Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीरनि०सं०२४६६ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ वार्षिकमूल्य ३ रु० नवम्बर १९३९ नयात्मानसला भावनगर ताएमा M श्री दि० जैनपरिषद्के सौजन्यसे प्राप्त 303 OFONDONTEGORIROOMINOGENOONTROORIGILROOHINOONIROHIROIDGPINOGENONOGEINOGEIROENOGE सम्पादक संचालकजुगलकिशोर मुख्तार तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट सर्कस पो० ब०नं०४८ न्यू देहली। SINOPINCORITEGORIEOHINOORINOORIORINCREGNAIFSCRITEGORIESIINDIINDGIFCATEGORTEGO HONOMIO FOROOPERFOTO Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ विषय-सूची पृष्ट ३२,७९, :::::::::::: १. श्री वीर-स्मरण, वीर शासनाऽभिनन्दन २. धवलादि श्रत परिचय ३. सत्य अनेकान्तात्मक है [श्री जयभगवान वकील ४. स्मृतिमें रखने योग्य वाक्य श्रीमद् राजचन्द्र] ५. भ० महावीरके शासनमें गोत्रकर्म [श्री कामताप्रसाद ६. विविध प्रश्न [श्रीमद् राजचन्द्र ७. जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार [ श्री महेन्द्रकुमार शास्त्री ८. मीन-संवाद ( कविता )-[श्री युगवीर ९. वीरशासनकी विशेषता [-श्री अगरचन्द नाहटा १०. सफल-जन्म (कविता)--[श्री भगवत् जैन ११. वीर-शासैनमें स्त्रियोंका स्थान [श्री इन्दुकुमारी ५२. नर-ककाल (कविता)-- [श्री भगवत् जैन १३. वोर-शासनकी पुण्य-वेला- [श्री- सुमेरचन्द दिवाकर १४. मनुष्योंमें उच्चत-नीचता ? [श्री वंशीधर व्याकरणाचार्य १५. साहित्य सम्मेलनको परीक्षाओंमें जैन-दर्शन [श्री रतनलाल संघवी १६. यापनीय साहित्यकी खोज [श्री नाथूराम प्रेमी १७. मातत्व (कहानी)-- [श्री भगवत जैन १८. सुभाषित [श्री अज्ञात् १९. उस विश्ववंद्यविभूतिका धुंधला चित्रण [श्री देवेन्द्र जैन २०. मजदूरोंसे राजनीतिज्ञ [श्री माईदयाल बी० ए० २१. दर्शनोंकी स्थल रूपरेखा [श्री ताराचन्द शास्त्री २२. अज-सम्बोधन (कविता) [श्री यगवीर २३. वीर-शासन-दिवस और हमारा उत्तर दायित्व [श्री दशरथलाल जैन २४. वीरके दिव्य उपदेशकी झलक श्रिी जयभगवान वकील २, साहित्य-परिचय और समालोचन सम्पादकीय २६. वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि [श्री सूरजभान वकील २७. विनयसे तत्वको मिद्धि है । विवेकका अर्थ [श्रीमद् राजचन्द्र २८. आलोचन [युगवीर २९. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रकी एक सटिप्पणप्रति [ सम्पादकीय ... ३०. जैन लक्षणावलि [ सम्पादकीय ३१. श्री वीर प्रभुकी वाणी, परम उपास्य ( कविता ) [श्री यगवीर ३२. सुभाषित (उर्दू कविता) [इक़बाल, चकवस्त, दारा, अहसान ::::::::: २१. दर्शनोंकी स्थूल रू १०५ ११८,१२० ११९ १२६ १२६ टाइटिल Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ । सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर । वर्ष ३ प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० ब० नं० ४८, न्यू देहली किरण कार्तिक पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १९६६ श्रीकीर-स्मरणा शुद्धि-शक्तयोः पर काष्ठ योऽवाप्य शान्तिमन्दिरः। . देशयामास सद्धर्म श्रीवीरें प्रणमामि तम् ॥ -यगवीरः जिन्होंने ज्ञानावरण-दर्शनावरण के विनाशसे निर्मलज्ञान-दर्शनकी आविर्भतिरूप शुद्धिकी तथा अन्तरायकर्मके विलोपसे वीर्यलब्धिरूप शक्तिकी पराकाष्ठाको--चरमसीमाको प्राप्त करके और मोहनीय कर्भके समूल विश्वंससे आत्मा में पूर्णशान्तिकी स्थापना करके अथवा बाधारहित चिरशान्तिके निवासस्थान बनकर समीचीन धर्मकी देशना की है उन श्रीवीर भगवानको मैं सादर प्रणाम करता हूँ। स्थेयाज्जातजयध्वजाऽप्रतिनिधिः प्रोद्भतभरिप्रभुः, प्रध्वस्ताऽखिल-दुर्नय-द्विषदिभः सन्नीतिसामर्थ्यतः । सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्ग-मथनोऽर्हन्वीरनाथः श्रिये, शश्वत-संस्तुति-गोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥ , --युक्तयनुशासन-टीकायां, श्रीविद्यानन्दः - जो जयध्वज प्राप्त करने वालोंमें अद्वितीय हैं, जिनके महान सामर्थ्य अथवा महती प्रभुताका प्रादुर्भाव हुआहै,जिन्होंने सन्नीतिकी-अनेकान्तमय स्याद्वादनीतिकी-सामर्थ्यसे संपूर्ण दुर्नयरूप शत्रुगजों को ध्वस्त कर दिया है--तबाह व बर्बाद कर दिया है--जो त्रिविध सन्मार्गस्वरूप हैं-सम्यग्दर्शन-सम्म रज्ञान-सम्यकचारित्रकी साक्षात् मूर्ति हैं-जिन्होंने कुमागोंको मथन कर डाला है, जो सदा कलपिल आशयसे रहित सुधीजनोंकी संस्तुतिका विषय बने हुए हैं और श्रीसम्पन्न सत्यवाक्योंके अधिपति अथवा आगमके स्वामी हैं, वे श्रीवीर प्रभु अर्हन्त भगवान् कल्याणके लिये स्थिर रहें-चिरकाल तक लोक हृदयोंमें निवास करें। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासनाऽभिनन्दन तव जिन शासन विभवो जयति कलावपि गुणाऽनुशासन विभवः । दोष- कशासनविभवः स्तुवन्ति चैनं प्रभा - कृशाऽऽसनविभवः ॥ -- स्वयंभू स्तोत्रे, समन्तभद्रः । हे वीर जिन ! आपका शासन-माहात्म्य - आपके प्रवचनका यथावस्थित पदार्थों के प्रतिपादनस्वरूप गौरव - कलिकाल में भी जयको प्राप्त है-सर्वोकृष्ट रूप से वर्त रहा है, उसके प्रभाव से गुणों में अनुशासन ये हुए शिष्यों का भव - संसारपरिभ्रमण - विनष्ट हुआ है। इतना ही नहीं, किन्तु जो दोषोंरूपी निराकरण करने में समर्थ हैं - उन्हें अपने पास फटकने नहीं देते और अपने ज्ञान - तेजसे जिन्होंने लोकप्रसिद्ध विभुओं को— हरिहादिको - निस्तेज कर दिया है, ऐसे गणधरदेवादि महात्मा भी आपके इस शासनकी स्तुति करते हैं । दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं, नय प्रमाण-प्रकृताञ्जसार्थम् । घुष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ - युक्तयनुशासने, समन्तभद्रः । हे वीर जिन ! आपका मत -- शासन --नय-प्रमाण के द्वारा वस्तु तत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और संपूर्ण प्रवादियोंसे अबाध्य होनेके साथ साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग और समाधि (प्रशस्त ध्यान) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए हैं । यहीसब उसकी विशेषता है, और इसलिये वह अद्वितीय है । सर्वान्तवत्तद्गुण- मुख्य- कल्पं, सर्वान्तशन्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ - युक्तयनुशासने, समन्तभद्रः । हे वीर प्रभु ! आपका प्रवचनतीर्थ - शासन-सर्वान्तवान् है-- सामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि अशेष धर्मोंको लिये हुए है और वह गुण-मुख्यकी कल्पनाको साथमें लिये होनेसे सुव्यस्थित है -- उसमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है--जो धर्मों में परस्पर अपेक्षा को नहीं मानते - उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाते हैं - उनके शासन में किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न पदार्थ व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अत: आपका ही यह शासन तीर्थ सर्वदुःखों का अन्त करने वाला है, यही निरन्त है - किसी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा स्नण्डनीय नहीं है--और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण अभ्युदय (विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ' है। भावार्थ- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर निरपेक्षनयों) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करने वाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करने वाला होनेसे आपका शासन समस्त आपदाओंका अन्त करने वाला है, अर्थात् जो लोग आपके शासन तीर्थका आश्रय लेते हैं, उसे पूर्ण तया अपनाते हैं, उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युदय (उत्कर्ष एवं विकास) सिद्ध करने में समर्थ हो जाते हैं । कामं द्विषन्नप्पुपपत्तिक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खंडितमानशृंगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः । युक्त्यनु०, श्रीसमन्तभद्राचार्यः । हे वीर भगवन् ! आपके इष्ट शासनसे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखने वाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्तिचक्षु से - मात्सर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिआपके इष्टका - शासनका - अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानश्रृंग खण्डित हो जाता है - सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामत का आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिध्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है- - अथवा यूँ कहिये कि आपके शासन तीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलादि-श्रुत-परिचय -- -:: [सम्पादकीयः] धवल' और 'जयधवल' 'नामसे जो सिद्धान्तग्रन्थ इस तरह ये नाम बहुत कुछ पुराने तथा रूढ. हैं प्रसिद्धिको प्राप्त हैं वे वास्तवमें कोई मूल-ग्रन्थ और इनकी सृष्टि टीकाको भाष्यरूपमें प्रदर्शित करनेकी नहीं हैं, बल्कि टीका-ग्रन्थ हैं। खुद उनके रचयिता दृष्टि से हुई जान पड़ती है। परन्तु श्राम जैन-जनंता वीरसेनाचार्यने तथा जिनसेनाचार्यने उन्हें टीका-ग्रन्थ सुने-सुनाये अाधारपर इन्हें मूल एवं स्वतंत्र ग्रंथोंके रूप में लिखा है और इन टीकात्रोंके नाम 'धवला', 'जय- ही मानती आ रही है। अपने स्वरूपसे मूल-ग्रंथ धवला' बतलाए हैं, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे न होकर टीका-ग्रंथ होते हुए भी, ये अपने साथमें उन प्रकट है मूल सूत्रग्रन्थोंको लिये हुए हैं जिनके आधार पर "भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण" ॥५॥ इनकी यह इतनी बड़ी तथा भव्य इमारत खड़ी हुई है। "कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिश्रा धवला"|| सिद्धिविनिश्चय-टीका तथा कुछ चूर्णियों श्रादिकी तरह .... -धवल-प्रशस्ति ये प्रायः सूत्रोंके संकेत-मात्रको लिये हुए नहीं हैं, बल्कि "इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी ।" मूल सूत्रोंको पूर्ण रूपसे अपनेमें समाविष्ट तथा उद्धृत "एकान्नषष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य । : किये हुए हैं, और इसलिये इनकी प्रतिष्ठा मूलं समतीतेष समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥” सिद्धान्तग्रन्थों-जैसी ही है और ये प्रायः स्वतन्त्ररूपमें ---जयधवल-प्रशस्ति सिद्धान्तग्रन्थ' समझे तथा उल्लेखित किये जाते हैं । धवल और जयधवल नामोंकी यह प्रसिद्धि श्राजकी धवल-जयधवलकी आधारशिलाएँ अथवा बहुत ही आधुनिक नहीं हैं । ब्रह्म हेमचन्द्र अपने प्राकृत श्रुतस्कन्धमें और विक्रमकी १०वीं-११वीं शता- जयधवलकी ६० हज़ार श्लोकपरिमाण निर्माणको ब्दीके विद्वान् महाकवि पुष्पदन्त अपने महापुराण में भी लिये भव्य इमारत जिस अाधारशिलापर खड़ी है इन्हीं नामोंके साथ इन ग्रन्थोंका उल्लेख करते हैं। उसका नाम 'कसायपाहुड' ( कषायप्राभूत ) है । और यथा धवलकी ७० हज़ार या ७२ हज़ार * श्लोक परिमाण"सदरीसहस्सधवलोजयधवलो सट्रिसहसबोधव्वो। निर्माणको लिये हुए भव्य इमारत जिस मूलाधार पर महबंधो चालीसं सिद्धंततयं अहूं वंदे ॥" खड़ी हुई है वह 'षट्खण्डागम' हैं । घटखण्डागमके -श्रुतस्कन्ध, ८८ ब्रह्म हेमचन्द्रने 'श्रुतस्कन्ध' में धवलका परि"ण उ बुझिउ आयमु सहधामु । माण जब ७० हजार श्लोक जितना दिया है, तब इन्द्रसिद्धंतु धवलु जयधवलु णाम ।।" नन्दि आचार्यने अपने 'श्रुतावतार में उसे 'ग्रन्थसहस्र--महापुराण, १,६,८ द्विसप्तत्या' पदके द्वारा ७२ हज़ार सूचित किया है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रथम चार खंडों-- १ जीवस्थान, २ क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, और ४ वेदनाकी, जिसे 'वेयणकसीरणपाहुड' तथा 'कम्पयडिपाहुड' ( कर्मप्रकृतिप्राभृत) भी कहते हैं, यह पूरी टीका है— इन चार खण्डोंका इसमें पूर्णरूप से समावेश है और इसलिये इन्हें ही प्रधानतः इस ग्रन्थकी आधार शिला कहना चाहिये । शेष 'वर्गणा' और महाबन्ध' नामके दो खण्डोंकी इसमें कोई टीका नहीं है और न मूल सूत्ररूप में ही उन खण्डोंका संग्रह किया गया है - उनके किसी-किसी श्रंशका ही कहीं-कहीं पर समावेश जान पड़ता है। वर्गणाखण्ड - विचार [ वर्ष ३, किरण १ खण्ड' के साथही समाप्त होता है— वर्गणाखण्ड उसके साथमें लगा हुआ नहीं है । परन्तु पं० पन्नालालजी सोनी आदि कुछ विद्वानोंका खयाल है कि 'धवला' चार खण्डोंकी टीका न होकर पाँच खण्डोंकी टीका है - पाँचवाँ 'वर्गणा' खण्डभी उसमें शामिल है। उनकी राय में ' वेदनाखण्ड में २४ अनुयोगद्वार नहीं हैं, 'वेदना' नामका दूसरा अनुयोगद्वार ही 'वेदनाखण्ड' है और 'वर्गणाखण्ड' फास, कम्म, पडि नामके तीन अनुयोगद्वारों और 'बन्धन' अनुयोगद्वार के 'बंध' और 'बंधणिज्ज' अधिकारोंसे मिलकर बनता है । ये फासादि श्रनुयोगद्वार वेदनाखण्डके नहीं किन्तु 'कम्मपयडिपाहुड' के हैं, जो कि ग्रायणीय नामके दूसरे पूर्वकी पाँचवीं च्यवनलब्धि वस्तुका चौथा पाहुड है और जिसके कदि, वेणा (वेदना) फासादि २४ अनुयोगद्वार हैं । 'वेदनाखण्ड' इस कम्मपयडिपाहुडका दूसरा 'वेदना' नामका श्रनुयोगद्वार है । इस बेदनानुयोगद्वार के कहिये या वेदनाखण्डके कहिये १६ ही अनुयोगद्वार हैं, जिनके नाम वेदणिक्खेव वेदरणयविभासरणदा, वेदणणाम विहाण, वेदरणदव्वविहाण, वेदणखेत्तविहाण, वेदणकालविहाण, वेदणभावविहाण आदि हैं।’* धवल ग्रन्थ में 'बन्धस्वामित्वविचय' नामके तीसरे खण्डकी समाप्ति के अनन्तर मंगलाचरणपूर्वक 'वेदना' खण्डका प्रारम्भ करते हुए, 'कम्मपयडिपाहुड' इस द्वितीय नाम के साथ उसके २४ अनुयोगद्वारोंकी सूचना करके उन अनुयोगद्वारोंके कदि, वेयणा, फास, कम्म, पयडि, बंधण, इत्यादि २४ नाम दिये हैं और फिर उन अनुयोगद्वारों (अधिकारों ) का क्रमशः उनके अवान्तर अनुयोगद्वारोंके भेद-प्रभेद-सहित वर्णन करते हुए अन्तके 'अप्पाबहुग' नामक २४वें अनुयोगद्वारकी समाप्ति पर लिखा है – “एवं चउवीसदिमणिओगद्दारं समत्तं ।" और फिर “एवं सिद्धांतार्णवं पूर्तिमगमत् चतुर्विंशति अधिकार २४ अणिओगद्दाराणि । नमः श्रीशांतिनाथाय श्रेयस्करो बभूव” ऐसा लिखकर “जस्स से सारणमए' इत्यादि ग्रन्थप्रशस्ति दी हैं, जिसमें ग्रन्थकार श्रीवीरसेनाचार्यने अपनी गुरुपरम्परा यादिके उल्लेखपूर्वक इस धवला टीकाकी समाप्तिका समय कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी शकसंवत् ७३८ सूचित किया है। इससे साफ जाना जाता है कि यह 'धवल' ग्रन्थ 'वेदना - ऐसी राय रखने और कथन करने वाले विद्वान् इस बातको भुला देते हैं कि 'कम्मपय डिपाहुड' और 'वेयणकसीणपाहुड' दोनों एक ही चीज़के नाम ' क्रमका प्रकृत स्वरूप वर्णन करनेसे जिस प्रकार * देखो, 'जैन सिद्धान्तभास्कर' के पाँचवें भागकी तृतीय किरण में प्रकाशित सोनीजीका 'षड्खण्डागम और भ्रमनिवारण' शीर्षक लेख । आगे भी सोनीजीके मन्तव्योंका इसी लेखके आधार पर उल्लेख किया गया है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं० २४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय 'कम्मपयडिपाहुड' गुण नाम है उसी प्रकार 'वेयण- उत्तरसूत्र कहते हैं । यथाकसीणपाहुड' भी गुणनाम है; क्योंकि 'वेदना' कोंके "जहा उद्देसो तहा णिहेसो त्ति कट्ट कदिउदयको कहते हैं, उसका निरवशेषरूपसे जो वर्णन अणिोगद्दारं परूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि ।" * करता है उसका नाम 'वेयणकसीणपाहुड' है; जैसा कि इससे स्पष्ट है कि 'वेदनाखण्ड' का विषय ही 'धवला' के निम्न वाक्यसे प्रकट है, जो कि श्राराके 'कम्मपयडिपाहुड' है; इसीसे इसमें उसके २४ अधि. जैनसिद्धान्तभवनकी प्रतिमें पत्र : नं० १७ पर दिया कारोंको अपनाया गया है, मंगलाचरण तकके ४४ सूत्र हुश्रा है भी उसीसे उठाकर रक्खे गये हैं। यह दूसरी बात है ___ "कम्माणं पयडिसरूवं वएणेदि तेण कम्मपय- कि इसमें उसकी अपेक्षा कथन संक्षेपसे किया गया है, डिपाहुडे त्ति गुणणाम, वयणकसीणपाहुडे त्ति वि कितने ही अनुयोगद्वारोंका पूरा कथन न देकर उसे तस्स विदियं णाममस्थि, वेयणा कम्माणमुदयो.तं छोड़ दिया है और बहुतसा कथन अपनी ग्रंथपद्धतिके कसीणं णिखसेसं वरणदि अदो वेयणकसीण- अनुसार सुविधा आदिकी दृष्टि से दूसरे खण्डोंमें भी ले पाहुडमिदि, एदवि गुणणाममेव ।" लिया गया है । इसीसे 'षट्खण्डागम' महाकम्मपयडिवेदनाखण्डका विषय 'कम्मपयडिपाहुड' न. होनेकी पाहुड (महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) से उद्धृत कहा हालतमें यह नहीं हो सकता कि भूतबलि प्राचार्य कथन जाता है। करने तो बैठे वेदनाखण्डका और करने लगें कथन यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि कम्मपयडिपाहुडका, उसके २४ अधिकारोंका क्रमशः वेदनाखण्ड के मूल २४ अनुयोगद्वारोंके साथ ही धवला नाम देकर ! उस हालतमें कम्मपयडिपाहुडके अन्तर्गत टीका समाप्त हो जाती है, जैसाकि ऊपर बतलाया गया २४ अधिकारों (अनुयोगद्वारों) मेंसे 'वेदना' नामके है, और फिर उसमें वर्गणाखण्ड तथा उसकी टीकाके द्वितीय अधिकार के साथ अपने वेदनाखण्डका सम्बन्ध लिये कोई स्थान नहीं रहता । उक्त २४ अनुयोगद्वारों में व्यक्त करने के लिये यदि उन्हें उक्त २४ अधिकारोंके 'वर्गणा' नामका कोई अनुयोगद्वार भी नहीं है । 'बंधण' नामका.सूत्र देनेकी जरूरत भी होती तो वे उसे देकर अनुयोगद्वारके चार भेदोंमें 'बंधणिज्ज' भेदका वर्णन उसके बाद ही 'वेदना' नामके अधिकारका वर्णन करते; करते हुए, उसके अवान्तर भेदोंमें विषयको स्पष्ट करनेके परन्तु ऐसा नहीं किया गया-'वेदना' अधिकारके.पूर्व लिये । संक्षेप में 'वर्गणा-प्ररूपणा' दी गई है-वर्गणाके 'कदि' अधिकारका और पादको 'फास' आदि अधि.. देखो, पारा जैनसिद्धान्तभवनकी 'धवल' प्रति, कारोंका भी उद्देशानुसार (नामक्रमसे) वर्णन प्रारम्भ पत्र ५५२ । किया गया है । धवलकार श्रीवीरसेनाचार्यने भी, २४ जैसा कि उसके निग्न वाक्यसे प्रकट हैअधिकारोंके नामवाले सूत्रकी व्याख्या करनेके बाद, जो "तेण बंधणिज्जपरूपवणे कीरमाणे वग्गणपरूउत्तरसूत्रकी उत्थानिका दी है उसमें यह स्पष्ट कर दिया वणा णिच्छएणकायव्या । अण्णहा तेवीस वग्गणाहै कि उद्देशके अनुसार निर्देश होता है इसलिये सुइया चेव वग्गणा बंधपाओगा अण्णा जो बंधपाप्राचार्य 'कदि' अनुयोगद्वारका प्ररूपण करने के लिये ओगा ण होतिअत्तिगमाणु वपत्तीदो।" Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १६ अधिकारोंका उल्लेख करके भी दो ही अधिकारोंका (एत्थ) इस वेदनाखण्ड में--प्ररूपण किया गया है, वर्णन किया है । और भी बहुत कुछ संक्षिप्ततासे काम उन्हें खण्डग्रन्थ-संज्ञा न देनेका कारण उनके प्रधानतालिया है, जिससे उसे वर्गणाखण्ड नहीं कहा जी का अभाव है, जो कि उनके संक्षेप कथनसे जाना जाता सकता और न कहीं वर्गणाखण्ड लिखा ही हैं। इसी है । इस कथनसे सम्बन्ध रखने वाले शंका-समाधानके संक्षेप-प्ररूपण-हेतुको लेकर अन्यत्र कदि, फास, और दो अंश इस प्रकार हैं:कम्म श्रादि अनुयोगद्वारोंके खण्डग्रन्थ होनेका निषेध "उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? किया गया है। तब अवान्तर्र अनुयोगद्वारोंके भी तिएणं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधाणं आदीए अवान्तर भेदान्तर्गत इस संक्षिप्त वर्गणाप्ररूपणाको 'वर्ग- मंगलकरणादो। ण च मंगलेण विणा भूदबलिणाखण्ड' कैसे कहा जा सकता है ? भडारओ गंथस्स पारंभदि तस्स अणाइरियत्तप्पऐसी हालतमें सोनीजी जैसे विद्वानोंका उक्त कथन सगादो। " कहाँ तक ठीक है, इसे विज्ञ पाठक इतने परसे ही स्वयं “कदि-फास कम्म-पयडि-( बंधण) अणियोगसमझ सकते हैं, फिर भी साधारण पाठकोंके ध्यानमें दाराणि वि एत्थ परूविदाणि तेसि खंडगंथसरणयह विषय और अच्छी तरहसे आजाय, इसलिये, मैं मकाऊण तिरिण चेव खंडाणि त्ति किमटुं उच्चदे? इसे यहाँ और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ और यह ण तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो णव्वदे ? खुने रूपमें बतला देना चाहता हूँ कि 'धवला' वेदनान्त संखेबेण परूवणादो।" चार खण्डोंकी टीका है--पाँचवें वर्गणाखण्डकी टीका उक्त, 'फास' आदि अनुयोगद्वारोंमेंसे किसीके भी नहीं है। शुरूमें मंगलाचरण नहीं है--'फासे त्ति', 'कम्मे त्ति' वेदनाखण्डकी आदिमें दिये हुए ४४ मंगलसूत्रोंकी ‘पयडि त्ति', 'बंधणे' त्ति' सूत्रोंके साथ ही क्रमशः मूल व्याख्या करने के बाद श्रीवीरसेनाचार्यने मंगलके 'निबद्ध' अनुयोगद्वारोंका प्रारम्भ किया गया है, और इन अनु. और 'अनिबद्ध' ऐसे दो भेद करके उन मंगलसूत्रोंको योगद्वारोंकी प्ररूपणा वेदनाखण्ड में की गई है तथा एक दृष्टि से अनिबद्ध और दूसरी दृष्टि से निबद्ध बतलाया इनमेंसे किसीको खण्डग्रन्थकी संज्ञा नहीं दी गई, यह है और फिर उसके अनन्तर ही एक शंका-समाधान बात ऊपरके शंकासमाधानसे स्पष्ट है । ऐसी हालतमें दिया है, जिसमें उक्त मंगलसूत्रोंको ऊपर कहे हुए तीन सोनीजीका 'वेदना' अनुयोगद्वारको ही 'वेदनाखण्ड' खण्डों--वेदणा,बंधसामित्तविचो और खुद्दाबंधों-का बतलाना और फास, कम्म, पयडि अनुयोगद्वारोंको मंगलाचरण बतलाते हुए यह स्पष्ट सूचना की गई है तथा बंधण-अनुयोगद्वारके बन्ध और बंधनीय अधिकारोंकि 'वर्गणाखण्ड' की आदिमें तथा 'महाबन्धखंड' की को मिलाकर 'वर्गणाखण्ड'की कल्पना करना और यहाँ आदिमें प्रथक मंगलाचरण किया गया है, मंगलाचरण तक लिखना कि ये अनुयोगद्वार “वर्गणाखंडके नामके बिना भूतबलि श्राचार्य ग्रन्थका प्रारम्भ ही नहीं से प्रसिद्ध हैं" कितना असंगत और भ्रमपर्ण है उसे करते हैं। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिन कदि, बतलानेकी ज़रूरत नहीं रहती । 'वर्गणाखंड' के नामसे फास, कम्म, पयडि, बिंध गद्वारोंका भी यहाँ *देखो, पारा-जैन सिद्धान्तभवन की 'धवल'प्रति पत्र ५३२ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय उक्त अनुयोगद्वारोंके प्रसिद्ध होनेकी बात तो बड़ी ही है, 'वेयण' नामका दूसरा अनुयोगद्वार है, जिसकी विचित्र है ! अभी तो यह ग्रन्थ लोकपरिचयमें भी अधिक टीका प्रारंभ करते हुए वीरसेनाचार्यने भी, “वेयणमनहीं आया । फिर उसके कुछ अनुयोगद्वारोंकी 'वर्गणा- हाहियारं विविहियारं परूवेमो” इस प्रतिज्ञावाक्यके खंड' नामसे प्रसिद्धिकी तो बात ही दूर है। सोनीजीको द्वारा उसे विविध अधिकारोंसे युक्त 'वेयणा' नामका यह सब लिखते हुए इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि यदि महाअधिकार सूचित किया है-'वेयणाखंड़' नहीं अकेला वेदना-अनुयोगद्वार ही वेदनाखंड है तो फिर लिखा है--; वही अधिकार अथवा अनुयोगद्वार अपने 'कदि' अनुयोगद्वारको कौनसे खंडमें शामिल किया अवान्तर १६ अनुयोगद्वारों और उनके भी फिर अवान्तर जायगा ? 'बंधसामित्तविचओ' नामके पूर्वखंडमें तो अधिकारों के साथ वहाँ पूरा हुआ है । 'वेयणा' के १६ उसका समावेश हो नहीं सकता--वह अपने विषय अनुयोगद्वारोंमें अन्तका अनुयोगद्वार 'वेयणअप्पाबहुग' और मंगलसूत्रों आदिके द्वारा उससे पृथक् हो चुका है, उसीकी समाप्ति के साथ 'वेयणा' की समाप्तिकी है । इसी तरह यह भी खबर नहीं पड़ी कि यदि बंधण- वात उक्त समाप्तिसूचक वाक्यमें कही गई है । 'वेयणा' अनुयोगद्वारके बंध और बन्धनीय अधिकारोंको वर्गणा-, पद, स्त्रीलिंग होनेसे उसके साथमें 'समत्ता' (समाप्त हुई) खंडमें शामिल किया जायगा तो शेष अधिकारके क्रिया ठीक बैठ जाती है। दोनोंके बीचमें पड़ा हुआ क्रमशः प्राप्त कथनके लिये कौनसे नये खंडकी कल्पना. खंड' शब्द :असंगत और प्रक्षिप्त जान पड़ता है । करनी होगी ? क्या उसे किसी भी खंडमें शामिल न श्रीवीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीकामें कहीं भी अकेले. करके अलग ही रखना होगा ? आशा है इन सब बातों 'वेयणा' अनुयोगदारको 'वेयणाखंड' नहीं लिखा हैके विचार परसे सोनीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी। वे 'यणाखण्ड' अनुयोगद्वारोंके उस समूहको बतलाते . अब मैं उन बातोंको भी स्पष्ट कर देना चाहता, हूँ हैं जिसका प्रारम्भ 'कदि' अनुयोगदारसे होता है और जिनसे सोनीजीको भ्रम हुअा जान पड़ता है और जिन्हें इसीसे 'कुदि' अनुयोगद्वारके शुरूमें दिये हुए उक्त ४४ वे अपने पक्षको पुष्टिमें हेतुरूपसे प्रस्तुत करते हैं। मंगलसूत्रोंको उन्होंने 'वेदनाखण्ड' का मंगलाचरण . .(क) सबसे पहली बात है वेदना अनुयोगद्वारके बतलाया है। जैसा कि उनके निम्नवाक्यमें प्रयुक्त हुए अन्तमें वेदनाखंडकी समाप्लिका लिखा जाना, जिसकी “वेयरणाखण्डस्स आदीए मंगलटुं" शब्दोंसे स्पष्ट हैशब्दरचना इस प्रकार है-- . - "ण तात्र णिबद्धमंलमिदं महाकम्मपपडिपाहु-: ___"एवं वेयणअप्पाबहुगाणिोगद्दारे समते' डस्स कदियादिचउबीसअणियोगावयवस्स आदीए वेयणाखंड समत्ता।" गोदमसामिण परूविंदस्स भूदबलिभडारपण' ___ इस वाक्यमें "वेयणाखंड समत्ता"यह पद अशुद्ध वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं तत्तो आणेदूणठवि: है."