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आप्तवाणी-१
सुपरफ्लुअस ही रहने जैसा है।"
संयोग
इस संसार में संयोग और आत्मा दो ही हैं। संयोगों के साथ एकता हो, तो संसार और संयोगों का ज्ञाता हुआ, तो भगवान।
इस संसार में निरंतर परिवर्तन होते ही रहते हैं, क्योंकि वह परिवर्तन स्वभावी है। संयोग हैं, वे वियोग स्वभावी हैं। संयोग तो परिवूतत होते ही रहेंगे।
जगत सारा संयोग-वियोग से ही चल रहा है। इस जगत् का कर्ता कौन? कोई बाप भी कर्ता नहीं है। सांयोगिक प्रमाणों से ही सब चलता रहता है। मात्र साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स से ही चला करता
वस्तुओं का सम्मेलन जैसा होता है वैसा दिखाई देता है, उसमें किसी को कुछ करना पड़ता नहीं है। यह इन्द्रधनुष दिखाई देता है, उसमें रंग भरने कौन गया? वे तो सांयोगिक प्रमाण (साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स) आ मिले, वस्तुओं का सम्मेलन हुआ, तब इन्द्रधनुष दिखाई दिया। सांयोगिक प्रमाणों में, सूर्य का होना, बादलों का होना, देखनेवाला होना आदि अनेकों प्रमाण इकट्ठे हों, तब इन्द्रधनुष दिखाई देता है। उसमें यदि सूर्य अहंकार करे कि मैं नहीं होता, तो नहीं हो पाता, तो ऐसा अहंकार गलत है। क्योंकि बादल नहीं होते, तब भी नहीं हो पाता और यदि बादल अहंकार करें कि हम नहीं होते, तो मेघधनुष होता ही नहीं, तो वह भी गलत है। यह तो वस्तुओं का सम्मेलन हो, तब ही रूपक में आता है। सम्मेलन बिखर जाए, तब विसर्जन होता है। संयोगों का वियोग होने के बाद फिर इन्द्रधनुष नहीं दिखता।
संयोग मात्र वियोगी स्वभाव के हैं और फिर 'व्यवस्थित' के हाथ में हैं। संयोग कब, किस भाव से मिलेंगे, वह 'व्यवस्थित' है। इसलिए
झंझट छोड़ न? यह दुनिया कैसे पैदा हुई? मात्र साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स से। बट नैचुरल है। मुख्य वस्तु 'व्यवस्थित' है। संयोग-वियोग के अधीन रहकर 'व्यवस्थित' चलाता है। कितने ही संयोग जमा हों, तब एविडन्स खड़ा होता है। कितने ही संयोग आ मिलें, तब नींद आती है और कितने ही संयोग आ मिलें, तब जाग सकते हैं। 'व्यवस्थित' इतना अच्छा है कि संयोग मिला ही देता है।
___जलप्रपात होता हो, वहाँ बुलबुले दिखाई देते हैं, वे कैसे भाँतिभाँति के होते हैं? कोई आधा गोल, कोई छोटा होता है, बड़ा होता है, उन्हें किस ने बनाया? किस ने रचा? वे तो अपने आप ही बने। हवा, जोरों से गिरता जल, लहरें आदि अनेक संयोग जमा हों, तब बुलबुले बनते हैं। जिसमें हवा ज्यादा भर गई, वह बड़ा बुलबुला और कम भर गई, वह छोटा बुलबुला होता है। वैसे ही ये मनुष्य भी सारे बुलबुले ही हैं न! मात्र संयोगों से ही उत्पन्न होते हैं।
एक ही तरह के संयोग, एक को पसंद आते हैं और दूसरे को पसंद नहीं आते। प्रत्येक संयोग का ऐसा है। एक को पसंद आते हैं और दूसरे को पसंद नहीं आते। जो अच्छा लगे वह जमा किया, उसका कब वियोग होगा, इसका क्या ठिकाना? फिर ऐसा है कि एक संयोग आता है और दूसरा आता है, फिर तीसरा आता है। पर एक आया उसका वियोग हए बगैर दूसरा संयोग नहीं आता।
संयोग दो तरह के, मनचाहे और अनचाहे। प्रिय-अप्रिय। अप्रिय संयोग, अधर्म का फल, पाप का फल है और प्रिय संयोग, धर्म का, पुण्य का फल है और स्वधर्म का फल मोक्ष है।
संयोग मात्र दुःखदायी हैं, फिर चाहे पसंद के हों या नापसंद हों। मन चाहे का वियोग होना भी दुःख और अनचाहे का संयोग होना भी दु:ख, और नियम से दोनों का ही संयोग-वियोग, वियोग-संयोग होता ही है।
भगवान ने कहा है कि सुसंयोग हैं और कुसंयोग हैं। जब कि