________________
आप्तवाणी-१
१६७
१६८
आप्तवाणी-१
अरे! तुझे यदि भय ही रखना है, तो मरने का भय रख न! प्रति क्षण यह संसार मरण के भयवाला है। उसका भय तुझे क्यों नहीं लगता? उसका भय लगे, तो मोक्ष का उपाय खोजने की सोचे। पर वहाँ तो जड़ समान हो गए हैं।
हिताहित का भान हिताहित का भान तो प्रत्येक को अपना स्वतंत्र होना ही चाहिए कि क्या करने से मैं सुखी और क्या करने से मैं दु:खी हो सकता हूँ। हिताहित का स्वतंत्र भान नहीं है, इसलिए नकल करने जाता है, मगर नकल किस की करनी चाहिए? अक्लवालों की। अक्लवाला तो एक भी दिखाई नहीं देता, फिर किस की नकल करेगा? जब तक 'मैं चंदूलाल हूँ' इस नकली भान में तू है, तब तक तू नकली है, असली नहीं हैं। असल की नकल की जा सकती है। नकली की नकल करने से क्या होनेवाला हैं? 'वास्तविक' समझ में आए, तब बात बने।
ज्ञान ही एक असली होता हैं, बाकी सभी नकली हैं। जिंदगी में कभी किसी की नकल करनी ही नहीं चाहिए। मगर आज तो सोते है, उसमें भी नकल, चलने में भी नकल, अरे! बैठने तक की भी नकल ही करते हैं न?
अर्थात् आत्मा तो कभी भी दगा देनेवाला है ही नहीं। व्यवहार अकेला ही दगाबाज है, और दगा है, इसलिए वहाँ पर बहुत सावधान रहिए और हिताहित का भान अवश्य रखिए। कोई खटमल मारने की दवाई नहीं पीता, ऐसी दवाई पीने का शौक तो होता होगा?
लाइफ एडजस्टमेन्ट्स प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ सिद्धांत तो होने ही चाहिए। फिर भी, ऐसा होते हुए भी संयोगानुसार बरतना चाहिए। संयोगों के साथ जो एडजस्ट होता है, उसीका नाम मनुष्य। 'एडजस्टमेन्ट' यदि प्रत्येक संयोगों में करना आया तो ठेठ मोक्ष तक पहुँच सकते हैं, ऐसा गज़ब का हथियार है। एडजस्टमेन्ट का मतलब यह कि आपके साथ जो जो डिस्एडजस्ट होने आए, उसके साथ आप एडजस्ट हो जाइए। दैनिक जीवन में यदि सास और बहू के बीच या देवरानी और जेठानी के बीच डिसएडजस्टमेन्ट होता हो, तो जिसे इस संसार के चक्कर से छटना है उसे एडजस्ट हो ही जाना चाहिए। पति-पत्नी में भी यदि एक तोड-तोड़ करता हो, तो दूसरे को जोड़ लेना चाहिए, तभी संबंध निभेगा और शांति रहेगी। जिसे एडजस्ट करना नहीं आता, उसे लोग मेन्टल कहते हैं। रिलेटिव सत्य में आग्रह या जिद की ज़रा भी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य तो किसे कहते हैं? एवरीव्हेर एडजस्टेबल। चोर के साथ भी एडजस्ट हो जाना चाहिए। आज के मनुष्यों की दशा कोल्हू के बैल जैसी हो गई है, मगर जाएँ कहाँ? आ फँसे हैं, इसलिए कहाँ जाएँ?
एक बार हम नहाने गए, वहाँ मग्गा रखना ही रह गया था। हाथ डाला तो पानी बहुत गरम था, नल खोला तो टंकी खाली थी, अब क्या करते? यदि एडजस्ट नहीं कर पाए, तो हम ज्ञानी काहे के? हमने तो आहिस्ता-आहिस्ता हाथ से पानी लगा-लगाकर ठंडा करते हुए, नहा लिया। सब महात्मा कहने लगे, 'आज दादाजी ने नहाने में बड़ी देर लगाई?' हमने कहा, 'क्या करते? पानी ठंडा हो जाए तब नहाते न? हम किसी से यह लाइए और वह लाइए, नहीं कहते, एडजस्ट हो जाते हैं।'
सतयुग में, लोगों को व्यवहार के हिताहित का भान था। उस समय अनाचार नहीं थे। लोग सदाचारी थे। आज तो लगभग सभी जगह अनाचार है। इसलिए हिताहित का भान कैसे उत्पन्न हो? यह तो देखदेखकर विपरीत सीखे हैं। 'अपना' तो निकालकर कभी खर्च ही नहीं किया है।
जिसे 'खद' के हिताहित का भान बढ़ता जाए, उसकी वाणी अंश वीतरागी कहलाती है। वादी-प्रतिवादी दोनों कबूल करते हैं।
प्रतिक्षण 'स्वयं' के हिताहित का भान रहना चाहिए। 'स्वयं' कौन है उसका और व्यवहार के हिताहित, दोनों का ही भान रखना है। 'स्वयं'