वेयणा समजा" ऐसा होना चाहिये क्योंकि दस्स.णिबद्धृत्तविरोहादो।" ... वेयणकसीणपाहुड अथवा कम्मपयडिपाहुडके २४ अनु- ऐसी हालतमें और इससे पूर्वमें डाले हुए प्रकाश- . योगद्वारोंमेंसे, जिनका ग्रन्थमें उद्देश-क्रमसे कथन किया की रोशनीमें उक्त 'खंड' शब्दके प्रक्षिप्त होनेमें कोई Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ सन्देह मालूम नहीं होता । 'खण्ड' शब्द लेखककी “तव्वदिरित्तठाणाणि असंखेज्जगुणाणि पडिकिमी असावधानीका परिणाम है । हो सकता है कि यह वादुप्पादठाणाणि मोतूण सेससव्वट्ठाणाणं उस लेखकके द्वारा ही बादमें बढ़ाया गया हो जिसने उक्त गहणादो।" वाक्य के बाद अधिकारकी समाप्तिका चिन्ह होते हुए भी इस वाक्य के अनन्तर ही बिना किसी सम्बन्धके नीचे लिखे वाक्योंको प्रक्षिप्त किया है ये वा ___ "णमो णाणाराहणाए णमो दसणाराहणाए "श्रीश्रुतिकीर्तिविद्यदेवस्थिरंजीयाओ ॥१०॥ णमो चरित्ताराहणाए णमो ताराहणाए । णमो नमो वीतरागाय शान्तये". '. अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो ऐसी हालत में उक्त 'खंड' शब्द निश्चितरूपसे प्रक्षिप्त उबज्ञायाणे णमो लोए संव्वसाहू णं । णमो भय- अथवा लेखककी किसी भूलका परिणाम है । यदि वदो महदिमहावीरवड्ढमाणबुद्धिरिसिस्स णमो वीरसेनाचार्यको 'वेदना' अधिकारके साथ ही 'वेदनाभयवदो गोयमसामिस्स० नमः सकलविमलकेवल- खंड' का समाप्त करना अभीष्ट होता तो वे उसके बाद ज्ञानावभासिने नमो वीतरागाय महात्मने नमो ही क्रमप्राप्त वर्गणाखंड का स्पष्ट रू से प्रारंभ करते - बर्द्धमानभट्टारकाय । वेदनाखण्डसमाप्तम् ।" फासाणियोगद्वारका प्रारंभ करके उसकी टोका के मंगला ये वाक्य मूलग्रन्थ अथवा उसकी टीकाके साथ चरणमें 'फासणिोअं परूवेमो' ऐसा न लिखते । कोई खास सम्बन्ध रखते हुए मालूम नहीं होते-वैसे मूल 'फास' अनुयोगद्वारके साथमें कोई मंगलाचरण न ही किसी पहले लेखक-द्वारा अधिकार-समाप्ति के अन्तमें होनेसे उसके साथ वर्गणाखंडका प्रारम्भ नहीं किया दिए हुए जान पड़ते हैं । और भी अनेक स्थानोंपर इस जा सकता; क्योंकि वर्गणाखंडके प्रारंभमें भूतबलि प्रकारके वाक्य पाये जाते हैं, जो या तो मूलप्रतिके आचार्यने मंगलाचरण किया है, यह बात श्रीवीरसेनाहाशिये पर नोट किये हुए थे अथवा अधिकार-समाप्ति चार्य के शब्दोंसे ही ऊपर स्पष्ट की जा चुकी है । अतः के नीचे छूटे हुए खाली स्थान पर बादको किसीके द्वारा उक्त समाप्तिसर्चक वाक्यमें 'खंड' शब्दके प्रयोग मात्रसे नोट किये हुए थे; और इस तरह कापी करते समय सोनीजीके तथा उन्हींके सदृश दूसरे विद्वानों के कथनको ग्रन्थमें प्रक्षिप्त हो गये हैं । वीरसेनाचार्यकी अपने अधि. कोई पोषण नहीं मिलता। उनकी इस पहली बातमें कारों के अन्तमें ऐसे वाक्य देनेकी कोई पद्धति भी नहीं कुछ भी जान नहीं है-वह एक निर्दोष हेतुका काम पाई. जाती-अधिकांश अधिकार ही नहीं किन्तु खंड तक नहीं दे सकती। .. . ऐसे वाक्योंसे शून्य पाये जाते हैं । और कितनेही अधि- (ख) दूसरी बात बहुत साधारण है । फासाणियोगकारोंमें ऐसे वाक्य प्रक्षिप्त हो रहे हैं जिनका पूर्वापर. द्वारकी टीकाके अन्तमें एक वाक्य निम्नप्रकारसे पाया कोई भी सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। उदाहरण के लिए जाता है'जीवट्ठाण'की एक चूलिका (संभवतः ७वीं या ८ वी) मैं “जदि कम्मफासे पयदं तो कम्मफासी सेसप___ देखो आरा-जैन सिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति, देखो, पारा-जैनसिद्धान्तभवन की 'धवल' प्रति पत्र पत्र ८२७ । नं.३४॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय एणारसअणिोगद्दारेहिं भूदबलिभयवदा सो एत्थ नहीं है । किएण परूविदो ? ण एस दोसो, कम्मक्खंधस्स (ग) तीसरी बात वर्गणाखण्डके उल्लेखसे सम्पन्ध फाससएिणदस्स सेसाणियोगद्दारोहिं परूवणाए रखती है । सोनीजी 'जयधवला' से “सिप्पोग्गहादीयं कीरमाणाए वेयणाए परूविदत्थादो विसेसो अत्थो जहा वग्गणाखंडे परूविदो तहा एत्थ पर णत्थि त्ति।" . वेदव्वो' यह वाक्य उद्धृत करके लिखते हैं___ इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि “जयधवलमें न तो अवग्रह श्रादिका अर्थ लिखा फासाणियोगद्दारके १६ अनुयोगद्वारोंमेंसे एकका है और न मतिज्ञानके ३३६ भेद ही स्पष्ट गिनाये गये कथन करके शेष १५ अनुयोगद्वारोंका कथन भूतबलि हैं । 'प्रकृति'अनुयोगद्वारमें इन सबका स्पष्ट और सविस्तर आचार्यने यहाँ इसलिये नहीं किया है कि उनकी प्ररू- वर्णन टीकामें ही नहीं बल्कि मूल में है। इससे मालूम पणामें 'वेदना' अधिकारमें प्ररूपित अर्थसे कोई विशेष होता है कि वेदनाखण्डके आगेके उक्त अनुयोगद्वार नहीं है। वर्गणाखण्डके अन्तर्गत हैं या उनका सामान्य नाम . इसी तरह पयडि (प्रकृति) अनुयोगद्वारके अन्तमें वर्गणाखण्ड है । यदि ऐसा न होता तो श्राचार्य 'प्रकृति' भूतबलि आचार्यका एक वाक्य निम्नप्रकारसे उपलब्ध अनुयोगद्वारको वर्गणाखण्डके नामसे न लिखते।" होता है-- ____ कितना बढ़िया अथवा विलक्षण यह तर्क है, इस सेसं वेयणाए भंगो।" पर विज्ञ पाठक ज़रा गौर करें ! सोनीजी प्रकृति (पयडि) इस वाक्यकी टीकामें वीरसेनाचार्य लिखते हैं- अनुयोगद्वारको 'वर्गणाखण्ड' का अंग सिद्ध करनेकी "सेसाणिोगद्दाराणं जहा वेयणाए परूवणा कदा धुनमें वर्गणाखण्डके स्पष्ट उल्लेखको भी 'प्रकृति' तहा कायव्या।” अर्थात् शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररू- अनुयोगद्वारका उल्लेख बतलाते हैं और यहाँ तक पणा जिस प्रकार वेदना-अनुयोगद्वारमें की गई है कहनेका साहस करते हैं कि खुद जयधवलाकार आउसी प्रकार यहाँ भी कर लेनी चाहिये । चार्यने 'प्रकृति' अनुयोगद्वारको वर्गणाखण्डके नामसे ___ उक्त दोनों वाक्योंको देकर सोनीजी लिखते हैं-- उल्लेखित किया है !! इसीका नाम अतिसाहस है ! क्या "इन दो उद्धरणोंसे भी स्पष्ट होता है कि 'फासाणि- एक विषयका वर्णन अनेक ग्रंथोंमें नहीं पाया जाता ! योगद्दार' के पहले तक ही 'वेदनाखंड' है ।" परन्तु यदि पाया जाता है तो फिर एक ग्रन्थका नाम लेकर कैसे स्पष्ट होता है ?, इसे सोनी जी ही समझ सकते यदि कोई उल्लेख करता है तो उसे दूसरे ग्रन्थका उल्लेख हैं !! यह सब उसीभ्रम तथा भूलका परिणाम है जिसके . क्यों समझा जाय ? इसके सिवाय, यह बात ऊपर स्पष्ट अनुसार 'फासाणियोगद्दार' के पूर्ववर्ती 'वेयणाअणि- की जा चुकी है कि वर्गणाखण्डकी आदिमें भतमलि योगद्दार' को 'वेदनाखण्ड' समझ लिया गया है और प्राचार्यने मंगलाचरण किया है और जिन 'फास' जिसका ऊपर काफी स्पष्टीकरण किया जा चुका है। श्रादि चार अनुयोगद्वारोंको 'वर्गणाखण्ड' बतलाया उक्त वाक्योंमें प्रयुक्त हुआ 'वेयणा' शब्द 'वेदनाअनु- जाता है उनमेंसे किसीकी भी आदिमें कोई मंगलाचरण योगद्वार' का वाचक है--'वेदनाखण्ड' का वाचक नहीं है, इससे वे 'वर्गणाखण्ड' नहीं हैं किन्तु 'वेदना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ खण्ड' के ही अधिकार हैं, जिनके क्रमशः कथनकी समाप्त करते हुए भी इतना ही लिखा है कि "एवमोग्रंथमें सूचना की गई है। गाहणप्पाबहुए सुवुत्ते बंधणिजं समत्तं होदि ।" ' (घ) चौथी बात है कुछ वर्गणासूत्रोंके उल्लेख की। दूसरे, 'वर्गणासूत्र' का अभिप्राय वर्गणाखंडकासूत्र नहीं सोनीजीने वेदनाखण्डके शुरूमें दिये हुए मंगलसूत्रोंकी किन्तु वर्गणाविषयक सूत्र है । वर्गणाका विषय अनेक व्याख्या मेंसे निम्न लिखित तीन वाक्योंको उद्धृत किया खंडों तथा अनुयोगद्वारोंमें आया है, 'वेदना' नामके है, जो वर्गणासूत्रों के उल्लेखको लिये हुए हैं- अनुयोगद्वारमें भी वह पाया जाता है-“वग्गणपरूवणा" "ओहिणाणावरणस्स असंखेजमेत्ताओ चेव नामका उसमें एक अवान्तरान्तर अधिकार है। उस पयडीओ त्ति वग्गणसुत्तादो।" अधिकारका कोई सूत्र यदि वर्गणासूत्रके नामसे कहीं "कालो चउराण उड्ढी कालो भजिवो खेत्तवुड्ढीए उल्लेखित हो तो क्या सोनीजी उस अधिकार अथवा वुड्ढीए दब्वपज्जय भजिदव्वो खेत्तकाला दु॥ वेदना अनुयोगद्वारको ही 'वर्गणाखंड' कहना उचित . एदम्हादो वग्गणसुत्तादो णव्वदे।" समझेंगे ? यदि नहीं तो फिर उक्त वर्गणासूत्रोंके प्रकृति "आहारवग्गणाए दव्वा थोवा, तेयावग्गणाए अादि अनुयोगद्वारोंमें पाये जाने मात्रसे उन अनुयोग दव्वा अणंतगुणा,भासावग्गणाए दव्या अणंतगुणा, द्वारोंको 'वर्गणाखंड' कहना कैसे उचित हो सकता है ? मण० दव्वा अणंतगुणा, कम्मइय अणंतगुणा त्ति कदापि नहीं । अतःसोनीजीका उक्त वर्गणासूत्रोंके उल्लेख वग्गणसुत्तादो णव्वदे।” परसे यह नतीजा निकालना कि “यही वर्गणाखंड हैये वाक्य यद्यपि धवलादि-सम्बन्धी मेरी उस नोट्स- इससे जुदा और कोई वर्गणाखंड नहीं है"ज़रा भी तर्कबुक में नोट किये हुए नहीं हैं जिसके आधारपर यह सब संगत मालूम नहीं होता। परिचय लिखा जा रहा है, और इससे मुझे इनकी यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ जाँचका और इनके पूर्वापर सम्बन्धको मालूम करके कि घटखडागमके उपलब्ध चारखंडोंमें सैकड़ों सूत्र ऐसे यथेष्ट विचार करनेका अवसर नहीं मिल सका; फिर भी हैं जो अनेक खंडों तथा एक खंडके अनेक अनुयोगसोनीजी इन वाक्योंमें उल्लेखित प्रथम दो वर्गणासूत्रोंका द्वारों में ज्योंके त्यों अथवा कुछ पाठभेदके साथ पाये 'प्रकृत' अनुयोगद्वार में और तीसरेका 'बन्धनीय' अधि- जाते हैं—जैसे कि 'गइ इंदिए च काए'० नामका कार में जो पाया जाना लिखते हैं उस पर मुझे सन्देह मार्गणासूत्र जीवट्ठाण, खुद्दाबंध और वेयणा नाम के करनेकी ज़रूरत नहीं है । परन्तु इस पाये जाने मात्रसे तीन खंडोंमें पाया जाता है । किसी सूत्रकी एकता ही 'प्रकृत' अनुयोगद्वार और 'बन्धनीय' अधिकार अथवा समानताके कारण जिस प्रकार इन खंडोंमेंसे वर्गणाखण्ड नहीं हो जाते । क्योंकि प्रथम तो ये अधि- एक खंडको दूसरा खंड तथा एक अनुयोगद्वारको दूसरा कार और इनके साथके फासादि अधिकार वर्गणाखण्ड- अनुयोगद्वार नहीं कह सकते उसी प्रकार वर्गणाखंडके के कोई अंग नहीं हैं, यह बात ऊपर स्पष्ट की जा चुकी कुछ सूत्र यदि इन खंडों अथवा अनुयोगद्वारोंमें पाये है इनमेंसे किसीके भी शुरू, मध्य या अन्तमें इन्हें जाते हों तो इतने परसे ही इन्हें वर्गणाखंड नहीं कहा वर्गणाखंड नहीं लिखा, अन्तके 'बन्धनीय' अधिकारको जा सकता । वर्गणाखंड कहनेके लिये तद्विषयक दुसरी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] धवलादि श्रुत-परिचय ११ श्रावश्यक बातोंको भी उसी तरह देख लेना होगा जिस उसमें शीघ्रतादिके वश वर्गणाखण्डकी कापी न हो तरह कि उक्त सूत्रकी एकताके कारण खुद्दाबंधको जी- सकी हो और अधूरी ग्रन्थप्रति पर यथेष्ठ पुरस्कार न वट्ठाण कहनेपर जीवठ्ठाण-विषयक दूसरी ज़रूरी बातोंको न मिल सकनेकी श्राशासे लेखकने ग्रन्थकी अन्तिम वहां देख लेना होगा। अतः मोनी जीने वर्गणासूत्रोंके उक्त प्रशस्तिको ‘वेदनाखण्ड' के बाद जोड़कर ग्रंथप्रतिको उल्लेख परसे जो अनुमान लगाया है वह किसी तरह भी पूरा प्रकट किया हो, जिसकी अाशा बहुत ही कम है। ठीक नहीं है। कुछ भी हो, उपलब्ध प्रतिके साथमें वर्गणाखण्ड नहीं ___ (ङ) एक पाँचवीं बात और है, और वह इस है और वह चार खण्डोंकी ही टीका है, इतना तो प्रकार है स्पष्ट ही है । शेषका निर्णय मूडबिंद्रीकी मूल प्रतिको "प्राचार्य वीरसेन लिखते हैं—अवसेसं सुत्तटुं देखनेसे ही हो सकता है। श्राशा है पं० लोकनाथजी वग्गणाए परूवइस्सामो' अर्थात् सूत्रका अवशिष्ट शास्त्री उसे देखकर इस विषय पर यथेष्ट प्रकाश डालने अर्थ 'वर्गणा' में प्ररूपण करेंगे। इससे स्पष्ट हो जाता की कृपा करेंगे--यह स्पष्ट लिखनेका ज़रूर कष्ट उठाहै कि 'वर्गणा' का प्ररूपण भी वीरसेनस्वामीने किया एँगे कि वेदनाखण्ड अथवा कम्मपयडिपाहुडके २४वें है । वर्गणका वह प्ररूपण धवलसे बहिर्भूत नहीं है किन्तु अधिकारकी समाप्ति के बाद ही-"एवं चउवीसदिधवल ही के अन्तर्भत है।" मणिोगद्दारं समत्तं" इत्यादि समाप्तिसूचक वाक्यों ____ यद्यपि प्राचार्य वीरसेनका उक्त वाक्य मेरे पास के अनन्तर ही-उसमें 'जस्स सेसाण्णमए' नामकी नोट किया हुअा नहीं है, जिससे उस पर यथेष्ट विचार प्रशस्ति लगी हुई है या कि उसके बाद 'वर्गणाखण्ड' किया जा सकता; फिर भी यदि वह वीरसेनाचार्यका ही की टीका देकर फिर वह प्रशस्ति दी गई है। वाक्य है और 'वेदना' अनुयोगद्वार में दिया हुअा है हाँ,सोनीजीने यह नहीं बतलाया कि वह सूत्र कौनतो उससे प्रकृत विषय पर कोई असर नहीं पड़ता- सा है जिसके अवशिष्ट अर्थको 'वर्गणा' में कथन करने यह लाज़िमी नहीं आता कि उसमें वर्गणाखण्डका उल्लेख की प्रतिज्ञा की गई है और वह किस स्थान पर कौनसी है और वह वर्गणाखण्ड फासादि अनुयोगद्वारोंसे बना वर्गणाप्ररूपणमें स्पष्ट किया गया है ? उसे ज़रूर बतहुआ है-उसका सीधा संबंध स्वयं 'वेदना' अनुयोग लाना चाहिये था । उससे प्रकृत विषयके विचारको द्वार में दी हुई है 'वग्गणपरूवणा' तथा 'बंधणिज्ज'. काफ़ी मदद मिलती और वह बहुत कुछ स्पष्ट होजाता । अधिकार में दी हुई वर्गणाकी विशेष प्ररूपणाके साथ अस्तु । हो सकता है, जोकि धवलके बहिभूत नहीं है । और यहाँ तक के इस संपूर्ण विवेचन परसे और ग्रंथकी यदि जुदे वर्गणाखण्डका ही उल्लेख हो तो उस पर वीर- अंतरंग साक्षी परसे मैं समझता हूँ, यह बात बिल्कुल सेनाचार्यकी अलग टीका होनी चाहिये, जिसे वर्तमानमें स्पष्ट हो जाती है कि उपलब्ध धवला टीका षटखण्डाउपलब्ध होने वाले धवलभाष्य अथवा धवला टीकामें गमके प्रथम चार खण्डोंकी टीका है, पाँचवें वर्गणा समाविष्ट नहीं किया गया है । हो सकता है कि जिस खण्डकी टीका उसमें शामिल नहीं है और अकेला विकट परिस्थितिमें यह ग्रंथप्रति मूडविद्रीसे आई है 'वेदना' अनुयोगद्वार ही वेदनाखण्ड नहीं है बल्कि उसमें Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण र भी शामिल हैं। प्राप्त हुआ। यह सब वर्णन अथवा ग्रंथावतार कथन इन्द्रनन्दी और विबुध श्रीधरके श्रुतावतारोंकीबहिरंग यहाँ धवल और जयधवल के आधार पर उनके वर्णसाक्षीपरसे भी कुछ विद्वानोंको भ्रम हुअा जान पड़ता नानुसार ही दिया जाता है । है; क्योंकि इन्द्रनन्दीने "इतिषण्णाँ खण्डाना...टीका धवल के शुरूमें, कर्ताके 'अर्थकर्ता' और 'ग्रन्थकर्ता' विलिख्य धवलाख्याम्" इस वाक्य के द्वारा धवलाको ऐसे दो भेद करके, केवलज्ञानी भगवान महावीरको छह खण्डोंकी टीका बतला दिया है ! और विबुध श्रीधर- द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-रूपसे अर्थकर्ता प्रतिपादित किया ने 'पंचखंडे षट्खंड संकल्प्य' जैसे वाक्यके द्वारा है और उसकी प्रमाणता में कुछ प्राचीन पद्योंको भी धवलामें पाँच खण्डोंका होना सूचित किया है। उद्धृत किया है । महावीर-द्वारा-कथित अर्थको गोतम इस विषयमें मैं सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता हूँ गोत्री ब्राह्मणोत्तम गौतमने अवधारित किया, जिसका कि इन ग्रंथकारों के सामने मूल सिद्धान्तग्रंथ और उनकी नाम इन्द्रभूति था । यह गौतम सम्पर्ण दुःश्रुतिका पार प्राचीन टीकाएँ तो क्या धवल और जयधर्वल ग्रंथ तक गामी था, जीवाजीव-विषयक सन्देहके निवारणार्थ मौजद नहीं थे और इसलिये इन्होंने इस विषय में जो श्रीवर्धमान महावीरके पास गया था और उनका शिष्य कुछ लिखा है वह सब प्रायः किंवदन्तियों अथवा सुने- बन गया था। उसे वहीं पर उसी समय क्षयोपशम-जनित सुनाये आधार पर लिखा जान पड़ता है । यही वजह है निर्मल ज्ञान-चतुष्टयकी प्राप्ति हो गई थी । इस प्रकार कि धवल-जयधवल के उल्लेखोंसे इनके उल्लेखोंमें कित- भाव-श्रुतपर्याय-रूप परिणत हुए इन्द्रभति गौतमने महावीरनी ही बातोंका अन्तर पाया जाता है, जिसका कुछ परि- कथित अर्थकी बारह अंगों-चौदह पूर्वोमें ग्रन्थ-रचना की चय पाठकोंको अनेकान्तके द्वितीय वर्षकी प्रथम किरण और वे द्रव्यश्रुतके कर्ता हुए। उन्होंने अपना वह द्रव्यके पृष्ठ ७, ८ को देखनेसे मालूम हो सकता है और कुछ भाव-रूपी श्रुतज्ञान लोहाचार्यों के प्रति संचारित किया परिचय इस लेखमें आगे दिये हुए फुटनोटों आदिसेभी और लोहाचार्य ने जम्बस्वामीके प्रति । ये तीनों-गौतम, जाना जा सकेगा। ऐसी हालतमें इन ग्रंथोंकी बहिरंग लोहाचार्य और जम्बस्वामी-सप्तप्रकारकी लब्धियोंसाक्षीको खुद धवलादिककी अंतरंग साक्षी पर कोई से सम्पन्न थे और उन्होंने सम्पूर्ण श्रुतके पारगामी होकर महत्व नहीं दिया जासकता । अन्तरंग-परीक्षणसे जो केवलज्ञानको उत्पन्न करके क्रमशः निवृतिको प्राप्त बात उपलब्ध होती है वही ठीक जान पड़ती है। किया था। जम्बूस्वामीके पश्चात् क्रमशः विष्णु, नन्दिमित्र, षट खण्डागम और कषायमाभृतका उत्पत्ति अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रवाह ये पांच प्राचार्य अब यह बतलाया जाता है कि धवलके मूलाधार- चतुर्दश-पर्व के धारी अर्थात् सम्पर्ण श्रुतज्ञान के पारगामी भूत 'षटखंडागम' की और जयधवल के मूलाधाररूप हुए। 'कषायप्राभूत' की उत्पत्तिकैसे हुई-कब किस प्राचार्य- धवल के 'वेदना' खण्डमें भी लोहाचार्यका नाम महोदयने इनमेंसे किस ग्रंथका निर्माण किया और उन्हें दिया है । इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें इस स्थान पर तद्विषयक ज्ञान कहाँसे अथवा किसक्रमसे (गुरुपरम्परासे) सुधर्म मुनिका नाम पाया जाता है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परचय AAAAAAAAIL भद्रबाहुके अनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, लोहाचार्य के बाद सर्व अंगों तथा पूर्वोका वह एकजयाचार्य', नागाचार्य २,सिद्धार्थदेव, धृतिषेण, विजया- देशश्रुत जो प्राचार्य-परम्परा से चला आया था धरचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये क्रमशः ११ सेनाचार्यको प्राप्त हुआ। धनसेनाचार्य अष्टाँग महाआचार्य ग्यारह अंगों और उत्पादपर्वादि दश पर्वो के निमित्तके पारगामी-थे । वे जिस समय सोरठ देशके पारगामी तथा शेष चार पूर्वोके एक देश धारी हुए। गिरिनगर (गिरनार ) पहाड़की चन्द्र-गुहामें स्थित थे धर्मसेनके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, उन्हें अपने पासके ग्रन्थ (श्रुत) के व्युच्छेद हो जानेका ध्रुवसेनछ और कंसाचार्य ये क्रमशः पांच श्राचार्य ग्यारह भय हुआ, और इसलिये प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित अंगोंके पारगामी और चौदह पूर्वोके एक देश-धारी हुए। होकर उन्होंने दक्षिणा-पथके प्राचार्यों के पास, जो उस कंसाचार्य के अनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु । समय महिमा नगरी में सम्मिलित हुए थे ('दक्खिणाऔर लोहाचार्य ये क्रमशः चार आचार्य आचारांगके वहाइरियाणं महीमाए मिलियाणं' )। एक लेख पूर्णपाठी और शेष अंगों तथा पर्वोके एक देशधारी (पत्र) भेजा। लेखस्थित धरसेन के वचनानुसार उन हुए। श्राचार्योंने दो साधुओंको, जो कि ग्रहण-धारणमें समर्थ १, २, ३, इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें जयसेन, नाग- चौदह पूर्वोके एकदेश-धारी लिखा और न विशाखासेन, विजयसेन, ऐसे पूरे नाम दिये हैं । जयधवलामें भी चार्यादिको शेष चार पूर्वोके एक देश-धारी ही बतलाया जयसेन, नागसेन-रूपसे उल्लेख है परन्तु साथमें विजय- है। इसलिये धवलाके ये उल्लेख खास विशेषताको को विजयसेन-रूपसे उल्लेखित नहीं किया । इससे मूल लिए हुए हैं और बुद्धि-ग्राह्य तथा समुचित मालूम नामोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। होते हैं। * यहाँ पर यद्यपि द्रुमसेन (दुमसेणो) नाम दिया महिमानगड' नामक एक गांव सतारा जिले है परन्तु इसी ग्रंथके 'वेदना' खंडमें और जयधवलामें में हैं (देखो, 'स्थलनामकोश'), संभवतः यह वही बान भी उसे ध्र वसेन नामसे उल्लेखित किया है--पूर्ववर्ती पड़ता है। ग्रंथ 'तिलोयपणयत्ती' में भी ध्रुवसेन नामका उल्लेख हिन्द्र नन्दि-श्रुतावतारके निम्न वाक्यसे यह कचन मिलता है। इससे यही नाम ठीक जान पड़ता है। स्पष्ट नहीं होता--वह कुछ गड़बड़को लिये हुये जान अथवा द्रमसेन को इसका नामान्तर समझना चाहिये। पड़ता है :-- इन्द्र नन्दि श्रुतावतारमें द्रुमसेन नामसे ही उल्लेख “देशेन्द्र (sन्ध?) देशनामनि वेणाकतटीपुरे महाकिया है। महिमा । समुदित मुनीन् प्रति..." अनेक पट्ठावलियोंमें यशोवाहुको भद्रबाहु · इसमें महामहिमासमुदितमुनीन्' लिखा है तो पागे, (द्वितीय) सूचित किया है और इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार लेखपत्रके अर्थका उल्लेख करते हुए, उसमें वेणाकमें 'जयबाहु' नाम दिया है तथा यशोभद्रकी जगह "" तटसमुदितयतीन्' विशेषण दिया है जो कि 'महिमा' अभयभद्र नामका उल्लेख किया है। * इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें इन प्राचार्योंको शेष अंगों और 'वेण्यातट'के वाच्योंको ठीक रूपमें न समझनेका तथा पूर्वोके एक देश धारी नही लिखा, न धर्मसेनादिको परिणाम हो सकता है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ . थे, बहुविध निर्मल विनयसे विभूषित तथा शील-मालाके मट्टिय-मसयसमाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ॥१॥ धारक थे, गुरु-सेवामें सन्तुष्ट रहने वाले थे, देश दध (?) गारवपडिवद्धो विसयामिसविसवसेण कुल-जातिसे शुद्ध थे और सकल-कला-पारगामी एवं घुम्मतो । तीक्ष्ण बुद्धि के धारक प्राचार्य थे-आन्ध्र देशके वेण्या- सो णटुबोहिलाहो भमइ चिरं भववणे मूढो ॥२॥ तट नगरसे धरसेनाचार्य के पास भेजा । ( अंधवि- इस वचनसे स्वच्छन्दचारियोंको विद्या देना संसारसयवेण्णायडादो पेसिदा ) । वे दोनों साधु जब भयका बढ़ाने वाला है । ऐसा चिन्तन कर,शुभ-स्वप्नके आ रहे थे तब रात्रिके पिछले भागमें धरसेन भट्टारकने दर्शनसे ही पुरुषभेदको जाननेवाले धरसेनाचार्यने स्वप्न में सर्व-लक्षण सम्पन्न दो धवल वृषभोंको अपने फिर भी उनकी परीक्षा करना अंगीकार किया । सुपरीक्षा चरणोंमें पड़ते हुए देखा । इस प्रकार सन्तुष्ट हुए ही निःसन्देह हृदयको मुक्ति दिलाती है। । तब धरसेनने धरसेनाचार्य ने 'जयतु श्रुतदेवता'ऐसा कहा। उसी उन्हें दो विद्याएँ दी-जिनमे एक अधिकाक्षरी, दूसरी दिन वे दोनों साधुजन धरसेनाचार्य के पास पहुंच गये हीनाक्षरी थी और कहा कि इन्हें षष्ठोपवासके साथ और तब भगवान् धरसेनका कृतिकर्म (वन्दनादि) करके साधन करो। इसके बाद विद्या सिद्ध करके जब वे उन्होंने दो दिन विश्राम किया, फिर तीसरे दिन विनय विद्यादेवताओंको देखने लगे तो उन्हें मालम हुआ कि के साथ धरसेन भट्टारकको यह बतलाया कि 'हम दोनों एकका दाँत बाहरको बढ़ा हुआ है और दूसरी कानी जन अमुक कार्य के लिये आपकी चरण-शरण में पाए (एकाक्षिणी) है । देवताओंका ऐसा स्वभाव नहीं होता' हैं।' इसपर धरसेन भट्टारकने 'सुष्ठ भद्रं' ऐसा कह- यह विचार कर जब उन मंत्र-व्याकरण में निपुण कर उन दोनोंकी आश्वासन दिया और फिर वे इस मुनियोंने हीनाधिक अक्षरोंका क्षेपण-अपनयन विधान प्रकार चिन्तन करने लगे करके–कमीवेशीको दूरकरके-उन मंत्रोंको फिरसे पढ़ा *"सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि-जा- तो तुरन्त ही वे दोनों विद्या-देवियाँ अपने अपने स्वभावहयसुएहि ।" रूपमें स्थित होकर नज़र आने लगीं। तदनन्तर उन * 'वेण्या' नामकी एक नदी सतारा जिले में है मुनियोंने विद्या-सिद्धिका सब हाल पूर्णविनय के साथ (देखो 'स्थलनाम कोश') । संभवतः यह उसीके तट पर श्रोंको श्रुतका व्याख्यान करना है जो शैलघन, भग्नबसा हुआ नगर जान पड़ता है। घट, सर्प, छलनी, महिष, मेष, जोंक, शुक, मिट्टी और । इन्द्रनन्दिश्रुतावतारमें 'जयतु-श्रीदेवता' लिखा मशकके समान हैं--इन जैसी प्रकृतिको लिये हुए हैंहै, जो कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग वह मूढ बोधिलाभसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसारश्रुतदेवताका है। घनमें परिभ्रमण करता है।' + इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें तीन दिनके विश्रामका इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें 'सुपरीक्षा हृन्नितिकरीति, उल्लेख है । इत्यादि वाक्य के द्वारा परीक्षाकी यही बात सूचित की · * इन गाथाओंका संक्षिप्त श्राशययह है कि 'जो है; परन्तु इससे पूर्ववर्ती चिन्तनादि-विषयक कथन, आचार्य गौरवादिकके वशवर्ती हुआ मोहसे ऐसे श्रोता- जो इसपर 'धरसेन से प्रारम्भ होता है, उसमें नहीं है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक वीर निर्वाण सं० २४६६] धवलादि-श्रुत-परिचय भगवद् धरसेनसे निवेदन किया । इस पर धरसेनजीने वर्षायोगको समाप्त करके तथा 'जिनपालित' को सन्तुष्ट होकर उन्हें सौम्य तिथि और प्रशस्त नक्षत्रके देखकर पुष्पदन्ताचार्य तो वनवास देशको चले गये दिन उस ग्रन्थका पढ़ाना प्रारम्भ किया, जिसका नाम और भूतबलि भी द्रमिल (द्राविड) देशको प्रस्थान कर 'महाकम्मपयडिपाहुड' ( महाकर्मप्रकृतिप्राभृत ) गये । इसके बाद पुष्पदन्ताचार्यने जिनपालितको दीक्षा था । फिर क्रमसे उसकी व्याख्या करते हुए (कुछ दिन देकर, बीस सूत्रों (विंशति प्ररूपणात्मकसूत्रों) की रचना व्यतीत होने पर) श्राषाढ़ शुक्ला एकादशीको पूर्वाह के कर और वे सूत्र जिनपालिनको पढ़ाकर उसे भगवान् समय ग्रन्थ समाप्त किया गया । विनयपूर्वक ग्रन्थका भूतबलिके पास भेजा । भगवान् भूतबलिने जिनपालिअध्ययन समाप्त हुआ, इससे सन्तुष्ट होकर भूतोंने तके पास उन विंशतिप्ररूपणात्मक सूत्रोंको देखा और वहाँपर एक मुनिकी शंख-तुरहीके शब्द सहित पुष्पबलिसे साथ ही यह मालूम किया कि जिनपालित अल्पायु है । महती पूजा की। उसे देखकर धरसेन भट्टारकने उस इससे उन्हें 'महाकर्मप्रकृतिाप्रभत' के व्युच्छेदका विचार मुनिका 'भूतबलि' नाम रक्खा, और दूसरे मुनिका नाम उत्पन्न हुआ और तब उन्होंने ( उक्त सूत्रोंके बाद) 'पुष्पदन्त' रक्खा, जिसको पूजाके अवसर पर भूतोंने 'द्रव्यप्रमाणानुगम' नामके प्रकरणको आदिमें रखउसकी अस्तव्यस्त रूपसे स्थित विषमदन्त-पंक्तिको कर ग्रन्थकी रचनाकी । इस ग्रन्थका नामही 'षटखण्डासम अथात् ठीक कर दिया था * । फिर उसी नाम- गम' है; क्योंकि इस आगम ग्रन्थमें १ जीवस्थान, २ करणके दिनां धरसेनाचार्य ने उन्हें रुखसत ( विदा) तुल्लकबंध, ३ बन्धस्वामित्वविचय, ४ वेदना, कर दिया । गुरुवचन अलंघनीय है, ऐसा विचार कर ५ वर्गणा, और ६ महाबन्ध नामके छह खण्ड अर्थात् वे वहाँसे चल दिये और उन्होंने अंकलेश्वर में आकर विभाग हैं, जो सब महाकर्म-प्रकृतिप्राभूत-नामक मूलावर्षाकाल व्यतीत किया । गमग्रन्थको संक्षिप्त करके अथवा उस परसे समुद्धृत ___* इन्दनदिन्द-श्रतावतारमें उक्त मुनियोंका यह करके लिखे गये हैं । और वह मूलागम द्वादशांगश्रुतनामकरण धरसेनाचार्य के द्वारा न होकर भूतों द्वारा के अग्रायणीय-पर्वस्थित पंचम वस्तुका च किया गया, ऐसा उल्लेख है। है। इस तरह इस घट खंडागम श्रुतके मूलतंत्रकार इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें ग्रन्थसमाप्ति और नामकरण श्री वर्धमान महावीर, अनुतंत्रकार गौतमस्वामी और का एक ही दिन विधान करके उससे दसरे दिन रुखसत उपतंत्रकार भूतबलिपुष्पदन्तादि प्राचार्योको समझना करना लिखा है। चाहिये । भूतबलि-पुष्यदन्तमें पुष्पदन्ताचार्य सिर्फ यह गुजरातके भरोंचं ( Broach ) जिलेका । 