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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
दर्शन क्रिया आदि हैं। यह तो जब खुद शुद्धात्मा स्वरूप होता है, तभी समझ में आता है। तभी खुद को, खुद 'शद्धात्मा' अक्रिय है, यह समझ में आता है। जब तक खुद 'शुद्धात्मा स्वरूप' हआ नहीं, तब तक 'वह' प्रतिष्ठित आत्मस्वरूप है, इसलिए कर्ता-भोक्तापद में है। भोक्तापद में फिर कर्ता बन बैठता है और नयी प्रतिष्ठा करके नया प्रतिष्ठित आत्मा खड़ा करता है, नयी मूर्ति खड़ी करता है और परंपरा चालू ही रहती है।
शुद्धात्मा ज्ञाता-दृष्टा ही है, पर प्रतिष्ठित आत्मा ने ही यह सारा गठन किया था, इसलिए ही आईने में प्रत्येक को अपना चेहरा अच्छा लगता है, वर्ना नहीं लगता। यह सारा ही चित्रण प्रतिष्ठित आत्मा का ही है। प्रतिष्ठित आत्मा जब तक 'मैं करता हूँ' ऐसा मानता है, तब तक प्रतिष्ठा करता है। प्रत्येक मनुष्य अपना अगला जन्म खुद ही गढ़ता है। आप जैसी प्रतिष्ठा करेंगे, वैसे बनेंगे। खुद की ही प्रतिष्ठा, वही प्रतिष्ठित आत्मा है और वही इन सभी का कर्ता, व्यवहार आत्मा है।
'सत्य' की खोज के लिए सारा संसार भटक रहा है। जो परमात्मा खुद में प्रकाशमान हो रहे हैं, वह 'सत्' है। मगर वर्ल्ड में किसी को भी आत्मा मिला हो, ऐसा कोई इस समय नहीं है और जो मिला है, वह रिलेटिव आत्मा है, पर वह भी, रिलेटिव आत्मा पूर्णरूप से मिला नहीं है। रिलेटिव आत्मा ही प्रतिष्ठित आत्मा है।
'प्रतिष्ठित आत्मा के हाथों में भावना करने के सिवाय और कोई शक्ति नहीं है।'
अव्यवहार राशि में जितने आत्मा हैं, वे प्रतिष्ठित आत्मा के साथसाथ ही होते हैं। अव्यवहार राशि के जीव अर्थात् ऐसे जीव जिनका नाम तक नहीं पड़ा है, वे जीव । जीव व्यवहार राशि में आए, तब उसका नाम पड़ता है (जैसे शैवाल, चींटी आदि), वहाँ से फिर उसका व्यवस्थित शुरू होता है।
अंत:करण का मालिक प्रतिष्ठित आत्मा है, पर वह उन से अलग है। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार, उन सभी से अलग है। मन कहे कि
एक कार्य करना है, पर प्रतिष्ठित आत्मा कहता है कि यह नहीं करना हैं, तो वह नहीं होता है। इसमें जो भाव है वह प्रतिष्ठित आत्मा है। शुद्धात्मा ज्ञाता-दृष्टा है। अंदर इच्छा होती है, वहाँ प्रतिष्ठित आत्मा कार्य करता है। मन के साथ, प्रतिष्ठित आत्मा एक हो जाए, उसे शुद्धात्मा जानता है और अलग रहता है, उसे भी शद्धात्मा जानता है। अज्ञानी मनुष्य भी प्रतिष्ठित आत्मा को मन से अलग करके, योगबल द्वारा कुछ शक्तियाँ प्राप्त करता है।
___ 'शुद्धात्मा पद' की प्राप्ति के बाद अब हम प्रतिष्ठा नहीं करते हैं। पहले की, की गई प्रतिष्ठा है, इसलिए व्यवहार चलता है। हमारे शब्दों में निरंहकार है। नया चित्रण होना बंद हो जाता है, वह अद्भुत वस्तु है। एक जन्म यदि प्रतिष्ठा नहीं हो, तो काम ही बन जाए न? ज्ञानी का प्रतिष्ठित आत्मा और मिथ्यात्वी का प्रतिष्ठित आत्मा, उनमें क्या अंतर है? ज्ञानी का 'मैं' शुद्धात्मा को ही पहुँचता है, उसके लिए ही है। जब कि मिथ्यात्वी का 'मैं' प्रतिष्ठित आत्मा के लिए ही है। ज्ञानी में. जो यह सब पराया है, ऐसा जानता है, वह शुद्धात्मा है। 'ज्ञानी' प्रतिष्ठित आत्मा को भी पराया जानता है, जब कि मिथ्यात्वी में यह सब पराया है ऐसा जो जानता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा है।
प्रश्नकर्ता : संसार व्यवहार में जो चेतन खर्च होता है, वह 'शुद्धात्मा' का है?
दादाश्री: यह संसार व्यवहार में काम में लिया जा रहा चेतन. प्रतिष्ठित आत्मा का है। 'शुद्धात्मा' का तो ज़रा-सा भी कुछ जानेवाला नहीं है और खर्च होनेवाला नहीं है। बेटरी चार्जिंग स्टेशन होता है, वहाँ वे बेटरी चार्ज कर देता है, उसमें उनकी शक्तियाँ कम नहीं होती है। ये सभी चाहे कैसे भी कर्म करें, चाहे जिस योनि में जन्में, सोना वही का वही है, मात्र गढ़ाई का नुकसान है। भैंसा गढ़ा, तो भैंसे की गढ़ाई गई। अनंत जन्म नर्क में फिरा है, पर सोना निन्यानवे प्रतिशत नहीं हुआ, शत-प्रतिशत शुद्ध ही रहा है। यह जो वृद्धि-हानि होती है, वह तो प्रतिष्ठित आत्मा की होती है। चार्ज-डिस्चार्ज जो होता है, वह प्रतिष्ठित