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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
अनात्मा के सारे परमाणुओ का पृथक्करण करके, दोनों को अलग करके, एक ही घंटे में आपके हाथों में शुद्ध आत्मा दे देते हैं। ज्ञानी की प्रगट वाणी के अलावा बाहर जो 'आत्मा, आत्मा' बोलते हैं या पढ़ते हैं, वह मिलावटी आत्मा है। शब्द ब्रह्म! हाँ, पर शुद्ध नहीं।
ये सभी जो धर्म पालते हैं वे अनात्मा के धर्म पालते हैं। वे रिलेटीव धर्म हैं, शुद्ध आत्मा के धर्म नहीं। आत्मा का एक भी गणधर्म यदि जाना नहीं है, तो आत्मधर्म कैसे पाल सकते हैं? वह तो ज्ञानी पुरुष आपको थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी में से जब तक रियालिटी में नहीं लाते, तब तक रियल धर्म नहीं पाल सकते। ये हमारे 'महात्मा' आपके अंदर के भगवान को देख सकते हैं। क्योंकि हमने उन्हें दिव्यचक्ष दिए हैं। आपके जो चक्षु हैं वे चर्मचक्ष हैं, उनसे सारी विनाशी चीजें दिखेंगी। अविनाशी भगवान तो दिव्यचक्षु से ही दिखेंगे।
दिव्यचक्षु से मोक्ष श्रीकृष्ण भगवान ने महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन को दिव्यचक्षु दिए थे। पर केवल पाँच ही मिनट के लिए, उसका वैराग्य टालने के लिए फिर वापस ले लिए थे। हम आपको परमानेन्ट दिव्यचक्षु देते हैं। फिर जहाँ देखेंगे वहाँ भगवान दिखेंगे। हममें दिखेंगे, इनमें दिखेंगे, पेड में दिखेंगे और गधे में भी दिखेंगे। प्रत्येक जीव में दिखेंगे, सब जगह आत्मवत् सर्व भूतेषु ही दिखाई देंगे, फिर है कोई झंझट?
तीन सौ साल पहले हुए, जैनों के सबसे बड़े आचार्य महाराज आनंदघनजी क्या कह गए हैं, 'इस काल में दिव्यचक्षु का, निश्चय से वियोग हो गया है।' इसलिए सभी ने दरवाजे बंद कर लिए। यह तो कुदरती ही गज़ब का ज्ञान उत्पन्न हो गया है, नैचुरल एडजस्टमेन्ट है। जिससे घंटे भर में ही दिव्यचक्षु प्राप्त हो जाते हैं।
भगवान क्या कहते हैं? मोक्षमार्ग अति अति अति (सौ दफा) दुर्लभ दुर्लभ दुर्लभ है, पर यदि ज्ञानी पुरुष मिलें तो खिचड़ी बनाने से भी अधिक सरल है।
हमारी यह बात आपका आत्मा ही कबूल करेगा, यदि आपमें आड़ापन नहीं रहा तो, क्योंकि आपके अंदर, मैं ही बैठा हुआ हूँ। हमें आपमें और हमारे में कोई भेद नहीं लगता। ये सब लोग 'श्रद्धा रखो, श्रद्धा रखो' ऐसे कहते हैं। मगर भैया मुझे श्रद्धा नहीं बैठती इसका क्या? व्याख्यान या प्रवचन में से नीचे उतरा कि धोती झाड़कर सोचता है कि आज बैंगन बहुत सस्ते हो गए हैं। (संसार ही लक्ष्य मे रहता है) हमारे पास श्रद्धा नहीं रखनी होती। यदि तेरे भीतर आत्मा है और आडापन नहीं है, तो तुझे श्रद्धा अवश्य बैठनी ही चाहिए, क्योंकि यह तो ज्ञानी की डाइरेक्ट ज्ञानवाणी है, जो तेरे सारे आवरणों को तोड़कर सीधे तेरे आत्मा को पहुँचती है और इसलिए तेरे आत्मा को कबूल करनी ही पड़ती है। हमारी बात तेरी समझ में आ ही जाती है!
श्रद्धापूर्वक की बात और समझपूर्वक की बात में अंतर है। समझपूर्वक की बात हो, तभी सामनेवाला मानता है।
पुनर्जन्म हम औरंगाबाद से प्लेन में आ रहे थे। एक फ्रेन्च साइन्टिस्ट मिला जो माइक्रोबायोलॉजिस्ट था। वह हम से पूछने लगा, 'आप इन्डियन लोग 'रीबर्थ' में विश्वास करते हैं, वैसा हम लोग नहीं मानते। आप मुझे इसके बारे में समझाएंगे कि ऐसा किस प्रकार से है? आप कहें उतना समय मैं आपके साथ इन्डिया में रहने को तैयार हूँ।' हमने पूछा, 'कितना समय आप रह सकते हैं?' फ्रेन्च साइन्टिस्ट ने बताया, 'पाँच साल, दस साल।' मैंने कहा, 'नहीं, नहीं, इतना सारा टाइम हमारे पास नहीं है।' इस पर उसने कहा, 'छह महीने में?' हमने कहा, भैया, हम बेकार थोड़े बैठे हैं? हमें बहुत काम हैं। सारे संसार का कल्याण करना है। उसके हम निमित्त हैं। ऐसा कीजिए, घंटेभर में हम सान्ताक्रुज एयरपोर्ट पर उतरेंगे, तब आप पुनर्जन्म में मानने लगेंगे। हमने उसे प्लेन में ही साइन्टिफिकली समझा दिया और वह सच में समझ गया। और सान्ताक्रुज जब उतरे तब 'सच्चिदानंद सच्चिदानंद' बोलने लगा। अरे !