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आप्तवाणी-१
यदि देह रूपी संयोग ही नहीं मिला होता, तो समसरण मार्ग ही नहीं होता। यह तो पुद्गल के संयोग से बिलीफ़ ही बदली है और इसलिए ही यह तृतीयम् जंत् उत्पन्न हो गए हैं और इसलिए ही अनंत शक्तियाँ आवरित हो गई हैं। जंतु जिस प्रकार उत्पन्न हुए हैं, वैसे ही विसर्जित हो जाएँ, तभी आत्मा स्वतंत्र होगा। ज्ञानी पुरुष तो समसरण मार्ग का अंत है। वे तो चरम निमित्त हैं, मुक्ति के! धर्म प्राप्ति के!
'जेणे आप्युं भान निज, तेने आत्म अभिनंदन,
रणके घंट-घंटडीओ, जय सच्चिदानंद।' जिसने दिया भान निज़, उन्हें आत्म अभिनंदन, बाजे घंटे घंटियाँ, जय सच्चिदानंद।
जय सच्चिदानंद
विभाग। अचल जो है वह आत्मा है। आप अपने व्यापार में जितनी निपुणता रखते हैं, उतनी यदि आत्मा में हो, तो काम की। सभी विषयों में गहराई में उतरते हैं, पर इसमें कैसे उतरें? यह तो निर्विषय ज्ञान कहलाता है, पर निर्लेप और निर्विकारी।
हम ज्यादा मिलावटवाला, हलका सोना लेकर सुनार के पास जाएँ, तब भी वह हमसे नाराज नहीं होता है। वह तो केवल सोने को ही देखता है। लोगों का तो मिलावट करने का ही स्वभाव है, फिर भी, सुनार तो सोने को ही देखता है। ये डॉक्टर तो चिढ़ते हैं कि शरीर का क्यों ख़याल नहीं रखते? पर सुनार नहीं चिढ़ता। ज्ञानी पुरुष भी सुनार की तरह आत्मा ही देखते हैं, बाहर का माल नहीं देखते। सोने की अवस्थाएँ, बदलती रहती हैं, मिलावट होती है, पिघलाएँ तो द्रव बन जाता है, पाउडर हो जाता है और उसमें से फिर शुद्ध सोना हो जाता है। ऐसे अवस्थाएँ भले बदलती रहें, परंतु सोना आखिर सोना ही रहता है। सुनार का सोने में जैसा लक्ष्य रहता है, वैसे ही आपको आत्मा का लक्ष्य रहे, तब काम होगा। सुनार सोने में ही लक्ष्य रखता है। बाहर से चाहे कैसा भी मिलावटी दिखाई दे, पर लक्ष्य तो सौ प्रतिशत के सोने में ही होता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष चेतन में ही लक्ष्य रखते हैं।
कोई मनुष्य शास्त्र पढ़े, धारण करे, मगर समझ तो उसकी अपनी ही न? लोग अपनी भाषा में समझे हैं। बात सच है जीवाजीव तत्त्व की, मगर लोग खुद की भाषा में समझे हैं। अजीव तो ना जाने किस को मानते हैं? और जब अजीव ही समझ में नहीं आता, तो जीव तो समझ में ही कैसे आएगा? भगवान हाजिर थे, तब भी आत्मा का लक्ष्य बैठा नहीं था। लक्ष्य बैठता है, पर वह शब्दब्रह्म का लक्ष्य बैठता है और वह तो भूल कि चूक भी सकते है। पढ़े गए वर्णन के शब्दब्रह्म और देखे गए ब्रह्म की बात में बड़ा अंतर है। जिसका वर्णन पढा है. ऐसे खेत का लक्ष्य याद रहे या नहीं भी रहे, पर प्रत्यक्ष रूप से देखे हुए खेत का लक्ष्य हटता नहीं हैं, उसे भूलते नहीं। यह तो जो शुद्धब्रह्म को देखा है, उसका आनंद रहता है हमारे महात्माओं को।