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________________ आप्तवाणी-१ १५० आप्तवाणी-१ इस देह पर अधिकार हमारा अपना है ही नहीं। जिस-जिसका होगा वे ले जाएँगे। हमें तो इस देह को मित्र समान मानकर अपना काम निकाल लेना है। बाकी, इस देह में कब क्या हो जाए वह कुछ कह नहीं सकते। बाकी, हमारे स्वयं के प्रदेश (शुद्धात्मा) को कुछ भी हो ऐसा है नहीं। जिस शरीर से मोक्ष में जाना है, वह शरीर बहुत मज़बूत होता है, निर्वाण पानेवाला शरीर 'चरम शरीर' कहलाता है। भगवान इस देह में कब तक रहते हैं? प्रतिष्ठित आत्मा का मुकाम हो तब तक रहते हैं। मूल आधार तो शुद्धात्मा का ही है। प्राण के आधार पर जीता है, वह प्राणी। नाक आठ मिनट तक दबाए रखें, तो प्राण निकल जाएँ, ऐसा है यह सब, यह तो मशीनरी है। देह भान, वह मूर्छावस्था है। देहाध्यास ही अज्ञान है। स्वभान से मुक्ति है। किए हुए स्थान पर पहुँच जाता है। और वहाँ जाकर पिता का वीर्य और माता का रज मिलता है तब देह धारण करता है। आत्मा उस समय एकदम संकुचित हो जाता है। जब तक नया स्थान नहीं मिलता, तब तक सामान्यत: पुराना स्थान छोड़ता नहीं है। उसके स्थिति-स्थापक गुण के कारण लम्बा होकर एक सिरा पुरानी देह में और दूसरा सिरा नयी कार्यदेह में ले जाता है, तब ही पुरानी देह छोड़ता है। कुछ प्रेतयोनि के लायक जीव होते हैं, उन्हें दूसरी देह तुरंत ही नहीं मिलती है। ऐसा जीव प्रेतयोनि में जाकर भटकता है, और जब नयी देह मिल जाए तब उसे छुटकारा मिलता है। मनुष्य देह में आने के बाद ज्यादा से ज्यादा आठ जन्म अन्य गतियों में जैसे कि देव, तिर्यंच या नर्कगति में जाकर आने के बाद, फिर वापस मनुष्य देह मिलता है। मनुष्य देह में वक्रगति उत्पन्न होती है, और भटकन का अंत भी मनुष्य देह में से ही मिलता है। इस मनुष्य देह को यदि सार्थक करना आए, तो मोक्ष प्राप्ति हो सके ऐसा है और न आया, तो भटकने के साधनों में वृद्धि करे ऐसा भी है। अन्य गतियों में केवल छूटता है। पर इसमें दोनों ही हैं, छूटने के साथ-साथ बंधन भी होता है। इसलिए दुर्लभ मनुष्य देह प्राप्त हुई है, तो उससे अपना काम निकाल लो। अनंत जन्म आत्मा ने देह के लिए गुज़ारे हैं, एक जन्म यदि देह आत्मा के लिए गुजार दें, तो काम ही बन जाएगा। मनुष्य देह में ही यदि ज्ञानी पुरुष मिलें. तो मोक्ष का उपाय होता है। देवता भी मनुष्य देह के लिए तरसते हैं। ज्ञानी पुरुष की भेंट होने पर, तार जुड़ने पर, अनंत जन्मों तक शत्रु समान हुई देह परम मित्र बन जाती है। अतः इस देह में ज्ञानी पुरुष मिले हैं, तो पूर्णरूप से अपना काम निकाल लीजिए। पूर्ण संधान करके तैरकर पार उतर जाओ। __ हमें इस देह पर कितनी प्रीति है? इस देह से मोक्ष तो मिल गया, खुद का कल्याण तो हो गया, अब लोगों के कल्याण हेतु यह देह खर्च हो, उतना ही इसका जतन और उसके लिए ही इससे प्रीति है। बाकी, हम तो उसे एक पड़ोसी की तरह ही निभाते हैं। स्थूल देह वीतरागी है। जितनी यह तिपाई वीतरागी है, उतनी ही यह स्थूल देह भी वीतरागी है। उतना ही आत्मा भी वीतरागी है। सूक्ष्म शरीर सबका जिम्मेदारीवाला है। सूक्ष्म शरीर कुछ खास परमाणुओं का बना हुआ है। स्थूल देह की किसी भी चेष्टा से आत्मा को कोई लेनादेना नहीं है। सारा दुःख भी सूक्ष्म शरीर ही भुगतता है। सूक्ष्म शरीर आत्मा का आविर्भाव है। सूक्ष्म शरीर से ही 'मैं'पन की प्रतिष्ठा करता है, इसलिए सूक्ष्म शरीर प्रतिष्ठित आत्मा जैसा है। कर्म अधिक हों, तो शरीर छोटा होता है। कर्म कम हों, तो शरीर बड़ा होता है जैसे कि चींटी और हाथी। चींटी को तो मैंने रात के चार बजे भी शक्कर को खींचकर ले जाते देखा है, और हाथी? वह बादशाही ठाठ से मस्ती में रहता है। देहाध्यास कब टूटे? सारा संसार देहाध्यास में लिप्त हुआ है। कहते भी हैं कि यह शरीर मेरा नहीं, मन मेरा नहीं पर यदि कहा जाए कि चंदूलाल, आपमें अक्ल
SR No.009575
Book TitleAptavani 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2009
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size42 KB
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