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आप्तवाणी-१
उपयोग में प्रमाद हो, तो उसे भी अशुद्ध उपयोग कहते हैं।
सारी भूलें खत्म करने को या तो यज्ञ (ज्ञानी और महात्माओं की सेवा का) करना होगा अथवा स्व-पुरुषार्थ करना पड़ेगा। आप ऐसे दर्शन कर जाएँ, तो भक्ति का फल मिलता है, परंतु ज्ञान का फल नहीं मिलता।
भूल है ही नहीं, ऐसा मानकर बैठे रहें, तो भूल दिखेगी ही कैसे? फिर आराम से सोते हैं। हमारे ऋषि-मुनि सोते नहीं थे। बहुत जागृत रहते
अगर अपनी दृढ़ इच्छा है कि ज्ञानी की आज्ञा में ही रहना है, तो उनकी कृपा से आज्ञा में ही रह सकते हैं। आज्ञा पालें तब आज्ञा की मस्ती रहती है। ज्ञान की मस्ती तो किसे रहती है कि जो दूसरों को उपदेश देता हो।
'हमारी' बात यदि जाने और कोई भीतर उतारने नहीं दे, तो समझना कि भीतर गाँठ है, भारी रोग है।
भूलें बहुत सारी हैं, ऐसा यदि जानें, तो भूलें दिखने लगेंगी और फिर भूलें कम होती जाएँगी। हम सभी के दोष थोड़े ही देखते हैं? ऐसी हमें फुरसत भी नहीं होती। वह तो बहुत पुण्य जमा हों, तब हम सिद्धिबल से उसका 'ऑपरेशन' करके 'रोग' निकाल देते हैं। ये डॉक्टर करते हैं, उस ऑपरेशन की तुलना में लाख गुना मेहनत हमारे 'ऑपरेशन' में होती
थे।
खुद की भूलें खुद को काटें, उसे हम इलेक्ट्रिकल भूलें कहते हैं, अँधेरे की भूलें अर्थात् खुद की भूलें खुद को नहीं काटतीं। जो भूलें काटें, वे तो तुरंत दिखाई देंगी मगर जो नहीं काटतीं, वे जाने बिना चली जाती
प्रश्नकर्ता : इलेक्ट्रिकवाली भूलें क्या है?
दादाश्री : वे सभी दिखनेवाली भूलें। थोड़ा बेचैन करके चली जाती हैं। उनसे हमेशा जागृत रह सकते हैं। वह तो अच्छा है। जब कि अंधेरे की भूलें तो किसी को दिखाई ही नहीं देतीं। उसमें खुद तो प्रमादी होता ही है, अपराधी होता है और कोई दिखानेवाला भी नहीं मिलता। जब कि इलेक्ट्रिसिटीवाली भूलें तो कोई दिखानेवाला भी मिल जाता है। 'मैं जानता हूँ' वे अंधेरे की भूलें तो बहुत भारी हैं और ऊपर से 'अब कोई हर्ज नहीं है', वह तो मार ही डालता है। ऐसा तो ज्ञानी पुरुष के सिवाय कोई बोल ही नहीं सकता कि एक भी भूल नहीं रही। प्रत्येक भूल को देखकर तोड़नी है।
हम 'शुद्धात्मा' और बाहर की बातों में 'मैं कुछ भी नहीं जानता' ऐसा ही रखना, ताकि कोई बाधा ही नहीं आएगी। मैं जानता हूँ', वैसा रोग तो लगना ही नहीं चाहिए। हम तो 'शुद्धात्मा'। 'शुद्धात्मा' में एक भी दोष नहीं होता, पर तुम में, चंदूभाई में, जो-जो दोष दिखाई दें उनका निकाल करना है।
जिसे, खुद की जितनी भूलें दिखती हैं, उतना ही वह उनका ऊपरी। जिसकी सारी भूलें खत्म हो जाएँ, उसके ऊपर कोई नहीं। 'मेरा ऊपरी कोई है ही नहीं, इसलिए मैं सबका ऊपरी। ऊपरी का भी ऊपरी।' क्योंकि 'हम' में स्थूल दोष तो होते ही नहीं, सूक्ष्म दोष भी चले गए हैं। सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होते हैं, उनके हम संपूर्ण ज्ञाता-दष्टा होते हैं। भगवान महावीर भी यही करते थे। नाम मात्र भी मैल नहीं रहे, तभी सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष दिखते हैं।
भगवान महावीर को केवलज्ञान प्रकट हुआ, तब तक दोष दिखाई देते थे। भगवान को केवलज्ञान प्रकट हुआ वह काल और खुद के दोष दिखने बंद होने का काल, दोनों एक ही था। वे दोनों समकालीन थे। 'अंतिम दोष का दिखना बंद होना, और इस ओर केवलज्ञान का प्रकट होना,' ऐसा नियम है।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, बचपन से ही मुझे हर ओर से मार ही पड़ती रही है। अब संतानों की ओर से भी सहना पड़ता है। अब इसे कैसे सहूँ? इसमें भूल किसकी?