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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
खाते हो तुम! इस हद तक एक्सेस हो गए हैं कि नींद जो एक कुदरती भेंट है, उसे भी खो बैठे हैं। इसे जीवन कैसे कहें? भले ही चंद्र तक पहुँचे, पर उसमें खुद का क्या लाभ हुआ? क्या नींद की गोलियाँ खाना बंद हुआ तुम्हारा?
साधक दशा साधु कौन कहलाता है? आत्मदशा साधे वह साधु। साधु तो साधक ही होता है। जब कि आज कलियुग में साधु तो 'साधक-बाधक' दशा में ही रहते है। जब सामयिक-प्रतिक्रमण या ध्यान करते हैं, तब सौ कमाते हैं और शिष्य पर कुढ़ते-चिढ़ते हैं, तब एक सौ पचास का घाटा कर लेते हैं ! निरंतर साधक दशा तो 'स्वरूप' का भान (ज्ञान) होने के बाद ही उत्पन्न होती है। साधक दशा यानी सिद्ध दशा, उत्पन्न होती ही जाती है। सिद्ध दशा से मोक्ष और साधक-बाधक दशा से संसार। इसमें किसी का दोष नहीं है। नासमझी का फँसाव है यह। उनकी भी इच्छा तो साधक दशा की ही होती है न?
पुण्य और पाप संसार में आत्मा और परमाणु दो ही हैं। किसी को शांति दी हो, सुख पहुँचाया हो, तो पुण्य के परमाणु इकट्ठा होते हैं। किसी को दुःख पहुँचाया हो, तो पाप के परमाणु इकट्ठा होते हैं और फिर वे ही काटते हैं। इच्छानुसार होता है वह पुण्य का उदय और इच्छा के विपरीत होता है वह पाप का उदय। पाप के दो प्रकार हैं और पुण्य के दो प्रकार हैं:
१) पापानुबंधी पापः वर्तमान में पाप (दःख) भगतता है और (बदले में किसी को दुःख देकर) फिर नया पाप का अनुबंध बाँधता है। किसी को दु:ख पहुँचाता है और ऊपर से खुश होता है।
२) पुण्यानुबंधी पापः पूर्व के पाप को लेकर आज दुःख भुगतता है, पर नीति और अच्छे संस्कार से नया अनुबंध पुण्य का बाँधता है।
३) पापानुबंधी पुण्यः पूर्व के पुण्य से आज सुख भोगता है, पर
भयंकर पाप का नया अनुबंध बाँधता है। आजकल सब जगह पापानुबंधी पुण्य है। किसी अमीर का बहुत बड़ा बंगला हो, मगर चैन से बंगले में रह नहीं पाता। सेठ सारा दिन पैसों के लिए बाहर होते हैं। जब कि सेठानी मोह के बाजार में सुंदर साड़ी के पीछे लगी होती है और सेठ की पुत्री कार लेकर घूमने निकली होती है। घर पर नौकर ही होते हैं और इस तरह सारा बंगला औरों के हवाले होता है। पुण्य के आधार पर, बंगला मिला, कार मिली, सब मिला। ऐसा पुण्य होता है, पर फिर भी अनुबंध पाप का बाँधे, ऐसे करतूत होते हैं। लोभ में, मोह में समय गुजरता है और भोग भी नहीं सकते हैं। पापानुबंधी पुण्यवाले लोग तो विषय की लूट ही करते हैं।
४) पुण्यानुबंधी पुण्यः पुण्य भोगते हैं और साथ ही आत्मकल्याण हेतु अभ्यास-क्रिया करते है। पुण्य भोगते हैं और नया पुण्य बांधते हैं, जिससे अभ्युदय से मोक्षफल मिलता है।
हठ से किए गए सारे कार्यों से, हठाग्रही तप से, हठाग्रही क्रियाओं से पापानुबंधी पुण्य बंधता है। जब कि समझदारी के साथ किए गए तप, क्रियाएँ, अपने आत्मकल्याण हेतु किए गए कर्मों से पुण्यानुबंधी पुण्य बंधता है और कभी किसी काल में ज्ञानी पुरुष से भेंट हो जाती है और मोक्ष में जाते है।
पुण्य के बिना लक्ष्मी नहीं मिलती।
इस संसार में सबसे अधिक पुण्यवान कौन? जिसे ज़रा-सा विचार आने पर तय करे और सालों तक बिना इच्छा किए मिलता ही रहे वह।
दूसरे नंबर पर, इच्छा हो और बार-बार तय करे और फिर शाम तक सहज रूप से मिल जाए, वह।
तीसरे नंबरवाला, इच्छा होने पर प्रयत्न करता है और उसे प्राप्त होता है। चौथे नंबरवाले को इच्छा होती है और अत्यधिक प्रयत्नों के बाद प्राप्ति होती है और पाँचवे को इच्छा होने के बाद अत्यधिक प्रयत्नों के