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________________ आप्तवाणी-१ १३७ १३८ आप्तवाणी-१ आत्मा का, मिश्र चेतन का होता है, शुद्धात्मा का नहीं। पत्थर की मूर्ति में प्रतिष्ठा की जाती है, वह लम्बे अरसे तक फल दिया करती है न? प्रतिष्ठा की कितनी बड़ी शक्ति है? अरे! लोहे को भी उड़ा दे। इस संसार की सायन्स की जितनी भी खोजें हैं, वे सभी प्रतिष्ठित आत्मा की हैं। प्रतिष्ठित आत्मा की इतनी सारी शक्तियाँ हैं, तो शुद्धात्मा की अनंत शक्तियों की तो बात ही क्या करना? आत्मा में इतनी सारी शक्ति है कि इस दीवार में प्रतिष्ठा करे, तो दीवार बोल उठे ऐसा है। प्रतिष्ठित आत्मा भी इतना शुद्ध है कि वह सोच नहीं सकता। विचार तो मन का स्वरूप है। ग्रंथि फूटने पर विचारदशा प्राप्त होती है। धर्म के विचार या चोरी करने के विचार आते हैं, वे मन की गाँठे हैं। प्रतिष्ठित आत्मा यदि विचार कर सकता, तो बुद्धि ही नहीं रहती। तो फिर कम्प्युटर जैसा हो जाता। प्रतिष्ठित आत्मा जो अंत:क्रिया करे वह अंत:करण, फिर बाह्यकरण में ऐसा ही होता है। जिसे अंत:करण देखना आया, उसे बाह्यकरण का पता चल जाता है। पर मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार को देखना आना चाहिए। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार प्रतिष्ठित आत्मा के हिस्से हैं अथवा अंत:करण प्रतिष्ठित आत्मा से है। अंत:करण जैसा दिखाता है, वैसा बाह्यकरण में-बाहर रूपक में आता है। अंत:करण के साथ दिमाग भी है पर वह स्थूल है, जब कि अंत:करण सूक्ष्म है। अंतर में जो जो क्रियाएँ होती हैं, वे प्रतिष्ठित आत्मा के आधार पर होती उदाहरण के तौर पर पीतल को बफिंग करें, तो सोने जैसा ही दिखता है, सोने के सारे लक्षण दिखते हैं, पर वह तो सुनार के पास ले जाने पर पता चलता है। सुनार पहले जाँच करता है कि उसमें सोने के गुणधर्म हैं या नहीं? यदि नहीं हैं, तो वह सोना नहीं हो सकता। लक्षण सोने जैसे होने के बावजूद गुणधर्म सोने के नहीं होने के कारण वह सोना नहीं हो सकता। उसी प्रकार चेतन के लक्षण दिखाई दें, पर चेतन का एक भी गुणधर्म नहीं हो, तो उसे चेतन कैसे कहें? हम उसे निश्चेतन चेतन बताते हैं। पीतल सोना जैसा ही दिखाई देता है, पर जब जंग लगे, तब बोल उठता है, वैसे ही सोना भी बोल उठता है। यह देह जो है, वह निश्चेतन चेतन है। 'हम' शुद्ध चेतन हैं। पहले प्रतिष्ठा की थी, इसलिए प्रतिष्ठित आत्मा कहलाता है, वही प्रतिष्ठित चेतन है। या तो चेतन अच्छा, या तो अचेतन अच्छा, पर अर्धचेतन अच्छा नहीं, क्योंकि उसमें सारे लक्षण चेतन के ही हैं। भगवान ने कहा था कि बावड़ी में जाकर स्पंदन करना, पर मिश्रचेतन के आगे स्पंदन मत करना। मिश्रचेतन के साथ स्वाभाविक व्यवहार हो, उसमें तकलीफ नहीं है, पर वहाँ पर स्लिप नहीं होना चाहिए। कोई फिसले तब हम उसे सावधान करते हैं। मिश्रचेतन के साथ व्यवहार हो, वहाँ हम टोकते हैं। अचेतन हो, वहाँ हर्ज नहीं है। यह बीड़ी है, वह अचेतन है, वहाँ पर हम आपत्ति नहीं उठाते। बहीखाते में चित्रित है, वह तो हिसाब है। हिसाब चुकता नहीं करें, तो भीतरी परमाण शोर मचाएँगे, दिमाग बिगड़ जाएगा। यह मिश्रचेतन बीच में आए, तो हम सावधान करते हैं। अरे, अहंकार करके भी बच निकल, गाफिल रहे वह नहीं चलता। सावधान नहीं रहे, तो दूसरे जन्म बिगड़ेंगे। यह सिनेमा क्या हम पर दावा दायर करता है कि हमारे साथ भोग क्यों भोगते हो? नहीं। वह दावा दायर नहीं करता, क्योंकि वह अचेतन है। जब कि मिश्रचेतन तो दावा करता है, क्योंकि उसके भीतर ठंडक नहीं है। उसके भीतर भारी जलन है, इसलिए वह दावा दायर करता है। भीतर मूर्ति में प्रतिष्ठा करने पर 'मूर्त भगवान' मिलते हैं, अमूर्त में प्रतिष्ठा करने पर 'अमूर्त भगवान' मिलते हैं। निश्चेतन चेतन सारी दुनिया जिसे चेतन कहती है, उसे हम निश्चेतन चेतन कहते हैं। क्योंकि दिखता तो है चेतन, लक्षण चेतन के हैं, पर चेतन का एक भी गुण नहीं है, फिर उसे चेतन कैसे कहें?
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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