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________________ आप्तवाणी-१ २२९ २३० आप्तवाणी-१ सकें ऐसा क्रोध कहते हैं। इस स्टेज पर पहुँचें, तो व्यवहार बहुत ही सुंदर हो जाता है। दूसरे प्रकार का क्रोध जो मोड़ा नहीं जा सकता। लाख प्रयत्नों के बावजूद पटाखा फूटे बगैर रहता ही नहीं। वह मोड़ा नहीं जा सके ऐसा अनिवार्य क्रोध। यह क्रोध खुद का भी अहित करता है और सामनेवाले का भी अहित करता है। क्रोध-मान की अपेक्षा कपट-लोभ की गाँठें भारी होती हैं। वे जल्दी नहीं छूटतीं। लोभ को गुनहगार क्यों कहा है? लोभ किया मतलब दूसरों का लूट लेने का विचार किया। बांध के पानी के सभी नल एक आदमी अपने लिए खोल दें, तो दूसरों को पानी मिलेगा क्या? कपट जब कि मानी को झिड़कें, तो वह हँसता नहीं है, तुरंत ही उसका क्रोध भड़क जाता है। पर लोभी को क्रोध नहीं आता। भगवान ने कहा कि क्रोध और मान के कारण लोग दुःखी होते हैं। मान के कारण तिरस्कार होता है। मान प्रकट तिरस्कार करता है। क्रोध जलता है और जलाता है। उसका उपाय लोग भगवान के वाक्य सुनकर करने गए। क्रोध नहीं करते, मान नहीं करते, इसलिए त्रियोग साधना करने लगे। त्रियोग साधना से क्रोध-मान कुछ कम हुए, परंतु बुद्धि का प्रकाश बढ़ गया। बुद्धि का प्रकाश बढ़ने से लोभ का रक्षण करने के लिए कपट बढ़ाया। क्रोध और मान भोले होते हैं, इसलिए कभी कोई यह बतानेवाला मिल भी जाता है, जब कि लोभ और कपट तो ऐसे हैं कि खुद मालिक तक को भी पता नहीं चलता। वे तो आने के बाद निकलने का नाम तक नहीं लेते। लोभी कब क्रोध करता है? जब बड़े से बड़े लोभ का हनन होता हो और कपट भी काम नहीं करता, तब अंत में लोभी क्रोध का सहारा लेता है। जन्मा तब से ही लोभी के लोभ की डोर टटती ही नहीं है। क्षण भर के लिए भी उसका लोभ नहीं छूटता। निरंतर उसकी जागति बस लोभ में ही होती है। मानी तो बाहर निकले, तो मान और मान में ही रहता है। रास्ते में भी जहाँ जाए वहाँ, मान में और लौटे तब भी मान में ही। पर यदि कोई अपमान करे, तो वहाँ वह क्रोध करता है। मोक्ष मार्ग से कौन भटकाता है? क्रोध-मान-माया-लोभ । लोभ का रक्षण करने के लिए कपट है, इसलिए कपडा बेचते समय एक उँगली कपड़ा बचा लेता है। मान के रक्षण के लिए क्रोध है। इन चारों के आधार पर लोग जी रहे हैं। क्रोध-मान-माया-लोभ दो प्रकार के हैं : एक मोड़े जा सकें ऐसेनिवार्य। दूसरे मोड़े नहीं जा सकें ऐसे-अनिवार्य। जैसे कि किसी पर क्रोध आया हो, तो उसे अंदर ही अंदर मोड़ लें और शांत कर सकें, उसे मोड़ कपट अर्थात् जैसा है वैसा नहीं बोलना, वह। मन-वचन और काया तीनों को स्पर्श करता है। स्त्री जाति में कपट और मोह के परमाण विशेष होते हैं। पुरुष जाति में क्रोध और मान के परमाणु विशेष होते हैं। यदि कपट और मोह के परमाणु विशेष खिंचे, तो दूसरा जन्म स्त्री के रूप में आता है। क्रोध व मान के परमाणु विशेष खिंचे, तो दूसरा जन्म पुरुष के रूप में आता हैं। स्त्री जाति भय के कारण कपट करती है। उससे बहुत आवरण आते हैं। मोह से मूर्छा बढ़ती है। पुरुषों में मान अधिक होता है। मान से जागृति बढ़ती है। जैसे-जैसे कपट बढ़ता है, वैसे-वैसे मोह बढ़ता जाता क्रोध-मान-माया-लोभ की खुराक क्रोध-मान-माया-लोभ निरंतर खुद का ही चुराकर खाते हैं, पर लोगो की समझ में नहीं आता है। इन चारों को यदि तीन साल भूखा रखें, तो वे भाग जाएँ। मगर जिस खुराक से वे जीवित हैं वह खुराक क्या है, यदि वह नहीं जानते, तो वे भूखे कैसे मरेंगे? वह नहीं समझने
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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