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________________ आप्तवाणी-१ २२७ २२८ आप्तवाणी-१ इससे छूटना चाहता है, तो जितने बंधन 'मेरी, मेरी' के बांधे, उतने ही 'नहीं है मेरी, नहीं है मेरी' बोलकर खोल दे, तभी ममता से तेरा छुटकारा होगा। मेरी बात वह अच्छी तरह समझ गया और उसने तो 'नहीं है मेरी', 'नहीं है मेरी' का हैन्डल ऐसा घुमाया, ऐसा घुमाया कि सारी लपेटें खुल गईं उसकी। फिर पंद्रह दिन के बाद आकर आँखों में आनंदाश्रु के साथ पाँव छूकर कहने लगा, 'दादाजी, आपने मुझे बचा लिया, मेरी सारी ममता के बंधनों को खोलने का मार्ग दिखलाया, उससे मैं छूट गया। मेरी इस सत्य घटना को सुनकर, कितनों के बंधन खुल गए हैं। कहलाता है कि जब आत्मा को जलन हो, जलन हो तब आँच लगती है और दूसरों को भी उसका असर हो जाता है, वह कढ़न कहलाती है। और बैचेनी में अंदर अकेला ही जलता है, पर तांता तो दोनों में ही रहता है। जब कि उग्रता अलग वस्तु है। क्रोध में तांता हो उसे ही क्रोध कहते हैं। जैसे कि रात को पति-पत्नी दोनों खूब झगड़े, जबरदस्त क्रोध धधक उठा, सारी रात दोनों जागते पड़े रहे। सबेरे पत्नी चाय का कप थोड़ा पटककर रखे, तो पति समझ जाता है कि अभी तांता है। यह क्रोध कहलाता है। फिर तांता चाहे कितने भी समय का हो। अरे! कितनों को तो सारी जिंदगी का होता है। बाप, बेटे का मुँह नहीं देखता और बेटा, बाप का मुँह नहीं देखता। क्रोध का तांता तो, बिगड़े हुए मुँह पर से पता चल जाता है। क्रोध वर्ल्ड में कोई मनुष्य क्रोध को जीत नहीं सकता। क्रोध के दो प्रकार हैं, एक कुढ़न के रूप में और दसरा बेचैनी के रूप में। जो लोग क्रोध को जीतते हैं, वे कुढ़न के रूप में जीतते हैं। इसमें ऐसा होता है कि एक को दबाने पर दूसरा बढ़ जाता है। फिर यदि ऐसा कहे कि मैंने क्रोध जीत लिया है तो मान बढ़ जाता है। वास्तव में क्रोध पूर्ण रूप से नहीं जीता जाता है। दृश्यमान क्रोध को जीतता है। क्रोध तो अग्नि जैसा है, खुद भी जले और सामनेवाले को भी जलाए। जहाँ क्रोध आता हो और क्रोध न करे, वह शुभ चारित्र कहलाता है। शुभ चारित्र से संसार सुधरता है, जब कि मोक्ष तो शुद्ध चारित्र से ही होता है। _ 'क्रोध' उग्र परमाणु हैं। 'अनार' के पटाखे में अंदर बारूद भरा होता है, इसलिए फूटने पर आग पकड़ता है और अंदर का बारूद पूरा हो जाने पर अपने आप शांत हो जाता है। ऐसा ही क्रोध के संबंध में है। क्रोध उग्र परमाणु हैं, इसलिए जब 'व्यवस्थित' के नियम के आधार पर फूटता है, तब सब तरफ से जलता है। हम उग्रता को क्रोध नहीं कहते हैं। क्रोध में तांता हो, वही क्रोध कहलाता है। क्रोध कब __लोभ क्रोध-मान-माया-लोभ में लोभ का तांता बहुत भारी होता है। लोभ अर्थात् कुछ इच्छा रखनी। लोभी को कोई झिड़के, तब भी वह हँसता है। ज्ञानी भी हँसते हैं (ज्ञान में रहते हैं इसलिए), पर लोभी लोभ की गाँठ अधिक बड़ी करके हँसता है। सेठ दुकान पर बैठे हों और ग्राहक लड़ने आए कि मेरे बेटे से आपने छल करके आठ आने ज्यादा ले लिए। इस पर सेठ गद्दी-तकिये पर बैठे हुए हँसता रहता है। उस पर कुछ भी असर नहीं होता। राह चलते लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। वे सेठ और ग्राहक की दशा देखते हैं। सेठ को शांत, धीर गंभीर और ग्राहक को बदहाल, चीखता-चिल्लाता देखते हैं तभ भीड़ में लोग भी कहते हैं कि इस आदमी का दिमाग खिसक गया है। इसलिए उसे कहते हैं कि चुपचाप घर जा, इतने बड़े सेठ ऐसा करते होंगे? और सेठ मूछ में हँस रहा होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसका लोभ उसे मन में कहता है कि यह पगला शोर मचाकर चला जाएगा, उसमें मेरा क्या जानेवाला है? मेरी जेब में तो अठन्नी आ गई न? लोभी वास्तव में ज्ञानी जैसा ही दिखता है।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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