'सख्यरूपण' नामक प्रथम अधिकारके कर्ता हैं, शेष प्रसिद्ध नगर है। सम्पूर्ण ग्रन्थ के रचियता भृतबलि प्राचार्य हैं । ग्रन्थका * इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें ऐसा उल्लेख न करके लिखा है कि खुद धरसेनाचार्यने उन दोनों मुनियोंको ___इन्द्रनन्दि-श्रुतावारमें जिनपालितको पुष्पदन्तका 'कुरीश्वर' (?) पत्तन भेज दिया था जहाँ वे दिनमें भानजा लिखा है और दक्षिणकी ओर बिहार करते पहुँचे थे और उन्होंने वहीं आषाढ़ कृष्णा पंचमीको हुए दोनों मुनियोंके करहाट पहुँचने पर उसके देखनेका वर्षायोग ग्रहण किया था । उल्लेख किया है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनेकान्त [वर्ष३, किरण १ श्लोक-परिमाण इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके कथनानुसार परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय... ३६ हजार है, जिनमें से ६ हजार संख्या पांच खण्डोंकी (धाराकी प्रति पत्र ३१३ ) और शेष महाबन्ध खण्डकी है; और ब्रह्महेमचन्द्र के जब धवला और जयधवला दोनों ग्रंथों के रचयिता श्रुतस्कन्धानुसार ३० हज़ार है। वीरसेनाचार्यने एक ही व्यक्तिके लिये इन दो नामोंका यह तो हुई धवला के आधारभूत षटखण्डागम स्वतंत्रतापूर्वक उल्लेख किया है, तब ये दोनों एक ही श्रुतके अवतारकी कथा; अब जयधवलाके अाधारभूत व्यक्तिके नामान्तर हैं ऐसा समझना चाहिये; परन्तु, जहाँ 'कसायपाहुड' श्रुतको लीजिये, जिसे 'पेज्जदोस पाहुड' तक मुझे मालूम है, इसका समर्थन अन्यत्रसे अथवा किसी भी कहते हैं । जय धवलामें इसके अवतारकी प्रारम्भिक दूसरे पुष्ट प्रमाणसे अभी तक नहीं होता-पूर्ववर्ती ग्रंथ कथा तो प्रायः वही दी है जो महावीरसे अाचारांग-धारी 'तिलोयपएणत्ती' में भी 'सुधर्मस्वामी' नामका उल्लेख लोहाचार्य तक ऊपर वर्णन की गई है—मुख्य भेद है । अस्तु; जयधवला परसे शेष कथाकी उपलब्धि इतना ही है कि यहां पर एक-एक बिषय के आचार्योंका निम्न प्रकार होती है:काल भी साथमें निर्दिष्ट कर दिया गया है, जब कि आचारांग-धारी लोहाचार्यका स्वर्गवास होने पर 'धवला' में उसे अन्यत्र 'वेदना' खण्डका निर्देश करते सर्व अंगों तथा पूर्वोका जो एकदेशश्रुत आचार्यपरहुए दिया है । दूसरा भेद अाचार्योंके कुछ नामोंका है। म्परासे चला आया था वह गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ। जयधवलामें गौतमस्वामीके बाद लोहाचार्यका नाम गुणधराचार्य उस समय पाँचवें ज्ञानप्रवाद-पूर्वस्थित न देकर सुधर्माचार्यका नाम दिया है, जो कि वीर दशम वस्तुके तीसरे 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ-महाभगवान्के बाद होने वाले तीन केवलियोंमेंसे द्वितीय स्वके पारगामी थे। उन्होंने ग्रंथ-व्युच्छेदके भयसे और केवलीका प्रसिद्ध नाम है। इसी प्रकार जयपाल की प्रवचन-वात्सल्यसे प्रेरित होकर, सोलहहजार पद परिजगह जसपाल और जसबाहू की जगह जयबाहू नामका माण उस 'पेज्जदोसपाहुड' ('कसायपाहुई)का १८०8 उल्लेख किया है । प्राचीन लिपियोंको देखते हुए 'जस' सूत्र गाथाओंमें उपसंहार किया-सार खींचा। साथ ही, और 'जय' के लिखनेमें बहुतही कम अन्तर प्रतीत होता इन गाथाश्रोंके सम्बन्ध तथा कुछ वृत्ति-आदिकी सूचक है इससे साधारण लेखकों द्वारा 'जस' का 'जय' और ५३ विवरण-गाथाएँ भी और रची, जिससे गाथाओंकी 'जय' का 'जस' समझलिया जाना कोई बड़ी बात नहीं कुल संख्या २३३ हो गई । इसके बाद ये सूत्र-गाथाएँ है । हाँ, लोहाचार्य और सुधर्माचार्यका अन्तर अवश्य (शेषांशके लिये देखो, पृ० १३६ ) ही चिन्तनीय है । जयधवलामें कहीं कहीं गौतम और जम्बूस्वामीके मध्य लोहाचार्यका ही नाम दिया - इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें 'व्यधिकाशीत्या युक्तं है; जैसा कि उसके 'अणुभागविहत्ति' प्रकरणके निम्न शतं' पाठके द्वारा मूलसूत्रगाथाओंकी संख्या १८३ अंशसे प्रकट है: सूचित की है, जो ठीक नहीं है और समझनेकी किसी "विउलगिरिमत्थयत्थवढढमाणदिवायरादो ग़लतीपर निर्भर है। जयधवलामें १८० गाथाओंका विणिग्गमिय गोदम लोहज्ज -जंबुसामियादि आइरिय खूब खुलासा किया गया है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य अनेकान्तात्मक है [ लेखक – श्री बाबू जयभगवानजी जैन, बी० ए० एल० एल० बी०, वकील ] +CO$103+ सत्य * अनेकान्तात्मक है या अनन्तधर्मात्मक है, इस बाद के समर्थन में इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि सत्यका अनुभव बहुरूपात्मक है । जीवनमें व्यवहारवश वा जिज्ञासावश सब ही सत्यका निरन्तर अनुभव किया करते हैं; परन्तु क्या वह अनुभव सबका एक समान है ? नहीं, वह बहुरूप है । अनुभवकी इस विभिनताको जानने के लिये जरूरी है कि तत्त्ववेताओंके सत्यसम्बन्धी उन गूढः मन्तव्यका अध्ययन किया जाय, जो उन्होंने सत्य के सूक्ष्म निरीक्षण, गवेषणा और मननके बाद निश्चित किये हैं । इस अध्ययन से पता चलेगा कि यद्यपि उन सबके अन्वेषणका विषय एक सत्यमात्र था, तो भी उसके फलस्वरूप जो अनुभव उनको प्राप्त हुए हैं, वे बहुत ही विभिन्न हैंविभिन्न ही नहीं किन्तु एक दूसरेके विरोधी भी प्रतीत होते हैं। धिदैविकदृष्टि (Animistic Outlook) रखनेवाले भोगभौमिक लोग समस्त अनुभव्य बाह्य जगत और प्राकृतिक अभिव्यक्तियोंको अनुभावक अर्थात अपने ही समान स्वतन्त्र, सजीव, सचेष्ट सत्ता मानते हैं । वे उन्हें अपने ही सआयो IMP इस लेखके लेखक बाबू जयभगवानजी वकील दि० जैन समाज एक बड़े ही अध्ययनशील और विचारशील विद्वान् हैं - प्रकृति से भी बड़े ही सज्जन हैं । आप बहुधा चुप-चाप कार्य किया करते हैं, इसीसे जनता आपकी सेवामय-प्रवृत्तियोंसे प्रायः अनभिज्ञ रहती है। मेरे अनुरोधको पाकर आपने जो यह लेख भेजनेकी कृपा की है उसके लिये मैं आपका बहुत ही आभारी हूँ। यह लेख कितना महत्वपूर्ण है और कितनी अधिक अध्ययनशीलता, गवेषण तथा विचारशीलताको लिये हुए है उसे सहृदय पाठक पढ़कर ही जान सकेंगे । इस परसे सत्यको समझने और यह मालूम करनेमें कि पूर्ण र सत्य केवलज्ञानका विषय है पाठकोंको बहुत कुछ आसानी होगी । श्राशा है लेखक महोदय अपने इस प्रकारके लेखों द्वारा बराबर 'अनेकान्त' के पाठकों की सेवा करते रहेंगे, और इस तरह उन्हें भी वह रस बाँटते रहेंगे जिसका श्राप एकान्तमें स्वयं ही प्रास्वादन करते रहते हैं । -सम्पादक * द्रव्य, वस्तु, अर्थ, सामान्य, सत्ता, तत्व आदि सत्यके ही एकार्थवाची नाम हैं । पञ्चाध्यायी १ - १४३, मान हावभाव, जन प्रयोजन, विषय वासना, इच्छा-कामनासे ओतप्रोत पाते हैं । वे जलबाढ, उल्कापात, वज्रपात, अग्निज्वाला, अतिवृष्टि, भूकम्प, रोग, मरी, मृत्यु आदि - यम-विहीन उपद्रवोंको देखकर निश्चित करते हैं कि यह जगतनियमविहीन, उच्छृङ्खल देवताओंका क्रीडास्थल है | मनुष्य की यह आ रम्भिक अधिदैविकदृष्टि हो संसारके प्रचलित देवतावाद (Theism) और पितृवाद (Ancestor + (अ) Haeckle — Riddle of the universe P. 32. (आ) Lord Aveburg — The origin of civilization 1912 P. 242-245 (इ) A. A. Macdonel - Vedic Mythology P. 1, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ अनेकान्त worship) की कारण हुई है। यही वैदिक ऋषियोंकी दृष्टि थी । अनुभव्यदृष्टि (Objective outlo k ) वाले जडवादी वैज्ञानिक अनुभव्यजगत (object) को ही सत्य मानते हैं और अनुभावक आत्मा (Subject) को स्थूल जडकी ही एक अभिव्यक्ति समझते हैं । यह दृष्टि ही जडवादकी आधार हैं । वे लोग जगतमें नियमानुशासित व्यवस्थाका अनुभव करते हैं, प्रत्येक प्राकृतिक अभिव्यक्तिको विशेष कारणोंका कार्य बतलाते हैं, उन कारणों में एक क़म और नियम देखते हैं और उन कारणों पर विजय पानेसे अभिव्यक्तियों पर विजय पानेका दावा करते हैं । उनके लिये अभिव्यक्ति और कारणोंका कार्यकारण-सम्बन्ध इतना निश्चित और नियमित है कि ज्योतिषज्ञ, शकुनविज्ञ, सामुद्रिकज्ञ आदि नियत विद्याओं के जानने वाले वैज्ञानिक, विशेष हेतुओंको देखकर, भविष्य में होनेवाली घटनाओं तकको बतला देने में अपनेको समर्थ मानते हैं । सच पूछिये तो यह कार्य कारण सम्बन्ध (Law of causation) ही इन तमाम विज्ञानोंका आधार है । अनुभावकदृष्टि (Subjective outlook) को ही महत्ता देनेवाले तत्त्वज्ञ आत्मा को ही सर्वस्व सत्य मानते हैं । ज्ञान-द्वारा अनुभव में आनेवाले जगतको स्वप्नतुल्य मोहग्रस्त ज्ञानकी ही सृष्टि मानते हैं । उनके विचार में ज्ञान से बाहर अनुभव्यजगत ( Objective reality ) की अपनी कोई स्वतः सिद्ध सत्ता नहीं है। यह दृष्टि ही अनुभवमात्रवाद (Idealism) की जननी है और शंकर के [वर्ष ३, किरण १ अद्वैतवादका आधार है। व्यवहारदृट्टि (Practical View ) से देखने वाले चार्वाक लोग उन ही तत्त्वोंको सत्य मानते हैं जो वर्तमान लौकिक जीवनके लिये व्यवहार्य और उपयोगी हैं । इस दृष्टिसे देखने वालों के लिये परलोक कोई चीज़ नहीं । उन अपराधों और परोपकारी कार्यों के अतिरिक्त, जो समाज और राष्ट्र द्वारा दण्डनीय और स्तुत्य हैं, पुण्य-पाप और कोई वस्तु नहीं । कञ्चन और कामिनी ही नन्दकी वस्तुएँ हैं। वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ही परमतत्त्व हैं । वे ही प्रत्येक वस्तु आधार हैं। मृत्युजीवनका अन्त है । इन्द्रिय बोध ही ज्ञान हैं — इसके अतिरिक्त और प्रकारका ज्ञान केवल भ्रममात्र है । इन्द्रियबोध से अनुभव में आने वाली प्रकृति ही सत्य है ।। यह दृष्टि ही सामाजिक और राजनैतिक अनुशासनकी दृष्टि है । नैगमदृष्टि वा संकल्पदृष्टि ( Imaginary View ) से देखनेवाले वस्तुकी भूत और भावी श्रवस्था अनुपस्थित होते हुए भी, संकल्पशक्तिद्वारा उपादान और प्रयोजनकी सदृश्यता और विभिन्न कालिक अवस्थाओंकी विशेषताओंको संयोजन करते हुए वस्तुको वर्तमान में त्रिकालवर्ती सामान्य विशेषरूप देखते हैं । यह दृष्टि लोगों की दृष्टि है। f. Das Gupta-A History of Indian Philosophy 1922, P. 439. 1. S. Radha Krishnon-Indian Philosophy Vol. 1, 2nd edition, P. 279. ( ) राजवार्तिक पृ० ४५४ ( श्रा) द्रव्यानुयोग - तर्कणा ६-६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्तात्मक है नैय्यायिकदृष्टि (Logical View) से देखने की भूत तथा भावी अवस्थाको लक्ष्यमें न लाकर वाले वस्तुको सम्बन्ध-द्वारा संकलित विभिन्न स- केवल उसकी वर्तमान अवस्थाको ही लक्ष्य बनाते त्ताओंकी एक संगृहीत व्यवस्था मानते हैं। उनका हैं। उनका कहना है कि चूकि इन्द्रियों द्वारा जो मूलसिद्धान्त यह है कि प्रत्येक अनुभूतिके अनुरूप कुछ भी बाह्यजगतका बोध होता है, वह ज्ञेय कोई सत्ता जरूर है, जिसके कारण अनुभूति होती पदार्थके शृङ्खलाबद्ध परिणामोंके प्रभावसे पैदा है । चूंकि ये अनुभूतियाँ सप्त मूलवों में विभक्त हो होनेवाले द्रव्येन्द्रियके शृङ्खलाबद्ध विकारोंका सकती हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, फल है, इसलिये वस्तु परिणामोंकी शृङ्खलामात्र सम्बन्ध (समवाय ?) और प्रभाव । अतः सत्यका है। यह दृष्टि ही क्षणिकवादी बौद्ध दार्शनिकों की इन सात पदार्थोंसे निर्माण हुआ है। यह दृष्टि ही है। यही दृष्टि आधुनिक भूतविद्याविज्ञोंकी है * । वैशेषिक और न्यायदर्शनको अंभिप्रेत है । ज्ञानदृष्टि ( Epistimological View ) से अनुभूतिके शब्दात्मक निर्वाचन पर भी न्याय- देखनेवाले तत्त्ववेत्ता, जो ज्ञानके स्वरूपके आधार विधिसे विचार करने पर हम उपयुक्त प्रकारके ही पर ही ज्ञेयके स्वरूपका निर्णय करते हैं, कहते हैं निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। संसारमें वाक्य-रचना कि वस्तु, वस्तुबोधके अनुरूप अनेक लक्षणोंसे इसीलिये अर्थद्योतक है कि वह अर्थ वा सत्यानु- विशिष्ट होते हुए भी, एक अखण्ड, अभेद्य सत्ता भतिके अनुरूप है । वह सत्यरचनाका प्रतिबिम्ब है। अर्थात जैसे ज्ञान विविध, विचित्र अनेकान्ताहै। जैसे वाक्य, कर्ता, क्रिया, विशेषण-सूचक त्मक होते हुए भी खण्ड-खण्डरूप अनेक ज्ञानोंका शब्दों वा प्रत्ययोंसे संगृहीत एक शब्द-समूह है संग्रह नहीं है, प्रत्युत प्रात्माका एक अखण्ड-अभेद्य वैसे ही वस्तु भी द्रव्य, गुण, कर्म पदार्थोंका सम- भाव है, वैसे ही ज्ञान-द्वारा ज्ञात वस्तु भी अनेक वाय-सम्बन्धसे संकलित विभिन्न सत्ताओंका समूह गुणों और शक्तियोंका सामूहिक संग्रह नहीं है बल्कि एक अभेद्य सत्ता है। वर्तमान इन्द्रियबोधको महत्ता देनेवाले सामान्य-ज्ञेयज्ञानकी दृष्टि वा संग्रहदृष्टि ऋजुमूत्रदृष्टि ( Physical View ) वाले वस्तुको (Synthetic-view)वाले तत्त्वज्ञोंको वस्तु एकता निरन्तर उदयमें आनेवाली, अनित्य पर्यायों, भावों त्मक-अद्वैतरूप प्रतीत होती है । ऐसा मालूम होता और क्रियाओंकी एक शृङ्खलामात्र अनुभव करते है कि समस्त चराचर जगत एकताके सूत्रमें बँधा हैं । वे उस उद्भवके उपादान कारणरूप किसी है, एकताके भावसे ओत-प्रोत है, एकताका भाव सर्वव्यापक, शाश्वत और स्थायी है। अन्य समनित्य आधारको नहीं देख पाते। क्योंकि वे वस्तु म्त भाव औपाधिक और नैमित्तिक हैं, अनित्य हैं Das Gupta-A History of Indian Phi- + Das Gupta-A History of Indian Philosophy losophy, P. 312. ____ 1922, P. 158. B. Russil-Analysis of Matter, 1927, * B. Russil-F. R.S. The Analysis of Matter P. 39. 1927, P. 244-247. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ और मिथ्या हैं । यही दृष्टि थी जिसके आवेशमें .की दृष्टि है । इसी दृष्टि द्वारा निष्पक्ष हो, साहसऋग्वेद १-१६४-४६ के निर्माता ऋषिको वैदिक- पूर्वक विविध अनुभवोंका यथाविधि और यथाकालीन विभिन्न देवताओंमें एकताका भान जग स्थान समन्वय करते हुए सत्यकी ऐसी विश्वव्यापी उठा और उसकी हृदयतन्त्रीसे एकं सत् विप्राः बहुधा सर्वग्राहक धारणा बनानी चाहिये जो देश, काल वदन्ति' का राग बह निकला । यह दृष्टि ही वेदान्त- और स्थितिसे अविच्छिन्न हो, प्रत्यक्ष-परोक्ष, तथा दर्शनकी दृष्टि है । . तर्क अनुमान किसी भी प्रमाणसे कभी बाधित न विशेष-ज्ञेयज्ञानकी दृष्टि वा भेददृष्टि (Ana- हो, युक्तिसंगत हो और समस्त अनुभवोंकी सत्यांlytic-view) से देखने पर, वस्तु अनेक विशेष शरूप संतोषजनक व्याख्या कर सके। भावोंकी बनी हुई प्रतीत होती है। प्रत्येक भाव क्या सत्यनिरीक्षणकी इतनी ही दृष्टियाँ हैं भिन्न स्वरूप वाला, भिन्न संज्ञावाला दिखाई पड़ता जिनका कि ऊपर विवेचन किया गया है ? नहीं, है। जितना जितना विश्लेषण किया जाय, उतना यहाँ तो केवल तत्त्ववेत्ताओंकी कुछ दृष्टियोंकी ही उतना विशेष भावमेंसे अवान्तर विशेष और रूपरेखा दी गई है । वरना व्यक्तित्व, काल, अवान्तर विशेषमेंसे अवान्तर विशेष निकलते परिस्थिति और प्रयोजनकी अपेक्षा सत्यग्रहणकी निकलते चले जाते हैं, जिसका कोई अन्त नहीं है। दृष्टियाँ असंख्यात प्रकार की हैं । और दृष्टिअनुरूप यही दृष्टि वैज्ञानिकोंकी दृष्टि है। यह दृष्टि ही वि- ही भिन्न भिन्न प्रकारसे सत्यग्रहण होने के कारण भिन्न विज्ञानोंकी सृष्टिका कारण है। सत्य सम्बन्धी धारणायें भी असंख्यात हो जाती समन्वयकारि-ज्ञानकी दृष्टि (Philosophi- हैं । cal View ) से देखने पर वस्तु सामान्य विशेष, तत्त्वजोंकी मान्यताओं में विकार । अनुभावक-अनुभव्य, (subjective and obje- संसारके तत्त्वज्ञोंकी धारणाओंमें सबसे बड़ा ctive), भेद्य-अभेद्य, नियमित-अनियमित, नित्य- दोष यही है कि किसीने एक दृष्टिको, किसीने अनित्य, एक-अनेक, सत-असत्, तत-अतत् आदि दूसरी दृष्टिको, किसीने दो वा अधिक दृष्टियोंको अनेक सहवर्ती प्रतिद्वन्दोंकी बनी हुई एक सुव्यव- सम्पूर्ण सत्य मानकर अन्य समस्तदृष्टियोंका बहिस्थित, संकलनात्मक, परन्तु अभेद्य सत्ता दिखाई ष्कार कर दिया है । यह बहिष्कार ही उनकी सबपड़ती है,जो सर्वदा सर्व ओरप्रसारित,विस्तृत और से बड़ी कमजोरी और निःस्साहस है । इस बहिउद्भव हो रही है ।। यह दृष्टि ही 'वीरशासन' कारने ही अनेक विरोधाभासि-दर्शनोंको जन्म * Das Gupta--A History of Indian Philosophy, P. 177.. उपर्युक्त दृष्टि के लिये देखें धर्मद्रव्य अर्थात् Ether के बहिष्कारने (अ) B. Russil-The Analysis of Matter. * (अ) गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, ८६४ ___London 1927. Chap-XXIII तत्त्वार्थसूत्र १-३३ पर की हुई राजवार्तिक टीका (आ) हरिवंशपुराण, २८-६२ (इ) न्यायावतार, २६ की सिद्धर्षिगणि कृत टीका । गोम्मटसार-कर्मकाण्ड ८१५ . (था) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्तात्मक है आत्मा और प्रकृतिके पारस्परिक सम्बन्धके सम- मत है है। परन्तु पारमार्थिकदृष्टि (Transcendeझानेमें कठिनाई उपस्थित की है । आत्मा और ntal view) वालोंके लिये, जो वर्तमान जीवनको मनका बहिष्कार दूसरी कमजोरी है । यह बहिष्कार अनन्तप्रवाहका एक दृश्यमात्र मानते हैं, जिनके लिये ही जडवादका आधार हुआ है । प्रकृतिका बहिष्कार जन्म आत्माका जन्म नहीं है और मृत्यु आत्माकी भी कुछ कम भूल नहीं है-इसने संकीर्ण अनुभव- मृत्य नहीं है और जिनके लिये 'अहं' प्रत्ययरूप मात्रवाद ( Idealism ) को जन्म दिया है । आत्मा शरीरसे भिन्न एक विलक्षण, अजर, अमर, जीवनके व्यवहार्य पहलू पर अधिक जोर देनेसे सच्चिदानन्द सत्ता है, संसार दुखमय प्रतीत होता लोकायत मार्गको महत्व मिला है । लौकिक जीवन- है और इन्द्रिय-सुख निस्सार तथा दुःखका कारण चर्या-जीवनके व्यवहार्य पहलूको बहुत गौण दिखाई पड़ता है ।। करनेसे छायावादका उदय हुआ है ।। अनुभवकी तरहसत्यके प्रति प्राणियोंका ___ सत्यानुभूतिके साथ जीवनलक्ष्यका आचार भीबहुरूपात्मक है - घनिष्ट सम्बन्ध सत्यका-जीवनलक्ष्यका-अनुभव ही बहुरूजगत और जीवन-सम्बन्धी विविध अनुभूति- पात्मक नहीं है प्रत्युत इन अनुभवोंके प्रति क्रिया यों और धारणाओंके साथ साथ जीवनके आदर्श रूप प्राणधारियोंने अपने जीवन निर्वाहके लिये और लक्ष्य भी विविध निर्धारित हुए हैं । वह अपने जीवनको निष्कण्टक, सुखमय और समुन्नत लक्ष्य तात्कालिक इन्द्रिय-सुखसे लेकर दुष्प्राप्य बनानेके लिये जिन मार्गोको ग्रहण कर रक्खा है, आध्यात्मिक सुख तक अनेक भेदवाला प्रतीत (अ) हरिभद्रसूरिः-षड्दर्शनसमुचना, ८०-८५ होता है। (आ) श्रीमाधवाचार्य-सर्वदर्शनसंग्रह-चाक___ लौकिक दृष्टिवालोंके लिये, अर्थात् उन लोगों दर्शन के लिये जो व्यवहारमें प्रवृत्त वर्तमान लौकिक (इ) सूत्रकृतांग-२-१,१५-२१, जीवनको ही सर्वस्व समझते हैं,जो इसीको जीवन- (ई) प्रादिपुराण ५, ५३-७५, का आदि और अन्त मानते हैं, जो जीवनको (उ) दीघनिकाय-सामन्जसफलसुत्त भौतिक इन्द्रियकी एक अभिव्यक्ति देखते हैं, यह + (अ) उत्तराध्ययनसूत्र-१३-१६,१४.२१-२३ । संसार सुखमय प्रतीत होता है। उनके लिये इन्द्रिय (आ) कुन्दकुन्द-द्वादशानुप्रेक्षा। सुख ही जीवनका रस और सार है। इस रससे (इ) बौद्ध साहित्यमें "संसार दुःखमय है" यह मनुष्यको वञ्चित नहीं करना चाहिये । जडवादी चार आर्यसत्योंमें एक आर्यसत्य कहा गया चार्वाक-दार्शनिकों ( Hedonsists ) का ऐसा ही है। धम्मपद १७, दीघनिकाय-महासतिपट्टानसुत्त । : Sir Oliver Lodge F. R.S.---Ether and (ई) महाभारत-शान्तिपर्व, १७५.१; १७४-७. Reality, London, 1930. P.20. १२१३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त - वर्ष ३, किरण १ वे भी विभन्न प्रकारके हैं। कोई भोगमार्गको, कोई जानना जरूरी होता है । यह सब इसलिये न कि त्यागमार्गको,कोई श्रद्धा मार्गको, कोई भक्तिमार्गको, जो बात हमें जाननी अभीष्ट है, उसकी लोकमें कोई ज्ञानमार्गको,कोई कर्मयोगको, कोई हठयोगको कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । वह तो विराट सत्यउपयोगी मार्ग बतलाते हैं। का एक सत्यांश मात्र है । ये समस्त सत्यांश, __ ये समस्त मार्ग दो मूल श्रेणियोंमें विभक्त समस्त तत्त्व, जिनको जाननेकी हमें इच्छा है, गुणकिये जा सकते हैं - एक प्रवृत्तिमार्ग दूसरा निवृ गुणी, कारण-कार्य, साधन-साध्य, वाचक-वाच्य, त्तिमार्ग 8 । पहला मार्ग बाह्यमुखी और व्यवहार ज्ञान-ज्ञेय, आधर- आधेय आदि अनेक सम्बन्धोंदृष्टिवाला है, दूसरा मार्ग अन्तर्मुखी और आध्या- द्वारा एक दूसरेके इतने आश्रित और अनुगृहीत त्मिकदृष्टिवाला है और पारमार्थिक कल्पनाओंको हैं कि यदि हमें एक तत्त्वका सम्पूर्ण बोध हो जाय लिये हुए है। पहला अहंकार, मूढ़ता और मोहकी तो वह सम्पूर्ण तत्त्वोंका, सम्पूर्ण सत्यका बोध उपज है, दूसरा आत्मविश्वास, सज्ज्ञान और होगा। इसीलिये ऋषियोंने कहा है कि जो ब्रह्मको पूर्णताकी उत्पत्ति है । पहला प्रेयस है दूसरा श्रेयस जानता है वह ब्रह्माण्ड को जानता है । । इसलिये है। पहला इन्द्रियतृप्ति, इच्छापूर्ति और आडम्बर- आत्मा ही ज्ञातव्य है, मनन करने योग्य है, श्रद्धा संचयका अनुयायी है। दसरा इन्द्रियसंयम, इच्छा- करने योग्य है । इसको जाननेसे सर्वका जाननेनिरोध और त्यागका हामी है। पहला अनात्म, वाला, सर्वज्ञ हो जाता है * । इस प्रकारका बोध बाह्य, स्थूल पदार्थों का ग्राहक है । दूसरा स्वाधीन, ही. जो समस्त सत्यांशोंका, समस्ततत्त्वोंका, उनके अक्षय, सर्वप्राप्य सूक्ष्म-दशाका अन्वेषक है। पहला पारस्परिक सम्बन्धों और अनुग्रहका युगपत् जानने जन्ममरणाच्छादित नाम-रूप-कर्मवाले संसारकी वाला है, जैन परिभाषामें 'केवलज्ञान' कहलाता जननी और धात्री है । दूसरा इस संसारका उच्छे- है। यह बोध, लोक-अनुभावित सामान्य-विशेष, दक और अन्तकर है । जीवनके मब मार्ग इन ही एक-अनेक, नित्य-अनित्य. भेद्य-अभेद्य, तत-अतत् दो मूल मागों के अवान्तरभेद हैं। : Sir Oliver Lodge. Ether and Reality P. 19. __ सत्य-सम्बन्धी आचार और विचारमें जो तदात्मानमेव वेदहं ब्रह्मास्मीति तस्मात् तत्सर्व सर्व ओर विभिन्नता दिखाई देती है, वह बहुरूपा- अभवत्। -शत० ब्रा० १ ४ ३-२-२१, त्मक सत्यका ही परिणाम है। * (अ) आत्मा वा अरे द्रष्टव्यःश्रोतव्यो मन्तव्यो निदिसत्य अनेक सत्यांशोंकी व्यवस्थात्मक सत्ता है ध्यासितव्यः । मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन, श्रव णेन, मत्या, विज्ञानेनेदं सर्वविदितम् । - यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि एक बातको निश्चित -वृहदा ० उपनिषद् २-४-५, रूपसे जानने के लिये हमें कितनी ही और बातोंको (आ) एवं हि जीवरायो णादव्यो तहय सद्दहेदव्यो। (अ) कठोपनिषद् २-१ (आ) मनुस्मृतिः १२ अणुचरिदब्वोय पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण । ६६, (इ) अंगुत्तरनिकाय ८-२-१-३ -समयसार, १-१८, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ] आदि समस्त प्रतिद्वन्दोंकी बनी हुई सुव्यवस्थित सत्ताकायुगपत् बोध होनेके कारण उपर्युक्त समस्त विरोधाभासों परिमाणों (?), विकल्पों, त्रुटियों और पूर्णताओं से रहित है । यह अद्वितीय और विलक्षण बोध है † । वास्तव में जो सम्पूर्ण सत्यको जानता है वही सम्पूर्णतया सत्यांशको जानता है और जो सम्पूर्णतया सत्यांशको जानता है वही सम्पूर्ण सत्यको जानता है । जो सम्पूर्णसत्यको नहीं जानता वह पूर्णतया सत्यांशको भी नहीं । जानता । सत्य अज्ञों द्वारा पूरा नहीं जाना जा सकता जीवन और जगतकी रचना और व्यवस्था, जीवन के लक्ष्य और मार्ग, लोकके उपादान कारणभूत द्रव्योंके स्वरूप और शक्तियों के सम्बन्धमें यद्यपि तत्रज्ञोंने बहुत कुछ अनुभव किया है— बहुत कुछ' भाषाद्वारा उसका निर्वाचन भी किया है - यह सब कुछ होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि किसी भी प्रस्तुत विषय सम्बन्धी जो कुछ अनुभव होना था सो हो चुका और जो कुछ कहने योग्य था वह कहा जा चुका । A वस्तु इन समस्त अनुभवों और निर्वाचनोंसे प्रदर्शित होनेके बावजूद भी इनसे बहुत ज्यादा है। वह तो अनन्त है - वह काल क्षेत्र परिमित इन्द्रिय बोध, अभिप्राय परिमित बुद्धि और अवयवमयी जड शब्दों से नहीं ढका जा सकता । जिज्ञासुओंका अनुभव इस बातका साक्षी है कि जितना जितना गहरा अध्ययन किया जाता है, + ( अ ) तत्वार्थसूत्र १ - २६ ( आ ) गोम्मटसार जीवकाण्ड, ४५६, (इ) श्रालापपद्धति । * प्रवचनसार १-४८, सत्य अनेकान्तात्सक है २३ जितना जितना बोध बढ़ता जाता है, उतना उतना ही ज्ञातव्यविषयका अज्ञात अन्तर्हित क्षेत्र और अधिक गहरा और विस्तीर्ण होता चला जाता है । ऐसी स्थिति में विचारकको, महान तत्त्ववेता सुकृतीश के शब्दों में, वस्तुकी असीम अथाह अनन्तता और अपनी बुद्धिकी अल्पज्ञताका अनुभव होने लगता है । उसे प्रतीत होता है कि वस्तुतत्त्व न वचनों से मिल सकता है, न बुद्धिसे प्राप्त हो सकता है और न शास्त्रका पाठ करनेसे पाया जा सकता है ।। इसलिये औपनिषदिक शब्दोंमें कहा जा सकता है कि जो यह कहता है कि मैं बहुत जानता हूँ वह कुछ नहीं जानता और जो यह कहता है कि मैं कुछ नहीं जानता वह बहुत कुछ जानता है ।। जैन परिभाषा में विचारकके इस दुःखमय अनुभवको कि इतना वस्तु सम्बन्धी कथन सुनने, शास्त्र पढ़ने, मनन करने और विचारने पर भी उसको वस्तुका सम्पूर्ण ज्ञान न हो पाया और वस्तु ज्ञान अभी बहुत दूर है, 'ज्ञानपरिषद' से प्रकट किया गया है * । ज्ञानवाद और संशयवादकी उत्पत्ति के कारण भी उपर्युक्त भाव हैं । इस अनुभव के साथ ही विचारकके हृदयमें ऐसी आशंका पैदा होने लगती है कि क्या सत्यका + नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । कठोथानिषत् २–२२ यस्यामतं तस्यमतं मतं यस्य न वेद सः । अविज्ञातं विजानता, विज्ञातमविजानताम् ॥ — केनोपनिषद् २-३, * तत्वार्थसूत्र 8 - 8, । उत्तराध्ययन सूत्रं २ २ ४५, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वास्तविक स्वरूप ज्ञानगम्य है भी । उसकी बुद्धि सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद से अनुरञ्जित होजाती है । वह ऋग्वेद १०-१२ सूक्तके निर्माता ऋषि परमेष्ठीकी तरह सोचने लगता है कि "कौन पुरुष ऐसा है जो जानता है कि सृष्टि क्यों बनी और कहाँसे बनी और इसका क्या आधार है । मुमकिन है कि विद्वान लोग इस रहस्य को जानते हों । परन्तु यह तत्त्व विद्वान लोग कैसे बतला सकते हैं । यह रहस्य यदि कोई जानता होगा तो वही जानता होगा जो परमव्योममें रहनेवाला अध्यक्ष है । । वह पारस देशके सुप्रसिद्ध कवि, ज्योतिषज्ञ और तत्त्वज्ञ उमरखय्याम की तरह निराशा से भरकर कहने लगता है । भूमण्डल के मध्यभागसे उठकर मैं ऊपर आया । सातों द्वार पार कर ऊँचा शनिका सिंहासन पाया । कितनी ही उलझनें मार्गमें सुलझा डाली मैंने किन्तु मनुज-मृत्युकी और नियतिकी खुली न ग्रन्थिमयीमाया ३१ यहाँ ‘कहाँसे क्यों’ न जानकर परवश आना पड़ता है वाहित विवश वारि-सा निजको नित्य बहाना पड़ता है कहाँ चले?फिर कुछन जानकर इच्छाहो, कि अनिच्छा हो परपटपर सरपट समीर-सा हमको जाना पड़ता है ॥ । । । अनेकान्त तत्वज्ञोंके इस प्रकारके अनुभव ही दर्शन - शास्त्रों के सन्दिग्धवाद और अज्ञानवाद सिद्धान्तों के कारण हुए हैं । तो क्या सन्दिग्धवाद और अज्ञान वाद सर्वथा ठीक हैं? नहीं। सन्दिग्धवाद और अज्ञानबाद भी सत्यसम्बन्धी उपयुक्त अनेक धारणाओं के 1 श्रीनरदेव शास्त्री - ऋग्वेदालोचन, संवत् १६८५, पृ० २०३ २०५ + रुबाइयात उमरखय्याम - अनुवादक श्री मैथिली शरण गुप्त, १९३१ [ वर्ष ३, किरण १ समान एकान्तवाद हैं, एक विशेष प्रकारक के अनुभवकी उपज हैं । इस अनुभवका आभास विचारक को उस समय होता है जब वह व्यवहार्य सत्यांश बोधके समान ही विराट सत्यका वा सूक्ष्म सत्यका बोध भी इन्द्रियज्ञान, बुद्धि और शास्त्राध्ययनके द्वारा हासिल करनेकी कोशिश करता है । इस प्रयत्न में असफल रहने के कारण वह धारणा करता है कि सत्यसर्वथा अज्ञेय है । पूर्णसत्य केवलज्ञानका विषय है परन्तु वास्तव में सत्य सर्वथा अज्ञेय नहीं है । सत्य अनेक धर्मोकी अनेक सत्यांशोंकी, अनेक तत्त्वोंकी व्यवस्थात्मक सत्ता है। उनमें से कुछ सत्यांश जो लौकिक जीवनके लिये व्यवहार्य हैं और जिन्हें जाननेके लिये प्राणधारियोंने अपनेको समर्थ बनाया है, इन्द्रियज्ञानके विषय हैं, निरीक्षण और प्रयोगों (Experiments) द्वारा साध्य हैं। कुछ बुद्धि और तर्क से अनुभव्य है, कुछ श्रु आश्रित हैं, कुछ शब्द द्वारा कथनीय हैं और लिपिवद्ध होने योग्य हैं । परन्तु पूर्णसत्य इन इन्द्रियग्रा, बुद्धिगम्य और शब्दगोचर सत्यांशों से बहुत ज्यादा है। वह इतना गहन और गम्भीर है - बहुलता, बहुरूपता और प्रतिद्वन्दों से ऐसा भरपूर है है कि उसे हम अल्पज्ञजन अपने व्यवहृत साधनोंद्वारा - इन्द्रिय निरीक्षण, प्रयोग, तर्क, शब्द आदि द्वारा - जान ही नहीं सकते । इसीलिये वैज्ञानिकों के समस्त परिश्रम जो इन्होंने सत्य रहस्यका उद्घाटन करने के लिये आज तक किये हैं, निष्फल रहे हैं । सत्य आज भी अभेद्य व्यूहके समान अपराजित खड़ा हुआ है। " Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक. वीर निर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्तात्मक है वास्तवमें बात यह है कि इन्द्रिय,बुद्धि और वचन प्रत्येक मनुष्य अपनी वर्तमान अविकसित आदि व्यवहत साधनोंकी सृष्टि पूर्ण सत्यको जान- दशामें इस केवलज्ञानका पात्र नहीं है। केवलनेके लिये नहीं हुई। उनकी सृष्टि तो केवल लौकिक ज्ञान तो दूर रहा, साधारणतया अधिकांश मनुष्य जीवनके व्यवहारकं लिये हुई है । इस व्यवहारके तो सत्यको देखते हुए भी इसे नहीं देख पाते सत्य-सम्बन्धी जिन जिन तत्त्वोंका जितनी जितनी और सुनते हुए भी उसे नहीं सुन पाते +, अतः मात्रामें जानना और प्रकट करना आवश्यक और जो सत्यका लब्धा, ज्ञाता और वक्ता है वह उपयोगी है उसके लिये हमारे व्यवहृत साधन ठीक निःसन्देह बहुत ही कुशल और आश्चर्यकारी पर्याप्त हैं । परन्तु पूर्णसत्य इन सत्यांशोंसे बहुत व्यक्ति है ।। बड़ा है, उसके लिये उपयुक्त साधन पर्याप्त नहीं श्रद्धामार्गका कारण भी उपयुक्त हैं । “वह इन्द्रिय बोध, तर्क और बुद्धिसे परे है प्राप्तत्व ही है वह शब्दके अगोचर है-वह हम अल्पज्ञों द्वारा यही कारण है कि सब ही धर्मपन्थनेताओंने नहीं जाना जा सकता । इस अपक्षा हम सब ही साधारण जनताके लिये, जो अल्पज्ञताके कारण अज्ञानी और सन्दिग्ध हैं।। पूर्णसत्य उस आ- बच्चोंके समान है अन्तःअनुभवी ऋषि और महापुवरणरहित, निर्विकल्प, साक्षात अन्तरंग ज्ञानका रुषोंके अनुभवों, मन्तव्यों और वाक्योंको ईश्वरीय विषय है, जो दीर्घतपश्चरण और समाधि-द्वारा ज्ञान ठहराकर-आप्तवचन कहकर-उनपर श्रद्धा, कर्मक्लेशोंसे मुक्त होने पर योगीश्वरोंको प्राप्त विश्वास और ईमान लाने के लिये बहुत जोर दिया होता है, जो ज्ञानकी पराकाष्ठा है, जो केवलज्ञानके है। इस श्रद्धापर्वक ही जीवन निर्वाह करनेको नामसे प्रसिद्ध है । जिसके प्राप्त होनेपर आत्मा श्रेयस्कर बतलाया है। प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदायका सर्वज्ञ, सर्वानुभू* सर्वविन कहलाता है।" बतलाया हुआ मार्ग, उसके बतलाये हुए सिद्धान्तों Ti) .1. E. Taylor -Elements of Meta- पर श्रद्धा कर physics, London 1924, P. +12. (II).Sir Oliver Lodge --::her and Reality; वाच्य और उसके अनेक वाच्य 1930, P. 5s and 23. यह सत्यके बहुविध अनुभवकी ही महिमा है (III) गोम्मटसार जीवकाण्ड-गा. नं० ३३३, (IV) पंचाध्यायी-२,६१६, * "उतत्वः पश्यन्नददर्श वाचमुतत्वशृण्वन्नशृणो* (1) न्यायावतार-२७ । त्येनाम् -ऋग्वेद १०-७१-४ (A) योगदर्शन-"तदासर्वावरणमलापेतस्य ज्ञान- (II) Hear ye inderd but understard not स्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम्" ४-३१ and see ye indeed but perceive not. (III) प्रश्नोपनिषत् ४-११ । वृहदा० उपनिषत् ____Bible Isaiah VI-9. १-५-१०। श्रवणायापि बहुभिर्योनलभ्यः शृण्वन्तोऽपिबहवो * "ससर्वज्ञः सर्ववित्" मु० उ० १-१-६ । 'अयमात्मा यं न विद्युः आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ब्रह्मसर्वानुभू' वृ० उ० २-५-१६, ज्ञाता कुशलानुशिष्टा - कठोपनिषत् २-७, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अनेकान्त कि सत्यका बहुविध-साधनों, बहुविध संज्ञाओं और बहुविध शैली से सदा प्रदर्शन किया जाता रहा 1 इसीके प्रदर्शनके लिये शब्द, स्थापना, द्रव्य, भाव आदि साधनों से काम लिया जाता है। सही वाच्य के अनेक वाचक शब्द प्रसिद्ध हैं । उस हीके सुगम बोधके लिये आलंकारिक और तार्किक शैली प्रचलित है । किसी वस्तुके वाचक जितने शब्द आज उपयोगमें आरहे हैं, उन सबके वाच्य अनुभव एक दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं । वे एक ही वस्तुकी भिन्न भिन्न पर्यायोंके वाचक हैं और इसीलिये उनका नाम पर्यायवाची शब्द ( Synonym ) है । यह बात दूसरी है कि अज्ञानता के कारण आज उन सब शब्दों को हम बिना उनकी विशेषता समझे एक ही अर्थ में उपयुक्त करें, परन्तु, भाषाविज्ञानीजन उन समस्त पर्यायवाची शब्दोंकी भिन्न विशेषता जानते हैं । ये विभिन्न पर्य्यायवाची शब्द एक ही देश, एक ही काल, एक ही जाति, एक ही व्यक्ति की सृष्टि नहीं हैं, प्रत्युत विभिन्न युगों, विभिन्न देशों, विभन्न जा तियों और विभिन्न व्यक्तियों की सृष्टि हैं। यह बात शब्दों के इतिहास से ज्ञात हो सकती हैं। 1 हमारा ज्ञानगम्य और व्यवहारगम्य सत्य एकाधिक और सापेक्ष सत्य है । वर्ष ३, किरण १ द्वारा सम्पूर्ण सत्यांशोंको नहीं जान पाते । कर्म उनकी पूर्णताकी प्रतीक्षा नहीं करता । अतः उन्हें अपने अधूरे अनुभवों के आधार पर ही अपने दर्शनका संकलन करना होता है। ये अनुभव सबके एक सामान नहीं होते। जैसा कि ऊपर बतलाया है, वे प्रत्येक दृष्टिभेदके कारण विभिन्न प्रकार के होते हैं। दृष्टिकी विभिन्नता ही विज्ञानों और दर्शनोंकी विभिन्नताका कारण है । परन्तु इस विभिन्नताका यह आशय नहीं है कि समस्त विज्ञान और दर्शन मिथ्या हैं या एक सत्य हैं और अन्य मिथ्या हैं । नहीं, सब ही विज्ञान और दर्शन वस्तुकी उस विशेषदृष्टिकी जिससे विचारक ने उसे अध्ययन किया है— उस विशेष प्रयोजनकी जिसको पूर्ति के लिये मनन किया है, उपज हैं। अतः अनी अपनी विवक्षित दृष्टि और प्रयोजनकी अपेक्षा सब ही विज्ञान और दर्शन सत्य हैं । विवेचनसे स्पष्ट हैं कि हम केवल सत्यांशोंका ग्रहण करते हैं पूर्णसत्यका नहीं । और सत्यांशमें भी केवल उनका दर्शन करते हैं जो वर्तमान दशामें व्यवहार्य और जीवनोपयोगी हैं। साधारणजनका तो कथन ही क्या है, बड़े-बड़े तत्ववेत्ता भी अपनी अलौकिक प्रतिभा और तर्क कोई भी सिद्धान्त केवल इस कारण मिध्या नहीं कहा जा सकता कि वह पूर्णसत्य न होकर सत्यांश मात्र है । चूंकि प्रत्येक सत्यांश और उसके आधार पर अवलम्बित विज्ञान और दर्शन अपने अपन क्षेत्रमें जीवनोपयोगी और व्यवहार में कायकारी हैं। अतः प्रत्येक सत्यांश अपनी अपनी दृष्टि और प्रयोजनकी अपेक्षा सत्य है । सिद्धान्त उमी समय मिध्या कहा जा सकता है कि जब वह पूर्णसत्य न होते हुए भी उसे पूर्णसत्य माना जावे | A. E. Taylor Elements of Metaphysics, London. 1924-P. 214. "For a proposition is never untrue simply becau e it is not the whole truth, but only when, not being the whole truth, it is mistaken to be so." Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्तात्मक है २७ उदाहरणके लिये 'मनुष्य' को ही ले लीजिये, की अपेक्षा जिसकी पूर्तिके लिये विज्ञानका निर्माण यह कितनी विशाल और बहुरूपात्मक सत्ता है हुआ है, सत्य है और इसलिये उपयोगी है; परन्तु इसका अन्दाजा उन विभिन्न विज्ञानोंको ध्यानमें अन्यदृष्टियों, अन्यप्रयोजनोंकी अपेक्षा और लानेसे हो सकता है जो 'मनुष्य' के अध्ययनके सम्पूर्णसत्यकी अपेक्षा वही विज्ञान निरर्थक है । आधार पर बने हैं । जैसे:-शारीरिक-रचनाविज्ञान अतः यदि उपर्युक्त विज्ञानोंमेंसे किसी एक विज्ञा(Anatomy), शारीरिक व्यापारविज्ञान (Ph. नको सम्पूर्ण मनुष्यविज्ञान मान लिया जाय तो siology), गर्भविज्ञान (Emibryology),भाषा- वह हमारी धारणा मिथ्या होगी । अतः हमारा विज्ञान (Philology), मनोविज्ञान (Psycho ज्ञानगम्य, व्यवहारगम्य सत्य एकांशिक सत्य है, logy), सामाजिक जीवन-विज्ञान (Sociology), सापेक्ष सत्य है । वह अपनी विवक्षित दृष्टि और जातिविज्ञान (Ethnology), मानवविर्वतविज्ञान प्रयोजनकी अपेक्षा सत्य है । यदि उसे अन्यदृष्टि (Anthropology), आदि । इनमें प्रत्येक विज्ञान और अन्यप्रयोजनकी कसौटीसे देखा जाय या अपने अपने क्षेत्रमें बहुत उपयोगी और सत्य है। यदि उसे पूर्ण सत्य मानलिया जाय तो वह निरपरन्तु कोई भी विज्ञान पूर्णसत्य नहीं है, क्योंकि र्थक, अनुपयोगी और मिथ्या होगा । 'मनुष्य' न केवल गर्भस्थ वस्तु है-न केवल सप्तधातु-उपधातु-निर्मित अङ्गोपाङ्ग वाला एक विशेष - + (अ) द्रव्यानुयोगतर्कणा-६-६ आकृतिका स्थूलपदार्थ है-न केवल श्वासोच्छवाम (मा) पञ्चाध्यायी-१११० लेता हुआ चलता-फिरता यन्त्र है-न केवल (इ) निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् । भाषाभाषी है...वह उपर्यक्त सब कुछ होता हुआ -प्राप्तमीमांसा, १०८ । भी इनसे बहुत ज्यादा है । इसलिये प्रत्येक मनुष्य (1) A.E. Taylor-Elements of Metaphysics. P. 214, Postnot "The degree of truth: सम्बन्धी विज्ञान उस दृष्टिकी अपेक्षा जिससे कि a doctrine contains cannot be deterinined 'मनुष्य' का अध्ययन किया गया है-उस प्रयोजन- is meant to fulfil.." - स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य १. नियम एक तरहसे इस जगत्का प्रवर्तक है। ६. इन्द्रियाँ तुम्हें जीतें और तुम सुख मानो, २. जो मनुष्य सत्पुरुषों के चरित्रके रहस्यको इसकी अपेक्षा तुम इन्द्रियोंके जीतनेसे ही सुख, पाता है वह परमेश्वर होजाता है। आनन्द और परमपद प्राप्त करोगे। ३. चंचल चित्त सब विषम दुःखोंका मूल है। ७. राग बिना संसार नहीं और संसार बिना ४. बहुतोंका मिलाप और थोड़ोंके माथ अति राग नहीं। समागम ये दोनों समान दुःखदायक हैं। ८. युवावस्थामें सर्वसंगका परित्याग परम५. समस्वभावीके मिलनेको ज्ञानी लोग एकांत पदको देता है। -श्रीमदराजचन्द apart from consideration of the purpose it कहते हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीरके शासनमें गोत्रकर्म [ले०-बा० कामताप्रसाद जैन, एमआर०ए०एम.] अगवान् महावीर जैनधर्मके अन्तिम तीर्थंकर थे। निज्जरेथ: यं पनेत्त्य एतरहि कायेन संवुता, वाचाय संव - उन्होंने स्वयं नवीन मतकी स्थापना नहीं की ता, मनसा संवुता तं प्रायति पापस्स प्रकरणं,इति पुराथी; बल्कि क्षीण हुए जैनधर्मका पुनरुद्धार किया णामं कम्मान तपसा व्यन्तिभावा नवानं कम्मान प्रकरथा-अपने ही दंगसे अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पायति भनवस्सयो, आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो, भवके अनुकूल उसका प्रतिपादन किया था। जब नक कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदानाक्खयो, वेदभगवान् महावीर पूर्णसर्वज्ञ नहीं हो लिये थे तब तक नाक्खया सव्वं दुक्खं निज्जिएणं भविस्सति ।" उन्होंने तीर्थ-प्रर्वतनरूप में एक शब्द भी मुखस नहीं -(मज्झिमनिकाय) निकाला था। जीवनमुक्त परमात्मा होकर ही उन्होंने भावार्थ- "हे महानाम, जब मैंने उनसे ऐसा कहा लोककल्याण भावना-मूलक धर्मका निरूपण किया। तब वे निम्रन्थ इस प्रकार बोले, 'अहो, निर्ग्रन्थ ज्ञातजो कुछ उन्होंने कहा, उसका साक्षात् अनुभव करलिया पत्र (महावीर) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं--वे अशेष ज्ञान था-ज्ञान उनमें मूर्तिमान् हो चमका था । इसलिए और दर्शनोंके ज्ञाता हैं । हमारे चलते, ठहरते, मोते, उन्होंने जो कहा वह वस्तुस्थितिका फोटोमात्र था। उन- जागते,--- ममस्त अवस्थात्रोंमें मदैव उनका ज्ञान का सिद्धांत कारण-कार्य सूत्रपर अवलम्बित था । उससे और दर्शन उपस्थित रहता है । उन्होंने कहाः-... जिज्ञासुत्रोंको पूर्ण सन्तोष मिला था और वे उनकी निर्ग्रन्थों ! तुमने पर्व (जन्म) में पापकर्म किये हैं, शरणमें आये थे । बौद्ध शास्त्रोंके कथनसे यह आभास उनकी इस घोर दुश्कर तपस्यासे निर्जग कर डालो। होता है कि तीर्थंकर महावीरके प्रथम पुण्यमयी प्रवचनका मन, वचन. और कायकी संवृत्तिमे (नये) पाप नहीं प्रतिरूप कैसा था ? उनमें लिखा है कि जब म० गौतम बंधते और तपस्यासे पुराने पापोंका व्यय हो जाता बुद्धने निर्ग्रन्थ ( जैन ) श्रमणांसे घोर तपस्या करनेका है। इस प्रकारके नये पापांके रुक जानेमे और पुराने कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दियाः __ पापांके व्ययसे प्रायति मक जाती है; अायति __“एवं वुत्ते, महानाम, ते निगराठा मं एतदवोचु, कक जानेस कम्मों का क्षय होता है, कमनयमे निगण्ठो, भावुसो नाथपुत्तो सम्वजु, सन्वदस्सावी भप- दुःवनय होता है, दुःवक्षयसे वेदनाक्षय और वेदनारिसेसं ज्ञाणदस्सनं परिनानातिः चरतो च मे तितो- नयमे सर्वदुःखांकी निर्जरा हो जाती है ।" च सुत्तस्स च नागरस्स च सततं समितं ज्ञाणदस्सनं इस उद्धरणसे भ० महावीरका महान व्यक्तित्व पच्चपट्टितंतिः, सो एवं श्राहः अस्थि खो वो निगण्ठा और उसके द्वारा प्रतिपादित धर्मका वैज्ञानिक स्वरूप पुग्वे पापं कम्मं कतं, तइमाय कटुकाय दुक्करिकारिकाय स्पष्ट है । निस्सन्देह भ० महावीरका धर्म केवल धर्म Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक ६.६ निर्वाण सं०२४६६] भ० महावीरके शासन में गोत्रकर्भ विज्ञान है । उपर्युक्त उद्धरण इस कथनका साक्षी है। साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए ऊँच-नीच-कुलमें उत्पन्न उसमें धर्मविज्ञानका जो रूप अंकित है, उससे जैन-कर्म- करानेवाले पुद्गलस्कन्धको गोत्र' कहते हैं । सिद्धांतकी भी सिद्धि होती है । कर्म वह सूक्ष्म पुद्गल गोत्रकर्मका सूक्ष्म पुद्गलरूप होना |लाज़िमी है । है जो कषायानुरक्त जीवकी योगक्रियासे आकृष्ट हो आचार्य उसीको स्वीकार करते हुए बताते हैं कि उससे एकमेक बंधको प्राप्त होता है । ऐसी दशामें वे गोत्रकर्मरूप पुद्गलस्कंध जीवको ऊँच-नीच-कुलमें तपस्या-द्वारा नूतन कर्मों की श्रायति ( अास्रव ) रुक उत्पन्न कराते हैं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो जाती है और शेष कर्मोकी निर्जरा हो जानेसे जीवको सकता कि ऊँच-नीच-कुलमें जन्म करा देनेके बंधन में रखनेके लिए कारण शेष नहीं रहता-वह पश्चात् गोत्रकर्म निष्क्रिय हो जाता हो; क्योंकि कर्मकी मुक्त होकर ज्ञानादि अनन्त चतुष्टयका उपभोग करता मूल प्रकृतितियोंमें कोई भी ऐसा नहीं है जो जीवके साथ है। कर्मरूप होने योग्य यह सूक्ष्म पद्गल जो लोकमें भरा परम्परा रूपसे हमेशासे नहो और अपना प्रभाव न रखता हुअा है, संसारी जीवसे सम्बद्ध होकर आठ प्रकारोंमें हो। आयुकर्म प्रकृतिका बन्ध यद्यपि जीवनमें एक परिणत हो जाता है। इन्हींको भ० महावीरने आठ बार ही होता है, परन्तु उसका कार्य बराबर जीवनकर्मप्रकृति कहा है अर्थात् (१) ज्ञानावरणी, (२) पर्यन्त होता है । इसी तरह भ० महावीरने गोत्रकर्मका दर्शनावरणी, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, प्रभाव जन्म लेनेके बाद भी जीवन-पर्यन्त होना प्रति. (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय । चीनदेशके पादित किया है और यही मानना आवश्यक है । यही बौद्ध शास्त्रोंमें इनमेंसे केवल छह मूल्य प्रकृतियोंका कारण है कि श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धांत-चक्रवर्ती गोत्र उल्लेख मिलता है--न मालूम उसमें ज्ञानावरण और कर्मके विषयमें लिखते हैं:-- अन्तरायका उल्लेख होनेसे कैसे छूट गया ? जो हो, 'संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सरणा।' यह स्पष्ट है कि भ० महावीरने अपने धर्मका प्रतिपा- अर्थात्-'सन्तानक्रमसे-कुलपरिपाटीसे-चले आये पादन मूलतः कर्मसिद्धांतके आधारसे किया था, अत- जीवके श्राचारणकी ‘गोत्र' संज्ञा है।' एव कर्मसिद्धांतका विवेचन सामान्य न होकर वैज्ञानिक गोत्रकर्मका यह लक्षण उसके कार्यको बतलाता होना चाहिए । जैनागम इसी बातका द्योतक है । है । जीव एक द्रव्य है । अतएव संसारी जीवका कुलपर___पाठकगण, अब अाइये प्रकृत-विषयका विचार म्परागत आचरण काल्पनिक न होकर नियमित और करें । इस लेखके शीर्षकसे स्पष्ट है कि हमें गोत्रकर्मपर जन्म-सुलभ होना चाहिये । जीवके कुल भी एकेन्द्रियादि विचार करना अभीष्ट है । गोत्रकर्म आठ मूल प्रकृति- की अपेक्षा मानने चाहिये-वे काल्पनिक न होने यों से एक है और उसका लक्षण 'धवलसिद्धांत' मे चाहिये । इस विषयको स्पष्ट समझनेके लिये हमें यं बतलाया गया है: संसारी जीवोंके वर्णन पर जरा विचार करना चाहिये। "उच्चनीचकुलेसु उप्पादश्रो पोग्गलखंधो मिच्छत्ता- यह और इस लेखमें अन्य सिद्धांत-उद्धरण दिपच्चएहि जीवसंबंधो गोदमिदि उच्चदे।" 'अनेकाँत'की पर्व प्रकाशित किरणोंमेंसे लिये गये हैं। अर्थात्--मिथ्यात्वादि कारणोंके द्वारा जीवके जिसके लिए हम लेखकोंके आभारी हैं। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनेकान्त प्रत्येक जैनी जानता है कि संसारी जीव त्रस और स्थावरके रूपमें दो तरह है। त्रसमें दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय श्रौर पंचेन्द्रिय सम्मिलित हैं। पंचेन्द्रियोंमें पशु और मनुष्योंके तिरिक्त देव और नारकी भी सम्मिलित हैं । एकेन्द्रियसे पंचेंद्रिय पशु तक तिर्यच कहलाते हैं । तिर्यञ्चों के अतिरिक्त नारकियों, देवों और मनुयोंका भी पृथक अस्तित्व मिलता है । अब देखना यह है कि किन कारणोंसे जीव नारक - पशु- देव और मनुष्य भवोंमें उच्च-नीच गोत्री होता है । तत्वार्थधिगम सूत्रमें लिखा है कि :— 'परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च चैत्रस्य । तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य । ' अर्थात् -- 'परकी निंदा, अपनी प्रशंसा, परके विद्यमान गुणोंका श्राच्छादन और अपने विद्यमान गुणोंका प्रकाशन, ये नीचगोत्रकर्मके के कारण हैं । इनसे विपरीत अर्थात् अपनी निंदा, परकी प्रशंसा, अपने गुण ढकना और दूसरोंके गुण प्रकाशित करना, नम्रवृत्ति और निरभिमान, ये उच्चगोत्रकर्मके के कारण हैं ।' और इसमें शंका ही नहीं की जा सकती कि जैसा कारण होता है उसीके अनुरूप कार्य होता है - कारणके विरुद्ध कार्य नहीं होता । अतएव उच्च-नीच गोत्र के कारणोंका सम्बन्ध जिस प्रकार धर्माचरण से नहीं है उसी तरह उसका कार्यरूप भी धर्माचरण से संबंधित नहीं किया जा सकता अर्थात् संतान क्रमागत आचरणका भाव सिद्धान्तग्रंथ में धर्माचरण अथवा धर्माचरण नहीं है; बल्कि श्राचरणका भाव सामान्य प्रवृत्ति प्रवृत्ति नरकतिर्यञ्चादि में कुल परम्परासे एक-सी मिलना चाहिये | चूँकि भव-अपेक्षा तिर्यञ्चनारक-देव-मनुष्य पृथक-पृथक हैं, इसलिये उनकी कुल [ वर्ष ३, किरण १ सुलभ प्रवृत्ति अथवा व्यापार भी पृथक्-पृथक् होना श्रावश्यक है। नारकियोंमें जन्म लेते ही जीव ताड़नमारन-छेदन- भेदन रूप संक्लेशमय क्रियाको करने लगता है और वह उसको आयुपर्यन्त कभी न तो 'भूलता है और न छोड़ता ही है । इसलिये नारकियोंका यह व्यापार उनका गोत्रजन्य आचरण है । उनकी यह प्रवृत्ति नियमित, जन्म- सुलभ और शाश्वत है- प्रत्येक नारकी में प्रत्येक समय में वही प्रवृत्ति मिलेगी। इसी तरह तिर्यञ्चों में गोत्रजन्य व्यापार देखना चाहिये । उनका गोत्रजन्य व्यापार भी जन्म सुलभ, नियमित और जीवनपर्यन्त रहने वाला होना चाहिये । तिर्यञ्चों में क्षुधानिवृत्तिके लिये नाना प्रकारसे उद्योग करनेका भाव और प्रवृत्ति सर्वोपरि होती है । अपनी खाद्य वस्तुको खोजने, उसको संभालकर रखने और काम में लानेका चातुर्य प्रत्येक पशुमें जन्मगत देखनेको मिलता है— कोई उनको सिखाता नहीं । शेर, बिल्ली आदि खँ ख्वार जानवरोंको शिकार की घातमें रहनेकी चालाकी किसीने सिखाई नहीं है --बया चिड़ियाको खास तरहका घौंसला बनाना, शहदकी मक्खियोंको अपना छत्ता बनाना और चींटियोंको अपनी बिलें बनाने की शिक्षा किसने दी है ? तिर्यञ्चोंकी यह सब प्रवृत्ति जन्मगत होने से उनका कुल परम्परीण श्राचरण ( व्यापार ) है । अतः यही उनका गोत्रजन्य व्यापार कार्य है । किन्तु प्रश्न यह है कि उनका यह व्यापार शुभ और प्रशंसनीय है अथवा नहीं ? नारकियों की प्रवृत्ति संक्लेशमयी रौद्रताको लिये हुये है, जो जीवके स्वभावसे प्रतिकूल और उसके संसारको बढ़ने वाली है । इसी तरह तिर्यञ्चोंकी प्रवृत्ति मायावी और मूर्छाभावको लिये हुए है । आत्मा का धर्म श्रार्जव है - माया और मूर्छा उससे परेकी चीजें हैं। इसलिये नारक और तिर्यञ्चोंकी प्रवृत्तियाँ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] भ०महावीरके शासन में गोत्रकर्ग उपादेय न होनेके कारण हितकर और प्रशंसनीय नहीं मानना उचित है क्योंकि यह जन्मसुलभ, नियमित है-वे हैं भी अशुभ, क्योंकि नरक और तिर्यञ्च-गतियाँ और मनुष्य जीवन में कमी न बदलने वाली शाश्वती स्वयं अशुभ है । अतएव नारक और तिर्यञ्चोंका गोत्र प्रवृत्ति उसी तरह है जिस तरह देवादिमें उनकी गोत्रभी अशुभ अर्थात् नीच होना चाहिये । सिद्धान्तमन्थोंमें जन्य प्रवृत्ति है । साथ ही, चंकि यह प्रवृत्ति ज्ञानसे उसे नीच ही बताया गया है। साल्लक रखती है, इसलिये श्रेष्ट है-शुभ है। क्योंकि ज्ञान ____ अब रहे केवल मनुष्य और देव । देवोंके प्रास्माका गुण है । अतएव मनुष्यजातिमें बज़ाहिर गोत्रजन्य व्यापारके विषय में मतभेद नहीं है- काल्पनिक भेद-प्रभेद रूप वर्गीकरण होते हुए भी, जैसे उनका श्रानन्दी जीवन है--क्रीड़ा करनेमें ही देव कि देवोंमें भी है, उनको उच्चगोत्री मानना ही ठीक है मग्न रहते हैं । अानन्दी जीवनमें श्राकुलताके लिये श्रीमान् वयोवृद्ध सूरजभानुजी साहबने इस विषयका बहुत-कम स्थान है-श्रानन्द प्रात्माका स्वाभाविक ठीक ही प्रतिपादन किया है । 