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है और जिन्हें भगवत् गुणों की प्राप्ति होती है, उनके लिए भगवान शब्द विशेषण के रूप में प्रयोग होता है।
जब तक भूल होती है, तब तक सिर पर भगवान होता है। भूल रहित हों, तो कोई भगवान भी ऊपरी नहीं। ज्ञानी पुरुष में एक भी भूल नहीं होती, इसलिए न तो कोई उनका ऊपरी होता है और न ही कोई अन्डरहैन्ड। खुद संपूर्ण स्वतंत्र होते हैं।
ज्ञानी का प्रत्येक कर्म दिव्यकर्म होता है। एक भी कर्म कहीं भी बंधनकर्ता नहीं होता। संसार के लौकिक कर्म अपने बीज डालकर जाते हैं जब कि ज्ञानी के कर्म मुक्ति देकर जाते हैं। अरे! वे तो मुक्त पुरुष ही होते हैं, इतना ही नहीं पर अनेकों को मुक्ति प्रदान करने का सामर्थ्य रखते हैं।
ज्ञानी निग्रंथ होते हैं। सारी ग्रंथियों का छेदन हो गया होता है। ज्ञानी पुरुष को त्यागात्याग संभव नहीं है। यह बात खुद भगवान ने ही प्रकट की है। ज्ञानी में नवीनता नहीं होती और जिस दशा में ज्ञान प्रकट हुआ हो वही दशा हमेशा के लिए होती है। इसलिए ही उनकी दशा अटपटी होती है। लोग त्याग के आधार पर ज्ञानी खोजने निकलें, तो पहचान कैसे होगी?
ज्ञानी पुरुष के तीन गुण यदि कोई सीख ले, तो उसका काम बन जाए और मुक्ति पा जाए। वे तीन गुण हैं, कोम्प्रेसिबल, फ्लेक्सिबल और टेन्साइल।
ज्ञानी पुरुष गुरुतम-लघुत्तम होते हैं। ज्ञानी को यदि कोई गधा कहे, तो वे कहेंगे, 'उससे भी लघु हूँ भैया, लघुत्तम हूँ। तू पहुँच नहीं पाए उतना लघुतम हूँ।' और यदि कोई ज्ञानी पुरुष को आचार्य कहे, तो उसे कहेंगे, 'भैया, तू यदि उससे भी अधिक की प्राप्ति चाहता है, तो उससे भी ऊपर के पद में हैं, हम भगवान हैं।' जो जैसा पाना चाहे, वैसा समझे, तो उसका काम हो जाए। आत्मा स्वयं अगुरु-लघु स्वभाव का है।
संसार में 'आप्तपुरुष' केवल ज्ञानी पुरुष ही कहलाते हैं। आप्त यानी हर तरह से विश्वसनीय। सांसारिक बातों के लिए ही नहीं पर मोक्ष प्राप्ति हेतु भी अंत तक विश्वसनीय होते हैं। जब तक खुद को आत्मा का भान नहीं हुआ है, आत्मा की पहचान नहीं हई, तब तक ज्ञानी पुरुष ही खुद का आत्मा है। ज्ञानी पुरुष मूर्तिमान मोक्ष स्वरूप होते हैं। उन्हें देखकर अपना आत्मा प्रकट करना होता है। ज्ञानी पुरुष खुद पारसमणि कहलाते हैं और अज्ञानी तो लोहा है, जो उन्हें छूते ही सोना बन जाता है। पर यदि वे बीच में अंतरपट (पर्दा) नहीं रखें तो। ज्ञानी पुरुष अनंत बोधकला, अनंत ज्ञानकला और अनंत प्रज्ञाकला के स्वामी होते हैं, जिसे जो चाहिए वह ले जाओ और अपना काम निकाल लो।
आत्मज्ञान हेतु ज्ञानी पुरुष के पास जाना ही होगा। बिना जानकार के तो कोई साधारण चीज़ भी नहीं मिलती है, इसलिए निर्विकल्प समाधिस्थ ऐसे ज्ञानी पुरुष के पास जाना ही पड़ता है। ज्ञानी पुरुष 'शुद्ध चैतन्य' को हाथों में ही रख देते हैं। ज्ञानी पुरुष चाहें सो करें, पर फिर भी वे निमित्तभाव में ही रहते हैं। किसी भी वस्तु के कर्ता ज्ञानी नहीं होते हैं।
प्रत्येक शास्त्र अंत में तो यह कहकर रूक जाता है कि तुझे प्रकट आत्मा की प्राप्ति करनी है, तो तू ज्ञानी की शरण ले। प्रकट दीया ही दूसरा दीये प्रज्वलित कर सकता है, इसलिए 'गो टु ज्ञानी', क्योंकि 'ज्ञानी' सदेह आत्म स्वरूप हुए होते हैं अर्थात् तरण तारणहार होते हैं।
ज्ञानी निरंतर वर्तमान में ही विचरते हैं, भूत या भविष्यकाल में नहीं
कोम्प्रेसिबल यानी संकोचनशील, चाहे जितना दबाव आए, पर वे उसे सहन करने की क्षमता रखते हैं और तुरंत यथास्थित हो जाते हैं। फ्लेक्सिबल यानी जैसे मोड़ें वैसे मुड जाते हैं, पर कभी भी टूटते नहीं हैं! और टेन्साइल यानी चाहे जितना भी तनाव हो झेल सकते हैं!
इन तीन गुणों के कारण संसार व्यवहार में कहीं कोई मुश्किल नहीं आती और बिना किसी अंतराय के मोक्ष में पहुँचा जा सकता है।