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________________ २५६ आप्तवाणी-१ आप्तवाणी-१ २५५ है। ज्ञानी पुरुष की कृपा से, उनकी सिद्धि के बल से, मटके में यदि जरासा छेद हो जाए, तो पूरे कमरे में प्रकाश हो जाता है। उतना आवरण टा और उतना डायरेक्ट प्रकाश प्राप्त हुआ। ज्यों-ज्यों आवरण ट्टते जाते हैं, ज्यों-ज्यों अधिक छेद होते जाते हैं, त्यों-त्यों प्रकाश बढ़ता जाता है। और जब पूरा मटका टूट जाए और बल्ब अनावृत हो जाए तब संपूर्ण प्रकाश चारों और फैल जाता है। जगमगाहट हो जाती है। डायरेक्ट ज्ञानकिरण फूटती है, वही प्रज्ञा कहलाती है। जब सारे आवरणों से आत्मा मुक्त हो जाए, तब उसे सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करने की शक्ति प्राप्त होती है। सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है। दूसरे शब्दों में सारे ब्रह्मांड के ज्ञेयों को देखने जानने की शक्ति प्राप्त होती है, वही केवलज्ञान कहलाता है। दोनों को अलग ही रखती है, वही प्रज्ञा है, वही आत्मा है, वही चारित्र है। बर्ताव ही चारित्र। बर्ताव अर्थात् 'स्व' और 'पर' को एकाकार नहीं होने दे वह। हम जब ज्ञान देते हैं, तब सीधी ही अनुभूति होती है, उसे परमार्थ समकित कहते हैं। इससे आपको उसी समय प्रज्ञा भाव उत्पन्न हो जाता है। सारा संसार जो चल रहा है, वह सब चंचल भाग है, जब कि प्रज्ञाभाव स्थायी रह सके, ऐसा भाव है। प्रज्ञा उत्पन्न हो, तब सीढियाँ नहीं चढ़नी पड़ती पर सीधे ही ऊपर पहुँच जाते हैं। प्रज्ञा के अलावा सारे भाव जो हैं, वे भावाभाव माने जाते हैं और वे सभी चंचल भाग में आते हैं। प्रज्ञाभाव को आत्मभाव नहीं कह सकते। प्रज्ञाभाव अचंचल भाग में आता है। प्रज्ञा का कार्य केवलज्ञान होते ही समाप्त हो जाता है। इसलिए उसे आत्मभाव कहा ही नहीं जा सकता। क्योंकि यदि ऐसा कहें, तो वह आत्मा का अन्वय गुण कहलाएगा और अन्वय गण कहें, तो फिर सिद्धक्षेत्र में विराजमान सिद्ध भगवंतो को भी प्रज्ञा होनी चाहिए, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ कोई कार्य ही नहीं होता। फुल्ली इन्डिपेन्डेन्ट गवर्नमेन्ट की स्थापना होने के बाद इन्ट्रिम गवर्नमेन्ट अपने आप ही विसर्जित हो जाती है। ऐसा ही प्रज्ञा के लिए है। आत्मा की खुद की सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करने की जो शक्ति है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। ___ इस प्रज्ञा का फंक्शन क्या है? कार्य क्या है? प्रज्ञा तो पति ही परमेश्वर' ऐसा माननेवाली वफादार पत्नी का कार्य करती है। आत्मा के संपूर्ण हित को ही दिखलाती है और अहित को छुड़वाती है। जितनेजितने बाह्य संयोग आएँ, उनका समभाव से निपटारा कर देती है और फिर अपने स्वरूप के ध्यान में बैठ जाती है। अतः अंदर का कार्य भी करती है और बाहर का भी कार्य करती है, इन्ट्रिम गवर्नमेन्ट की तरह। और वह भी तभी तक, जब तक कि फुल्ली इन्डिपेन्डेन्ट गवर्नमेन्ट स्थापित नहीं हो जाती। हम 'स्वरूपज्ञान' देते हैं, तब प्रज्ञा बैठा देते हैं, फिर वह प्रज्ञा आपको प्रतिक्षण सावधान किया करती है। भरत राजा को तो चौबीसों घंटे (आत्मा में रहने के लिए), अपने को सावधान करने के लिए नौकर रखने पडते थे। पर यहाँ तो, चाहे कैसा भी विकट संयोग आए तब हमारा ज्ञान हाज़िर हो जाता है, हमारी वाणी हाज़िर हो जाती है, हम स्वयं हाजिर हो जाते हैं। और आप जागृति में आ जाते हैं। प्रतिक्षण जागृत रखे, ऐसा हमारा यह 'अक्रम ज्ञान' है। यहाँ काम निकाल लेने जैसा है। यदि एक बार तार जुड़ गया हो, तो सदा के लिए हल निकल आए। समस्या सदा के लिए सुलझ जाए ऐसा है। प्रज्ञा क्या है? आत्मा से जो पराया है, उसे कभी भी अपना नहीं होने देती और जो खुद का है, उसे पराया नहीं मानने देती, वही प्रज्ञा। प्रज्ञा तो आत्मा का ही अंग है और वह निरंतर आत्मा को मुक्ति दिलाने का कार्य करती है। जैसे-जैसे प्रज्ञा खिलती जाती है, वैसे-वैसे वर्तन में बदलाव आता जाता है। वर्तन बदले, तब भार कम लगता है। 'स्वयं का' और 'पराया', इस प्रकार होम डिपार्टमेन्ट और फ़ोरेन डिपार्टमेन्ट इस शरीर में दो विभाग हैं, एक चंचल विभाग और दूसरा अचंचल
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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