'ठाणायंत्र' में मनुष्यों के गुण है । इसलिये देवोंकी प्रवृत्ति शुभ है । यही कारण चौदह लाख कोटि कुलोको मोक्षयोग्य ठहराया है। यह है कि देवोंमें ऊँचे-नीचे दर्जेके देवोंका वर्गीकरण होते सिद्धान्त मान्यता तभी ठीक हो सकती है जब कि सब हुए भी सब ही देव उच्च गोत्री कहे गये हैं । अब ही मनुष्योंको उच्चगोत्री माना जायगा । रह जाते हैं केवल मनुष्य ! उनके जन्म-सुलभ व्यापार इसके विपरीत मनुष्योंमें उच्च नीच-गोत्र-जन्य . अथवा गोत्रजन्य प्रवृत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद : ब्यापार यदि मनुष्योंकी लोक-सम्मानित और लोकहै; परन्तु यहाँ पर भी यदि उपर्युक्त देव-नारकादिके निंद्य प्रवृत्तिको माना जाय तो सिद्धान्तमें कही गई गोत्र जन्य ब्यापारकी विशेषताओंका ध्यान रक्खा जाय . बातोंसे विरोध होगा; क्योंकि सिद्धांतमें म्लेच्छ-शूद्र- . तो मतभेदकी संभावना शायद ही रहे । गोत्रजन्य चोर-डाक्-श्रादि लोकनिय मनुष्योंको भी मुनि होते व्यापार जन्म सुलभ, नियमित और शाश्वत होना बताया गया है। इस प्रकरणमें बौद्ध ग्रंथ 'मज्झिमनिचाहिये । अतएव देखना यह चाहिये कि मनुष्योंमें काय' का निम्नलिखित उद्धरण विशेष दृष्टव्य हैं:कौनसी प्रवृत्ति जन्म-सुलभ है, जो जीवन-पर्यन्त “म• गौतम बुद्ध कहते हैं:-"निगंठो, जो लोकमें प्रत्येक देश और प्रत्येक कालके मनुष्योंमें मिलती मिथ्यात्व सौं लेइ अयोगि पर्यंत गुणस्थाननि है ? गौरसे देखिये तो ज्ञात होता है कि एक बालक विषै। मनुष्यके चौदह लाख कोडिकुल कहे हैं, यातें सब होश सँभालने के पहलेसे ही हर बातको जानने की-वस्तु । मनप्यनिके कुलकी संज्ञा मोक्षयोग्य जानी गई । यह के स्वरूपको ग्रहण करनेकी स्वतः ही कोशिस करता है गणोंके यंत्र विर्ष देख लेना।'-चर्चासमाधान मानव जाति के किसी कुलका बालक क्यों न हो, उसमें धवल सिद्धांतमें म्लेच्छोंको मुनिपद धारणेका यह प्रवृत्ति स्वतः ही मिलती है और वह बराबर बनी विधान श्री सूरजभानुजीके लेखसे स्पष्ट है। 'तपणा. रहती है; बल्कि मनुष्य-सन्तानमें उस प्रवृत्तिका संस्कार सार' से भी यह एवं सतशूद्रोंका मुनि होना स्पष्ट जन्मतः दीखता है । इस प्रवृत्तिको श्रुतपर्यवेक्षण-प्रवृत्ति है। क्रूरकर्मा अहिमारक चोर आदिका मुनि होना भी कहना उचित है, और यही मनुष्यका गोत्र जन्य व्यापार भगवती आराधना पृ० ३५३ से स्पष्ट है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ रुद्र ( भयंकर ) खून रंगे हाथ वाले, क्रूरकर्मा, मनुष्यों में अपने जीवनमें साधु होने के पहले बहुत ही क्रूरकर्मी नीचजाति वाले (पचाजाता ) हैं, वे निगंठोंमें साधु था* । क्रूरकर्मी चोरकी लोकमें कोई भी प्रशंसा नहीं बनते हैं।" (चलदुक्ख-खन्ध-सुत्तन्त) करेगा-फिर भी वह मुनि हुश्रा । इसका स्पष्ट अर्थ यह उद्धरण भ० महावीरके समयमें जैनसंघकी यही है कि वह नीचगोत्री नहीं था और गोत्रके व्यापारप्रवृत्तिका दिग्दर्शन कराता है। इसमें बौद्धोंके आक्षेप- का सम्बन्ध लोकनिंद्य और लोकवंद्य अाचरणोंसे नहीं वृत्तिगत संदिग्धताकी भी शंका नहीं करनी चाहिये क्योंकि बैठता। फरकर्मी आदि रूप होना चारित्र मोहनीय जैनागमसे एक हद तक इसका समर्थन होता है । सि- कर्मप्रकृतिसे ताल्लुक रखता है-गोत्रकर्मसे उसका डांत ग्रंथोंसे स्पष्ट है कि रुद्र भृष्ट-मुनि आर्यिकाकी संतान सम्बन्ध बिठाना ठीक नहीं । अतएव उपर्युक्त विवेचनहोता है और ग्यारह अंग और नौ पूर्वोका पाठी मुनि के आधारसे यह मानना ठीक ऊँचता है कि भ० महाहोता है । भ० महावीरके समयमें सात्यकिपुत्र नामक वीरने मनुष्यजातिको उच्चगोत्री ही बताया था । मनुष्योंअंतिम रुद्र ज्येष्ठा आर्यिका और सात्यकि मुनिका का जन्मगत व्यापार-श्रुतपर्यवेक्षणभाव उन्हें उच्चगोत्री व्यभिचारजात पुत्र था। वैदिक धर्मकीप्रधानता उस का- ही ठहराता है गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा नं० १८ ल में बिल्कुल नष्ट नहीं हुई थी और कुलमदका व्यवहार से हमारे उपुक्त वक्तव्यका समर्थन होता है; क्योंकि लोगोंमेंसे एकदम दूर नहीं हो गया था-व्यभिचार- उसमें नीच-उच्च-गोत्र भवाश्रित बताये हैं । मनुष्यभव जातको जनता लोकनिंद्य नीच ही मानती थी; किन्तु उच्च ही माना गया है । मनन करनेकी क्षमता रखने तीर्थकर महावीरने अन्तिम रुद्रकी लोकनिन्द्यताका वाला जीव ही मानव है और वह अवश्य ही सर्वश्रेष्ट ज़रा भी खयाल नहीं किया और उसे मुनि दीक्षा देदी। प्राणी है । भ० महावीरने ऐसा ही कहा था, यह उपइसी तरह अहिमारक चोरने मुनि होकर एक राजाको र्यक्त विवेचनसे स्पष्ट है । आशा है, विद्वज्जन इस जानम मार डाला, जिससे यह स्पष्ट है कि अहिमारक विषयको और भी स्पष्ट करेंगे। ॐ देखो श्राराधना कथाकोशमें सात्यकि और रुद्र कथा नं० २७ । देखो अनन्तकीर्ति ग्रन्थमालामें प्रकाशित भगवती आराधनाकी 'अहिमारण्ण'आदि गाथा नं.२०७१ विविध प्रश्न प्र.-कहिये धर्मका क्यों आवश्यकता ? चाहिये । यदि कर्मको पहले कहो तो जीवके उ०-अनादि कालसे आत्माके कर्म-जाल दर करने बिना कर्मको किया किसने ? इस न्यायसे के लिये। दोनों अनादि हैं। प्र०-जीव पहला अथवा कम ? प्र. जीव रूपी है अथवा अरूपी? ०-दोनों अनादि हैं। यदि जीव पहले हो ना २०-देहके निमित्तसे रूपी है और अपने स्वरूपसे इम विमल वस्तुको मल लगका कोई निमिन अरूपी। -राजचन्द्र Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका अाधार [ लेखक-न्यायदिवाकर न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार शास्त्री ] [ इस लेखके लेखक पं० महेन्द्रकुमारजी शास्त्री काशी-स्याद्वाद महाविद्यालयके एक प्रसिद्ध विद्वान हैं, और वहाँ न्यायाध्यापकके अासन पर आसीन हैं। हाल में आप षटखण्ड-न्यायाचार्यके पदसे भी विभूषित हुए हैं जैनियोंमें सर्वप्रथम आपकोही काशीकी इस षट्खण्ड-न्यायाचार्यकी पदवीसे विभूषित होनेका सौभाग्य प्राप्त हुश्रा है। आप बड़ेही विचारशील एवं सजन हैं और खूब तुलनात्मक अध्ययन किया करते हैं, जिसका विशेष परिचायक आपके द्वारा सम्पादित हुआ न्यायकुमुदचन्द' नामका ग्रन्थ है। तुलनात्मक दृष्टिसे लिखा हुआ आपका यह लेख बड़ा ही महत्वपूर्ण है । इसमें भगवान् महावीरकी अनेकान्त दृष्टिका और उसे दूसरे दर्शनों पर जो गौरव प्राप्त है उसका बड़े अच्छे ढंगसे प्रतिपादन एवं स्पष्टीकरण किया गया है । साथ ही, जो यह बतलाया है कि, अनेकान्तदृष्टिको अपनाए बिना वास्तविक अहिंसा नहीं बन सकती-राग-द्वेष और विरोधकी परम्परा बन्द नहीं हो सकती, अनेकान्तदृष्टि जैनधर्मकी जान है,उसे छोड़कर अथवा भुलाकर हम वीरशासनके अनुयायी नहीं रह सकते,अनुयायी बनने और अपना भविष्य उज्ज्वल तथा जीवन सफल करनेके लिये हमें प्रत्येक प्रश्न पर–चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक-अनेकान्त दृष्टि से विचार करना होगा, वह सब खासतौरसे ध्यान देनेके योग्य है । अाशा है पाठकजन लेखको ग़ौरसे पढ़कर यथेष्ट लाभ उठाएँगे। -सम्पादक] भारतीय दर्शनशास्त्रोंके सामान्यतः दो विभाग किये निकलता है वे यद्यपि स्वयं प्राचारप्रधान थे तथापि जा सकते हैं-एक वैदिक दर्शन और दूसरे उत्तरकालीन प्राचार्यवर्गने अपने अपने दर्शनोंके अवैदिक दर्शन । वैदिक दर्शनमें वेदको प्रमाण मानने विकासमें तर्ककी पराकाष्ठा दिखाई है और उस उस वाले वैशेषिक, न्याय, उपनिषद्, सांख्य, योग, पर्व- तर्कजन्य विकासशील साहित्यसे दर्शनशास्त्र के कोषागारमीमांसा श्रादि दर्शन हैं । अवैदिक दर्शनों में वैदिक यज्ञ- में अपनी अोरसे भी पर्याप्त पंजी जमा की है। हिंसा के खिलाफ़ विद्रोह करने वाले, वेदकी प्रमाणता बौद्धदृष्टिकी उदभति . . पर अविश्वास रखने वाले बौद्ध और जैनदर्शन हैं । बद्ध जब तपस्या करने जाते हैं तब उनकी विचारवैदिक दर्शनके अाधार एवं उद्भव स्थानमें विचारोंका धाराको देखिए । उसमें दर्शनशास्त्र-जैसी कल्पनाओंको प्रामुख्य है तथा अवैदिक दर्शनोंकी उद्भूति प्राचार- कोई स्थान ही नहीं है । उस समय तो उनका करुणाशोधनकी प्रमुखतासे हुई है । प्रायः सभी दर्शनोंका मय हृदय संसारके विषय कषायोंसे विरक्त होकर मारअन्तिम लक्ष्य 'मोक्ष' है । गौण या मुख्यरूपसे तत्त्व- विजयको उद्यत होता है । वे तो विषय-कषाय ज्वालासे ज्ञानको साधन भी सभीने माना है । वैदिकदर्शनकी बुरी तरह झुलसे हुए प्राणियोंके उद्धारके लिए अपना परम्पराके स्थिर रखने के लिये तथा उसके अतुल विका- जीवन होम देनेकी भावनाको पुष्ट करते हैं । उनका सके लिये प्रारम्भसे ही बुद्धिजीवी ब्राह्मणवर्गने सुदृढ चित्तप्रवाह संसारको जलबुबुदकी तरह क्षणभंगुर, प्रयत्न किया है । यही कारण है कि आज वैदिकदर्शनों- अशुचि, निरात्मक-अात्मस्वरूपसे भिन्न अात्माके लिए की सूक्ष्मता एवं परिमाणकी तुलनामें यद्यपि अवैदिक निरुपयोगी, तथा दुःखरूप देखता है । वे इस दुःखदर्शन मात्रामें नहींवत् है, पर उनकी गहराई और सन्तति के मूल कारणोंका उच्छेद करने के लिए, किसी सूक्ष्मता किसी भी तरह कम नहीं है । बौद्ध और जैन- दर्शनशास्त्रको रचना नहीं करके उसके मार्गकी खोजके .. दर्शनका मूलस्रोत जिन बुद्ध और महावीरके वाक्योंसे लिए तपस्या करते हैं । छह वर्ष तक उग्र तपस्या चलती Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ है, पर जब सिद्धि नहीं होती तो तपस्याके उत्कट मार्गसे आत्माको कूटस्थ-अविकारी नित्य, कोई व्यापक, कोई उनका भावुक मातृहृदय चित्त ऊबने लगता है। इस उसे अणुरूप तो कोई उसे भूत-विकाररूप ही मानते समय उनकी चित्तसन्तति, जो एकनिष्ठ होकर दुःखनिव- थे। बुद्धने इन विभिन्न वादोंके समन्वय करनेकी कोई त्तिकी उग्र साधना कर रही थी, अपनी असफलता देख- कोशिश नहीं की बल्कि उन्होंने इन दिमाग़ी गुत्थियोंका कर विचारकी ओर झुकती है और उसके द्वारा मध्यम सुलझाना निरुपयोगी समझा और शिष्योंको इस दिमाग़ो मार्गको ढूंढ निकालती है । वे स्थिर करते हैं कि- कसरतमें न पड़नेकी सूचना दी । उनका लक्ष्य मात्र एक अोर यदि विषयासक्त हो शरीरपोषण करना अति आचरणकी ओर ही था। है तो दूसरी ओर उग्रतपस्या-द्वारा शरीरशोषण भी हाँ, दयालुमानस बुद्धने उग्रतपस्यासे ऊबकर अति है, अतः दोनोंके बीचका मार्ग ही श्रेयस्कर हो अपने मृदुमार्गके समाधान के लिए मध्यमदृष्टिका अा. सकता है । वे इस मध्यममार्गके अनुसार अपनी तपस्या- लम्बन लिया था, उस आचरणकी सुविधा के लिए की उग्रता ढीली करते हैं। इससे हम एक नतीजा तो अवश्य ही उन्होंने मध्यमप्रतिपदाका बादमें भी उपयोग सहज ही निकाल सकते हैं कि बुद्धका जीवनप्रवाह किया । बद्धका हृदय माताकी तरह स्नेह तथा कोमल अहिंसात्मक श्राचारकी अोर ही अधिक था, इस समय भावनाओंसे लबालब भरा हुआ था। उनके हृदयको बुद्धिका काम हुआ है तो साधनकी खोजमें । जब बोधि- अपने प्यारे लालोंकी तरह शिष्योंकी थोड़ी भी तकलीफ लाभ करनेके बाद संघ रचनाका प्रश्न आया, शिष्य- या असुविधासे बड़ी ठेस लगती थी, अतः जब भी परिवार दीक्षित होने लगा, उपदेश-परम्परा शुरू हुई शिष्यों के प्राचारकी सुविधा के लिए दो संघाटक (वस्त्र) तब विचारका मुख्य कार्य प्रारम्भ हुश्रा । इस विचार- रखनेकी, जन्ताघर (स्नानागार) बनानेकी, भिक्षामें क्षेत्रमें भी हम बुद्ध के उपदेशमें दर्शनशास्त्रीय प्रात्मा सायंकालके लिए भी अन्न लाने आदिकी मांग पेश की आदि पदार्थों के विवेचनमें अधिक कुछ नहीं पाते । वे तो तो माताकी तरह बुद्धका हृदय पिघल गया और उन्होंने मात्र दुःख, समुदय-दुःखके कारण, निरोध-दःख पत्रवत शिष्योंको उन बातोंकी सुविधा दे दी। तात्पर्य निवृत्ति और मार्ग-दुःख निवृत्ति का उपाय, इन चार यह कि-बुद्धकी मध्यम प्रतिपदा व्यक्तिगत प्राचारकी आर्य सत्योंका स्वरूप बताते थे और अपने अनुभुत कठिनाइयोंको हल करनेके सहारेके रूपमें उद्भुत हुई दुःख-मोक्षके मार्ग पर चलनेकी अन्तःप्रेरणा करते थे। थी और वह वहीं तक ही सीमित रही । उस पुनीत दृष्टिने उन्होंने अपने आचरणकी उग्रताको ढीला करने के लिए अपना श्रेयस्कर प्रकाशका विस्तार विचार-क्षेत्र में नहीं जिस मध्यमप्रतिपदाकी ओर ध्यान दिया था उस किया. नहीं तो कोई ऐसा माकल कारण नहीं है कि मध्यमप्रतिपदा (अनेकान्तदृष्टि) को उस समय के प्रच- जिससे बौद्धदार्शनिक ग्रंथों में परपक्ष-खडनके साथ भी लित विभिन्न वादोंके समन्वयमें नहीं लगाया। हम उन इतर मतोंका समीकरण न देखा जाता । जब बुद्धने स्वयं के उपदेशोंमें इस मध्यमप्रतिपदासे होने वाले समीक- ही इसे मध्यमप्रतिपदाका विचार क्षेत्रमें उपयोग नहीं रणका दर्शन प्रायः नहीं पाते । श्रात्मा श्रादि के विषय में किया तब उनके उत्तरकालीन प्राचार्योंसे तो उसके उस समय अनेकों विरोधी मत प्रचलित थे । कोई उपयोगकी अाशा ही नहीं की जा सकती। यही कारण Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६] है कि - उत्तरकालीन प्राचार्योंने बुद्ध के उपदेशों में आए हुए क्षणिक, विभ्रम, शून्य, विज्ञान श्रादि एक एक शब्द के आधार पर प्रचुर ग्रन्थराशि रच डाली और क्षणभंगवाद, विभ्रनवाद, शून्यवाद, ज्ञानाद्वैतवाद श्रादि वादोंको जन्म देकर इतरमतोंका निरास भी बड़े फटाटोपसे किया । इन्होंने बुद्धकी उस मध्यमदृष्टिकी र समुचित ध्यान न देकर वैदिकदर्शनों पर ऐकान्तिर प्रहार किया । मध्यमप्रतिपदा के प्रति इनकी उपेक्षा यहाँ तक बढ़ी कि - मध्यमप्रतिपदा ( श्रनेकान्तदृष्टि ) के द्वारा ही समन्वय करनेवाले जैनदार्शनिक भी इनके आक्षेपोंसे नहीं बच सके । बौद्धाचार्योंने 'नैरात्म्य' शब्द के आधार पर श्रात्माका ऐकान्तिक खंडन किया; भले ही बुद्धने नैरात्म्य शब्दका प्रयोग 'जगतको श्रात्मस्वरूप से भिन्नत्व, जगत्का श्रात्माके लिए निरुपयोगी होना, कूटस्थ श्रात्मतत्त्वका प्रभाव' आदि अर्थों में किया था । 'क्षणिक' शब्दका प्रयोग तो इसलिए था कि - हम स्त्री जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार दि पदार्थों को शाश्वत और एकरूप मानकर उनमें श्रासक्त होते हैं, अतः जब हम उन्हें क्षणिक-विनश्वर, बदलनेवाले समझने लगेंगे तो उस श्रोरसे चित्तको विरक्त करने में पर्याप्त सहायता मिलेगी। स्त्री श्रादिको हम एक अवयवी–अमुक आकारवाली स्थूल वस्तुके रूपमें देखते हैं, उसके मुख आदि स्थूल अवयवोंको देखकर उसमें राग करते हैं, यदि हम उसे परमाणुओं का एक पुंज ही समझेंगे तो जैसे मिट्टी के ढेरमें हमें राग नहीं होता उसी तरह स्त्री आदि के अवयवोंमें भी रागकी उद्भूति नहीं होगी । बौद्धदर्शन-ग्रन्थोंमें इन मुमुक्षु भावनाओंका लक्ष्य यद्यपि दुःख-निवृत्ति रहा पर समर्थनका ढंग बदल गया । उसमें परपक्षका खंडन अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गया तथा बुद्धि-कल्पित विकल्पजालोंसे बहु विध पन्थ और ग्रंथ गूंथे गए । ३५ मध्यमप्रतिपदाका शाब्दिक श्रादर तो सभी बौद्धचायने अपने अपने ढँगसे किया पर उसके अन्तर्निहिततत्त्वको सचमुच भुला दिया । शून्यवादी मध्यमप्रतिपदाको शून्यरूप कहते हैं तो विज्ञानवादी उसे विज्ञानरूप । शून्यवादियोंने तो सचमुच उसे शून्यता का पर्यायवाची ही लिख दिया है " मध्यमा प्रतिपत्सैव सर्वधर्मनिरात्मता । भूतकोटिश्च सैवेयं तथता सर्वशून्यता ॥” अर्थात् - मध्यमा प्रतिपत्, सर्वधर्मनैरात्म्य और सर्वशून्यता, ये पर्यायवाची शब्द हैं। यही वास्तविक और तथ्यरूप है । सारांश यह कि बुद्धकी मध्यमा प्रतिपत् श्रपने शैशवकाल में ही मुरझा गई, उसकी सौरभ सर्वत्र न फैल सकी और न उत्तराधिकारियोंने ही इस ओर अनुकूल प्रयत्न किया । जैनदृष्टा धार और विस्तार भगवान् महावीर अत्यन्त कठिन तपस्या करनेवाले तपः शूर थे । इन्होंने अपनी उग्रतपस्यासे कैवल्य प्राप्त किया । भगवान् महावीरने बुद्धकी तरह अपने श्राचारको ढीला करने में श्रनेकान्तदृष्टिका सहारा नहीं लिया और न अनेकान्त दृष्टिका क्षेत्र केवल श्राचार ही रक्खा । महावीरने विचारक्षेत्र में अनेकान्तदृष्टिका पूरा पूरा उपयोग किया; क्योंकि उनकी दृष्टि में विचारोंका समन्वय किए बिना श्राचारशुद्धि असंभव थी । आत्मादि वस्तुओंके कथनमें बुद्धकी तरह महावीरने मौनावलम्बन नहीं किया; किन्तु उनके यथार्थ स्वरूपका निरूपण किया । उन्होंने कहा कि - श्रात्मा है भी, नहीं भी, नित्य भी है और नित्य भी । यह श्रनेकान्तात्मक वस्तुका कथन उनकी मानसी अहिंसाका अवश्यम्भावी फल है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... अनेकान्त . .. . : वर्ष ३, किरण १ कायिक अहिंसाके लिए व्यक्तिगत प्राचार-शुद्धि किसी अनेकान्तदृष्टिका स्वरूप तरह कारगर हो सकती है पर मानसी अहिंसा के लिए तो अनेकान्तदृष्टिके मूलमें यह तत्त्व है कि-वस्तुमें जब तक मानसिक-द्वन्द्वोंका वस्तुस्थिति के आधारसे समी- अनेक धर्म हैं, उनको जाननेवाली दृष्टियाँ भी अनेक करण नहीं किया जायगा तब तक मानसिक अहिंसा हो होती हैं, अतः दृष्टियोंमे विरोध हो सकता है,वस्तुमें नहीं। ही नहीं सकती और इस मानसिक अहिंसाके बिना दृष्टियोंमें भी विरोध तभी तक भासित होता है जब तक बाह्य अहिंसा निष्प्राण रहेगी। वह एक शोभाकी वस्तु हम अंश-ग्राहिणी दृष्टि में पर्णताको समझते रहें। उस हो सकती है हृदयकी नहीं। यह तो अत्यन्त कठिन है समय सहज ही द्वितीय अंशको ग्रहण करनेवाली तथा कि-किसी वस्तुके विषयमें दो मनुष्य दो विरुद्ध धार- प्रथम दृष्टिकी तरह अपने में पूर्णताका दावा रखनेवाली णाएँ रखते हों और उनका अपने अपने ढंगसे समर्थन दृष्टि उससे टकराएगी। यदि उन दृष्टियोंकी यथार्थता भी करते हों, उनको लेकर वाद-विवाद भी करते हों; का भाव हो जाय किये दृष्टियाँ वस्तुके एक एक फिर भी वे आपसमें समतभाव-एक दूसरेके प्रति अंशको ग्रहण करनेवाली हैं, वस्तु तो इनसे परे अनन्तमानस अहिंसा रख सकें। चित्त शुद्धि के बिना अन्य धर्मरूप है, इनमें पूर्णताका अभिमान मिथ्या है तब अहिंसाके प्रकार तो याचितकमंडन-स्वरूप ही हैं । स्वरसतः विरोधी रूपसे. भासमान द्वितीय दृष्टिको भगवान महावीरने इसी मानस-अहिंसा के पालन के लिए उचित स्थान मिल जायगा । यही तत्त्व उत्तरकालीन अर्निवचनीय-अखंड अनन्तधर्मवाली वस्तुके विषयमें प्राचार्योंने बड़े सुन्दर शब्दोंमें समझाया है किप्रचलित विरुद्ध अनेक दृष्टियोंका समन्वय करनेवाली, एकान्तपना वस्तुमें नहीं है, वह तो बुद्धिगतधर्म है । जक विचारोंका समझौता करानेवाली पुण्यरूपा अनेकान्तदृष्टि' बुद्धि द्वितीय दृष्टिका प्रतिक्षेप न करके तत्सापेक्ष हो को सामने रखा । इससे हरएक वादी वस्तुके यथार्थस्व- जाती है तब उसमें एकान्त नहीं रहता, वह अनेकान्तरूपका परिज्ञान कर अपने प्रतिवादियोंकी दृष्टिका उचित मयी होजाती है। इसी समन्वयात्मकदृष्टि से होनेवाला रूपसे श्रादर करे, उसके विचारोंके प्रति सहिष्णुताका वचनव्यवहार 'स्याद्वाद' कहलाता है । यही अनेकान्तपरिचय दे, रागद्वेष विहीन हो, शान्त चित्तसे वस्तु के ग्राहिणी दृष्टि 'प्रमाण' है । जो दृष्टि वस्तु के एक धर्मको अनिर्वाच्य स्वरूप तक पहुँचनेकी कोशिश करे। मुख्यरूपसे ग्रहण कर इतरदृष्टियोंका प्रतिक्षेप ___समाजरचना और संघनिर्माण के लिए तो इस न करके उचित स्थान दे वह 'नय' कहलाती है । तात्त्विकी दृष्टिकी बड़ी आवश्यकता थी; क्योंकि संघमें इस मानस अहिंसाकी. कारण-कार्यभत अनेकान्तविभिन्न सम्प्रदाय एवं विभिन्न विचारोंके व्यक्ति दीक्षित दृष्टि के निर्वाहार्य स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी आदिके होते थे, इस यथार्थ दृष्टि के बिना उनका समीकरण होना ऊपर उत्तरकालीन श्राचार्योंने खूब लिखा। उन्होंने असंभव था और बिना समन्वय हुए उनकी अहिंसाकी उदारतापूर्वक यहाँ तक लिखा कि 'समस्त मिथ्यैकान्तोंतथा संघमें पारस्परिक सद्भावकी कल्पना ही नहीं की के समूहरूप अनेकान्तकी जय हो।' यद्यपि पातञ्जल जासकती थी। ऊपरी एकीकरणसे तो कभी भी विस्फोट योगदर्शन, सांख्यदर्शन, भास्कर वेदान्ती आदि इतरहो सकता था, और हुआ भी। ... दर्शनकारोंने भी यत्र-तत्र इस समन्वय दृष्टिका यथासंभव Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६] उपयोग किया है पर स्याद्वाद के ही ऊपर संख्याबद्ध शास्त्र जैनाचार्योंने ही रचे हैं । उत्तरकालीन आचार्योंने यद्यपि महावीरकी उस पुनीत दृष्टि के अनुसार शास्त्र रचना की पर उस मध्यस्थ भाव को अंशतः परपक्षखंडन में बदल दिया । यद्यपि यह श्रावश्यक था कि प्रत्येक एकान्तमें दोष दिखाकर अनेकान्तकी सिद्धि की जाय, पर उत्तरकालमें महावीर की वह मानसी हिंसा उस रूपमें तो नहीं रही । जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार कान्तदृष्टि विकासकी चरमरेखा है। इस तरह दर्शनशास्त्र के विकास के लिहाज़ से विचार करने पर हम अनेकान्तदृष्टि से समन्वय करने वाले जैनदर्शनको विकासकी चरमरेखा कह सकते हैं । चरमरेखासे मेरा तात्पर्य यह है कि दो विरुद्धवादों में तब तक दिमागी शुष्क कल्पनाओं का विस्तार होता जायेगा जब तक उसका कोई वस्तुस्पर्शी हल - समाधान न मिल जाय। जब अनेकान्तदृष्टिसे उनमें सामञ्जस्य स्थापित हो जायगा तब झगड़ा किस बातका और शुष्कतर्क जाल किस लिए ? प्रत्येक वाद के विस्तार में कल्पनाएँ तभी तक बराबर चलेंगी जब तक अनेकान्तदृष्टि समन्वय करके उनकी चरमरेखा पूर्ण - विराम - न लगा देगी । स्वतः सिद्ध न्यायाधीश 3 दृष्टिको हम एक न्यायाधीशके पद पर अनायास ही बैठा सकते हैं । अनेकान्तदृष्टि के लिए न्यायाधीशपद - प्राप्ति के लिये वोट मांगनेकी या अर्ज़ी देनेकी ज़रूरत नहीं है, वह तो जन्मसिद्ध न्यायाधीश है । यह मौजूदा यावत् विरोधिदृष्टि-रूप मुद्दई - मुद्दायलोंका उचित फैसला करने वाली है। उदाहरणार्थ - देवदत्त और यज्ञदत्त मामा- फाके भाई भाई हैं । देवदत्त रामचन्द्रका लड़का है और यज्ञदत्त भानजे । देवदत्त ३७ अपने पिता रामचन्द्रको यज्ञदत्त के द्वारा मामा कहे जाने पर उससे झगड़ता है, इसी तरह यज्ञदत्त रामचन्द्र को देवदत्त द्वारा पिता कहे जाने पर लड़ बैठता है । दोनों लड़के थे बड़े बुद्धिमान । वे एक दिन शास्त्रार्थ करने बैठ जाते हैं- यज्ञदत्त कहता है कि रामचन्द्र मामा ही है; क्योंकि उसकी बहिन हमारी माँ है हमारे पिता उसे साला कहते हैं, उसकी स्त्रीको हम मांई (मामी) कहते हैं, जब वह श्राता है तो मेरी मां पैर पड़ता है, हमें भानजा कहता है इत्यादि । इतना ही नहीं यज्ञदत्त रामचन्द्र के पिता होनेका खंडन भी करता है कि यदि वह पिता होता तो हमारी माँका भाई कैसे हो सकता था ? फिर हमारे पिता उसे साला क्यों कहते ?. वह हमारी मांके पैर भी कैसे पड़ता ? हम उसे मामाक्यों कहते ? आदि । देवदत्त भी कब चुप बैठने वाला था, उसने भी रामचन्द्र के