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________________ आप्तवाणी-१ १२५ १२६ आप्तवाणी-१ अटकाव और सेन्सिटिवनेस कितने ही लोग बहुत सेन्सिटिव (संवेदनशील) होते हैं। सेन्सिटिवनेस (संवेदनशीलता) अहंकार का प्रत्यक्ष गुण है। व्यवहार की कोई बात हो रही हो और मैं पूछू कि बड़ौदा से लौटते क्या झंझट हुई थी? उसमें बीच में कोई बोल उठे, तो वह सेन्सिटिव माल कहलाता है। अटकाव भी विशेष रूप से अहंकार को लेकर ही होता है। अटकाव अर्थात् घोडा बड़ा ताकतवर हो, पर मस्जिद या कब्र जैसी जगह आए, तो वहीं अटक जाता है, आगे चलता ही नहीं। वही अटकाव है। प्रत्येक मनुष्य को अटकाव होता ही है। अटकाव ने ही सभी को भटकाया है। अटकने से भटकना. भटकने से लटकना हो गया है। हम छिटकना सिखलाते हैं। अटकने का अहंकार चलेगा, पर सेन्सिटिव का अहंकार नहीं चलेगा। वह जब तक रहेगा, तब तक प्रगति नहीं होगी। अटकाव तो देखने से छूट जाता है, पर सेन्सिटिव के गुण को तो ज़ोर देकर, बहुत जागृत रहकर, ब्रेक लगाकर तोड़ें तब ही जाएगा। माल जैसा भरा है, वैसा ही निकलेगा मगर उसे देखते रहना। ज्ञानी ने संपूर्ण प्रकाशघन आत्मा दिया है, फिर भी मँह बेस्वाद हो जाए उसका कारण क्या है? अटकाव और सेन्सिटिवनेस होने की वजह से। सेन्सिटिव मनुष्य का तो आत्मा एकाकार हो जाता है, तन्मयाकार हो जाता है। शुद्धात्मा तन्मयाकार होता है। शुद्धात्मा तन्मयाकार हो जाता है, इसलिए बेस्वाद लगता है। आप किस ओर झुके हैं यह जानना। आप प्रकाशमार्ग पर चलते हों, ज्ञानमार्ग पर चलते हों, तो वहाँ अंधकार क्यों दिखाई देता है? अटकाव और सेन्सिटिव होने की वजह से। उसे जानने से ही यह सेन्सिटिव गुण चला जाता है। आप जो माल भरकर लाए हैं उसे देखने और जानने से चला ही जाएगा। ज्ञाता-दृष्टा रहना। अटकाव का इससे नाश हो जाएगा, पर सेन्सिटिवनेस जल्दी नहीं जाएगी। सेन्सिटिव हआ, तो अंदर इलेक्ट्रिसिटी उत्पन्न होती है। फलतः अंदर (शरीर में) चिनगारियाँ उड़ती हैं और अनंत जीव मर जाते है। जागृति विशेष रहे, तो कुछ भी बाधक नहीं होनेवाला, भरे हुए माल का निपटारा हो जाएगा। बात में कुछ दम नहीं है और यह अटकाव और सेन्सिटिव का माल भरा पड़ा है। अंतःकरण का संचालन यह संसार किस से खडा है? अंत:करण में मन शोर मचाए, तो खुद फोन उठा लेता है और 'हैलो, हैलो' करता है। चित्त का फोन उठा लेता है, बुद्धि का फोन अहंकार उठा लेता है, इसलिए। मन-बुद्धि-चित्तअहंकार क्या धर्म निभाते हैं, उसे देखिए और जानिए। 'हमें' किसी का फोन लेना नहीं लेना है। आँख, कान, नाक आदि क्या-क्या धर्म निभाते हैं उसके हम 'ज्ञाता-दृष्टा'। यदि मन का या चित्त का या किसी का भी फोन उठा लिया, तो सब जगह टकराव हो जाएगा। वह तो जिसका फोन हो, उसे 'हैलो' करने देना, 'खुद मत करना। आपने कभी खाने के बाद पता लगाया है कि आँतों और पेट में क्या होता है? सारे अवयव अपने गुणधर्म में ही हैं। कान उनके सुनने के गुणधर्म में नहीं होते, तो सुनाई नहीं देता। नाक उसके गुणधर्म में नहीं होती, तो सुगंध और दुर्गंध आती नहीं। उसी प्रकार मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार सभी अपने गुणधर्म में ठीक से चलते हैं कि नहीं उसका ध्यान रखना है। 'खुद' 'शुद्धात्मा' में रहें, तो कोई हर्ज नहीं है। अंत:करण उसके गुणधर्म में रहे, जैसे कि मन पैम्फलेट दिखाने का काम करे, चित्त फोटो दिखाए, बुद्धि डिसिजन ले और अहंकार हस्ताक्षर कर दे, तो सब ठीक चलता है। वे उनके गुणधर्म में रहें और शद्धात्मा अपने गुणधर्म में रहे, ज्ञाता-दृष्टा पद में रहे, तो कोई परेशानी नहीं है। प्रत्येक अपने-अपने गुणधर्म में ही हैं। अंत:करण में कौन-कौन से गुणधर्म बिगड़े हुए हैं, वह देखते रहना और बिगड़े हुओं को कैसे सुधारना, इतना ही करना है। पर खुद कहे कि मैंने विचार किया, मैं ही बोलता हूँ, मैं ही करता हूँ। ये हाथ-पैर भी अपने धर्म में हैं, पर कहता है कि मैं चला। मात्र अहंकार ही करता है और अहंकार को ही खद का आत्मा माना है, इसका ही बवाल है। मन के गुणधर्म बिगड़े हों, तो उसका पता चलता है कि नहीं चलता? चलता है। घर में कोई बुढ़िया आई हो और सारा दिन किचकिच करती हो, पर पाँच-पंद्रह दिन उसके साथ कोई झंझट नहीं करें,
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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