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________________ आप्तवाणी-१ २०९ २१० आप्तवाणी-१ भी तरह का कोई स्वार्थ नहीं हैं, जिन्हें कोई इच्छा नहीं रही, उनके पास जाकर उनकी शरण लेने पर ही पूर्ण हो सकते है। क्लेश जब बढ़ जाए, तो उसे कलह कहते हैं। इसलिए कलह करनेवाले के साथ लोग मैत्रीभाव कैसे रख सकते हैं? यह तो खट्टी छाछ को फीकी करने जैसा है, इससे तो वे खुद भी खट्टे हो जाएंगे। इनसे तो दूर रहें, तो अच्छा या फिर ज्ञानी हुए हों, तो अच्छा। ज्ञानी हों वे तो जानते हैं कि ऐसा रिकॉर्ड तो चारों ओर बजता है। भीतर आत्मा शुद्ध है न? पर जेल में आ फँसे हैं, तो क्या हो? क्लेश का जंजाल तो कैसा! घर के सारे लोग एक के ऊपर टूट पड़ते हैं। फिर घर में ही युद्ध ! फिर क्या दशा हो? यदि मित्र ने कहा हो कि घर पर भोजन को आना, तब वह बेचारा कहेगा, 'नहीं भैया, मैं नहीं आ सकता। यहाँ घर में फिर क्लेश होगा।' बेचारा शांति से सो तक नहीं पाता। क्षण-क्षण क्लेश, वह भी अनिवार्य रूप से भुगतना पड़ता है। घर में ही, वहीं उसी क्लेशमय वातावरण में रहना पड़ता है। कर्मों का कैसा उदय! वे भी फिर अपने खुद के ही सगे संबंधियों के साथ! वेदना से मुक्त नहीं हो सकें, ऐसा यह संसार है। एक भाई मेरे पास आए थे। मुझसे कहा, 'दादाजी मैंने विवाह तो किया है, पर मुझे मेरी बीवी पसंद नहीं है।' दादाश्री : क्यों भाई, पसंद नहीं आने का कारण क्या है? प्रश्नकर्ता : वह थोड़ी लंगड़ी है, लंगड़ाती है। दादाश्री : तेरी बीवी को तू पसंद है या नहीं? प्रश्नकर्ता : दादाजी, मैं तो पसंद आऊँ, वैसा ही हूँ न? खूबसूरत हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ, कमाता हूँ और कोई शारीरिक त्रुटि भी नहीं है। दादाश्री : फिर तो भूल तेरी ही है। तूने ऐसी कौन-सी भूल की थी कि तुझे लंगड़ी पत्नी मिली और उसने कैसे अच्छे पुण्य किए थे कि उसे तेरे जैसा अच्छा पति मिला? अरे! यह सब अपने ही किए हुए कर्म, अपने सामने आते हैं, उसमें सामनेवाले का दोष क्यों देखता है? जा, तेरी भूल भुगत ले और दोबारा ऐसी भूल मत करना। वह समझ गया और उसकी लाइफ फ्रेक्चर होते-होते बच गई और सुधर गई। मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ भाग है, क्लेश को मिटाना। क्लेश मिट गया वही सबसे बड़ा सुख है। ज्ञान भले ही न हो पर घर में धरम-करम है. ऐसा कब कह सकते हैं? तब कहे, घर में चाहे जैसा वातावरण हो, खुद सहन कर ले और टकराव हो फिर भी क्लेश पैदा न करे, धमाका न करे, वही खानदानी कहलाता है। तब तक घर में भगवान का वास रहता है। जहाँ घर में क्लेश हो, वहाँ सबकुछ खतम हो जाएगा। भगवान का वास तो रहता ही नहीं और लक्ष्मीजी भी चली जाती हैं। जो धार्मिक परिवार हो, वह क्लेश होने नहीं देता और यदि साल में एकाध बार हो जाए, तो दरवाजे बंद कर लेता है और घर के अंदर ही दबा देता है। ऐसा क्लेश पुन: नहीं हो यही लक्ष्य में रखता है। संपूर्ण प्रामाणिकता, लेने से पहले वापस लौटाना है, ऐसी भावना आदि और लक्ष्मी के नियमों का पालन करें, तो लक्ष्मीजी राजी रहती हैं। बाकी, लक्ष्मीजी के कायदों का पालन नहीं करें और लक्ष्मीजी की पूजा करें, तो वह कैसे राजी हों? भगवान कहते हैं कि यह संसार कब तक है? तब कहे, मन क्लेशयुक्त रहे, तब तक। मन क्लेशरहित हुआ, तो मुक्ति। फिर जहाँ मन जाए वहाँ समाधान रहता है। यह छोटा बच्चा यहाँ हमारी वाणी सुनता है, तो उसे भी ठंडक लगती है। वह भी ठंडे पानी को ठंडा और उबले हुए पानी को उबला हुआ समझता है। घर में झगड़ा हो तब देखता है कि पापा ने मम्मी से ऐसा कहा और मम्मी ने पापा से ऐसा कहा। वह समझ होती है उसमें। इसलिए फिर मन ही मन सोचता है कि फलाँ का दोष है। मैं छोटा हूँ
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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