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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
ज्वाला न भड़के, तो समझना कि सारे शास्त्र पढ़ लिए। गुरु-शिष्य में भी क्लेश हो जाता है!
दिन शीशे में चेहरा देखते रहते हैं, कंघी करते हैं, पफ-पाउडर लगाते हैं, इसलिए ये शीशे भी सस्ते हो गए हैं। वर्ना शीशा अलौकिक वस्तु है। कैसी है पुद्गल की करामात ! चिड़िया शीशे के सामने बैठती है, तो उसका ज्ञान नहीं बदलता, पर उसकी बिलीफ़, मान्यता बदलती है। उसे अंदर चिड़िया है, ऐसी बिलीफ़ बैठती है इसलिए चोंच मारती रहती है। ऐसा ही इस संसार में है। एक स्पंदन उछाला, उसके सामने कितने ही स्पंदन उछलते हैं। ज्ञान बदलता नहीं है, बिलीफ़ बदलती है। बिलीफ़ हर क्षण बदलती है। यदि ज्ञान बदलता, तो आत्मा ही नहीं रहता। क्योंकि आत्मा और ज्ञान दोनों एक दूसरे से अलग वस्तु नहीं है। आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान स्वरूप है। जैसे वस्तु और वस्तु के गण साथ ही रहते हैं और अलग नहीं होते, वैसे। यह तो ऐसा है कि बिलीफ़ से कल्पना करें, वैसा हो जाता है।
क्लेश 'क्लेश के वातावरण में जिसे ज़रा भी क्लेश नहीं होता, वही मोक्ष
ज्ञानी पुरुष मिलने के बाद चाहे कैसा भी क्लेश का वातावरण हो, भीतर क्लेश खड़ा ही नहीं होता न? यह 'दादा' ने महात्माओं को कैसा ज्ञान दिया है? कभी क्लेश नहीं हो और वीतरागता जैसा सुख रहे। क्लेश खत्म हुआ, उसका नाम ही मुक्ति। यहीं मुक्ति हो गई।
क्लेश में तो क्या होता है? जी जलता ही रहता है। बुझाने पर भी बुझता नहीं। जी कोई जलाने के लिए नहीं है। कपड़ा जल रहा हो, तो जलने देना, पर जी मत जलाना। यह तो सारा दिन, रात-दिन क्लेश करते ही रहते हैं। थोडी देर मोह में डूब जाते हैं, और फिर क्लेश से जलते रहते हैं। सारा संसार क्लेश में ही डूबा है। आज तो सभी 'क्लेशवासी' ही हैं। वह तो, मूर्छा के कारण भूल जाते हैं। बाकी क्लेश मिटता नहीं और क्लेश जाए, तो मुक्ति!
आज तो सर्वत्र क्लेश की तरंगे फैल गई हैं। खाते समय भी क्लेश और यदि ज्यादा क्लेश हो जाए, तो खटमल मारने की दवाई ले आते हैं। आजकल तो जब सहन नहीं होता तब मए, खटमल मारने की दवाई पी लेते हैं। पर क्या इस से समस्या का अंत हो गया? यह तो आगे धकेला, जो कि कई गुना होकर वापिस आएगा और उसे भुगतना पड़ेगा। उसके बजाय किसी तरह यह समय बिता दो न? वर्ना यह तो निरी नासमझी ही है।
क्लेशमय वातावरण तो आता ही रहता है। धूप नहीं निकलती? दरवाजे हवा से फट-फट नहीं होते? ऐसा तो होता रहता है। दरवाजे टकराते हों, तो थोड़े दूर खड़े रहें। यदि क्लेश का वातावरण नहीं होता, तो मुक्ति का स्वाद कैसे लेते? 'दादा' का मोक्ष ऐसा है कि चारों ओर क्लेश का वातावरण हो, फिर भी मुक्ति रहे!
भगवान ने किसी चीज़ को बंधन नहीं कहा है। खाते हैं, पीते हैं वह प्रकृति है, पर आत्मा का क्लेश मिटा, वही मोक्ष। बाकी खिचड़ी हो या कढ़ी, उसमें कुछ बदलनेवाला नहीं है।
चाहे किसी भी समय, चाहे कैसा भी वातावरण हो फिर भी क्लेश न हो, तो तूने सारे शास्त्र पढ़ लिए। बाहर कैसा भी वातावरण हो और उसमें वमन होने जैसा भी लगे और मुँह पर हाथ रखकर उसे दबाने का प्रयत्न करके खुद को स्वच्छ दिखाए, वैसे ही भीतर क्लेश होने पर भी
ये दु:ख आए कहाँ से? दुखियारों की शरण ली, इसलिए ही। सुखी मनुष्य की शरण ली होती, तो दु:ख आते ही कहाँ से? 'दादा' तो संपूर्ण सुखी हैं, इसलिए उनकी शरण में आने के बाद कोई कठिनाई ही क्यों आए? जो अवसरवादी हैं और जिन्हें कोई न कोई मतलब है, वे दुखियारे हैं। ऐसों की शरण ली, तो फिर दु:खी ही होंगे न? जो दुखियारा है, खुद अपनी दरिद्रता दूर नहीं कर सका है, तो वह हमारी क्या दूर करेगा। जो पूर्ण स्वरूप हैं, अनंत सुख के धाम हैं, जिन्हें किसी