________________
आप्तवाणी - १
मुंबई की लोकल ट्रेन में शाम के समय अच्छी भीड़ होती है, इधर से और उधर से धक्के मिल रहे हों, तब मन-बुद्धि- चित्त और अहंकार, सभी भीड़ में बुरे फँसे होते हैं, सभी एन्गेज्ड होते हैं। 'स्वयं को ' (शुद्धात्मा को) उस समय देखने और जानने का सही मज़ा आता है। तब वह अकेला पड़ जाता है और तभी उसकी सही स्वतंत्रता मिलती है। जितनी भीड़ अधिक और ज्ञेय अधिक, उतनी 'ज्ञाता' की 'ज्ञानशक्ति' भी गज़ब की खिलती है। असल में भीड़ में हो, तब दूसरी ओर 'ज्ञाता' भी सही मानों में खिलता है, संपूर्ण प्रकाश में आता है। जितना स्कोप बढ़ा उतनी शक्ति बढ़ी। कुछ तो सब छोड़कर जंगल में जाते हैं। मगर सही मज़ा भीड़ में ही है। बाहर भीड़, भीतर भीड़, सब जगह भीड़ हो, तब शुद्धात्मा सही मानों में अकेला पड़ता है। तब वह कहीं पर ज़रा-सा भी तन्मयाकार नहीं होता। जो कि ऐसा, स्वरूपज्ञान की प्राप्ति के बाद ही संभव है।
१२९
ऐच्छिक और अनिवार्य
संसार कैसे चल रहा है, यह समझ में आए ऐसा नहीं है। इस संसार में सभी अनिवार्य है और उन्हें ऐच्छिक मानकर चलते हैं, इसलिए फँसे हैं। जन्मे - वह अनिवार्य, पढ़ाई की वह अनिवार्य, शादी की वह अनिवार्य और मरेंगे - वह भी अनिवार्य । एक अंश भी ऐच्छिक का, अरे ! एक समय भी ऐच्छिक का किसी ने जाना हो, ऐसा मनुष्य वर्ल्ड में दुर्लभ है। खुद के पुरुष होने के बाद ही उसकी स्वतंत्र मरजी उत्पन्न होती है। और तभी से उसे अनिवार्यतावाले संसार में ऐच्छिकता उत्पन्न होती है। पुरुष होने के पश्चात् ही पुरुषार्थ हो सकता है। जन्म से लेकर अर्थी तक सभी अनिवार्य ही हैं। अरे! अनंत जन्मों तक अनिवार्य में ही भटके हो और उसमें ही भटकना है, यदि छुटकारा करानेवाले ज्ञानी पुरुष नहीं मिलें तो!
बच्चों को बड़े करना, पढ़ाना, शादी करवाना, यह बाप का फ़र्ज़ है । अनिवार्य अर्थात् डयूटी बाउन्ड और ऐच्छिक अर्थात् विल बाउन्ड |
आप्तवाणी - १
लोग अनिवार्य को ऐच्छिक मानते हैं। अरे, तेरी विलिंगनेस (सहमति ) जिस ओर है, उस ओर संसार बंधन हो रहा है। अनिवार्य जो है, उसमें ऐच्छिक का चित्रण कर रहे हैं। जिसे परिवर्तित किया जा सके, वह विपावर है । कई लड़के बाप से जबान लड़ाते हैं, तब बाप गुस्से होता है और सब कह सुनाता है, 'मैंने तुझे पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया।' अरे, उसमें तूने नया क्या किया? वह तो अनिवार्य था ! तेरा जो हो, वह कह दे न?
१३०
देवगति में क्रेडिट भुगतने जाना पड़े, वह भी अनिवार्य है। उसी प्रकार डेबिट भुगतना भी अनिवार्य है। आप सर्विस करते हैं, वह ऐच्छिक है? नहीं अनिवार्य है। आपने अपनी कोई इच्छित वस्तु की हो ऐसा लगता है आपको? यह तो जो कुछ होता है, वह यदि इच्छा के अनुरूप होता है, तो मान लेते हैं कि ऐच्छिक है और इच्छा के प्रतिरूप होता है, तो कहते हैं कि अनिवार्य है। अरे! दोनों ही अनिवार्य हैं। इच्छा भी अनिवार्य है।
ये सारी क्रियाएँ रोकी जा सकें, ऐसी नहीं हैं। सभी अनिवार्य हैं। और निरंतर बंधन रूप हैं। मरज़ी से किया, नामरज़ी से किया वह तो कल्पना है। ऐच्छिक जो है, उसकी समझ नहीं हैं। अनिवार्य में सारा का सारा कर्त्तापन उड़ जाता है। जब कि ऐच्छिक में खुद कर्त्ता बन बैठता है । ऐच्छिक मानना इगोइज़म ही है। कमाई हो, तो कहता है कि मैंने कमाया और घाटा हो, तो कहता है 'भगवान ने किया।' यही दर्शाता है कि यह विरोधाभास है, ईगोइज़म है। संसार को ऐच्छिक मानते हैं, इसलिए पाप-पुण्य बाँधते हैं। यदि अनिवार्य मानें, तो कुछ भी नहीं
बँध
शादी रचाई वह अनिवार्य है या ऐच्छिक ?
प्रश्नकर्ता: पहले ऐच्छिक लगता था, अब अनिवार्य लगता है।
दादाश्री : यह आपका नाम है, वह अनिवार्य है या ऐच्छिक है? अनिवार्य ही है, क्योंकि बचपन से ही दिया गया है। उसी नाम से चलाना पड़ता है। पसंद हो या नापसंद हो पर उससे छुटकारा नहीं है। यह तो