________________
आप्तवाणी-१
१६५
आप्तवाणी-१
का वही। सब यहाँ का यहाँ और वहाँ का वहाँ।
यह संसार खुली आँख का स्वप्न है और वह बंद आँख का स्वप्न है। दोनों ही इफेक्टिव हैं। जागते में इगोइज़म है, उतना ही अंतर है।
रात में कितने भी सपने आएँ, पर जागने पर मनुष्य को कोई असर नहीं रहता। क्योंकि वहाँ स्वप्न में दृष्टा के रूप में रहता है। इगोइजम कार्य नहीं करता। जब कि ज्ञानी पुरुष जागते हुए भी, समय-समय पर आती हुई अवस्थाओं के ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं। उन्हें नाम मात्र के लिए भी इगोइज्म नहीं होता। इसलिए जागते हुए भी उन्हें सपना ही लगता है। ज्ञानी पुरुष तो पूर्णतया ज्ञाता-दृष्टा ही होते हैं।
भय
सारे ब्रह्मांड का प्रत्येक जीव भय से त्रस्त होता है। भय प्रत्येक जीव मात्र को होता है पर उन्हें वह नोर्मेलिटी में होता है। उन्हें तो जब भय के संयोग आ मिलें, तभी भय लगता है। जब कि मनुष्यों में तो विपरीत भय घर कर गया है। विपरीत भय यानी एक ही भय आनेवाला हो, पर उसे सौ तरह के दिखते हैं, और जो भय नहीं आनेवाला वह भी दिखता है। उसे भी विपरीत भय कहते हैं। एक ही आदमी भोजन पर आनेवाला हो, और ऐसा लगता रहे कि सौ आनेवाले हैं, वह विपरीत भय।
भय कब लगता है? द्वेषपूर्वक त्याग में, तिरस्कार में निरंतर भय रहता है। पुलिसवालों का भय क्यों लगता है? वह पसंद नहीं इसलिए, उसका तिरस्कार है इसलिए। कोर्ट का भय क्यों लगता है? क्या कोर्ट किसी को खा गया? नहीं। वह तो उसके प्रति द्वेष है इसलिए। भय छिपा तिरस्कार माना जाता है। साँप के भीतर भगवान बिराजमान हैं, यह दिखाई नहीं दिया, इसलिए ही भय लगा न? साँप सरकमस्टेन्शियल एविडन्स से आता है। यदि सहज ही सामने मिले और मनुष्य में भय पैदा नहीं हो, तब साँप एक ओर होकर चला जाता है। हिसाब न हो, तो कुछ भी नहीं करता।
समसरण मार्ग-संसार मार्ग पूरा भ्रांतिवाला है, भयावह जैसा है। भयावह यानी क्या? रात सोने से पहले भत का भय बैठ गया हो या साँप का भय बैठ गया हो, तो सारी रात उसका भय रहता है. सो भी नहीं पाता। और सवेरे, यानी प्रकाश में जब वह भय नष्ट होता है, तो उसका डर जाता है। वैसा ही इस संसार में भी है।
भूत की भड़क में इतना ही रहता है कि उसे केवल भड़क रहा करती है कि मेरा क्या होगा? भय नहीं लगता, जब कि संसार में भय
और भड़क दोनों रहते हैं। भय रहता है, इसलिए अज्ञानता से उसके प्रति राग-द्वेष किया करता है, और उससे भड़क रहती है। भयवाले संयोगों को मारने के, प्रतिकार करने के प्रयत्नों में रहता है।
आत्मा की अज्ञानता से भय रहता है और संगी चेतना से भड़क रहती है। भड़क-फड़फड़ाहट वह संगी चेतना का गुण है। संगी चेतना का अर्थ आरोपित चेतना। विधि कर रहा हो या ध्यान कर रहा हो, और कोई बड़ा धमाका हो, तब शरीर ऑटोमेटिक हिल उठता है, वह संगी चेतना है।
जहाँ आपकी सत्ता नहीं है, वहाँ आप हाथ डालेंगे तो क्या होगा? कलेक्टर की सत्ता में क्लर्क हस्ताक्षर करे, तो? सारा दिन भय रहता है, क्योंकि परसत्ता में है इसलिए। संसार के मनुष्य भी निरंतर परसत्ता में ही रहते हैं। 'मैं चंदूलाल हूँ' वह परसत्ता। खुद की सत्ता तो देखी नहीं है, जानी नहीं है और परसत्ता में ही मुकाम किया है, इसलिए निरंतर भय, भय और भय ही लगा करता है।
सबकुछ सहज में मिले ऐसा है, पर भरोसा होना चाहिए। लोगों को ऐसा होता रहता है कि यह नहीं मिलेगा, तो? ऐसा नहीं होगा, तो? बस, यही विपरीत भय है।
बुद्धि किस लिए है? तब कहे, सभी को ठंडक पहुँचाने के लिए, न कि डराने के लिए। जो बुद्धि भय दिखलाए, वह विपरीत बुद्धि। उसे तो उठते ही दबा देनी चाहिए।