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योग्य समय (जरूरत हो तब) पर वापस प्रतिबोध के रूप में प्रकट होता है। ज्ञानी द्वारा बोया गया बोध बीज ठेठ मोक्ष तक ले जाता है। वह कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। ज्ञानी का वचनबल तो गजब का होता है।
कि यह ज्ञानी नहीं हो सकते। ज्ञानी पुरुष में आग्रह का एक परमाणु भी नहीं होता। वे संपूर्ण निराग्रही होते हैं। आग्रह तो विग्रह है और निराग्रह से मोक्ष है। भगवान ने किसी भी बात का आग्रह रखने को मना किया है। केवल मोक्ष हेतु ही ज्ञानी पुरुष का आग्रह रखना, क्योंकि उनके चरणों में ही मोक्ष है। ज्ञानी मिलें और उनकी कृपादृष्टि प्राप्त हुई, तो सहज रूप से मोक्ष हाथों में आ जाए ऐसा है।
ज्ञानी पुरुष कौन कि जिन्हें संसार में जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहा है। पुस्तकें पढ़ना या किसी भी श्रेणी में उत्तीर्ण होना शेष नहीं रहा है। उन्हें माला नहीं फेरनी पड़ती, कुछ भी करने को या जानने को बाकी नहीं है। वे तो सर्वज्ञ होते हैं और संसार में मुक्त मन से विचरते
ज्ञानी का प्रेम, शद्ध प्रेम है और वही परमार्थ प्रेम का अलौकिक झरना होता है। वह प्रेम-झरना सारे संसार की अग्नि शांत करता है।
सब से बड़ी बात तो यह है कि ज्ञानी पुरुष पूर्णतया निष्पक्ष होते हैं। पक्ष लेनेवाले तो मतांध कहलाते हैं। मतांध कभी सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। वह तो जब पूर्ण रूप से निष्पक्षता उत्पन्न हो, तभी सर्वज्ञ पद की प्राप्ति होती है। अरे! ज्ञानी तो अपने मन-वचन और काया का भी पक्ष नहीं लेते, तभी तो उन्हें सर्वज्ञ पद प्राप्त होता है। यदि एक भी पक्ष की बात रहे, तो वे एक पक्षीय कहलाएँगे, सर्वज्ञ नहीं कहलाएँगे। ज्ञानी पुरुष की सभा में तो क्रिश्चियन, मुस्लिम, वैष्णव, जैन, स्वामीनारायण, पारसी, खोजा आदि सभी अभेद भाव से बैठते हैं और हरएक को ज्ञानी पुरुष अपने धर्म के आप्त पुरुष प्रतीत होते हैं। एक अज्ञानी के लाख मत होते हैं और लाख ज्ञानियों का एक ही मत होता
ज्ञानी पुरुष की दशा अटपटी होती है। आम आदमी को उसका अंदाजा नहीं होता। ज्ञानी पुरुष को आश्रम का श्रम नहीं होता। उनकी न ध्वजा, न पंथ, न बाड़ा, न कोई बोर्ड होता है, न तो भगवा, न ही श्वेत वस्त्र होते हैं, वे सीधे-सादे भेष में घूमते हैं। फिर सामान्य जीव उन्हें कैसे पहचान पाएँ? फिर भी उनकी पहचान में भूल-चूक नहीं हो, इसलिए शास्त्र कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष तो वही हैं कि जो निशदिन आत्मा के उपयोग में ही रहते हैं, उनकी वाणी अनुभव गम्य होती है। उन्हें कोई अतरंग स्पृहा नहीं होती, गर्व या गारवता (सांसारिक सुखों में डूबे रहना) नहीं होती। संसार की किसी चीज़ के वे भिखारी नहीं होते। मान, विषय, लक्ष्मी या शिष्य के भी भिखारी नहीं होते हैं। संपूर्णतया अयाचक पद की प्राप्ति के बाद ही ज्ञान-प्रकाश प्रकट होता है। जो पूर्णरूप से तरण तारणहार हुए हों, वे ही दूसरों को तारते हैं।
ज्ञानी पुरुष में तो कई उच्च सांयोगिक प्रमाण एकत्र हुए होते हैं, उच्च नामकर्म होता है, यशकर्म होता है। कुछ किए बगैर ही कार्य सिद्धि का यश अनायास ही उन्हें मिल जाता है। उनकी वाणी मनोहारी होती है। लोकपज्य पद होता है और ऐसे तो अनेकों गुण हों, तब ज्ञानी पुरुष प्रकट होते हैं।
ज्ञानी एक ओर सर्वज्ञ होते हैं, तो दूसरी ओर अबुध भी होते हैं, तनिक भी बुद्धि नहीं होती। बुद्धि प्रकाश पूर्णरूप से अस्त हो, तब सर्वज्ञ पद बाजे गाजे के साथ पुष्पमाला लेकर सामने से प्रकट होता है। ऐसा नियम ही है कि जो अबुध होता है वही सर्वज्ञ होता है।
ज्ञानी की वाणी, वर्तन और विनय मनोहारी होते हैं। उनकी वाणी, वर्तन और विनय तो कहीं देखने में नहीं आएँ ऐसे अनुपम होते हैं। संपूर्ण स्यादवाद वाणी कि जिससे किसी भी जीव के दृष्टिबिन्दु को जरा-सी भी ठेस न लगे ऐसी होती है। उनके वचन हृदय में उतर जाते हैं और
ज्ञानी पुरुष को पुस्तक नहीं पढ़नी होती, माला नहीं फेरनी पड़ती, वहाँ पर भक्त और भगवान का भेद नहीं होता। भगवान शब्द तो विशेषण