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________________ उनकी वीतरागता पहचान लेते थे। ज्ञानी पुरुष एक क्षण के लिए भी वीतरागता से परे नहीं होते हैं। ज्ञानी पुरुष की पहचान उनके गुणों से हो सकती है, पर आम आदमी के लिए उनके गुणों को पहचानना कठिन कार्य है। ज्ञानी पुरुष में १००८ गुण होते हैं, जिनमें प्रधान चार गुण ऐसे होते हैं, जो अन्य किसी को प्राप्त नहीं होते। जलने की संभावना हो वहाँ प्रथम तो हाथ ही नहीं डालते और भूल से यदि डाल दिया तो तुरंत हटा लेते हैं। देह भी सहज स्वभावी होती है। बाकी अंदरूनी ज्ञान स्थिरता गज़ब की होती है। किसी भी संयोग में अंदर का एक भी परमाणु विचलित नहीं हो, उसे असली स्थिरता कहते हैं। अंदर में जरा भी दख़ल नहीं हो, जरा-सी जलन नहीं हो उसी का नाम स्थिरता। बाहरी जलन तो देह के स्वभाविक गुणों का परिणाम होती है। उसका आंतररिक परिणिती से कोई संबंध नहीं है। ज्ञानी में अपार करुणा होती है, करुणा के सागर होते हैं। उनमें दया का अंश तक नहीं होता। दया तो अहंकारी गुण, द्वंद्वगुण है। दया के प्रतिपक्ष में निर्दयता कहीं किसी कोने में पड़ी ही होती है। वह तो निकले तब पता चलता है। ज्ञानी द्वंद्वातीत होते हैं। ज्ञानी की आँखों में से निरंतर अमृतवर्षा होती रहती है। इस पेट्रोल की अग्नि में धूं-धूं करके जल रहे संसार के सारे जीवों को कैसे स्थायी ठंडक पहुचाऊँ यही भावना उनके दिल में निरंतर बहा करती है। १) ज्ञानी में सूर्य जैसा प्रताप होता है। अत्यंत प्रतापी पुरुष होते हैं। प्रताप उनकी आँखों में ही झलकता है। यह प्रताप तो वे जब दिखाएँ तब ही पता चलता है। २) उनमें चंद्रमा जैसी सौम्यता होती है। उनकी सौम्यता ऐसी होती है कि उसकी ठंडक के कारण किसी को भी ज्ञानी के पास से हटने को मन ही नहीं करता। उनकी यह सौम्यता तो सूर्य के ताप को भी ठंडा करने की क्षमता रखती है। कैसा भी आगबबूला हुआ मनुष्य आए, परंतु उनकी आँखों की सौम्यता देखकर बर्फ की तरह ठंडा हो जाता है। प्रताप और सौम्यता दोनों एक साथ केवल ज्ञानी में ही देखने को मिलते हैं। अन्यथा कुछ लोगों में अकेला प्रताप होता है, तो सौम्यता नहीं होती और सौम्यता होती है, तो प्रताप नहीं होता। पूर्ण ज्ञानी की एक आँख में प्रताप और दूसरी आँख में सौम्यता होती है। ३) सागर जैसी गंभीरता होती है। जिस किसी ने जो कुछ दिया उसे अपने में समा लेते हैं और ऊपर से आशीर्वाद देते हैं। ४) उनकी स्थिरता, अडिगता तो मेरु पर्वत जैसी होती है। एक भी बाह्य संयोग उनकी आंतरिक स्थिरता को हिला नहीं सकता। ऐसी अडिगता और संगी चेतना में बड़ा अंतर है। यदि कोई दीये की ज्योत पर, बिना हिलाए, हाथ रखता है तो वह स्थिरता नहीं कहलाती। वह तो हठाग्रह है। अहंकार है। ज्ञानी संपूर्ण रूप से निरहंकारी होते हैं, सहज होते हैं। देह के असर से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता। ज्ञानी तो, जहाँ ११ ज्ञानी में शिशु समान निर्दोषता होती है। शिशु में नासमझी की निर्दोषता होती है, जब कि ज्ञानी संपूर्ण समझदारी के शिखर पर रहकर भी निर्दोष होते हैं। वे खुद, दृष्टि निर्दोष करके, स्वयं निर्दोष हुए होते हैं और सारे संसार को निर्दोष ही देखते हैं। आड़ापन तो नाममात्र को नहीं होता, ज्ञानी में। आड़ापन, अहंकार का प्रत्यक्ष गुण है। मोक्ष की गली बहुत संकड़ी है। उसमें आड़े रहकर जा पाना संभव नहीं है। सीधा होकर चलने पर ही उस पार जा सकें, ऐसा है। आड़ापन तो मोक्षमार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है। ज्ञानी की सरलता तो संसार की सभी ऊँचाईयों को छूकर ऊपर उठी हुई होती है। संपूर्ण निरहंकारी पद पर विराजमान होने के कारण जैसा कहें वे वैसा करने को तैयार होते हैं। कोई कहे, 'इस कुर्सी से उतर जाइए।' तो वे कहेंगे, 'चल भैया ऐसा करता हूँ।' कोई चाहे कैसी भी शरारत करे, पर ज्ञानी उसका प्रतिभाव नहीं देते। ज्ञानी के साथ कोई शरारत करे, तब ही पता चले कि उनमें कितनी वीतरागता है! शरारत करने पर नाग की तरह फन फैलाए, तो समझना १२
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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