पिता होनेका बड़े फटाटोपसे समर्थन करते हुए कहा कि – नहीं, रामचन्द्र पिता ही है क्योंकि हम उसे पिता कहते हैं, उसका भाई हमारा चाचा है, हमारी मां उसे भाई न कहकर स्वामी कहती है । वह उसके मामा होनेका खंडन भी करता है कि यदि वह मामा होता तो हमारी माँ क्यों उसे नाथ कहती ? हम भी क्यों न उसे मामा ही कहते आदि । दोनों केवल शास्त्रार्थ ही करके नहीं रह जाते किन्तु आपसमें मारपीट भी कर बैठते हैं । अनेकान्तदृष्टि वाला रामचन्द्र पासमें बैठे बैठे यह सब शास्त्रार्थ तथा मल्लयुद्ध देख रहा था । वह दोनों बच्चोंकी बातें सुनकर उनकी कल्पनाशक्ति तथा युक्तिवाद पर खुश होकर भी उस बौद्धिकवाद के फलस्वरूप होने वाली मार पीट - हिंसा से बहुत दुखी हुआ । उसने दोनों लड़कों को बुलाकर धीरेसे वस्तुस्वरूप दिखा कर समझाया किबेटा यज्ञदत्त ! तुम तो बहुत ठीक कहते हो, मैं तुम्हारा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ तो मामा हूँ, पर केवल मामा ही तो नहीं हूँ देवदत्तका को स्थान ही नहीं है । इस मध्यस्थताका निर्वाह उत्तरपिता भी हूँ । इसी तरह देवदत्तसे कहा--बेटा कालीन श्राचार्योंने अंशतः परपक्ष खण्डनमें पड़कर भले देवदत्त ! तुमने भी तो ठीक कहा, मैं तुम्हारा दरअसल ही पूर्णरूपसे न किया हो और किसी अमुक अाचार्य के पिता हूँ, पर केवल पिता ही तो नहीं हूँ, यज्ञदत्तका फैसलेमें अपीलकी भी गुंजाइश हो, पर वह पुनीत मामा भी हूँ । तात्पर्य यह कि उस समन्वयदृष्टिसे दोनों दृष्टि हमेशा उनको प्रकाश देती रही और इसी प्रकाशके बच्चोंके मनका मैल निकल गया और फिर वे कभी भी कारण उन्होंने परपक्षको भी नयदृष्टि से उचित स्थान पिता और मामाके नारण नहीं झगड़े। दिया है । जिस प्रकार न्यायाधीशके फैसलेके उपक्रममें इस उदाहरणसे समझमें आ सकता है कि हर उभयपक्षीय दलीलोंके बलाबलकी जाँचमें एक दूसरेकी एक एकान्तके समर्थनसे वस्तुके एक एक अंशका श्रा- दलीलोंका यथासंभव उपयोग होता है, ठीक उसी तरह शय लेकर गढ़ी गई दलीलें तब तक बराबर चाल रहेंगी जैनदर्शनमें भी इतरदर्शनोंके बलाबलकी जाँचमें और एक दूसरेका खंडन ही नहीं किन्तु इसके फलस्वरूप एक दूसरेकी युक्तियोंका उपयोग किया गया है । अन्तमें रागद्वेष-हिंसाकी परम्परा बराबर चलेगी जब तक कि अनेकान्तदृष्टि से उनका समन्वय कर व्यवहार्य फैसला भी अनेकान्तदृष्टि से उनका वास्तविक वस्तु स्पर्शी समाधान दिया है । इस फैसलेकी मिसलें ही जैनदर्शनशास्त्र हैं । न हो जाय । अनेकान्तदृष्टि ही उन एकान्त पक्षीय अनेकान्त दृष्टिकी व्यवहाराधारता कल्पनाअोंकी चरमरेखा बनकर उनका समन्वय कराती बात यह है कि-महावीर पूर्ण दृढ अहिंसक व्यक्ति है । इसके बाद तो बौद्धिक दलीलोंकी कल्पनाका स्रोत थे। उनको बातकी अपेक्षा कार्य अधिक पसन्द था । अपने आप सूख जायगा । उस समय एक ही मार्ग जब तक हवाई बातोंसे कार्योपयोगी व्यवहार्य वस्तु न रह जायगा कि-निर्णीन वस्तुतत्त्वका जीवन-शोधनमें निकाली जाय तब तक वाद तो हो सकता है, कार्य नहीं। उपयोग किया जाय। मानस अहिंसाका निर्वाह तो अनेकान्तदृष्टिके बिना न्यायाधीशका फैसला एक एक पक्षके वकीलों- खरविषाण की तरह असंभव था। अतः उन्होंने मानस द्वारा संकलित स्वपक्ष समर्थनकी दलीलोंकी फाइलोंकी अहिंसाका मूल ध्रुवमन्त्र अनेकान्तदृष्टिका आविर्भाव तरह आकारमें भले ही बड़ा न हो, पर उसमें वस्तुस्पर्श, किया । वे मात्र बुद्धिजीवी या कल्पनालोक में विचरण व्यावहारिकता एवं सूक्ष्मता अवश्य रहती है। और यदि करनेवाले नहीं थे, उन्हें तो सर्वाङ्गीण अहिंसा प्रचारका उसमें मध्यस्थदृष्टि-अनेकान्तदृष्टि-का विचारपूर्वक सुलभ रास्ता निकालकर जगतको शक्तिका सन्देश देना उपयोग किया गया हो तो अपीलकी कोई गुंजाइश ही था। उन्हें शुष्क मस्तिष्क के कल्पनात्मक बहुव्यायामकी नहीं रहती । इसी तरह एकान्तके समर्थनमें प्रयुक्त अपेक्षा सत्हृदयसे निकली हुई छोटीसी आवाज़की दलीलोंके भंडारभूत इतरदर्शनोंको तरह जैनदर्शनमें कीमत थी तथा वही कारगर भी होती है । यह ठीक भी कल्पनाओंका कोटिक्रम भले ही अधिक न हो और है कि-बुद्धिजीवी वर्ग, जिसका प्राचारसे कोई उसका परिमाण भी उतना न हो, पर उसकी वस्तु सम्पर्क ही न हो, बैठे बैठे अनन्त कल्पनाजालकी रचना सर्शिता, व्यावहारिकता एवं अहिंसाधारतामें तो सन्देह- कर सकता है और यही कारण है कि बुद्धिजीवी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६ ] . वर्गके द्वारा वैदिकदर्शनोंका खूब विस्तार हुआ । पर कार्यक्षेत्र में तो कल्पनाओंका स्थान नहीं है, वहाँ तो व्यवहार्यमार्ग निकाले बिना चारा ही नहीं है । श्रने कान्तदृष्टि जिसे हम जैनदर्शनकी जान कहते हैं, एक वह व्यावहारिक मार्ग है जिससे मानसिक वाचनिक तथा कायिक हिंसा पूर्णरूप से पाली जा सकती है । उदाहरण के लिए राजनैतिक क्षेत्र में महात्मा गान्धीको ही ले लीजिए— ग्राज काँग्रेस में रचनात्मक कार्य करने वाले गाँधी-भक्तोंके सिवाय समाजवादी, साम्यवादी, वर्गवादी, विरोधवादी एवँ अनिर्णयवादी लोगों का जमाव रहा है । सब वादी अपने अपने पक्ष के समर्थन में पूरे पूरे उत्साह तथा बुद्धिबलसे लोकतन्त्रकी दुहाई देकर तर्कों का उपयोग करते हैं । देशके इस बौद्धिक विकास एवं उत्साहसे महात्माजी कुछ सन्तोषकी सांस भले ही लेते हों, पर मात्र इतनेसे तो देशकी गाड़ी श्रागे नहीं जाती । सभी वादियोंसे जब गान्धीजी कहते हैं। कि—भाई, चरखा आदि हम एक तरफ रख देते हैं, तुम अपने वादों कुछ कार्यक्रम तो निकालो, जिसपर अमल करनेसे देश आगे बढ़े । बस, यहीं सब वादियोंके तर्क लँगड़ा जाते हैं और वे विरोध करने पर भी महामाजीक कार्यार्थिताकी दाद देते हैं । अनेकान्तदृष्टि महात्माको सब वादियोंमें कार्याधारसे सामञ्जस्यका रास्ता निकालना ही पड़ता है । उनके शब्द परिमित पर वस्तुस्पर्शी एवं व्यवहार्य होते हैं, उनमें विरोधियोंके तर्कोंका उचित श्रादर तथा उपयोग किया जाता है । इसीलिए गान्धीजी कहते हैं कि - 'मैं वादी नहीं हूँ कारी हूँ, मुझे वादीगर न कहकर कारीगर कहिए, गान्धीवाद कोई चीज़ नहीं है ।' तात्पर्य यह कि कार्यक्षेत्रमें अने जैनदृष्टिका स्थान तथा उसका आधार ३६ कान्तष्टष्टि ही व्यावहारिक मार्ग निकाल सकती है । इस तरह महावीरकी हिंसात्मक अनेकान्तदृष्टि ही जैनदर्शनका मध्यस्तम्भ है । यही जैनदर्शनकी जान है । भारतीय दर्शनशास्त्र सचमुच इस ध्रुवसत्यको पाए बिना पूर्ण रहता । पूर्वकालीन युगप्रतीक स्वामी समन्तभद्र तथा सिद्धसेन आदि दार्शनिकोंने इसी पुण्यरूपा अनेकान्तदृष्टि के समर्थनद्वारा सत् असत्, नित्यानित्य, भेदाभेद, पुण्य-पाप, अद्वैत- द्वैत, भाग्य- पुरुषार्थ, आदि विविध वादों में सामञ्जस्य स्थापित किया । मध्यकालीन कलंक, हरिभद्रादि श्राचार्योंने अंशतः परपक्षखंडन करके भी उक्त दृष्टिका विस्तार एवँ संरक्षण किया । इसी दृष्टिके उपयोगके लिए सप्तभंगी, नय, निक्षेप श्रादिका निरूपण हुआ है । भगवान् वीरने जिस उद्देश्य से इस श्रेयः स्वरूप अनेकान्तदृष्टिका प्रतिपादन किया था, खेद हैं कि आज हम उसे भुला बैठे हैं ! वह तो शास्त्रसभामें सुनने की ही वस्तु रह गई है ! उसका जीवनसे कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा !! यही कारण है कि आज समाज में विविध संस्थाएँ एक दूसरे पर अनुचित प्रहार करती हैं । विचारोंके समन्वयकी प्रवृत्ति ही कुण्ठित हो रही है ! हम यदि सचमुच वीरके अनुगामी होना चाहते हैं तो हमें मौजूदा हरएक प्रश्न पर अनेकान्तदृष्टिसे विचार करना होगा | अन्यथा, हमारा जीवन दिन-ब-दिन निस्तेज होता जायगा और हम विविध पन्थों में बंटकर विनाशकी ओर चले जायेंगे # । * यह लेख गत वीर शासन - जयन्ती के अवसर पर वीरसेवामन्दिर, सरसावामें पढ़ा गया था । -सम्पादक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीनसंवाद ( जाल में मीन ) [ ? ] क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तू ! देखे नहीं मृत्यु समीप आई ! बोला तभी दुःख प्रकाशता वो“सोचूँ यही, क्या अपराध मेरा !! [ २ ] न मानवको कुछ कष्ट देता, नहीं चुराता धन्य-धान्य कोई । सत्य बोला नहिं मैं कभी भी, कभी तीन वनिता पराई ॥ [ ३ ] संतुष्ट था स्वल्प विभूति में ही, ईर्षा-घृणा थी नहिं पास मेरे | नहीं दिखाता भय था किसीको, नहीं जाता अधिकार कोई || [ ४ ] विरोधकारी नहीं था किसीका, निःशस्त्र था, दीन- अनाथ था मैं ! स्वच्छन्द था केलि करूं नदीमें, रोका मुझे जाल लगा वृथा ही !! [ ५ ] खींचा, घसीटा, पटका यहाँ यों 'मानो न मैं चेतन प्राणि कोई ! होता नहीं दुःख मुझे ज़रा भी ! हूँ काष्ठ-पाषाण- समान ऐसा !!" [ ६ ]. सुना करूँ था नर धर्म ऐसा'हीनापराधी नहिं दंड पाते । न युद्ध होता विरोधियोंसे. न योग्य हैं वे वधके कहाते ॥ [७] रक्षा करें वीर सुदुर्बलोंकी, निःशस्त्र शस्त्र नहीं उठाते' । बातें सभी झूठ लगें मुझे वो, विरुद्ध दे दृश्य यहाँ दिखाई ॥ [=] या तो विडाल-व्रत ज्यों कथा है, या यों कहो धर्म नहीं रहा है । पृथ्वी हुई वीर-विहीन सारी, स्वार्थान्धता फैल रही यहाँ वा ॥ [ह] बेगारको निन्द्य प्रथा कहें जो, वे भी करें कार्य जघन्य ऐसे ! आश्चर्य होता यह देख भारी, 'अन्याय शोकी अनिश्रयकारी !!" [१०]_ कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे ? स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी ? करें पराधीन, सता रहे जो, हिंसाव्रती होकर दूसरोंको !! [??] भला न होगा जग में उन्होंकाबुरा विचारा जिनने किसी का ! दुष्कृतोंसे कुछ भी हैं जो, सदा करें निर्दय कर्म ऐसे !! [१२] क्या कहूँ और कहा न जाता ! aaron प्राण, न बोल आता !! छुरी चलेगी कुछ देर में ही ! स्वार्थी जनों को कब तर्सं आता !!" [P3] यों दिव्य-भाषा सुन मीनकी मैं, धिक्कारने खूब लगा स्वसत्तां । हुआ शोकाकुल और चाहा, मैं देऊं छुड़ा बन्ध किसी प्रकार ।। [१४] पैमीनने अन्तिम श्वास खींचा ! मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !! गंजी ध्वनी अम्बर- लोक में यों 'हा ! वीरका धर्मं नहीं रहा है !!" - 'युगवीर' Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वीर-शासनकी विशेषता [ ले०-श्री अगरचन्दजी नाहटा ] ___ ~uageEHResm अगवान् महावीरका पवित्र शासन अन्य सभी दर्शनों- वीरशासन द्वारा विश्व-कल्याणका कितना घनिष्ट - से महती विशेषता रखता है। महावीर प्रभुने सम्बन्ध है ? तत्कालीन परिस्थितिमें इस शासनने क्या अपनी अखंड एवं अनुपम साधना द्वारा केवलज्ञान काम कर दिखाया ? यह भली भाँति तभी विदित होगा लाभकर विश्वके सामने जो नवीन आदर्श रक्खे उनकी जब हम उस समयके वातावरणसे, सम्यक् प्रकारसे उपयोगिता विश्वशान्तिके लिये त्रिकालाबाधित है। परिचित हो जायँ । अतः सर्व प्रथम तत्कालीन परिउन्होंने विश्व कल्याणके लिये जो मार्ग निर्धारित किये स्थितिका कुछ दिग्दर्शन करना आवश्यक है। वे इतने निर्धान्त एवं अटल सत्य हैं कि उनके बिना प्राचीन जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंके अनुशीलनसे ज्ञात सम्पूर्ण आत्मविकास असंभव है। होता है कि उस समय धर्मके एकमात्र ठेकेदार ब्राह्मण ___ वीर प्रभुने तत्कालीन परिस्थितिका जिस निर्भीकता- लोग थे, गुरुपद पर वे ही 'सर्वेसर्वा' थे। उनकी आज्ञा से सामना कर कायापलट कर दिया वह उनके जीवन- राजाज्ञासे भी अधिक मूल्यवान समझी जाती थी, की असाधारण विशेषता है । सर्वजनमान्य एवं सर्वत्र राजगुरु भी तो वे ही थे। अतः उनका प्रभाव बहुत प्रचलित भ्रामक सिद्धान्तों एवं क्रियाकाण्डोंका विरोध व्यापक था । सभी सामाजिक रीति-रस्में एवं धार्मिक करना साधारण मनुष्य का कार्य नहीं; इसके लिये बहुत क्रियाकाण्ड उन्हींके तत्त्वावधानमें होते थे, और इसलिये बड़े साहस एवं आत्मबलकी आवश्यकता है । वह अात्म- उनका जातीय अहंकार बहुत बढ़ गया था, वे अपनेको बल भी महाकठिन साधनाद्वारा ही प्राप्त होता है। सबसे उच्च मानते थे । शूद्रादि जातियोंके धार्मिक एवं भगवान् महावीरका साधक जीवन * उसी का विशिष्ट सामाजिक अधिकार प्रायः सभी छीन लिये गये थे, प्रतीक है । जिस प्रकार उनका जीवन एक विशिष्ट इतना ही नहीं वे उनपर मनमाना अत्याचार भी करने साधक जीवन था उसी प्रकार उनका शासन भी लगे थे। यही दशा मूक पशुओंकी थी,उन्हें यज्ञयागादिमहती विशेषता रखता है । इसी विषय पर इस में ऐसे मारा जाता था मानो उनमें प्राण ही नहीं है, लघु लेखमें संक्षिप्तरूपसे विचार किया जाता है। और इसे महान् धर्म समझा जाता था । वेद-विहित - हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती थी। ____ * उनके साधक जीवनका सुन्दर एवं मननीय वर्णन 'याचारांग' नामक प्रथम अंगसूत्र में बहुत ही इधर स्त्रीजातिके अधिकार भी छीन लिये गये विश्वसनीय एवं विशदरूपसे मिलता है । पाठकोंसे थे । पुरुष लोग उनपर जो मनमाने अत्याचार करते थे उक्त सूत्र के अंतिम भागको पढनेका विशेष अनुरोध है। वे उन्हें निर्जीवकी भान्ति सहन कर लेने पड़ते थे। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनेकान्त उनकी कोई सुनाई नहीं थी । धार्मिक कार्यों में भी उनको उचित स्थान न था अर्थात् स्त्री जाति बहुत कुछ पददलित सी थी । यह तो हुई उच्च नीच जातीयवादकी बात, इसी प्रकार वर्णाश्रमवाद भी प्रधान माना जाता था। साधनाका मार्ग वर्णाश्रमके अनुसार ही होना आवश्यक समझा जाता था। इसके कारण सच्चे वैराग्यवान व्यक्तियोंका भी तृतीयाश्रम के पूर्व सन्यास ग्रहण उचित नहीं समझा जाता था । [वर्ष २, किरण १ जाता था । कल्याणपथमें विशेष मनोयोग न देकर लोग ईश्वरकी लम्बी लम्बी प्रार्थनाएँ करने में ही निमग्न थे । और प्रायः इसी में अपने कर्तव्यकी' इतिश्री' समझते थे । इसी प्रकार शुष्क क्रिया काण्डौंका उस समय बहुत प्राबल्य था । यज्ञयागादि स्वर्गके मुख्य साधन माने जाते थे, बाह्य शुद्धिकी ओर अधिक ध्यान दिया जाता था अन्तरशुद्धिकी ओरसे लोगोंका लक्ष्य दिनोंदिन हटता जा रहा था । स्थान स्थान पर तापस लोग तापसिक बाह्य कटमय क्रियाकाण्ड किया करते थे और जन साधारणको उनपर काफी विश्वास था। वेद ईश्वर कथित शास्त्र हैं, इस विश्वासके कारण वेदाज्ञा सबसे प्रधान मानी जाती थी, अन्य महर्षियों के मत गौण थे। और वैदिक क्रियाकाण्डों पर लोगोंका अधिक विश्वास था । शास्त्र संस्कृत भाषा में होनेसे बहुत साधारण जनता उनसे विशेष लाभ नहीं उठा सकती थी । वेदादि पढ़नेके एममात्र अधिकारी ब्राह्मण ही माने जाते थे । ईश्वर एक विशिष्ट शक्ति है, संसारके सारे कार्य उसीके द्वारा परिचालित है, सुख-दुख व कर्म फलका दाता ईश्वर ही है, विश्वकी रचना भी ईश्वरने ही की है, इत्यादि बातें विशेषरूपसे सर्वजनमान्य थीं। इनके कारण लोग स्वावलम्बी न होकर केवल ईश्वर के भरोसे बैठे रहकर आत्मोन्नति के सच्चे मार्ग में प्रयत्नशील नहीं थे । मुक्ति लाभ ईश्वरकी कृपा पर ही निर्भर माना इस विकट परिस्थितिके कारण लोग बहुत अशान्तिभोग कर रहे थे। शूद्रादि तो अत्याचारोंसे ऊब गये थे। उनकी आत्मा शान्ति प्रासिके लिये व्याकुल हो उठी थी। वे शान्तिकी शोध में चातुरसे होगये थे। भगवान महावीरने अशान्तिके कारणों पर बहुत मननकर, शान्तिके वास्तविक पथका गंभीर अनुशीलन किया । उन्होंने पूर्व परिस्थितिका कायापलट किये बिना शान्ति-लाभको असम्भव समझ, अपने अनुभूत सिद्धान्तों द्वारा क्रान्तिमचादी। उन्होंने जगतके वातावरणकी कोई पर्वाह न कर साहसके साथ अपने सिद्धान्तोंका प्रचार किया। उनके द्वारा विश्वको एक नया प्रकाश मिला। महावीरके प्रति जनताका आकर्षण क्रमशः बढ़ता चला गया। फलतः लाखों व्यक्ति वीरशासनकी पवित्र छत्र-छाया में शान्ति लाभ करने लगे । । वीर शासनकी सबसे बड़ी विशेषता 'विश्वप्रेम' है । इस भावना द्वारा अहिंसाको धर्ममें प्रधान स्थान मिला। सब प्राणियोंको धार्मिक अधिकार एक समान दिये गये पापी से पापी और शूद्र एवं स्त्रीजातिको मुक्तितकका अधिकारी घोषित किया गया और कहा गया कि मोचकादर्वाज्ञा सबके लिये खुला है, धर्म पवित्र वस्तु है, उसका जो पालन करेगा वह जाति अथवा कर्मसे चाहे कितना ही नीचा क्यों न हो, अवश्य पवित्र हो जायगा । साथ ही जातिवादका ज़ोरों से खंडन किया गया, उच्च और नीचका सथा रहस्य प्रकट किया गया और उच्चता-नीचता के सम्बन्ध में जातिके बदले गुणों को प्रधान स्थान दिया गया । सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसपर विशद व्याख्या की गई, जिसकी कुछ रूपरेखा जैनों Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीरशासनकी विशेषता । के 'उत्तराध्ययन सूत्र' एवं बौद्धोंके 'धम्मपद' में पाई अहिंसाकी व्याख्या वीर शासनमें जिस विशद रूपजाती है । लोगोंको यह सिद्धान्त बहुत संगत और से पाई जाती है, किसी भी दर्शनमें वैसी उपलब्ध नहीं सत्य प्रतीत हुआ, फलतः लोकसमूह-झुण्डके झुण्ड है। विश्वशान्तिके लिये इसकी कितनी अावश्यकता है महावीरके उपदेशोंको श्रवण करनेके लिये उमड पड़े। यह भगवान् महावीरने भली भान्ति सिद्ध कर दिखाया। उन्होंने अपना वास्तविक व्यक्तित्व-लाभ किया। वीर- कठोरसे कठोर हृदय भी कोमल होगये और विश्वप्रेमकी शासनके दिव्य पालोकसे चिरकालीन अज्ञानमय भ्रान्त अखण्डधारा चारों ओर प्रवाहित हो चली। धारणा विलीन हो गई । विश्वने एक नई शिक्षा प्राप्त वीरशासनमें वर्णाश्रमवादको अनुपयुक्त घोषित की, जिसके कारण हज़ारों शूद्रों एवं लाखों स्त्रियोंने किया गया । मनुष्यके जीवनका कोई भरोसा नहीं । आत्मोद्धार किया । एक सदाचारी शूद्र निर्गुण ब्राह्मणसे हज़ारों प्राणी बाल्यकाल एवं यौवनावस्थामें मरणको लाखगुणा उच्च है अर्थात् उच्च नीचका माप जातिसे न प्राप्त हो जाते हैं, अतः आश्रमानुसार धर्म पालन उचित होकर गुण-सापेक्ष है । कहा भी है नहीं कहा जा सकता। सब व्यक्तियोंका विकास भी 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः' एक समान नहीं होता। किसी आत्माको अपने पूर्व धार्मिक अधिकारों में जिस प्रकार सब प्राणी संस्कारों एवं साधनाके द्वारा बाल्यकालमें ही सहजसमान हकदार हैं । उसी प्रकार प्राणीमात्र सुखाकांक्षी हैं, वैराग्य हो जाता है-धर्मकी और उसका विशेष झुकाव सब जानेके इच्छुक हैं; मरणसे सबको भय एवं कष्ट है, होता है; तब किसी जीवको वृद्ध होनेपर भी वैराग्य अतएव प्राणिमात्र पर दया रखना वीर शासनका मुख्य नहीं होता। इस परिस्थितिमें वैराग्यवान् बालकको सिद्धान्त है । इसके द्वारा, यज्ञयागादिमें असंख्यमूक गृहस्थाश्रम पालनके लिये मजबूर करना अहितकर है पशुओंका जो आये दिन संहार हुआ करता था, वह और वैराग्यहीन बृद्धका संन्यासग्रहण भी प्रसार है। सर्वथा रुक गया । लोगोंने इस सिद्धान्तकी सचाईका अतः आश्रमव्यवस्थाके बदले धर्मपालन योग्यता पर अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कोई मारनेको कहता निर्भर करना चाहिये । हाँ, योग्यताकी परीक्षा में प्रसाहै तो हमें उस कथन मात्रसे कष्ट होता है उसी प्रकार वधानी करना उचित नहीं है। हम किसीको सताएँगे तो उसे अवश्य कष्ट होगा एवं इसी प्रकार ईश्वरवादके बदले वीरशासनमें कर्मपरपीडनमें कभी धर्म हो ही नहीं सकता । मूकपशु चाहे वाद पर जोर दिया गया है । जीव स्वयं कर्मका कर्ता मुखसे अपना दुख व्यक्त न कर सकें पर उनकी चेष्टाओं- है और वस्तुस्वभावानुसार स्वयं ही उसका फल भोगता द्वारा यह भली भांति ज्ञान होता है कि मारने पर उन्हें है। ईश्वर शुद्ध बुद्ध है, उसे सांसारिक झंझटोंसे कोई भी हमारी भान्ति कष्ट अवश्य होता है । इस निर्मल मतलब नहीं । वह किसीको तारनेमें भी समर्थ नहीं । उपदेशका जनसाधारणपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और यदि लम्बी लम्बी प्रार्थनासे ही मुक्ति मिल जाती तो ब्राह्मणोंके लाख विरोध करनेपर भी यज्ञयागादिकी हिंसा संसार में आज अनन्त जीव शायद ही मिलते । जीव बन्द हो ही गई । इस सिद्धान्तसे अनन्त जीवोंका रक्षण अपने भले बुरे कर्म करनेमें स्वयं स्वतन्त्र है। पौरुषके हुश्रा और असंख्य व्यक्तियोंका पापसे बचाव हुआ। बिना मुक्ति लाभ सम्भव नहीं। अतः प्रत्येक प्राणीको Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ अपना निजस्वरूप पहिचान कर अपने पैरोंपर खड़े होने- समयमें भी वर्तमानकी भान्ति अनेकों मत-मतान्ततर का अर्थात स्वावलम्बी बनकर आत्मोद्धार करनेका सतत प्रचलित थे । इस कारण जनता बड़े भ्रममें पड़ी थी प्रयत्न करना चाहिये । ईश्वर न तो सृष्टि रचयिता है कि किसका कहना सत्य एवं मानने योग्य है और किसऔर न कर्मफल-दाता। ___ का असत्य ? मत प्रवर्तकोंमें सर्वदा मुठभेड़ हुआ करती ___ शुष्क क्रियाकाण्डों और बाह्य शुद्धिके स्थान पर थी। एक दूसरेके प्रतिद्वन्दी रहकर शास्त्रार्थ चला करते वीर शासनमें अन्तरशुद्धिपर विशेष लक्ष्य दिया गया थे । आपसी मात्सर्यसे अपने अपने सिद्धान्तों पर प्रायः है। अन्तरशुद्धि साध्य है बाह्यशुद्धि साधनमात्र । सब अड़े हुए थे। सत्यकी जिज्ञासा मन्द पड़ गई थी । तब अतः साध्यके लषय-विहीन क्रिया फलवती नहीं होती। भगवान महावीरने उन सबका समन्वय कर वास्तविक केवल जटा बढ़ा लेने, राख लगा लेने, नित्य स्नान "सत्यप्राप्तिके लिये 'अनेकान्त' को अपने शासनमें विकर लेने व पंचाग्नि तपने श्रादिसे सिद्धि नहीं मिल शिष्ट स्थान दिया, जिसके प्रारा सब मतोंके विचारोंको सकती । अतः क्रियाके साथ भावोंका होना नितान्त समभावसे तोला जा सके, पचाया जा सके एवं सत्यको आवश्यक है। प्राप्त किया जा सके । इस सिद्धान्त द्वारा लोगोंका बड़ा . ___वीर प्रभुने अपना उपदेश जनसाधारणकी भाषामें कल्याण हुआ । विचार उदार एवं विशाल हो गये, ही दिया; क्योंकि धर्म केवल पण्डितोंकी संपत्ति नहीं, सत्यकी जिज्ञासा पुनः प्रतिष्ठित हुई, सब वितण्डावाद उसपर प्राणिमात्रका समान अधिकार है। यह भी वीर- एवं कलह उपशान्त हो गये । और इस तरह वीरशाशासनकी एक विशेषता है । उनका लक्ष्य एकमात्र सनका सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। विश्वकल्याणका था। . यह लेख वीरसेवामन्दिर, सरसावामें वीरशासनसूत्रकृतांग सूत्रसे स्पष्ट है कि भगवान महावीरके जयन्तीके अवसर पर पढ़ा गया था। सफल जन्म मत झिझको, मत दहलाओ, यदि बनना महामना है ! जो नहीं किया वह 'पर' है, कर लिया वही 'अपना' है !! दो-दिन का जीवन-मेला, फिर खंडहर-सी नीरवतायश-अपयश बस, दो ही हैं, बाकी सारा सपना है !! दो पुण्य-पाप रेखाएँ, दोनों ही जगकी दासी ! है एक मृत्यु-सी घातक, दूसरी सुहृद् माता-सी !! जो ग्रहण पुण्य को करता, मणिमाला उसके पड़तीअपनाता जो पापोंको, उसकी गर्दनमें फाँसी !! इस शब्द कोषमें केवल, है 'आज' न मिलता 'कल' है ! 'कल' पर जो रहता है वह, निरुपाय और निर्बल है !! वह पराक्रमी-मानव है, जो 'कल' को 'श्राज' बनाकर'भगवत्' जैन . क्षणभंगुर विश्व-सदनमें, करता निज जन्म सफल है !! Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनमें स्त्रियोंका स्थान [ले०–श्रीमती सौ० इन्दुकुमारी जैन 'हिन्दीरत्न' ] माजसे करीब ढाई हजार वर्ष पहले जब कि इस दूर किया । फलतः श्रापके धर्मसंघमें पुरुषोंकी अपेक्षा देशका वातावरण दूषित हो गया था, कोरे स्त्रियोंकी संख्या बहुत अधिक रही। क्रियाकाण्डोंमें ही धर्म माना जाता था, वैदिक मिशनके एक बात यहां पर और भी नोट कर लेनेकी है, पोपोंने स्त्रियों और शूद्रोंके धार्मिक अधिकार हड़प लिये और वह यह कि भारतमें तात्कालिक विषम परिस्थिथे, वेदमन्त्र पढ़ने या सुनने पर उन्हें कठोर प्राणदण्ड तियोंको सुधारनेके लिये उस समय एक दूसरा सम्प्रदाय तक दिया जाता था-वेदमन्त्रका उच्चारण भी स्त्रियाँ भी उठ खड़ा हुआ था, जिसके प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे नहीं कर सकती थीं; तब स्त्रीसमाजकी मानसिक दुर्ब- और जो अपने स्वतंत्र विचारोंके द्वारा उन प्रचलित लताको देखकर धर्मके ठेकेदारोंने जो जो जुल्म किये उन व्यर्थके अधर्मरूप क्रियाकाण्डोंका विरोध करते थे, वर्णसबको लेखनीसे लिखना कठिन ही नहीं किन्तु असंभव व्यवस्था एवं जातिभेद तथा याज्ञिक हिंसाके विरुद्ध है । उन्हें केवल बच्चे जननेकी मशीन अथवा भोगकी अहिंसाका उपदेश देते थे । इतना सब कुछ होते हुए एक चीज़ ही समझ लिया गया था, जिससे स्पष्ट मालूम भी उन्हें स्त्रियोंको अपने संघमें लेने में संकोच एवं भय होता है कि उस समय स्त्रीसमाजका भारी अधःपतन अवश्य था, वे तद्विषयक विरोधसे घबराते थे, इसीलिये होचुका था । स्त्रीसमाज उस समय अपने जीवनकी देशकी उक्त परिस्थितिका मुकाबला करनेके लिये वे सिसकियाँ ले रहा था, उसमें न बल था न साहस और तय्यार नहीं हुए। किन्तु कुछ समय बाद वीरशासनमें न अध्यवसाय, मानो स्त्रीसमाज पतनकी पराकाष्टाको स्त्रियोंका प्राबल्य देखकर उसके परिणामस्वरूप तथा पहुँच गया था। अपने प्रधान शिष्य आनन्द कौत्स्यायनके विशेष आग्रह ऐसी परिस्थितिमें भगवान महावीरने जन्म लेकर करने पर महात्मा बुद्धने अपने संघमें स्त्रियोंको लेना संसारमें धर्मके नाम पर होनेवाले अधर्मको, जाति तथा स्वीकार किया था। वर्णभेदकी अंधपरम्पराको और मिथ्या रूढ़ियों के साम्रा- इन्हींसव विशेषताओं के कारण भगवान वीरका शाज्यको छिन्न भिन्न किया, उनके प्रवर्तकोंको समझाया सन चमक उठा था, उसमें जातिभेद और वर्णभेदकीगन्ध और जनसमूहके अंधविश्वासको हटाकर उनमें बल तक भी नहीं थी और न ऊँच-नीच प्रादिकी विषमता । तथा साहसका संचार किया। साथ ही, शूद्रों, स्त्रियों उनकी समवसरण सभामें सभीको समान दृष्टि से देखा और पशुओं पर होनेवाले विवेकहीन अत्याचारों- जाता था और इसीसे सभी स्त्री-पुरुष तथा पशु पक्षी जुल्मोंको दूर किया और स्त्रियोंको अपने चतुर्विध संघमें तक अपनी अपनी योग्यताके अनुसार वीरके. शासनमें खास स्थान देकर उनके धर्मसेवनकी सब रुकावटोंको रहकर अपना अपना प्रात्म-विकास कर सकते थे। