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________________ आप्तवाणी-१ १७१ १७२ आप्तवाणी-१ प्रश्नकर्ता : दादाजी, कंजूसी और किफ़ायत में कोई अंतर है क्या? दादाश्री : हाँ, बड़ा अंतर है। महीने के हज़ार रुपये कमाता हो, तो आठ सौ रुपये का खर्चा रखना और पाँच सौ आते हों, तो चार सौ का खर्च रखना, उसे कहते हैं किफ़ायती। जब कि कंजूस चार सौ के चार सौ ही खर्च करता है, फिर चाहे हज़ार आएँ या दो हजार आएँ। वह टैक्सी में नहीं जाता। मितव्ययता तो इकोनोमिक्स (अर्थशास्त्र) है। वह तो भविष्य की मुश्किलों को ध्यान में रखता है। कंजूस मनुष्य को देखकर दूसरों को चिढ़ होती है कि कंजूस है। मितव्ययी मनुष्य को देखकर चिढ़ नहीं होती। यद्यपि मितव्ययी और कंजूस दोनों रिलेटिव है। उड़ाऊ मनुष्य को मितव्ययी अच्छा नहीं लगता। यह सारा बवाल, संसार में भ्रांति की भाषा में है कि फ़िजूल खर्च नहीं होना चाहिए। पर मितव्ययी मनुष्य को चाहे जितना समझाएँ, फिर भी वह उसे छोड़ता नहीं है। और फ़िजूलखर्ची मनुष्य किफायत करने जाए, तो भी फ़िजूलखर्ची ही रहता है। फ़िजूलखर्ची या कंजूसी, यह सब सहज स्वभाव से है। चाहे जो करें पर उसमें बदलाव नहीं आता। सारे प्राकृत गुण सब सहज भाव से हैं। अंत में तो सभी में नोर्मेलिटी चाहिए। हमारी जेब में ये भाई पैसे रखते हैं, वे तो टैक्सी या गाड़ी में ही खर्च होते हैं। खर्च नहीं करना, ऐसा भी नहीं है और खर्च करना है, ऐसा भी नहीं है। ऐसा कुछ भी तय नहीं है। धन उड़ाने के लिए नहीं होता। जैसे संयोग आएँ, उस अनुसार खर्च होता है। ये दादाजी कँजूस हैं, मितव्ययी हैं और फ़िजूलखर्च भी हैं। पक्के फ़िजूलखर्च, फिर भी कम्प्लीट एडजस्टेबल हैं। दूसरों के लिए फ़िजूलखर्च और खुद के लिए मितव्ययी और उपदेश देने में कंजूस। इसलिए सामनेवाले को हमारा निपुण संचालन दिखाई देता है। हमारी इकॉनोमी एडजस्टेबल होती है, टॉपमोस्ट होती है। वैसे तो पानी का उपयोग करते हैं, वह भी, किफ़ायत से, एडजस्टमेन्ट लेकर उपयोग करते हैं। हमारे प्राकृत गुण सहज भाव से रहे होते हैं। विषय विषय को लेकर संसार में भारी नासमझी चल रही है। शास्त्र कहते हैं कि विषय विष है। कितने ही लोगों का भी कहना है कि विषय विष है, और वह मोक्ष में नहीं जाने देता। हम अकेले ही कहते हैं कि विषय विष नहीं है, पर विषय में निडरता विष है। इसलिए विषय से डरो। इन सारे विषयों में निडरता रखना ही विष है। निडर कब रहना चाहिए कि दो-तीन साँप आ रहे हों, उस समय आपके पैर नीचे हों, और यदि आपको डर नहीं लगता हो, तो पैर नीचे रखना और यदि डर लगता हो. तो पैर ऊपर कर लेना। मगर यदि आपको डर नहीं लगता हो और पैर ऊपर ही नहीं लेते हो, तो वह पूर्णज्ञानी, केवलज्ञानी की निशानी है। मगर जब तक पूर्ण नहीं हुए, तब तक आप खुद ही मारे डर के पैर ऊपर कर लेते हैं। इसलिए हम आपको विषयों में निडर रहने के लिए एक थर्मामीटर देते हैं। 'यदि साँप के सामने त् निडर रह सकता हो, तो विषय में निडर रहना और वहाँ यदि डर लगता हो, पैर ऊपर कर लेता हो. तो विषयों से भी डरते रहना।' विषयों में निडर हो ही नहीं सकते। भगवान महावीर भी विषयों से डरा करते थे और हम भी डरते हैं। विषयों में निडरता अर्थात् असावधानी। संसार कहता है कि विषय मोक्ष में जाने नहीं देते। अरे! ऐसा नहीं है, 'विषय' तो अंग्रेजी में 'सब्जेक्ट' कहलाता है। इस संसार में अनंत सब्जेक्ट्स हैं। यदि विषय ही मोक्ष में जाने में बाधक होते, तो कोई मोक्ष में जा ही नहीं पाया होता। पर भगवान महावीर मोक्ष में गए, और उन्हें विषय बाधक नहीं हुए, तो आपको ही क्यों बाधक होते हैं? विषय बाधा नहीं करते, आपका आडापन ही आपको मोक्ष में जाने में बाधा करता है। अनंत विषयों में भगवान निर्विषयी रहकर मोक्ष में गए! वास्तव में आत्मा खुद निर्विषयी है। मन-वचन-काया विषयी हैं। वे जो अलग हो जाएँ, तो मन-वचन-काया के अनंत विषयों में खुद 'शुद्धात्मा' निर्विषयी रहकर मोक्ष में जा सकता है।
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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