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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
मिलने नहीं देता। आड़ापन उसे फिंकवा देता है।
बीवी-बच्चों का, अरे! अपना खुद का भी जितना जतन नहीं किया, उससे अनेक गुना इस आड़ेपन का जतन किया है। इसलिए अनेक जन्मों से आड़ेपन के कारण ही भटक रहा है। आड़ापन अंधा बनाता है। सच्चा मार्ग सूझने नहीं देता। आड़ापन ही स्वच्छंदी बनाता है और स्वच्छंदता तो प्रत्यक्ष जहर समान ही है।
व्यवहार में यदि कोई आड़ा हुआ, तो कोई उसका भाव नहीं पूछता और यदि आड़ापन कम हो, तो उसको हर कोई पूछता है, लोगों में उसकी पूजा होती है। तब फिर मोक्षमार्ग में तो आडापन चलता होगा?
स्वच्छंदता अर्थात् बुद्धिभ्रम। इस जगत् में कोई दोषी है ही नहीं। स्वच्छंदता ही तेरा सबसे बड़ा दोष है।
भगवान ने मोक्षमार्ग पर जाने के लिए सुंदर पद्धतिवाला मिक्सचर बनाया था, जो उन्होंने सबको बताया था। उन्होंने जो फॉर्मूला दिया था, आज वह फॉर्मूला ही नष्ट हो गया है। किसी के भी पास नहीं रहा। आज हम आपको वही फॉर्मूला फिर से देते हैं।
उस मिक्सचर में २० % 'शास्त्रों' के, ७० % 'ज्ञानी का परम विनय' और १० % 'संसारी भावना' रखना और फिर पीना। तब लोग शास्त्र को ही पीते रहे, इसलिए बदहजमी हो गई। भगवान ने कहा था कि यह दवाई दिन में तीन बार हिलाकर पीना। इस पर कई तो, दिन में तीन बार हिलाते ही रहे। और कुछ तो 'हिलाकर पीना है, हिलाकर पीना है' ऐसा गाते ही रहे, बस गाते ही रहे!
यह किस के जैसा है? डॉक्टर की पुस्तक पढ़कर खुद दवाई बनाकर पीने जैसा है। वहाँ कोई खुद मिक्सचर बनाने नहीं जाता, मरने का डर लगता है। एक जन्म के मरण से बचने डॉक्टर को पूछे बगैर दवाई नहीं बनाते, और अनंत जन्मों का मरण बिगाड़ने के लिए महावीर के, वीतरागों के, शास्त्रों का खुद मिक्सचर बनाकर पी गए, इसलिए जहर हो गया है। भगवान ने इसे ही स्वच्छंद कहा है। अँधा छंद कहा है।
मोक्ष की गली अति सँकरी है। उसमें आड़ा चलने गया, तो फँस ही गया समझ। उसमें तो सीधा होकर ही चलना पड़ेगा, सरल होकर चलना पडेगा, तभी मोक्ष तक पहुँचना संभव है। साँप भी बिल में घुसने से पहले सीधा-सरल हो जाता है।
आड़ेपन से ही सारा संसार खड़ा है। आड़ेपन से ही मोक्ष अटका है। भगवान ने साधु होने से पहले सीधा होने को कहा है। चाहे कैसा भी साधुपन प्राप्त हुआ हो, यदि आड़ापन नहीं गया हो, तो वह किस काम का? आड़ापन तो भयंकर विकृत अहंकार है। यह आड़ापन तो कैसा है कि जब रियल सत्य सामने चलकर गले मिलने आए, तो भी उसे गले
केवलज्ञान होने तक आड़ापन होता है। आड़ेपन रूपी समंदर को पार करना है। हम आड़ेपन के इस पार खड़े हैं और जाना है उस पार। इस संसार में आड़ेपन के साथ आड़ापन रखने से समस्या नहीं सुलझेगी। आड़ापन सरलता से दूर होता है। साँप भी बिल में जाता है, तब आड़ाटेढ़ा होकर नहीं जाता, सीधा होकर बिल में घुसता है। मोक्ष में जाना हो, तो सरल होना पड़ेगा। गाँठे निकालकर अबुध होना पड़ेगा।
शंका
जैसे-जैसे निज कल्पना से, स्व-मति से शास्त्र पढ़ता है, वैसेवैसे आड़ापन बढ़ता जाता है। उससे आवरण उलटे बढ़े ! यदि पढ़ने से कोई प्रकाश प्राप्त हुआ, तो फिर अब भी ठोकरें क्यों लगती हैं? ठोकरें तो अँधेरे में लगती हैं। प्रकाश में कैसे लगें? यदि 'कुछ जाना', तो उससे एक भी चिंता कम हुई? उलटे यह सही है या वह सही इसकी उलझन बढ़ी, ज्यादा शंकित हुआ, और जहाँ शंका वहाँ अज्ञान। शंका के सामने आत्मा खड़ा नहीं रहता। ज्ञान तो वह, कि जो संपूर्ण निःशंक बनाए।
भीतर एक भी परमाणु नहीं हिले उसका नाम ज्ञान । शंका तो आत्मा की शत्रु है। पूरा आत्मा फिंकवा दे। इसलिए जहाँ शंका पैदा हो, उसे