________________
आप्तवाणी-१
१९१
१९२
आप्तवाणी-१
निरा भूलों का ही भंडार अंदर भरा है। हर क्षण दोष दिखें तब काम हुआ कहलाए। यह सारा माल आप भरकर लाए, बिना पूछे ही तो
बोलता। सच्ची वस्तु के लिए अभिप्राय दिया कि तुरंत ही कच्चा पड़ा। सत्संग में भाँत-भाँत का कचरा निकलता है। सामनेवाले के दोष देखें, तो कचरा हमें लगता है। खुद के देखें, तो खुद के वे दोष निकल जाते हैं। आलसी को दूसरों की भूलें अधिक दिखाई देती हैं।
न?
शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठ जाए, तब भूलें दिखती हैं। नहीं दिखें, तो वह तो निरा प्रमाद ही है।
भूलें
अंधियारी भूलें और अँधेरे में दबी पड़ी भूलें दिखाई नहीं देती। ज्यों-ज्यों जागृति बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों अधिक और अधिक भूलें दिखाई देती हैं। स्थूल भूलें भी टूटें, तो आँखों की चमक बदल जाती है। भाव शुद्ध रखना चाहिए। अँधेरे में की गई भलें अँधेरे में कैसे दिखाई देंगी? भूलें ज्यों-ज्यों निकलती जाती हैं, त्यों-त्यों वाणी भी ऐसी निकलती है कि कोई दो घड़ी सुनता रहे।
स्थूल भूलें तो आपसी टकराव होने पर बंद हो जाती हैं, पर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम भूलें इतनी अधिक होती हैं कि वे जैसे-जैसे खत्म होती जाती हैं, वैसे-वैसे मनुष्य की सुगंध आती जाती है।
अँधियारी भूलें और अँधियारी बातों की तुलना में कठोर मनुष्य की उजाले की भूलें अच्छी, फिर चाहे थोकबंद हों।
जब अनचाही अवस्थाएँ आ पड़ें, कोई मारे, पत्थर पढ़ें, तब भूलें दिखती हैं।
खरी कसौटी में ज्ञान हाज़िर रहे, कान काट रहे हों और ज्ञान हाज़िर रहे, तब खरा ज्ञान कहलाता है। नहीं तो सब प्रमाद कहलाता है।
ज्ञानी पुरुष तो एक ही घंटा सोते हैं, निरंतर जागृत ही रहते हैं। आहार कम हो गया हो, नींद कम हो गई हो, तब जागति बढ़ती है, नहीं तो प्रमादचर्या रहती है। नींद बहुत आए, वह प्रमाद कहलाता है। 'प्रमाद यानी आत्मा को गठरी में बाँधने जैसा।'
भूल अर्थात् क्या है? इसका खुद को भान ही नहीं है। स्व-पराक्रम से भूलें खत्म होती हैं।
जब नींद घटे, आहार घटे, तब समझना कि प्रमाद घटा।
भूलें नष्ट हों, तब उसके चेहरे पर चमक आती है, वाणी सुंदर निकलती है, लोग उसके पीछे फिरते हैं।
स्ट्रोंग परमाणुवाली भूलें हों, वे तुरंत दिखाई देती हैं। बहुत कड़क हों, तो वह जिस तरफ जाए, उसीमें डूब जाता है। संसार में घुसा, तो उसमें डूबता है और ज्ञान में आया, तो उसमें डूब जाता है।
आत्मा का शुद्ध उपयोग अर्थात् क्या? इसका अर्थ यह कि आत्मा को अकेला नहीं छोड़ते। पंद्रह मिनट झपकी लेनी हो, तो पतंग की डोर अँगूठे से बाँधकर झपकी लेनी, वैसे ही आत्मा के बारे में ज़रा-सी भी अजागृति नहीं रखी जा सकती।
__ अनंत भूलें हैं। भूलों के कारण नींद आ जाती है, नहीं तो नींद क्यों आती? नींद आए, वह तो अपना बैरी कहलाता है, प्रमादचर्या है। शुभ
'मुझमें भूल ही नहीं है। ऐसा तो कभी नहीं बोल सकते, बोल ही नहीं सकते। 'केवलज्ञान' होने के बाद ही भूलें नहीं रहती।
ये भूलें तो धियारी भूलें हैं। ज्ञानी पुरुष प्रकाश फेंकें, तब दिखती हैं। उनके बजाय उजाले की भूलें अच्छी। इलेक्ट्रिसिटीवाली होती हैं, वे दिखाई देती हैं।
पुरुषार्थ किस का करना है? पुरुष होने के बाद, 'शुद्धात्मा' का लक्ष्य बैठने के बाद पुरुषार्थ और स्व-पराक्रम होता है।