________________
आप्तवाणी-१
११५
११६
आप्तवाणी-१
यह प्रयोग करवाइए।' फिर वह साधु पंद्रह दिनों तक अहंकार करके गड्ढे में रहा। निकलने का समय आया, तब सहजानंद स्वामीने कहा, 'दो पुलिसवालों को भेजना। हर वक्त बाजे-गाजे के साथ राजाजी आप जलस के साथ लेने जाते हैं, वह सब इसबार बंद।' साध जब बाहर आया, तो देखा कि कोई भी नहीं है, इसलिए चिल्लाना शुरू किया, 'कहाँ है राजा? कहाँ है बग्घी? बाजे कहाँ है?' ऐसे चिल्लाते-चिल्लाते वहीं का वहीं मर गया। अत: वह अहंकार करके रहा और अहंकार संतष्ट नहीं हआ, तो मर गया। खुद जहाँ नहीं है, वहाँ खुद का आरोप करना, वही अहंकार।
वास्तव में 'खुद' मरता ही नहीं है। अहंकार मरता है और अहंकार ही जन्म लेता है। जब तक अहंकार हस्ताक्षर नहीं करता, तब तक मरण
आ ही नहीं सकता। पर अभागा बिना हस्ताक्षर किए रहता ही नहीं। बिस्तर में बहुत पीड़ित होने पर, या बहुत दु:ख आ पड़े, तब हस्ताक्षर कर ही देता है कि इससे तो मर गए होते. तो अच्छा होता। हस्ताक्षर हो ही जाते हैं।
भुगतनेवाला कौन है? 'आत्मा' खुद कुछ भी भुगतता नहीं है। किसी विषय को आत्मा भुगत सकता ही नहीं। यदि भुगतना उसका स्वगुण होता, तो वह सदा के लिए साथ-साथ ही रहता। कभी भी मोक्ष होता ही नहीं। भगतता है, वह तो मात्र अहंकार करता है कि मैंने भगता। इन्द्रियाँ इफेक्टिव हैं और उन्हें कोजेज के आधार पर इफेक्ट होता है, तब भ्रांतिवश अहंकार कहता है कि मैं करता हूँ,' 'मैं भुगतता हूँ। यदि यह भ्रांति जाए कि मैं कर्ता नहीं हूँ और कर्ता कौन हैं यह समझ में आ जाए, तो फिर मोक्ष दूर नहीं रहता। देह सहित ही मोक्ष बरते, ऐसा है।
मनुष्यों की भीड़ नहीं है, पर अहंकार की भीड़ है। ज्ञान से अहंकार की भीड़ में रहा जा सकता है। नेचर पद्धति अनुसार है। आत्मा पद्धति अनुसार है। पर बीच में अहंकार है, वह बहुत विकट है। वह नहीं करने का काम करता है। अहम् को लेकर ही संसार खड़ा है और चार गतियाँ
भी अहम् से ही होती है। अहंकार ने ही भगवान से अलग किया है।
मनुष्य तो रूपवान होते हुए भी अहंकार से कुरूप दिखता है। रूपवान कब दिखाई देगा? तब कहे, प्रेमात्मा होने पर । रसौलीवाला मनुष्य कैसा कुरूप लगता है? वैसे ही, रूपवान होते हुए भी अहंकार की रसौली को लेकर कुरूप लगता है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार के प्रकार हैं क्या?
दादाश्री : रिलेटिव वस्तु को 'मैं हूँ' कहा वही अहंकार । गर्व, मद, मत्सर, अभिमान, मान, अपमान, ये सारे अलग-अलग शब्द अलग-अलग समय पर प्रयोग होते हैं। ये सारे स्थूल अर्थ समझने के लिए हैं, इसलिए ज्ञानियों ने अलग-अलग नाम दिए हैं।
कुछ लोग खुद को निर्मानी बताते हैं। पर उस निर्मानी होने का जो कैफ चढ़ता है, वह तो स्थूल मानी की तुलना में अधिक भटका कर मार डाले, ऐसा है। निर्मानी होने का मानीपन खड़ा हुए बगैर रहता ही नहीं। बिना स्वरूपज्ञान के अहंकार पूर्णरूप से जाता ही नहीं। इसलिए एक
ओर टूट पड़े और निर्मानीपन प्राप्त करने में जुट गए। पर उससे कैफ बढ़ा उसका क्या? उससे जो भयंकर सूक्ष्म अहंकार खड़ा हुआ, उसका क्या?
स्वरूपज्ञान प्राप्त होने के बाद अंत:करण ज्यों का त्यों रहता है। केवल जहाँ खुद नहीं है, वहाँ 'मैं हूँ' का जो भ्रांति से आरोपण किया था, उस भ्रांति को हम उड़ा देते हैं और 'मैं' को रियल 'मैं' में बिठा देते हैं। फिर अंत:करण में जो अहंकार शेष है, वह आपका व्यवहार चला लेगा। उसे कुछ दबाना नहीं है, मात्र नीरस बनाना है।
अहंकार का रस खींच लो मूल वस्तु पा गए, फिर अब अहंकार का रस खींच लेना है। राह चलते कोई कहे, 'अरे, आप कमअक्ल हैं, सीधे चलिए।' उस समय अहंकार खड़ा होता है, वह अहंकार सहज ही टूट जाता है।