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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
उस में खर्च हो गया। इस प्रकार हरेक की बुद्धि के आशय की पूर्ति में पाप पुण्य कार्य करते हैं। एक मनुष्य बुद्धि के आशय में लक्ष्मी प्राप्त करनी है, ऐसा भर लाया है, तो उसका पुण्य उसमें खर्च होने के कारण लक्ष्मी की बरसात होती है। दूसरा भी बुद्धि के आशय में लक्ष्मी प्राप्त करनी है, ऐसा लेकर तो आया मगर उसमें पुण्य के बदले पापफल सामने आया, परिणाम स्वरूप लक्ष्मीजी मुँह ही नहीं दिखातीं। यह तो सब चोखा हिसाब है, इसमें किसी की एक नहीं चलती। तब यह अकर्मी ऐसा मान लेते हैं कि दस लाख रूपया मैं कमाया। अरे! यह तो पुण्य खर्च हुआ, वह भी उलटी राह। इसके बजाय अपनी बुद्धि का आशय बदल दीजिए। केवल धर्म के लिए बुद्धि का आशय रखने जैसा है। इन जड वस्तुओं के लिए, यानी मोटर, बंगला, रेडियो आदि की भजना करके, उनके लिए बुद्धि का आशय बांधने जैसा नहीं है। धर्म के लिए ही, आत्मधर्म हेतु ही बुद्धि का आशय होना चाहिए। वर्तमान में आपको जो प्राप्त हुआ है, वह भले रहा, मगर अब आशय बदलकर सौ प्रतिशत आशय धर्म हेतु ही रखिए।
प्रथम रखा जाता है। उनकी पूजा से बुद्धि विनम्र होती है, विभ्रम नहीं होती, विपरीत नहीं होती। महीने में दो ही अड़चनें आई हों, पर रोज डर लगता रहे, वही विपरीत बुद्धि। ऐसे बुद्धि विभ्रम नहीं हो, विपरीत नहीं हो, इसलिए गण के पति-गणपतिजी को पूजा में प्रथम रखते हैं, मगर बिना समझे पूजा होती है, इसलिए जैसा चाहिए वैसा फल प्राप्त नहीं होता। समझकर पूजा हो, तो बहुत ही सुंदर फल मिले।
गणपतिजी बुद्धि के सभी बंधनों में से गुज़रे हुए देवता हैं। इसलिए समझकर उनकी पूजा करने से बुद्धि का भ्रम टल जाता है और सदबुद्धि प्राप्त होती है।
हम हमारी बुद्धि के आशय में सौ प्रतिशत धर्म और जगत् कल्याण की भावना लेकर आए हैं। अन्य किसी चीज़ के लिए हमारा पुण्य खर्च नहीं हुआ, पैसा, मोटर-बंगले, बेटा-बेटी, कहीं भी नहीं।
हमसे जो-जो मिले और ज्ञान ले गए, उन्होंने दो-चार प्रतिशत धर्म के लिए, मुक्ति हेतु डाले थे इसलिए हमसे भेंट हई। हमने शत-प्रतिशत धर्म में डाले, इसलिए हमें हर ओर से धर्म के लिए 'नो ऑब्जेक्शन' सर्टिफिकेट मिला है।
गणपति : बुद्धि के अधिष्ठाता देव गणपतिजी सारे गणों के अधिपति हैं। बुद्धि के अधिष्ठाता देव हैं। शास्त्र लिखने के प्रमुख अधिकारी हैं वे। उनकी बुद्धि का प्रकाश हर जगह पड़ता है। उनकी बुद्धि में जरा-सा भी कच्चापन नहीं है। इसलिए ही सभी देवों में उन्हें पहला स्थान दिया जाता है। पजा आदि में भी गणपति को
बुद्धिजन्य अनुभव और ज्ञानजन्य अनुभव जिसने आइसक्रीम कभी खाई ही नहीं है, उसे अंधेरे में आइसक्रीम दी जाए, तो वह कल्पना ही करता रहे कि आइसक्रीम ठंडे स्वभाव की ही होगी? दूध का स्वभाव भी ऐसा ही ठंडा होगा? इलायची भी ठंडे स्वभाव की होगी? पर आइसक्रीम और उसके अंदर की वस्तुओं का जिसे पृथक् -पृथक् बुद्धिजन्य अनुभव होता है, वह सभी वस्तुओं को उनके गुणों के आधार पर जानता है और आइसक्रीम ठंडी क्यों लगती है, यह भी जानता है। ऐसा वह बुद्धिगम्य अनुभव से जानता है। जब बुद्धितत्त्व संसार में इतना सारा काम करता है, तो आत्मतत्त्व क्या नहीं कर सकता? वह तो डायरेक्ट प्रकाश है।
ज्ञानप्रकाश देने के पश्चात्, हम सभी से बुद्धि को रिटायर करने को कहते हैं। सारे संसार को बुद्धि की ज़रूरत है। वह उसका अवलंबन है। मगर स्वरूपज्ञान ऐसा है कि उस में बुद्धि की ज़रूरत नहीं है। उसकी कभी मत मानना। उसे कह दीजिए, 'हे बुद्धिबहन ! आप मुझे कई जन्मों से परेशान करती आई हैं। बहनजी, आप अब पीहर सिधारें। जिसे आपकी जरूरत है, उसके पास जाइए। हमें अब आपकी ज़रूरत नहीं है।' मतलब अब बुद्धि को पेन्शन देकर विदा करो। बुद्धि का तिरस्कार नहीं करना है, क्योंकि ज़रा-सा भी तिरस्कार रहा, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होगा।