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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
भटकता है। दोपहर को कमरे में साँप देख लिया, तो सोते समय रात को भी साँप याद आता है। चित्त को जब भय लगता है, तब उसी जगह जाया करता है। जड़ भी नहीं और चेतन भी नहीं, ऐसा मिश्र चेतन, अशुद्ध चित्त, जहाँ अच्छा लगे, वहाँ भटकता रहता है। बिना टिकट भटकना है, इसलिए भटकता है। टिकट होता तो अच्छा होता, तो चित्त भटकता ही नहीं।
चित्त पर से चेतन हुआ है। शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन = शुद्ध चेतन।
पहले जिन-जिन पर्यायों का बहुत ही वेदन किया हो, वे अब ज्यादा आते हैं। वहीं पर चित्त लगा रहता है, घंटों तक रहता है, वहाँ पर बहुत भारी बीज पड़ते हैं। जो पर्याय हल्के पड गए हैं, उन पर्यायों का असर चित्त पर अधिक नहीं रहता, चित्त में रहते हैं और छूट भी जाते हैं।
ज्ञान और दर्शन, एकसाथ बोलना हो, तो चित्त बोलना होगा। चित्त नाशवंत वस्तुएँ ही दिखाता है। जहाँ-जहाँ वासना लगे, वहाँ चित्त भटकता है। जितना ज्ञान हो उतना दिखता है और दर्शन हो उतना भाग धुंधला दिखता है। ज्ञान से एकज़ेक्ट दिखाई देता है।
मंदिर में मूर्ति के दर्शन करते समय, भीतर के संयोग जैसे कि मन के परिणाम, चित्तवृत्ति की स्थिति, इनके अनुसार दर्शन में फर्क दिखाई देता है। उदाहरण स्वरूप, पहले घंटे में एक प्रकार के दर्शन होते हैं, दूसरे घंटे में कुछ और प्रकार के दर्शन होते हैं। बाहरी और आंतरिक एविडन्स जैसे होते हैं, वैसे दर्शन होते हैं। मूर्ति के सामने से प्रकाश आता हो, तो अलग दर्शन होंगे, बाजू पर से आ रहा हो, तो अलग दर्शन होंगे। ज्ञानी पुरुष का मुखारविंद तो एक समान ही होता है, पर आपके मन के परिणाम या चित्तवृत्ति की चंचलता के आधार पर अलग दिखाई देते हैं। ज्ञानी पुरुष के तो एक ही तरह से दर्शन करने होते हैं।
जिनके गए हैं, ऐसे वीतराग जब भगवान ऋषभदेवजी की मूर्ति के दर्शन करते हैं तब उन्हें मूर्ति हँसती दिखाई देती है। आँखें तो काँच की हैं, फिर वे हँसती कैसे दिखाई देती हैं? क्योंकि उनकी अपनी चित्तवृत्ति, अपनी चैतन्य शक्ति उसमें पिरोई है, इसलिए हँसते दिखाई देते हैं। इसे चित्त प्रसन्नता कहते है। जहाँ कपट-भाव पूर्ण रूप से उड़ गया होता है, वहाँ चित्त प्रसन्नता रहती है। चित्त प्रसन्नता और कपट का दोनों का गुणा नहीं होता, कबीर साहब क्या कहते थे?
'मैं जानूँ हरि दूर है, हरि हृदय के माँही,
आडी त्राटी कपट की, तासे दिसत नाही।' आडी त्राटी कपट की है, इसलिए भगवान दिखते नहीं हैं। वृत्ति में अन्य भाव का नहीं रहना, शुद्ध कहलाता है। हमारे महात्माओं को यदि वृत्ति में अन्य भाव नहीं रहें, तो चित्त की प्रसन्नता की भक्ति उत्पन्न होती है। अवस्था में बंधे लोग व्यवहार सुख भी नहीं भोग सकते। घंटे भर पहले किसी अवस्था में चित्त एकाग्र हुआ हो, तो उसीमें ही चित्त लगा रहता है। इसलिए अवस्था से बंधे होने का बोझ रहता है और चाय पीने की अवस्था के समय उसी बोझ तले चाय पीता है। व्यवहार में तो चित्त ही चेतन है। उसकी हाज़िरी होने पर ही बात बनती है। खाते समय यदि खाने में चित्त हाज़िर नहीं हो, तो ऐसा खाया हुआ किस काम का?
_ 'चित्त में क्लेश नहीं, वही सारे धर्मों का धर्म। यदि इस पद को पा लिया, तो पुनर्जन्म जाए।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, पिछली रात नींद में, एक सूर्य जैसा प्रकाश बहुत ज़ोरों से दिखाई दिया, वह क्या है?
दादाश्री : वह तो चित्त चमत्कार। चित्त चमत्कार की गज़ब की शक्ति है।
प्रश्नकर्ता : मंदिर में घंट क्यों लटकाते हैं? दादाश्री : चित्त को एकाग्र करने। टन-टन बजता है, तब वहाँ पर
चित्त प्रसन्नता
आनंदघनजी महाराज क्या कहते हैं? सारे संसार के भावाभाव