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भगवान महावीरने अपनी इस उदारता, निर्भीकता एवं अन्याय प्रतीत होता है। जैनधर्ममें तो पहलेसे ही हृदयकी विशालताके कारण ही उस समयकी विकट स्त्रियोंने पार्यिका श्रादिकी दीक्षा लेकर प्राचारांगकी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की थी। पद्धतिके अनुसार यथाशक्ति नपश्चरणादि कर देवेन्द्रादि इसके सिवाय, भगवान् महावीरने अहिंसा और पद प्राप्त किये हैं। अनेकान्तको अपने जीवन में उतारा था, उनकी आत्मा सच पूछिये तो धर्म किसी एक जाति या सम्प्रदायशुद्धि तथा शक्तिको पराकाष्ठाको--चरम सीमाको-- की मीरास नहीं है, वह तो वस्तुका स्वभाव है उसे पहुंच चुकी थी और उनका शासन दया दम, त्याग तथा धारण करने और उसके द्वारा अात्माका विकास करनेका समाधिकी तत्परताको लिये हुए था। इसी लिये विरोधी सभी जीवोंको अधिकार है भले ही कोई जीव अपनी श्रात्माओं तथा तत्कालीन जनसमूह पर उनका इतना अल्पयोग्यताके कारण परा अात्मविकास न कर सके। अधिक एवं गहरा प्रभाव पड़ा था कि वे लोग अधिक परन्तु इससे उसके अधिकारोंको नहीं छीना जा सकता। संख्या में अपने उन अधर्ममय शुष्क क्रियाकाण्डोंको जो धर्म पतितोंका उद्धार नहीं कर सकता--उन्हें ऊँचा छोड़कर तथा कदाग्रह और विचारसंकीर्णताकी जंजीरों- नहीं उठा सकता-वह धर्म कहलानेके योग्य ही नहीं। को तोड़कर बिना किसी हिचकिचाकटके वीर भगवानकी जैनधर्म में धर्मकी जो परिभाषा श्राचार्य समन्तभद्रने शरणमें आये, और उनके द्वारा प्ररूपित जैन धर्मके बत्तलाई है वह बड़ी ही सुन्दर है। उसके अनुसार जो तत्वोंका अभ्यास मनन एवं नदनुकूल वर्तन करके अपनी संपारके प्राणियोंको दु:खोंले छुड़ाकर उत्तम सुखमें श्रात्माके विकास करने में तत्पर हुए। धारण करे उसे 'धर्म' कहते हैं, अथवा जीवकी सम्यग्दवीरशासनमें स्त्री और पुरुषोंको धार्मिक अधिकार र्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप परिणतिविशेष समानरूप से प्राप्त हैं । जिस तरह पुरुष अपनी योग्यता- को 'धर्म' कहते हैं । इस परिणतिके द्वारा ही जीवात्म नुसार श्रावक और मुनिधर्मको धारण कर श्रात्मकल्याण आत्म उद्धार करने में सफल हो सकता है। कर सकते हैं उसी तरहसे स्त्रियाँ भी अपनी योग्यतानुसार परन्तु खेद है कि आज हम भगवान् महावीरके श्राविका और आर्यिकाके व्रतोंका पालनकर आत्म- पवित्र शासनको भूल गये ! इसी कारण उनके महत्वकल्याण कर सकती हैं। भगवान महावीरके संघमें एक पूर्ण सन्देशसे श्राज अधिकांश जनता अपरिचित ही लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ तथा चौदह दिखाई देती है। हमारे हृदय अन्धश्रद्धा और स्वार्थमय हज़ार मुनि और छत्तीस हजार आर्यिकाएँ थीं । आर्यि- प्रवृत्तियोंसे भरे हुए हैं, ईर्षा द्वेष-अहंकार आदि दुर्गुणों कानों में मुख्य पदकी अधिष्ठात्री चन्दना सती थी। से दुपित हैं । स्त्रियों के साथ श्राज भी प्रायः वैसा ही वीरशासनमें गृहस्थोचित कर्तव्योंका यथेष्ट रूपसे पालन व्यवहार किया जाता है जैसा कि अबसे ढाई हज़ार वर्ष करते हुए स्त्रियोंको धर्मसेवनमें कोई रुकावट नहीं है, पहले किया जाता था। हाँ, उसमें कुछ सुधार ज़रूर जबकि संसारके अधिकांश धर्मों में स्त्रियोंको स्वतंत्ररूपसे - हुअा है; परन्तु अभी भारतीय स्त्री समाजको यथेष्ट स्वतधर्मसेवन करनेका थोड़ासा भी अधिकार प्राप्त नहीं है, न्त्रता प्राप्त नहीं हुई है । फिर भी धर्म-सेवनकी जो कुछ और जिससे उनके प्रति उन धर्मसंस्थापकोंका महान स्वतन्त्रता मिली है उसमें यदि स्त्रीसमाज चाहे तो वह Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६] नर-कंकाल अपनी बहुत-कुछ प्रगति करनेमें सफल हो सकता है. बनानेका भरसक प्रयत्न करो, अपने स्त्रीसमाजमें फैली किन्तु वर्तमानकी अधिकांश स्त्रियाँ अपने कर्तव्यसे हुई कुरीतियोंको दूर करनेमें अग्रसर बनो और अपनी अपरिचित ही हैं-उसे भूली हुई हैं भारत और सभी बहनोंको शिक्षिता, सभ्या तथा अपने धर्म देशकी विदेशों में होने वाली विविध परिस्थितियोंसे अनभिज्ञ रक्षार्थ प्राणोंकी बलि देने वाली वीर नारियाँ बनानेका हैं, उन्हें तो घरके कार्योंसे ही फुरसत नहीं मिलती, पूरा पूरा उद्योग करो । ऐसा करके ही हम वीर भगवान् फिर अपने उत्थान और पतनको कौन सोचे? वे और उनके शासनकी सच्ची उपासिका, कहला सकेंगी समाजमें फैली हुई मिथ्यारूढ़ियों, अन्धश्रद्धा, दम्भ, और वीरशासनके प्रचार-द्वारा अपना तथा जगत्का द्वेष और कलह श्रादि दोषोंको दूर करना अपना कर्तव्य उद्धार करनेमें समर्थ हो सकेंगी। कैसे समझ सकनी है ? और पतनके गर्तसे अपनेको अन्त में एक पद्यको पढ़कर मैं अपना वक्तव्य समाप्त कैसे बचा सकती हैं? करती हैं। श्राशा है अपने हितमें सावधान कृतज्ञ अतः सुज्ञ बहिनों ! उठो, और अपने कर्तव्यकी बहने वीरशासनके अपनाने और प्रचार देनेको अपना ओर दृष्टिपात करो । भगवान् महावीरके उपकारोंका मुख्य कर्तव्य समझेगी। स्मरणकर उनके पवित्र सन्देशको दुनियाके कोने कोने में . हम जाग उठीं, सब समझ गई, अब करके कुछ दिखला देगी । पहुँनानेका प्रयत्न करो और जगतको दिखाला दो कि हाँ, विश्वगगनमें एक बार फिर, हममें जीवन है, उत्साह है, कर्तव्यपालनकी भावना है जिन-शासन चमका देंगी ॥ और अपनी कोमके पतनका दर्द है । हम अबला नहीं - ॐ यह लेख लेखिकाने स्वयं वीरसेवामन्दिरमें ता० हैं. सबला हैं और सब कुछ कर सकती हैं। साथ ही, २ जलाई को होनेवाले वीरशासन-जयन्तीके जल्से पर अपनी सन्तानको शिक्षित, सुशोल और कर्तव्यपरायण पढ़कर सुनाया था । -सम्पादक ( १) नर-ककाल माँके फटे हुए अंचलसे मँह ढक कर जो साया ह! आँसू-हीन, दरिद-नयनोंसे, जो जीवन भर रोया है !! साधन-शून्य, दुलार-दृष्टिको,अभिभावक अपना माना ! सूखी-छाती चूस-चस सुख माँका जिसने पहिचाना !! घने-अभावों और व्यथाओं में पलकर जो बड़ा हुआ ! प्रकृति जननिकी कृपा-कोरसे अपने पैरों खड़ा हुआ !! सित-भविष्यके मधु-सपनोंमें भूला जो दुखकी गुरुता ! रुचिर कल्पनाओंकी मनमें जोड़ा करता जो कविता !! (३) • इन्द्र-धनुष जिसकी अभिलाषा, वर्तमान जिसका रौरव ! युग-सी घड़ियाँ बिता-बिता जोखोजरहा अपना वैभव !! तिरस्कार भोजन, प्रहार उपहार, भूमि जिसकी शैय्या! धनाधियोंके दया-सलिलमें खेता जो जीवन नैय्या !! नहीं विश्व में जिसका अपना, पद तल भू ऊपर आकाश! दुखकी घटनाओंसे परित,है जिसका जीवन-इतिहास!! कौन?-कौन?-'मजदूर'कहाने वाला वह भारतका लाल! 'भगवत् जैन छाया-चित्र कहो उसको,या पुरुष, कहो या नर-कंकाल !! Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी पुण्य वेला पुण्य-वेला मौ [ ले० - ० सुमेरचन्द जैन, दिवाकर, बी. ए., एलएल. बी., न्यायतीर्थ शास्त्री ] जूदा ज़माना भगवान् महावीर का तीर्थ कहलाता है, क्योंकि अभी वीरप्रभुका ही शासन वर्तमान है । उन भगवान् महावीर के प्रति अनुरक्ति के कारण भव्य तथा भक्तजन उनके जन्म-दिवस, वैराग्य-काल आदि अवसर पर हर्ष प्रकाशन एवं भक्ति-प्रदर्शन किया करते हैं । तात्विक रूपसे देखा जाय तो जब कैवल्य प्राप्ति के पूर्व वे वास्तव में महावीर पदको प्राप्त नहीं हो सके थे तब उनके गर्भ, जन्म, वैराग्य-कल्याणकों की पूजा करना कहाँ तक अधिक युक्तिसंगत है, यह स्वयं सोचा जासकता है । यह सच है कि भगवान् महावीर के बाल्यकाल आदि में इतरजनोंकी अपेक्षा लोकोत्तरता थी, फिर भी वह उनके विश्ववंदनीय बननेका समर्थ कारण नहीं कही जा सकती। उन चमत्कारजनक अतिशयों की ओर स्वामी समन्तभद्र-जैसे तार्किक चूड़ामणिका चित्त आकर्षित नहीं हुआ। इसी कारण वे अपने देवागमस्तोत्र में अपने हार्दिक उद्गारों को इस प्रकार प्रकट कर चुके हैं कि : f देवागमन भोयान -चामरादि-विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसिनो महान् ॥ * हमारा भाव यह नहीं है कि अन्य कल्याणकोंकी पूजा न की जाय । यहाँ हमारे विवेचनका लक्ष्य इतना ही है कि वास्तविक पूज्यताका जैसा कारण कैवल्य के समय उत्पन्न होता है, वैसा तथा उतना महत्वपूर्ण और युक्ति संगत निमित्त अन्य समयों में नहीं होता । नैगमनयकी दृष्टिसे अन्य कल्याणकों में पूज्यता श्राती है। भगवन् ! देवोंका आना, श्राकाशमें गमन होना, चमर छत्रादिकी विभूतियोंका पाया जाना तो इन्द्रजालियों में भी पाया जाता है, इसलिए इन कारणों से आप हमारे लिए महान् नहीं हैं । जो भी विचारशील व्यक्ति अपने अंतःकरण में विचार करेगा, उसके चित्तमें स्वामी समन्तभद्रका युक्तिवाद स्थान बना लेगा, और वह भी कह उठेगा, भगवन् ! 'नातस्त्वमसि नो महान्' – इस कारण ही आप हमारे लिए महान् (Great ) नहीं हैं । और भी अनेक बातें हैं, जो भगवान् महावीर के अतिरिक्त व्यक्तियों में हीनाधिक मात्रामें पाई जाती हैं । किन्तु एक विशेषता है जो भगवान् महावीरमें ही पाई जाती है, और जिसके कारण उनके अन्य गुण पुञ्ज अधिक दीप्तिमान हो उठते हैं। उनके विवेकचक्षु भक्त श्रीसमंतभद्र कहते हैं + स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ बिल्कुल ठीक बात है । भगवान् महावीर के तत्त्व-प्रतिपादन में तर्कशास्त्र से असंगति नहीं पाई जाती, क्योंकि उनके द्वारा प्ररूपित तत्त्व प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अखंडित है । हमें देखना है कि प्रभुमें 'युक्तिशास्त्राविरोधवाकूपना' कब प्रकट हुआ, जिससे वे लोकोत्तर एवं भुवनत्रय-प्रपूजित हो गए । उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय आदि कर्मों का नाश कर बैशाख शुक्ला * यहां भगवान् महावीरका नामोल्लेख प्रकरणवश किया गया है। यही बात अन्य जैन तीर्थंकरों में भी पाई जाती है । + हे भगवन् ! वह निर्दोष तो आप ही हैं, क्योंकि आपकी वाणी युक्ति तथा शास्त्र के विरुद्ध है । इस विरुद्धताका कारण यह है कि जो बात आपको भित है वह प्रत्यक्षादिसे बाधित नहीं होती । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ? ४६ दशमीको कैवल्यकी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, जिससे गौतमके जीवनमें युगान्तरकारी परिवर्तन उत्पन्न ज्ञेयमात्र उनके विमल ज्ञानमें विशदरूपसे अवभा- कर दिया । वे संपूर्ण परिप्रहोंका परित्याग करके समान होने लगे थे । क्या उस समय भगवान प्राकृतिक परिधानके धारक जैन श्रमण बन गए महावीरमें स्वामीसमंतभद्रका हेतु 'युक्ति और शास्त्र और उन्होंने महावीर प्रभुकी ही मुद्रा धारण की। के अविरुद्ध वाणी संपन्न होनेसे' प्रकटरूपसे प्रकाश अपनी आत्मशक्तिके सहसा विकसित हो जानेसे में आया था ? इस विषयमें मौन ही उत्तर होगा, श्रीगौतमने अनेक प्रकारके महान् ज्ञानोंको प्राप्त किया क्योंकि शक्ति होते हुए भी उस समय तक भगवान् तथा वे 'गणधर' जैसे महान् पद पर प्रतिष्ठित हो की उक्त विशेषता निखिल विश्वके अनुभवगोचर गए । इधर इतना हुआ ही था कि, उधर भगवान् नहीं हो पाई थी; कारण सर्वज्ञ होते हुए भी समु- महावीरको सर्वभाषात्मिका दिव्यवाणी सत्र चित साधनके अभाववश उनकी दिव्यध्वनि प्राणियोंके कर्णगोचर होने लगी । अनेकान्तके प्रकट नहीं हुई, जिससे लोग लाभ उठाते और सूर्यका प्रकाश फैलनेसे एकान्तका निविड अन्धकार कृतज्ञतासूचक गुणकीर्तन करते । स्वयं मोक्षमार्गके दूर होगया, जगतको अपने सच्चे सुधारका मार्ग नेता, कर्माचलके भेत्ता तथा विश्वतत्त्वके ज्ञाताके दीखने लगा और यह मालूम होने लगा कि वास्तवमें मुखारविन्दसे मुक्तिका मार्ग सुननेके भव्या- कर्मबंधनसे छूटनेका उपाय आत्मशक्तिका निश्चय, त्माएँ तथा योगीजन उत्कंठित हो रहे थे, किन्तु उसका परिज्ञान तथा आत्मामें अखंड लीनता है। भगवानकी दिव्यवाणीको सुननेका सौभाग्य ही उस धर्मदेशना अर्थात् शासन-तीर्थके प्रकट होनेका नहीं मिल रहा था । ऐसी चिंतापूर्ण तथा चकित प्रथम पुण्य दिवस श्रावणकृष्णा प्रतिपदाका सुप्रभात करने वाली सामग्रीके होने पर देवोंके अधिनायक था, जब संसारको भगवान महावीरकी वास्तविक सुरेन्द्रने अपने दिव्यज्ञानसे जाना कि, भगवान एवं लोकोत्तर महत्ताका परिज्ञान हुआ । मिथ्यात्वसदृश महान धर्मोपदेष्टाके लिये महान् श्रोता एवं के अंधकारके कारण अनन्त योनियों में दुःख उनके कथनका अनुवाद करनेवाले गणधरदेवका भोगने वाले प्राणियोंको सच्चे कल्याणमार्गमें अभाव है । साथ ही यह भी जाना कि इस विषयकी लगानेकी बलवती भावना भगवान महावीरने एक पात्रता इंद्रभूति गौतम नामक अजैन विद्वानमें है। बार शुद्ध अंतःकरणसे की थी, उस भावनाके कारण अतएव अपनी कार्यकुशलतासे देवेन्द्रने इंद्रभूतिको उन्होंने 'तीर्थंकर प्रकृति' नामक पुण्य कर्मका संचय भगवान महावीरकी धर्मसभा-समवसरण-की किया था; उक्त तिथिको उस पुण्य प्रकृतिके विपाकओर लाकर उपस्थित किया। इतनेमें मानस्तंभका का सबको अनुभव हुा । लोगोंको ज्ञात हुआ कि दर्शन होते ही इंद्रभूतिके विचारोंमें मार्दवभाव वास्तवमें सर्वज्ञ महावीरकी वाणी अखण्डनीय एवं उत्पन्न हो गए, सारी अकड़ जाती रही और वह अतुलनीय है, जो भी वादी उनके समीप आता था क्षणभरमें महावीर प्रभुकी महत्तासे प्रभावित बन , वह 'समंतभद्र' बन जाता था; देखिए स्वामी समंतगया। प्रभुके वैराग्य, आत्मतेज और योगबलने भद्र कितनी सुन्दर बात कहते हैं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ * त्वयि ध्रुवं खंडितमानभंगो भवत्यभदोपि समंतभद्रः । दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं वास्तवमें इंद्रभूति गौतमका परिवतेन इस नय प्रमाण-प्रकृतांजसाथ । बातका सजीव उदाहरण है। अधृष्यमन्येरखिलैः प्रवादा। ___ यह तिथि महावीर प्रभुके तीथवासियोंके लिए जिन त्वदीयं मतमद्वितीयं ॥ एक अपूर्व समय है, जो इस बातका स्मरण कराती है कि लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महा हे जिनेन्द्र ! दया, इंद्रिय-दमन, त्याग तथा वीरने हमको मुक्तिका मार्ग बताया था। इससे समाधि-समन्वित, नय तथा प्रमाणसे पदार्थोंका अन्य तिथियोंकी अपेक्षा वह हमारे लिए विशेष समीचीन रूपसे प्रकाशन करने वाला और संपूर्ण आदर तथा पूजाके योग्य है। गणोत्कर्षकी दृष्टिसे प्रवादियोंके द्वारा अखंडनीय आपका मत अप्रतिम अन्य काल भी अपनी अपनी अपेक्षासे महत्वपर्ण -लासानो (unparalleled ) हैं। हैं, किन्तु हमारे लिए प्रभके प्रति आंतरिक कतज्ञता भगवानकी वाणीमें 'सत्यं शिवं सुन्दर' का प्रकाशके लिए अधिक उपयुक्त उपयुक्त वेला है। लोकोत्तर समन्वय पाया जाता है। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मोका ध्वंस करनेके यह दिन हमें अपने स्वरूपके चिंतन करनेका कारण सिद्ध परमात्मामें अधिक पूज्यता है, किन्तु अवसर प्रदान करता है और यह स्मरण कराता अरहंत देवके कारण हमारी हित-साधना विशेषता है कि यदि हमने बाह्य महावीरके गुणोंका विचार पूर्वक हुई है, इससे णमोकार मंत्रमें णमो सिद्धाण कर अपने भीतर निहित महावीरका चिंतन किया के पूर्वमें 'णमो अरहंताणं' का पाठ पढा जाता है और उसे प्रकाशमें लानेका सच्चा प्रयत्न किया, तो इसी प्रकार हमारे कल्याणको लक्ष्यमें रखकर प्रभके निकट भविष्यमें हम भी महावीरकी महत्ताके प्रात कृतज्ञता प्रकाशनका सबसे बढ़िया अवसर अधीश्वर बन सकते हैं। महावीरके गणोंकी मचा उक्त वेला है। क्योंकि उसी दिन तीर्थकर प्रकृति- आराधना आराधकको महावीर बनाए बिना न रूप मनोज्ञ वृक्षके सुमधुर फल चखनेको प्राप्त रहगा। रहेगी। इसके लिए रत्नत्रय की प्राप्तिका प्रशस्त हुए थे तथा तीर्थकरत्वका पूर्णरूपसे विकास हुआ प्रयत्न करना होगा, क्योंकि बिना सम्यग्दर्शन था। ज्ञान और चारित्रके यह आत्मा अपने आत्मत्वकी इस प्रसंगमें यह शंका होना साहजिक है कि प्राप्ति नहीं कर सकता है। वह ऐसी कृति या विशेषता कौन थी, जिसके प्रभकी धर्मदेशनाके दिवसमें यह भी उचित कारण उस दिनको महत्व प्रदानकिया जाय ? इस है कि हम इस प्रकारका उद्योग तथा उदारताका विषयमें यक्त्यानुशासनका यह पद्य बड़ा मार्मिक प्रदर्शन करें, जिससे महावीरका महत्वपूर्ण शिक्षण एवं मनोहर है, जिसमें वीरशासनकी विशेषता इन। " संसारके कोने कोनेमें पहुंचे, और सारा जगत वीतरागकी जीवन भरी शिक्षाओंसे आलोकित हो शब्दोंमें बताई गई है उठे-महावीर-वादसेभूमंडल गूंज उठे। * प्रभो ! अापके ममीप आनेवले व्यक्तिके मानके वीरभक्तो ! उठो, महावीर प्रभुके प्रदर्शित सींग खंडित हो जाते हैं और अभद्र-दुष्ट-व्यक्ति भी पथ पर चलो और संसारमें उनको महत्ताका समंतभद-साग समीचीन-बन जाता है। प्रकाश फैलाओ। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यों ? [ ले० - पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य | ( गत १२ वीं किरण से आगे ) किस गतिमें कौन गोत्रका उदय रहता है। ऊपर के कथनमें यह बात निश्चित कर दी गई है कि पहिले गुणस्थानसे लेकर पाँचवें गुणस्थान तक नीच और उच्च दोनों गोत्रोंका और छट्टे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक केवल उच्चगोत्रका उदय रहता है तथा सिद्ध जीव गोत्रकर्म के सम्बन्ध से रहित हैं । अब यहाँ पर यह बतलाने की कोशिश की जायगी कि किस गतिमें कौनसे गोत्रकर्मका उदय रहता 1 शास्त्रों में नारकी जीवोंके जीवनका चित्रण बहुत ही दीन और क्रूरतापूर्ण किया गया है। वे अपनी भूख मिटानेके लिये इधर उधर बड़ी आशाभरी दृष्टिसे दौड़ते हैं, यहां तक कि एक दूसरेको खानेके लिये भी तैयार जाते हैं । यद्यपि तीव्र साता कर्मके उदयसे उनके लिये 'भूख- ध्यास मिटाने के साधन नहीं मिलते हैं फिर भी उनका यह प्रयास बराबर चालू रहता है। शास्त्रों में लिखा कि नारकी जीवोंके सामने तीन लोककी खाद्य और पेय सामग्री रख दी जावे तो भी उससे उनकी भूख और प्यास नहीं मिट सकती है, इनने पर भी उन्हें एक कण भी खाद्य सामग्री का और एक बूंद भी पानीकी नहीं मिलती है । ऐसी श्रधमवृत्ति सातों. नरकोंके नारकियोंकी बतलायी गयी है, इसलिये इस वृत्तिका कारणभूत नीच गोत्रकर्मका उदय उनके माना गया है । तिर्यंचों की वृत्ति भी दीनता और क्रूरतापूर्ण देखी जाती है। जंगली जानवरोंकी वृत्ति विशेषतया क्रूर होती है और ग्राम्य पशुओंकी वृत्ति विशेषतया दीन होती है, इसलिये इन दोनों प्रकारकी वृत्तिमें कारणभूत नीच गोत्रकर्मका उदय तिर्यचोंके भी माना गया | भोग भूमिके तिर्यच यद्यपि क्रूरवृत्ति वाले नहीं होते हैं, कारण कि वे किसी भी जीवको अपना पेट भरनेके लिये सताते नहीं हैं, सबको बिना प्रयास ही भरपेट खानेको मिलता है, इसलिये वे अपना जीवन स्वतंत्र और नन्दपूर्वक व्यतीत करते हैं, परन्तु उनके लिये भी खानेको कर्मभूमि-जैसी घास आदि दीनता - सूचक पतित सामग्री ही मिला करती है। जिस प्रकार कल्पवृत्तों से भोगभूमिके मनुष्योंको इच्छानुसार उत्तम उत्तम भोजन मिला करता है उस प्रकार वहांके पशुओं को नहीं मिलता, पशु बुद्धिकी मंदता व विलक्षण शरीररचनाके कारण इस प्रकार के प्रयास करने तक में असमर्थ रहते हैं, इसलिये उनकी वृत्ति दीन वृत्ति ही कही जा सकती है और यही कारण है कि भोगभूमि के तिर्यंचों के भी नीचगोत्रकर्मका उदय बतलाया गया है। 1 देवर्गातमें देवोंके उच्चगोत्रकर्मका उदय बतलाया है और यह ठीक भी है, कारण कि एक तो देवोंको कई वर्षों के श्रन्तरसे भूख लगा करती है और इतने पर भी मानसिक विकल्पमात्र से ही उनकी भूख शान्त हो जाया करती है, इसलिये देवोंकी वृत्ति लोकमें सर्वोउत्तम मानी जाती है, और यहीकारण है कि सम्पूर्ण देवों को उच्चगोत्री बतलाया गया है । यद्यपि भवनवासी देवों में असुरकुमार व व्यन्तरोंमें भूत, पिशाच, राक्षस आदि जैसे क्रूरकर्मवाले देव भी पाये जाते हैं, कल्पना Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ देवों तकमें किल्विष जातिके देव ऐसे पाये जाते हैं जिनका कारण कायम हुई । धीरे धीरे इन्हींके और भी अवावर्णन मनुष्यजातिके अस्पृश्य शूद्रों के समान किया गया न्तर भेद वृत्तिभेदके कारण होते गये; जैसे सुनार, है; फिर भी इन सबको उच्चगोत्री इसलिये माना गया लुहार, बढ़ई, धोबी, चमार, भंगी आदि । वृत्तिभेदके है कि इन सभी देवोंके इन कार्योंका उनकी वृत्तिसे कोई कारण म्लेच्छ नामकी जाति भी इसी आर्यखंडके मनुष्यों सम्बन्ध नहीं है-वृत्तिकी उच्चत्ता सब देवों में समानरूपसे की बन गयी है। यह बात नहीं है कि म्लेच्छखंडोंसे पायी जाती है, इसलिये सभी देव उच्चगोत्री माने आये हुये म्लेच्छ ही यहां पर म्लेच्छ नाम से पुकारे गये हैं। जाते हैं, यहांके ( आर्यखडके ) बाशिन्दे आर्य ही, मनुष्यजातिमें सम्मूर्च्छन मनुष्य तो पतित हैं ही, जो कि भोगभूमिके समयमें बहुत ही सरल वृत्तिके थे, इसलिये उनके नीचगोत्रका अविवाद रूप है। अन्तर्दी. कालांतरमें क्रूर वृत्तिके धारक बन गये। वे ही 'म्लेछ' पज मनुष्योंमें भोगभूमि-समप्रणधि मनुष्योंकी वृत्ति दीन कहलाने लगे हैं । यह परिवर्तन अाज भी देखने में है, कारण कि उनके खानेके लिये मिट्टी आदि अधम आता है। पदार्थ ही मिला करते हैं । कर्मभूमि समप्रणधि मनुष्य जैनियों में भी जिन लोगोंका यह ख़याल है कि म्लेछखंडोंकी तरह विशेषतया क्रूर वृत्ति वाले ही माने “जातियां अनादि हैं" (जातयोऽनादयः ) इस जा सकते हैं, इसलिये ये दोनों प्रकारके अन्तर्दीपज वाक्यके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तथा मनुष्य नीचगोत्री माने गये हैं । म्लेच्छखंडों के मनुष्यों इनके अवान्तर भेद सुनार, लुहार आदि सभी जातियां की वृत्ति विशेषतया क्रूर वृत्ति है, कारण कि उनकी अनादि हैं, उन्हें यह बात नहीं भूलना चाहिये कि अजीविकाके साधन क्रूर हैं, इसलिये ये भी नीचगोत्री भोगभूमिके जमानेमें इस भरतक्षेत्रके आर्यखंडमें सभी ही कहे जाते हैं। मनुष्य समान थे, उनमें किसी भी प्रकारका जातिभेद ___ भोगभूमिके मनुष्यों की वृत्ति स्वाभिमानपूर्ण है। न था और यह बात तो स्पष्ट है, कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, उन्हें बिना किसी परिश्रमके उनकी इच्छानुकूल अच्छे२ वैश्य और शूद्र इन चार जातियों ( वर्णो ) में मनुष्य भोजन कल्पवृक्षोंसे मिला करते हैं, उनको अपने पेट का विभाजन ऋषभदेव व उनके पुत्र भरत चक्रवर्तीने भरनेके लिये दोनता अथवा क्रूरतापूर्ण कार्य नहीं करने किया था । इसके बाद धीरे धीरे और भी भेद पड़ते हैं, इसलिये वे उच्चगोत्री माने गये हैं। प्रार्य- इनमें वृत्ति भेदके कारण कायम होते गये और श्राज खंडके साधु भी उल्लिखित स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिके कारण तक कायम होते जा रहे हैं। उच्च गोत्री माने गये हैं। यद्यपि धर्म, सम्प्रदाय, देश, प्रान्त व्यक्तिविशेष ___ आर्यखंडके बाकी मनु योंकी वृत्ति भिन्न २ प्रकार प्रादिके अधार पर भी मनुष्यों में बहुत सी जातियोंकी की देखी जाती है। वृत्तिभेदके कारण ही आर्यखंडके कल्पना की गयी है और की जा रही है परन्तु गोत्रकर्मके मनुष्योंकी नाना जातियां कायम हो गई हैं । इस भारत- प्रकरणमें इन जातियोंकी विवक्षा नहीं है, इसलिये क्षेत्रके आर्यखंडमें कर्मभूमिकी रचनाके बाद ही मनुष्योंमें ऐसी जातियोंका समावेश यहां पर नहीं किया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये जातियां वृत्ति-भेदके इस कथनका तात्पर्य यह है कि मनुष्योंमें जितने Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६६] मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ? भेद वृत्ति अर्थात् अजीविकाके निमित्त पाये जाते हैं वह शरीर वृत्तिका प्रयोजक कारण पड़ता है; क्योंकि उतनी ही जातियां मनुष्योंकी आज कल्पित की जा जीव को किसी-न-किसी शरीरका संयोगरूप जीवन सकती है। इतना अवश्य है कि ये सब वृत्तिभेद लोक- प्राप्त होने पर ही खाने पीने आदि श्रावश्यकताओं की मान्य और कनिन्द्य इस तरहसे दो भागों में बांटे जा पूर्ति के लिये वृत्तिकी आवश्यकता महसूस होती है, सकते हैं, इसलिये यह भी निश्चित है कि जिन जाति- शरीर वृत्तिका सहायक निमित्त भी है अर्थात् शरीरके योंकी या जिन मनुष्योंकी वृत्ति लोकमान्य है वे उच्च- द्वारा ही जीव किसी न किसी