हम कहते हैं कि इन्द्रियों के विषय जीतनेवाला जितेन्द्रिय (जिन) नहीं है परंतु जिसकी दृष्टि दृष्टा में पड़ गई, जिसका ज्ञान ज्ञाता में आ गया, वह जितेन्द्रिय (जिन) है। भगवान महावीर का भी यही कहना था ।
विषय की शुरूआत क्या है? मोहभाव से स्त्री को देखना, मूर्छित भाव से देखना, वह । पर क्या प्रत्येक स्त्री को मूर्छितभाव से देखा जाता है? एक को देखकर विचार आते हैं, मगर दूसरी को देखें, तो विचार नहीं आते, मतलब देअर इज समथिंग रोंग (कहीं कुछ गलत है)। यदि स्त्री को देखते ही ज़हर चढ़ता होता तो प्रत्येक स्त्री को देखते ही ज़हर चढ़ना चाहिए, मगर ऐसा नहीं है। वह तो कुछ ही परमाणुओं से परमाणु का आकर्षण होता है। जब तक विषय का एक भी परमाणु शेष होगा, तब तक स्याद्वाद वाणी नहीं निकलेगी।
जानवरों को जिन विषयों की इच्छा ही नहीं है उसकी इच्छा मनुष्य निरंतर करते हैं। विषय यदि विषय ही होते, तो एक जगह दो स्त्रियाँ बैठी हैं, एक माँ है और एक पत्नी है, वहाँ माँ पर विषय भाव नहीं होता? क्योंकि विषय, विषय है ही नहीं । भ्रांति ही विषय है। इन विषयों को अगर बंद करना चाहो, तो उसका उपाय बतलाऊँ । ये विषय एक ऑटोमेटिक कैमरा है, उसमें फिल्म उतरने मत देना। 'शुद्धात्मा' की ही फोटो उतार लेना । बाकी विषय तो वस्तु ही नहीं है। इसमें तो अच्छे
आप्तवाणी - १
अच्छे ब्रह्मचारियों का भी दिमाग चकरा जाता है कि यह है क्या? जो जिसमें ओतप्रोत रहे, वही विषय । मतलब, आगे से भी अंधा और पीछे से भी अंधा, और कुछ दिखाई ही नहीं देता, वह मोहांध कहलाता है।
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विषय की याचना करना जिसे मरने जैसा लगे, वह इस संसार को जीत सकता है। ऐसा जीवन सबसे उत्तम, सम्मानपूर्ण है।
रोगी देह अधिक विषयी होता है। निरोगी को स्थिरता अधिक होती
है ।
विषयों से रोग नहीं होते, पर विषयों में लोभ होता है, तब ही रोग प्रवेश करते हैं। लोग विषयों को चकमा देते हैं। अरे! विषयों को क्यों चकमा देते हो? विषय में जो लोभ हैं, उसे चकमा दो न? विषय बाधक नहीं है, पर विषयों में लोभ बाधक होता है। रसोई में कहेगा कि मुझे मिर्च के बिना नहीं चलेगा, इस चीज़ के बिना नहीं चलेगा, इतना तो चाहिए ही, यही लोभ है। इसीलिए विषय है और इसी कारण से रोग हैं। क्रोध - मान-माया लोभ ही रोग करनेवाले हैं।
दुःख के कारण ही लोग विषय भोगते हैं, पर यदि विचार करें, तो विषय निकल सके, ऐसा है। यदि इस देह पर से चमड़ी निकाल दी जाए, तो राग होगा क्या? चमड़ी की यह चद्दर ही ढँकी हुई है न! और पेट तो मलपेटी है, चीरने पर मल ही निकलेगा। हाथ पर से चमड़ी निकल गई हो और पीप निकलता हो, तो छूना अच्छा लगेगा क्या? नहीं छूते। यह सब अविचार के कारण ही है। मोह तो पागलपन है। अविचार दशा के कारण मोह है। मोह तो निरी जलन ही है।
आप मीठा खाकर ऊपर चाय पीएँ, तो फीकी लगेगी न? चाय पर अन्याय नहीं करते? चाय तो मीठी है, पर फीकी क्यों लगती है? क्योंकि उसके पहले मीठा चखा है। वैसे ही हम भी अनुपम मिठासवाला ज्ञान देते हैं। उसके बाद आप को संसार के सारे विषयी सुख मीठे होने पर भी फीके लगेंगे। लोगों का अनुभव है कि सर्दी का बुखार, मलेरिया वगैरह हो, तो खीर कड़वी लगती है। क्यों? क्योंकि उसका मुँह कड़वा