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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
मन तो दैवी होना चाहिए। दैवी मन यानी अपकार पर उपकार करे वह । सामनेवाला हमारा हजम कर गया हो और ऊपर से हमें मूर्ख कहता हो, पर जब वह संयोगों का शिकार हो जाए तब दैवी मनवाला ही उसकी मदद करता है। दैवी मनवाला देवगति बाँधता है।
पर उन्हें भी मन जब आड़ापन दिखाता है तब खुद को मालूम हो जाता है कि मन वश में नहीं आया। योगवालों के साथ जब कोई छेड़खानी करे, तब पता चले कि मन कितना वश में है। योग करने की उनकी गाँठ है। वह तो प्राकृत स्वभाव से योग होता है। तब वे ऐसा समझते हैं कि मैंने योग किया, मैंने मन को वश में किया।
मन ज्ञान के वश होता है। यानी कि ज्ञानी, 'स्वरूप ज्ञान से' ग्रंथियाँ पिघला देते हैं और निग्रंथ पद को पाते हैं।
आपका मन ही आपकी अमीरी की फोटो है। मन को पहचान लो। उसका स्वभाव कैसा है, यह पूर्ण रूप से जान लो।
वणिक बुद्धि क्या करती है? खुद को ठंड में ओढ़ने को मिला हो और साथवाले को नहीं मिला हो, तो खुद ओढ़कर सो जाएगा। सिर ढंक कर सो जाएगा और नींद में होने का स्वाँग करेगा, खुद जागता हो, तो साथवाला माँगे न? ऐसा मन ही बहुत मार खिलाता है। जितने राजर्षि उतना तुम्हारा। यह दुनिया तुम्हारी है। तुम्हें भोगना आना चाहिए। कबीरजी बड़े समझदार थे, वे कहा करते थे,
'खा-पी खिलाई दे, कर ले अपना काम,
चलती बखत हे नरो! संग न आवे बदाम।' अपना काम कर ले यानी मोक्ष का काम निकाल ले। संकुचित मन से ही लक्ष्मीजी अवरोधित होती हैं, वर्ना लक्ष्मीजी अवरोधित हों ही क्यों? वणिक बुद्धि समझवाली कहलाती है, पर मोक्ष में जाने हेतु कितनी बाधक
क्षत्रिय का मन कैसा होता है? राजमान राजर्षि जैसा होता है। मंदिर में गए हों, तब जेब में हाथ डाला और जितने पैसे हाथ में आए, उतने डाल दिए। फिर वह देखने को नहीं रूकता कि कितने निकले और कितने डाल दिए? वणिक बुद्धिवाले का मन बहुत संकीर्ण होता है। पाटीदार तो क्षत्रिय कहलाते हैं। उनका राजर्षि मन होता है, इसलिए उनमें वणिक का व्यावहारिक समझ नहीं होती। कोई भी पूर्ण नहीं होता।
__ लक्ष्मीजी कहाँ बसती हैं? लक्ष्मीजी क्या कहती हैं? जो एक सौ लोगों को सिन्सियर रहता है, वहाँ मेरा वास होता है। वास अर्थात् सागर छलके उस प्रकार लक्ष्मी आती है। जब कि और सब जगह, मेहनत के अनुसार ही फल मिलता रहता है। सिन्सियर अर्थात् क्या? सिन्सियर किसे कहते हैं? तब कहे, मन को पहचान लो। उसकी सिन्सियरिटी कैसी है, उसका विस्तार कैसा है वह पहचान लो।
मेहनत से नहीं कमाते। यह तो बड़े मनवाले कमाते हैं। ये जो सेठ लोग होते हैं, वे क्या मेहनत करते हैं? नहीं, वे तो राजर्षि मनवाले होते हैं। मेहनत तो उनका मुनीम ही करता रहता है और सेठ लोग तो मजे उड़ाते रहते हैं।
मन का संकोच-विकास मन यदि प्रतिदिन का हिसाब लगाता रहे, तो अगले दिन कढ़ी भी नहीं बना सके। दुकान में चार आने की भी कमाई नहीं हुई हो, तो क्या दूसरे दिन कढ़ी नहीं बनाएँ? रास्ता यदि पाँच फीट चौड़ा हो, तो भी झाँखर आ लगेगा, दो फीट चौड़ा रास्ता हो तब भी झाँखर आ लगेगा। एकदम संकरा, एक आदमी मुश्किल से जा सके ऐसा रास्ता हो तब भी झाँखर तो आ लगेगा ही, मगर वह उसमें से निकल तो जाएगा ही। जितना भी रास्ता हो उसमें से निकल तो जाएगा ही। आज कौन से छेद से गुजरना है, यह मन जानता है। इसलिए सिकुड़कर, किसी भी रास्ते से निकल जाएगा। दो तार के बीच में से भी निकल जाएगा। इसलिए ही हम कहा