SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-१ १०७ १०८ आप्तवाणी-१ प्रश्नकर्ता : बुद्धि ही माया है क्या? दादाश्री : नहीं, माया यानी अज्ञान। ज्ञान मिलने पर अज्ञान-माया जाती है, पर अंत:करण तो रहता ही है। बुद्धि रहती ही है। बुद्धि संसार में हितकारी हों, ऐसी वस्तुओं में हाथ डलवाती है और संसार में भटकाती है। बुद्धि क्या है? कोई आपके बेटे को फँसाता हो, तो आपकी बुद्धि बीच में घसीटेगी। वास्तव में तो 'व्यवस्थित' ही सब करता है, फिर भी बुद्धि दखल देती है। पहले मन, बुद्धि को फोन करता है। तब खुद अंदर दख़ल कर सकता है। बोल उठता है, 'क्या कहा? क्या कहा?' हर बात में बुद्धि का दखल पहले। रात को नींद में, सपने में दखल नहीं देती, तो सब ठीक चलता है। तो फिर यह संसार भी जागृत अवस्था का स्वप्न ही है न? कोई कार ड्राइवर जब ड्राइविंग कर रहा हो, और सामने से बस आ रही हो, और पास में बैठा हुआ मुसाफिर यदि चलानेवाले का हाथ पकड़ ले तो क्या होगा? टकरा नहीं जाएगा क्या? मगर लोग बड़े सयाने होते हैं, बस आए, फिर भी स्टियरिंग पकड नहीं लेते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि स्टियरिंग चलानेवाले के हाथ में है। जिसका काम है वही करे तो ठीक रहता है। ऐसे, मोटर जैसी स्थूल चीज़ों के बारे में तो लोग समझते हैं, पर इस 'अंदर' की बात को कैसे समझें? इसलिए 'खुद' उसमें दखल दे ही देता है और झमेला खड़ा हो जाता है। 'अंदर' के मामले में भी सब मोटर ड्राइवर पर छोड़ देना चाहिए यदि ऐसा समझ जाए, तो कोई दखलंदाजी नहीं हो। तत्त्वबुद्धि अर्थात् 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और वह हाथ में आया तो देहबुद्धि चली जाती है। देह में जो बुद्धि थी, वह अब तत्त्व में परिणमित हुई। तत्त्वबुद्धि अर्थात् सम्यक् बुद्धि। सम्यक् ज्ञान उत्पन्न हो तब सम्यक् बुद्धि, तत्त्वबुद्धि उत्पन्न होती है। उसके बिना तो विपरीत बुद्धि ही होती है। अंत:करण का तीसरा अंग : चित्त अंत:करण का तीसरा अंग चित्त है। चित्त का कार्य भटकने का है. वह जैसी है वैसी फोटो खींच देता है। यहाँ बैठे-बैठे अमरीका की फिल्म यथावत् दिखलानेवाला चित्त है। मन इस शरीर के बाहर जाता ही नहीं। जाता है, वह चित्त है और बाहर जो भटकता है, वह अशुद्ध चित्त है। शुद्ध चित्त वही शुद्ध आत्मा है। चित्त अर्थात् ज्ञान + दर्शन। अशुद्ध चित्त अर्थात् अशुद्ध ज्ञान + अशुद्ध दर्शन। शुद्ध चित्त अर्थात् शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन। मन पैम्फलेट दिखलाता है और चित्त पिक्चर दिखलाता है। ये दोनों जो दिखाते हैं, उसमें बुद्धि डिसीज़न देती है और अहंकार हस्ताक्षर करता है, तब काम होता है। चित्त अवस्था है। अशुद्ध ज्ञान-दर्शन के पर्याय ही चित्त है। बुद्धि के डिसीज़न देने से पहले मन और चित्त की कशमकश चलती है, पर डिसीज़न आने के बाद सभी चुप। बुद्धि को एक ओर बिठा दें, तो चित्त या मन कोई परेशान नहीं करता। अनादि काल से चित्त निज घर की खोज में है। वह भटकता ही रहता है। वह तरह-तरह का देखा करता है। इसलिए उसके पास अलगअलग ज्ञान-दर्शन जमा होते जाते हैं। चित्तवृत्ति जो-जो देखती है उसे स्टॉक करती है और वक्त आने पर ऐसा है, वैसा है, दिखलाती है। चित्त जो जो कुछ देखता है उस में यदि लग गया, तो उसके परमाणु खींचता है और वे परमाणु जमा होकर उनकी ग्रंथियाँ बनती हैं, जो मन स्वरूप है। वक्त आने पर मन पैम्फलेट दिखाता है, उसे चित्त देखता है और बुद्धि डिसीज़न देती है। आपकी जो चित्तवृत्तियाँ बाहर भटकती थीं और संसार में रमण करती थीं, उन्हें हम अपनी ओर खींच लेते हैं इसलिए वृत्तियों का अन्यत्र भटकना कम हो जाता है। चित्तवृत्ति का बंधन हुआ, वही मोक्ष अशुद्ध चित्तवृत्तियाँ अनंतकाल से भटकती थीं और जिस मुहल्ले
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy