________________
आप्तवाणी-१
१८७
१८८
आप्तवाणी-१
जहाँ ऐसा सही, निर्मल न्याय आपको दिखा देते हैं, वहाँ न्यायअन्याय का विभाजन करने का कहाँ रहता है? यह बहुत ही गहन बात है। तमाम शास्त्रों का सार बता रहा हूँ। यह तो 'वहाँ' का जजमेन्ट (न्याय) कैसे चल रहा है, यह एग्जैक्ट बताता हूँ कि भुगते उसीकी भूल।
निजदोष दर्शन
जितने दोष दिखाई देते हैं, उतने बिदा होने लगते हैं। ज्ञानी पुरुष की कृपा हो, तो दोष दिखने लगते हैं। पहले तो खुद अनंत दोष का भाजन है, ऐसा समझें, तब दोषों को खोजना, तलाश करना शुरू करता है। उसके बाद फिर दोष दिखने लगते हैं। यदि दोष नहीं दिखते, तो उसे प्रमाद समझना। अनंत दोष का भाजन हँ ऐसा समझा कि दोष अपने आप दिखने लगेंगे। मगर यह तो बहरा और घर में चोर घुस आया, फिर क्या हो? फिर भले ही बरतन खड़कें, मगर सुनाई दे तब न?
जितने दोष दिखते हैं, उतने बिदा होने लगते हैं। जो भी गाढ़ होंगे, वे दो दिन, तीन दिन, पाँच दिन, महीना या साल के बाद भी दिखें, तो चलते ही बनेंगे। अरे, भाग ही जाएँगे। घर में चोर घुस आया हो, तो वह कब तक घर में रहेगा? मालिक नहीं जानता हो, तब तक। मालिक अगर जान जाए, तो चोर तुरंत ही भागने लगता है।
किसी के भी अवगुण नहीं देखते। देखने ही हैं, तो खुद के देखो न? यह तो औरों की भूलें देखें, तो दिमाग में कैसा तनाव हो जाता है? उसके बजाय औरों के गुण देखें तो दिमाग कितना खुश हो जाता
एक व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर जाकर और भगवान से हाथ जोड़कर गाता हो, 'मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय।' ऊपर से ऐसा भी कहता है, 'देखे नहीं निज दोष तो तरें कौन उपाय?' अब उनसे पूछे कि भैया अब आपमें कितने दोष शेष रहे? तब क्या कहेंगे, 'बस दो-तीन ही बचे हैं, थोड़ा-थोड़ा क्रोध होता है और थोड़ा-सा लोभ है, बस। और कोई दोष अब रहा ही नहीं है।' अरे अभी तो गा रहा था न कि मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय। वह कहेगा, 'ऐसा गाने में तो गाना ही पड़ता है न, पर दोष तो हैं ही नहीं।'
'वाह ! वाह ! क्या कहने! यह तो भगवान को भी ठगने लगे? भगवान क्या कहते हैं, 'जिसमें दो ही दोष शेष हों उसका तो तीन ही घंटे में मोक्ष हो जाए।' यह तो बड़े-बड़े महाराजाओं से, आचार्यों से कोई पूछे, 'आपमें दोष कितने?' तो वे कहेंगे, 'दो-तीन होंगे।' उतने दोष रहने पर तो तीन ही घंटो में मोक्ष हो जाए। यह तो दोष को लेकर यहाँ पड़े हैं और यदि कहें कि औरों के दोष दिखाइए, तो अनेकों दोष बतला देते हैं, खुद का एक भी नजर नहीं आता। हरएक को दूसरों के दोष देखना आता है। आत्मा प्राप्त होने के बाद ही खुद के दोष दिखते हैं, निष्पक्षता उत्पन्न हो जाती है। यदि खुद के दोष देखने आते, तो मोक्ष प्राप्त कर चुके होते और नहीं पाते, तो भी ज्ञानी पुरुष जितनी ऊँची स्थिति में पहुँच गए होते।
इसमें कोई दोषी नहीं है, यह काल ही ऐसा है। संयोगवश सब होता है। उसमें उसका भी क्या कसूर?
सामनेवाले की भूल मत देखना। हमारी भूल सुधार लेनी चाहिए। बिना हिसाब के तो कोई उलटा नहीं बोलता।
यदि खुद की एक भूल मिल जाए, तो भगवान ने उसे मनुष्य कहा है। जो भूल के घोर जंगल में विचरण करने से रुके, और उसे भूल मालूम हो जाए, तो वह मानव है। उसकी भूल को दिखानेवाले को भगवान ने 'अति मानव' (सुपर ह्युमन) कहा है।
इस जगत् में सबकुछ पता चलता है, पर खुद की भूल का पता नहीं चलता। इसलिए ही खुद की भूल दिखाने के लिए ज्ञानी की ज़रूरत होती है। ज्ञानी पुरुष ही ऐसे सर्व सत्ताधीश हैं कि जो आपको आपकी भूल दिखाकर उसका भान करवाते हैं, और तभी वह भूल