प्रकारकी वृत्ति को अपगोत्री ओर जिनकी वृत्ति लोकनिंद्य है वे नीचगोत्री नाने में समर्थ होता है ही कहे जायँगे या उनको ऐसा समझना चाहिये। यही कारण है कि शरीरको गोत्रकर्मका नोकर्म तात्पर्य यह है कि जब आर्यखंडके मनुष्योंकी वृत्तियां बतलाया गया है । जिस कुल में जीव पैदा होता है वह उच्च और नीच दो प्रकारको पायी जाती हैं तो वे मनुष्य कुल जीवको वृत्ति अपनाने में अवलम्बनरूप निमित्त भी उच्च और नीच गोत्र वाले सिद्ध होते हैं। पड़ता है; क्योंकि उस कुलमें लोकमान्य या लोकनिंद्य . गोत्रपरिवर्तन और उसका निमित्त जिस वृत्तिके योग्य बाह्य साधनसामग्री मिल जाती ___ऊपर गोत्रकर्मके स्वरूप, कार्य व भेदोंके विषयमें है उसी वृत्तिको जीव अपने जीवनकी आवश्यकताओंकी अच्छी तरहसे प्रकाश डाला गया है और यह बात पूर्ति के लिये अपनालेता है। यही कारण है कि राजअच्छी तरहसे प्रमाणित करदी गयी है कि मनुष्योंमें वार्तिक आदि ग्रन्थों में उच्चकुल और नीचकुलमें जीवका उच्च और नीच दोनों गोत्रोंका उदय पाया जाता है पैदा हो जाना मात्र ही क्रमसे उच्चगोत्र और नीचगोत्रतथा वह लोक व्यवहारके साथ साथ युक्ति अनुभव व कर्मका कार्य बतला दिया गया है। श्रागमके भी अनुकूल है। अब सवाल यह रह जाता है यहां पर कुलसे तात्पर्य उस स्थानविशेषसे है कि गोत्रपरिवर्तन हो सकता है या नहीं ? अर्थात् उच्च- जहां पर पैदा होकर जीव अपनी वृत्ति निश्चित करनेके गोत्र वाला जीव कभी उच्चगोत्री व नीचगोत्र वाला लिये बाह्य साधनसामग्री प्राप्त करता है। नोकर्मकभी उच्चगोत्री हो सकता है या नहीं ? वर्गणाके भेदरूप कुल तो केवल शरीर-रचनामें भेद पहिले कह आये हैं कि जीवकी लोकमान्य वृत्ति करने वाले हैं, जीवकी वृत्ति पर इन कुलोंका कुछ भी उच्चगोत्रकर्मके उदयसे होती हैं और लोकनिंद्यवृत्ति असर नहीं होता है । मनुष्य-शरीरके निर्माण-योग्य नीचगोत्रकर्मके उदयसे होती है अर्थात् इन दोनों जिस नोकर्मवर्गणासे एक ब्राह्मणका शरीर बन सकता गोत्रकर्मोंका उदय अपने अपने कर्मस्वरूप वृत्तिका है उसी नोकर्म वर्गणासे एक भंगीका भी शरीर बन अंतरंग कारण है। ज्ञानी होनेके कारण वृत्तिका कर्ता सकता है, और इसका प्रयोजन सिर्फ इतना है कि उस व फलानुभवन करने वाला जीव है, यही कारण है कि ब्राह्मण और उस भंगीकी प्राकृतिमें समानता रहेगी। गोत्रकर्मको जीवविपाकी प्रकृतियों में गिनार' गया है। जिन लोगोंका यह ख़याल है कि ब्राह्मणका शरीर शुद्ध जीवका जिस शरीरसे जब संयोग हो जाता है और जब नोकर्मवर्गणाओंका पिंड है और भंगीका शरीर तक वह संयोग विद्यमान रहता है तब और तब तक अशुद्ध नोकर्म वर्गणाओंका पिंड है और ये शरीर Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनेकान्त .. वर्ष ३, किरण १ जीवनभर क्रमसे शुद्ध और अशुद्ध ही बने रहेंगे, अम्वावरीष जातिके असुरकुमारोंका शरीर भी नीच उनका यह खयाल जैन सिद्धान्तों के विपरीत है, नोकर्मवर्गणाओं से बना हुआ मानना पड़ेगा, जिससे क्योंकि जैन सिद्धान्तके अनुमार ब्राह्मण और देवों में भी उच्च व नीच दोनों गोत्रोंका सद्भाव मानना भंगी ये संज्ञायें उनके योग्य वृत्तियों के आधार पर अनिवार्य होगा । इसी प्रकार निर्यचों में भी कोई कोई कल्पित की गयी हैं । इसलिये जो व्यक्ति जिस वत्ति तिथंच देखने में इतने प्रिय मालूम पड़ते हैं कि मनुष्य का धारण करने वाला होगा और जब तक उम उनको अपने पास रखनेमें अपना सौभाग्य समझता है। वृत्तिको धारण करे रहेगा तब तक वह व्यक्ति ऐसी हालतमें उनका शरीर भी उच्च नोकर्मवर्गणाओं से उसी संज्ञासे व्यवहार योग्य बना रहेगा । बना हुआ मानना पड़ेगा, जिससे तियंचोंमें भी दोनों इसका अर्थ यह है कि ब्राह्मण भी अपने जीवनमें गोत्रोंका सद्भाव मानना अनिवार्य होगा, जो कि भंगो बन सकता है और भंगी भी अपने जीवनमें पागम विरुद्ध है। इसलिये यह बात निश्चित है कि ब्राह्मण बन सकता है। इसलिये यह बात निश्चित गोत्रकर्मको व्यवस्था में नोकर्मवर्गणाके भेदरूप कुलोंका है कि नोकर्मवर्गणाके भेदरूप कुलोंमें पवित्रता बिल्कुल सम्बन्ध नहीं है। यही कारण है कि जीवकी (उच्चता) अपवित्रता (नीचता) रूपसे विषमता नहीं है उच्च-नीच वृत्तिके अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीको और यही कारण है कि नोकर्मवर्गणाके भेदरूप कुलोंसे जुटा देने वाले स्थानविशेष ही यहां पर 'कुल' शब्दसे जीवके श्राचरण (वृत्ति) में भी उच्चना और नीचता ग्रहण किये गये हैं। रूपसे विषमता नहीं आसकती है। जिस प्रकार अत्यधिक ये कुल मोटे रूपसे चार भागोंमें बांटे जा सकते हैं प्राकृतिभेदसे देव, मनु य, तिथंच और नारकियोंके नरकगति (नरककुल) तिर्यग्गति तिर्यक्कुल) मनु यगति नोकर्मवर्गणा के भेदरूप कुलों का पृथक पृथक् विभा- (मनु यकुल ) देवगति (देवकुल) । कारण कि ये चारों - जन कर दिया है उसीप्रकार एक एक गतिके कुलोंके जो गतियां जीवोंको वृत्तिमें अवलम्बनरूप निमित्तपड़ती हैं। लाखों करोड़ भेद कर दिये हैं उनका अभिप्राय भी देव नरकगति और तिर्यंचगतिमें जीवनपर्यंत नीचआदि पर्यागोंकी समानतामें भा प्राकृतिभेदका पाया वृत्तिके अनुकूल ऊपर लिखे अनुसार बाह्य साधनसामग्री जाना ही है। यदि मन योंके नोकर्मवर्गणाके भेदरूप मिला करती है। इसी प्रकार सम्मुर्छन, अन्तीपज व कुलोंमें किन्हीं को उच्च और किन्हीं को नीच म्लेच्छखंडोंमें रहने वाले मनु योंको भी अपने स्थानोंमें माना जायगा तथा उनके आधार पर यह व्यवस्था जीवनपर्यंत नीच वृत्तिके अनुकूल ही बाह्य साधनबनायी जायगी कि उच्चगोत्र वालोंका शरीर उच्च सामग्री मिला करती है, इसलिये इन सबमें जीवन नोकर्मवर्गणासे और नीचगोत्र वालोंका शरीर पर्यंत एक नीच गोत्र कर्म का हो उदय रहता है। देवनीच नोकर्मवर्गणाओंसे बना हुआ है, तो देवों में गतिमें देवोंको व भोग भूमिमें मनुष्योंको जीवनपर्यन्त भी कल्पवासियोंमें किल्विष जातिके देवोंका शरीर उच्चवृत्ति के अनुकूल ही बाह्य साधनसामग्री मिला व व्यन्तरोंमें क्रूरकर्म वाले राक्षस, पिशाच करती है, इसलिये इनमें जीवनपर्यन्त उच्च गोत्र कर्मका व भतजातिके देवोंका शरीर तथा भवनवासियों में भी ही उदय माना गया है। अब केवल आर्यखंडोंके Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] मनुष्योंमें उच्चता-नीचता क्यों ? ५५ मनुष्य ही ऐसे रह जाते हैं जिनमें बाह्य साधन सामग्री इसीलिये जो मनुष्य साधु हो जाता है उसके उस अवके परिवर्तनसे वृत्ति-परिवर्तनकी सम्भावना पायी जाती स्थामें कुलसंज्ञा नहीं रहती है। इसलिये यह निश्चित है। जैसे इस भरतक्षेत्रके आर्यखंडमें जब तक भोग- है कि एक भंगा भी अपनी वृत्तिसे उदासीन होकर भूमिका काल रहा तब तक बाह्य साधनसामग्री भोग- यदि दूसरी उच्च वृत्तिको अपना लेता है तो भूमिकी तरह उच्च वृत्तिके ही अनुकूल रही, कर्मभूमिके उसके अपनायी हुई उच्च वृत्तिके अनसार गोत्र प्रारम्भ हो जाने पर उन्हींकी संतानके वृत्तिभेदका का परिवर्तन मानना ही पड़ेगा । इसी परिवर्तनके प्रारम्भ हुआ और पहिले कहे अनुसार वृत्तिभेदसे सबसे कारण ही दार्शनिक ग्रन्थों में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व आदिमें पहिले इनका विभाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातित्वकी कल्पनाका बड़ी खूबीके साथ खंडन किया इन चार जातियों ( वर्णों ) में हुआ, बादमें इनके भी गया है । अवान्तरभेद वृत्तिभेद के कारण होते चले गये तथा एक ही इस प्रकार इस लेखसे यह अच्छी तरह स्पष्ट हो प्रकारकी वृत्तिके धारण करने वाले नाना मनन्य होने के जाता है कि पार्यखंडके मनष्य उच्च और नीच दोनों कारण ये सब भेद जाति अथवा कुल शब्दसे व्यवहृत प्रकारके होते हैं। शूद्र हीनवृत्तिके कारण व म्लेच्छ किये जाने लगे और वृत्ति के आधार पर कायम हुए ये क्रूर वत्तिके कारण नीचगोत्री, बाकी वैश्य, क्षत्रिय ही कुल अथवा जातियां भविष्यमें पैदा होने वाले मनु- ब्राह्मण और साधु स्वाभिमान पूर्ण वृत्तिके कारण उच्च प्योंकी वृत्ति के नियामक बन गये। फिर भी बाह्यसाधन- गोत्री माने जाते हैं और पहली वृत्तिको छोड़कर यदि सामग्रीके बदलने की सम्भावना होनेसे इनमें वृत्तिभेद कोई मनुष्य या जाति दूसरी वृत्तिको स्वीकार कर हो सकता है और वृत्ति-भेदके कारण गोत्र-परिवर्तन लेता है तो उसके गोत्रका परिवर्तन भी हो जाता है, भी अवश्यंभावी है । ऐसे कई दृष्टान्त मौजूद हैं जैसे भोगभूमिकी स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिको छोड़कर यदि जो किसी समय क्षत्रिय थे वे आज वैश्य माने जाने लगे आर्यखंडके मनुष्योंने दोनवृत्ति और क्रूरवृत्तिको अपनाया हैं। पद्मावतीपुरवालों में जो अाजकल पंडे हैं वे किसी तो वे क्रमशः शूद्र व म्लेच्छ बनकर नीचगोत्री कहलाने जमानेमें ब्राह्मण होंगे परन्तु आज वे भी वैश्योंमें ही लगे। इसी प्रकार यदि ये लोग अपनी दीन वृत्ति अथवा शुमार किये जाते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रों में क्रूर वृत्तिको छोड़कर स्वाभिमानपूर्ण वृत्तिको स्वीकार परस्पर यथायोग्य विवाह करनेकी जो आज्ञा शास्त्रों में कर लें तो फिर ये उच्चगोत्री हो सकते हैं । यह परिबतलायी है वहां पर विवाही हुई कन्याका गोत्र परिवर्तन नर्तन कुछ कुछ अाज हो भी रहा है तथा श्रागममें भी मानना ही पड़ता है और इसका कारण वृत्तिका परि- बतलाया है कि छठे काल में सभा मनुष्यों के नीचगोत्री वर्तन ही होसकता है और यही कारण है कि म्लेच्छुक- हो जाने पर भी उत्सर्पिणीके तृतीय कालकी श्रादिमें न्याओंका चक्रवर्ती आदिके साथ विवाह हो जानेपर वृत्त उन्हींकी संतान उच्चगोत्री तीर्थकर आदि महापुरुष परिवर्तन हो जानेके कारण ही दीक्षाका अधिकार उनको उत्पन्न होंगे। श्रागममें दिया गया है। इसी परिवर्तनकी वजहसे ही , अत्यधिक लम्बाई हो जानेके कारण इस लेखको धवल के कर्ताने कुलको अवास्तविक बतलाया है और यहीं पर समाप्त करता हूँ और पहिले लेख में कही हुई * इस वाक्य तथा अगली कुछ पंक्तियों परसे लेखक- जिन बातों के ऊपर इस लेखमें प्रकाश नहीं डाल सका महोदयका ऐसा अाशय ध्वनित होता है कि प्रायः वृत्तिको हूँ उनके ऊपर अगले लेख द्वारा प्रकाश डालनेका अाश्रित गोत्र का उदय है गोत्रकर्म के उदयाश्रित वत्ति प्रयत्न करूंगा। साथ ही, जिन श्रावश्यक बातोंकी श्रीर नहीं है। क्या यह ठीक है ? इसका स्पष्टीकरण होना टिप्पणी द्वारा संपादक अनेकान्तने मेरा ध्यान खींचा है चाहिये। -सम्पादक उनपर भी अगले लेख द्वारा प्रकाश डालंगा। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैनदर्शन _ [ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयागका हिन्दी संसारमें प्रदान करदी है। प्रायः वही स्थान और महत्त्व है, जो कि भार- जैन-छात्र प्रतिवर्ष सैकड़ोंकी संख्यामें इन परीतीय-राजनैतिक जगत्में कांग्रेसका । गत तीस वर्षों क्षाओं में सम्मिलित होते हैं और अच्छी श्रेणीमें से यह संस्था हिन्दी-साहित्य और हिन्दी-भाषाकी सम्मेलनसे मेडल तक प्राप्त करके सम्मानपूर्वक इन अच्छी सेवा करती आरही है। हिन्दीका व्यापक परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होते रहते हैं। किन्तु अनेक और स्थायी प्रचार करनेकी दृष्टिसे इसने “हिन्दी- छात्रों और जैन संस्थाओंको विषय-चुनावमें कठिविश्व-विद्यालय" नामक एक अलग परीक्षा-विभाग नाई आती है, अतः मैंने सोचा कि यदि प्रथमा कायम कर रक्खा है, जो कि नियमानसार एवं मध्यमामें जैनदर्शनको भी वैकल्पिक विषयों में व्यवस्थित ढंगसे प्रतिवर्ष अनेक परीक्षाएँ लेता है। स्थान दे दिया जाय तो जैनछात्रों और जैन संभारतके लगभग सभी प्रान्तोंके और प्रायः सभी स्थाओंको बहुत सुविधा हो जायगी। जैन-संस्थाओंजातियों एवं धर्मों के हजारों छात्र इन परिक्षाओं में के पाठ्यक्रममें भी सादृश्यता आजावेगी और प्रति सम्मिलित होते रहते हैं। परीक्षाओंका क्रम, विषयों- वर्ष जैन परीक्षार्थियोंकी संख्या भी बढ़ जावेगी। का वर्गीकरण, पाठ्यक्रमकी शैली, ऐच्छिक विषयों- मेरा प्रस्ताव तो यहाँ तक है कि प्रथमा, विशाका चुनाव, उपाधि प्रदान-पद्धति, आदि व्यवस्था रद और साहित्यरत्नमें प्राकृत-अपभ्रंश भाषा और सरकारी विश्वविद्यालयों के समान ही इसकी भी जैनदर्शन दोनोंको वैकल्पिक विषयों में स्थान दिया हैं। इसकी प्रथमा परीक्षाकी पद्धति और विषयोंका जाय । कारण यह है कि भारतीय दर्शन-धाराका वर्गीकरण मैट्रिकके समान है, विशारदकी शैली अध्ययन तबतक अपूर्ण, एकांगी और अव्यवस्थित बी०ए० के सदृश है और साहित्यरत्नके विषयोंका रहता है, जब तक कि जैन दर्शनका भी तुलनात्मक वर्गीकरण एम० ए० के समान है । परीक्षार्थियोंकी और विश्लेषणात्मक पद्धतिसे बौद्धदर्शन और योग्यता भी इन परीक्षाओंसे अच्छी हो जाती है। वैदिकदर्शनके साथ अध्ययन नहीं करलिया जाय । इन परीक्षाओंका स्टेन्डर्ड ऊँचा होनेसे इनका मान भारतीय-विचारपद्धति, भारतीय संस्कृति, भारतीयभी देशमें ठीक ठीक किया जाता है। बिहार सर- कला और भारतीय-साहित्यके निर्माण में जैनदर्शनकारने (और शायद यू० पी० सरकारने भी) इनको ने हर प्रकारसे सर्वतोमुखी और महत्त्वपूर्ण भाग सरकारी तौर पर मान दे दिया है । यू० पी० बोर्ड- लिया है ।भारतीय विकासकी सभी दिशाओं में ने तो विशारद उत्तीर्णको मैट्रिक और एफ० ए० के जैनदर्शनने अमिट प्रभाव डाला है और पूग पूरा एक ही विषयमें "अंग्रेजी" में भी बैठने की आज्ञा सहयोग दिया है । दूसरा कारण यह है कि जैन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैनदर्शन साहित्यमें “भाषा, साहित्य, लिपि, संस्कृति, धर्म, . दी जावेगी; अंतमें परीक्षा-समितिका निर्णय मांगा राजनीति" आदि विभिन्न विषयोंके इतिहासकी सा- तो यही उत्तर मिला कि परीक्षा-समितिने वैकल्पिक मप्रो विपुल मात्रामें सन्निहित है। अतः प्राकृत-अप- विषयोंमें जैनदर्शनको स्थान देनेसे इन्कार करदिया भ्रंश भाषा और जैनदर्शनको इन परीक्षाओं में स्थान है। मुझे यह पढ़कर अत्यन्त आश्चर्य और खेद देना आवश्यक ही नहीं किन्तु अनिवार्य है, ऐसा हुआ ! परीक्षा-मन्त्रीजी श्री दयाशंकरजी दुबे इस मेरा विश्वास है । यही कारण है कि भारतके अ- प्रस्तावके पक्षमें थे, जैसा कि उन्होंने अपने पत्रमें नेक सरकारी विश्व-विद्यालयोंने भी प्राकृत-अपभ्रंश- स्वीकार किया है । मालूम नहीं इस प्रस्तावके विभाषा और जैनसाहित्यको एफ० ए०, बी० ए०, की रोधी सदस्योंकी क्या मनोभावना थी ? क्या उन्होंपरीक्षाओं तक में स्थान दे दिया है। संस्कृत के ने जैन-दर्शनसे विद्वेषकी भावनासे ऐसा किया सरकारी परीक्षालयोंमें भी प्रथमा, मध्यमा, तीर्थ, अथवा इसे निरुपयोगी ही समझा, यह कह सकना शास्त्री और आचार्य आदि परीक्षाओंमें जैन- कठिन है । किन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता साहित्यको स्थान मिल चुका है। किन्तु खेद है कि है कि यह उनकी अनुदारता और अविचारकता सम्मेलनकी परीक्षा-समितिने इस ओर अभी कोई अवश्य है । क्या वे अब भी कृपा करके इस प्रस्ताव ध्यान नहीं दिया । इस संबंधमें मैं परीक्षा-मन्त्रीजी पर पुनः समुचित विचार कर उसे स्वीकार करेंगे ? सम्मेलन प्रयागसे गत दो वर्षसे पत्र-व्यवहार कर मैं आशा करता हूँ कि वे ऐसी कृपा अवश्य करेंगे। रहा हूँ । उन्होंने सं० ६४ पत्र नं० ६५६३ में लिखा . जैन-संस्था-संचालकों, जैन-पत्र-संपादकों और कि आपका प्रस्ताव परीक्षा-समिति के सामने विचा- जैनविद्वानोंसे निवेदन है कि वे ऐसा प्रयत्न करें रार्थ रक्खेंगे और निर्णयकी सूचना यथासमय कि जिससे प्राकृत-अपभ्रंश-भाषा और जैनसाआपको दी जावेगी । फिर मेरे दूसरे पत्रके उत्तरमें हित्यको सम्मेलनकी परीक्षाओंके वैकल्पिक विषयों सं०६४ पत्र नं० ६७८४ में लिखा कि मैं स्वयं में स्थान मिल सके । इससे अनेक जैन संस्थाओंजैनदर्शनको प्रथमा, मध्यमा परीक्षाओंके वैकल्पिक को पाठ्यक्रम-संबंधी अस्थिरता और अन्य कठिविषयोंमें रखने के पक्षमें हूँ। पर परीक्षा-समितिकी नाइयोंसे मुक्ति मिल सकेगी। राय लेकर ही इस संबंधमें निश्चित रूपसे आपको आदरणीय पं० नाथूरामजी प्रेमी, बाबू जैनेन्द्रलिख सकंगा। तीसरे पत्र नं० ८२८६ सं० ६४ में · कुमारजी, पं० सुखलालजी, पं० जुगलकिशोरजी रजिस्ट्रार हिन्दी विश्वविद्यालयने मुझसे पाठ्यक्रम, मुख्तार और बाबू कामताप्रसादजी आदि विद्वान और पूरी योजना मांगी; तदनुसार मैंने पाठ्यक्रम, महानुभाव और शास्त्रार्थ संघ अम्बाला आदि जैसी और योजना भेजदी। तत्पश्चात् पत्र नं० ६६६५ संस्थाएँ यदि सम्मेलनसे पत्रव्यवहार करने मात्रका और ११४१० सं०६४ में इसी बातकी पुनरावृत्ति की थोड़ा-सा कष्ट करें तो इसमें अतिशीघ्र सफलता कि अभी परीक्षा-समितिका अधिवेशन नहीं हुआ मिल सकती है। क्या ये ऐसा करनेकी कृपा करेंगे ? है, निर्णयकी सूचना आपको यथासमय तुरन्त ही मैं इस आशाके साथ यह निवेदन समाप्त Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ........... [वर्ष 3, किरण 1 करता हूँ कि जैनपत्र-संपादक और विद्वान् मडान- प्रतिक्रमणको लक्षपूर्वक नहीं कर सकते, तो भी वे भाव इस ओर अवश्य प्रयत्न करने की कृपा करेंगे। केवल खाली बैठनेकी अपेक्षा, इममें कुछ न कुछ अन्तर सम्पादकीय नोट अवश्य पड़ता है / जिन्हें सामायिक भी परा नहीं पाता . प्रस्तुत विषयमें लेखकमहोदय का प्रस्ताव और वे बिचारे सामायिकमें बहुत घबड़ाते हैं / बहूतसे भारीउन्होंने दो वर्ष तक पत्र-व्यवहारादिका जो परिश्रम कर्मी लोग इस अवसर पर व्यवहार के प्रपंच भी घड़ किया है वह सब निःसने बतही समयोपगी डालते हैं / इससे मामायिक बहुत दुषित होता है। स्तुत्य और प्रशंसनीय है। परीक्षासमितिका उसपर सामायिकका विधिपूर्वक न होना इसे बहुत खेदउपेक्षाभाव धारण करना अवश्य ही खेदजनक है! कारक और कर्मको बाहुल्यता समझना चाहिए। साठ मालम नहीं उसकी इस अस्वीकृतिके मल में क्या रहस्य घड़ीके दिन रात व्यर्थ चले जाने हैं। असंख्यात दिनों संनिहित है। परन्तु जहाँ तक मैं समझता हैं जैनसा- से परिपूर्ण अनंतों कालच व्यतीत करने पर भी जो हित्य और उसके महत्व से अनभिज्ञता ही इसका प्रधान सिद्ध नहीं होता, वह दो घड़ी के विशुद्ध सामायिकसे सिद्ध कारण जान पड़ता है। जैन विद्वानोंको स्वयं तथा हो जाता है / लक्षपर्वक सामायिक करने के लिये सामाउन अजैन विद्वानों के द्वारा जिन्होंने जैनसाहित्यके यिकमें प्रवेश करने के पश्चात् चार लोगस्ससे अधिक महत्वका अनुभव किया है, परीक्षासमितिके सदस्यों लोगस्मका कायोत्सर्ग करके चित्त की कुछ स्वस्थता पर जैनदर्शन एवं जैनसाहित्यको उपयोगिता और प्राप्त करनी चाहिये और बादमें सूत्रपाठ अथवा किसी महत्ताको प्रकट करना चाहिये..-उनके ध्यान में यह जमा उत्तम ग्रंथका मनन करना चाहिये / वैराग्य के उत्तम देना चाहिये कि इस पोर उपेक्षा धारण करके वे अपने श्लोकोंको पढ़ना चाहिए, पहिलेके अध्ययन किये हएको कर्तव्यका ठीक पालन नहीं कर रहे हैं। प्रत्यत. अपनी स्मरण कर जाना चाहिये और नतन अभ्यास होस के तो भलसे बहुतोंको यथोचित लाभले वंचित रख रहे हैं. करना चाहिये, तथा किमीको शास्त्रके अाधारसे उपदेश जो उनकी ऐसो सार्वजनिक संस्थाकी उदारता और दर- देना चाहिये / इस प्रकार सामायिकका काल व्यतीत दृष्टिताके विरुद्ध है / इस प्रकारके प्रयत्न और यथेष्ट करना चाहिये / यदि मुनिराजका समागम हो, ती अागम आन्दोलनके द्वारा श्राशा है समितिका ध्यान इस ओर की वाणी सुनना और उसका मनन करना चाहिये। ज़रूर पाकृष्ट होगा और वह शीघ्र ही अपनी भलको यदि ऐसा न हो, और शास्त्रोंका परिचय भी न हो तो सुधारने में समर्थ हो सकेगा। बिना अान्दोलन और विचक्षण अभ्यासियों के पास वराग्य-बोधक उपदेश प्रयत्नके कोई भी अच्छे-से अच्छा कार्य सफल नहीं श्रवण करना चाहिये अथवा कुछ अभ्यास करना चाहिये हो सकता। -सम्पादक यदि ये सब अन कुलताये न हों, तो कुछ भाग ध्यानसामायिक-विचार पर्वक कायोत्सर्ग लगाना चाहिये, और कुछ भाग . एकाग्रता और सावधानी के बिना इन बत्तीस दोपों महापुरुषों की चरित्र-कथा सुनने में उपयोगपूर्वक लगाना मेंसे कोई न कोई दोष लग जाते हैं। विज्ञानवेत्तानोंने चाहिये, परन्तु जैस बने तैसे विवेक और उत्माहसे सामायिकका जघन्य प्रमाण दो घड़ी बांधा है। यह व्रत सामायिकके कालको व्यतीत करना चाहिए। यदि कुछ सावधानीपर्वक करनेसे परम शान्ति देता है। बहतम साहित्य न हो, तो पंचपरमेष्टी मंत्रका जाप हो उत्माहलोगोंका जब यह दो घड़ीका काल नहीं बीतता, तब वे पर्वक करना चाहिये / परन्तु काल को व्यर्थ नहीं गँवाना बहुत व्याकुल होते हैं / सामायिकमें खाली बैठनेसे चाहिये। धीर जसे, शान्तिसे और यतनासे सामायिक काल बीत भी कैसे सकता है ? अाधनिक कालमें साव- करना चाहिये / जैस बने तैसे सामायिक म शास्त्रका धानीसे सामायिक करने वाले बहुत ही थोड़े लोग हैं। परिचय बढ़ाना चाहिये। जब सामायिक के साथ प्रतिक्रमण करना होता है, तब माठ घड़ीके अहोरात्र मेंसे दो घड़ी अबश्य बचाकर नो समय बीतना सुगम होता है / यद्यपि ऐसे पामर लोग मामायिक तो सदभावसे करो! -श्रीमद्राजचन्द्र Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापनीय साहित्यकी खोज . [ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ] यापनीय संघ अासपास बहुत प्रभावशाली रहा है / कदम्ब', राष्ट्रकूट जन धर्मके मुख्य दो सम्प्रदाय हैं, दिगम्बर और और दूसर वंशकि राजाअोंने इस संघको और इसके "श्वेताम्बर | इन दोनोंके अनयायी लाखों हैं प्राचार्योको भूमिदान किये थे। प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य और साहित्य भी विपुल है, इसलिए इनके मतों और हरिभद्रसूरिने अपनी ललितविस्तरामें यापनीयतंत्रका मत भेदोंसे साधारणतः सभी परिचित हैं,परन्तु इस बात सम्मान-पूर्वक उल्लेख किया है / का बहुत ही कम लोगोंको पता है कि इन दोके अति ___ श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य शाकटायन ( पाल्यकीर्ति ) रिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिसे 'यापनीयम जैसे सुप्रसिद्ध वैयाकरण इस सम्प्रदायमें उत्पन्न हुए हैं। 'गोप्य' संघ कहते थे और जिसका इस समय एक भी चालुक्य-चक्रवर्ती पुलकेशीकी प्रशस्तिके लेखक कालिअनुयायी नहीं है। दास और भारविकी समताकरनेवाले महाकवि रवियह सम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। 'दर्शनसारके कीर्ति भी इसी सम्प्रदायके मालूम होते हैं / कर्ता देवसेनसरिके कथनानुसार कमसे कम वि० सं० र इस संघका लोप कब हुआ और किन किन कारणोंसे 205 से तो इसका पता चलता ही है और यह समय / हुअा, इसका विचार तो आगे कभी किया जायगा; परन्तु . दिगम्बर श्वेताम्बर२ उत्पत्निसे मिर्फ 60-70 वर्ष बाद अभी तककी खोजसे यह निश्चःपूर्वक कहा जा सकता पड़ता है। इसलिए यदि मोटे तौर पर यह कहा जाय है कि विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दि तक यह सम्प्रदाय कि ये तीनों ही सम्प्रदाय लगभग एक ही समय के हैं जीवित था / कागबाडे के शिलालेखमें. जो जैनमन्दिरतो कुछ बड़ा दोष न होगा, विशेष कर इसलिए कि 3 कदम्बवंशी राजाओंके दानपत्र, देखो जैनसम्प्रदायोंकी उत्पत्तिकी जो तिथियाँ बताई जाती हैं वे हितैषी, भाग 14 अंक 7-8 बहुत सही नहीं हुया करतीं। 4 देखो, ई० ए० १२पृ०१३-१६ में राष्ट्रकूट प्रभूत किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके वर्षका दानपत्र / 5 देखो इं० ए० २पृ०१५६-५६ में पृथ्वीकोंगणि 1 कल्लाणे वरणयरे दुण्णिसए पंचउत्तरे जादे। महाराजका दानपत्र जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो // 26 // 6 श्रीहरिभद्रसूरिका समय आठवीं शताब्दि है। 2 छत्तीसे वरिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स / 7 देखो प्राचीन लेखमाला भाग 1 पृ० 68-72 / सोरटे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो // 1 // देखो बाम्बे यू० जर्नलके मई 1933 के अंकमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार दिगम्बरोंकी प्रो० ए० एन० उपाध्याय एम० ए० का 'यापनीय संघ' उत्पत्ति वीरनिर्वाणके 606 वर्ष बाद (वि० सं० 136 नामक लेख और जैनदर्शन वर्ष 4 अंक में उसका अनुवाद। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष 3, किरण 1 के भौहिरेमें है, यापनीय संघके धर्मकीर्ति और नाग- और ग्रन्थ प्रकाशमें आया है जिसका नाम 'स्त्रो-मुक्तिचन्द्र के समाधि-लेखोंका उल्लेख है / इनके गुरु नेमिः केवलि-भुक्ति प्रकरण" है / इस ग्रंथमें इसके नाम चन्द्रको तुलुवराज्यस्थापनाचार्यकी उपाधि दी हुई है अनुसार स्त्रीको उसी भवमें मोक्ष हो सकता है और केवली जो इस बातकी द्योतक है कि वे एक बड़े राज्यमान्य भोजन करते हैं, इन दो बातों को सिद्ध किया गया व्यक्ति थे और इसलिए संभव है कि आगे भी सौ है। चंकि ये दोनों सिद्धांत दिगम्बर संप्रदायसे विरुद्ध पचास वर्ष तक इस सम्प्रदायका अस्तित्व रहा हो। है. इसलिए इसका संग्रह दिगम्बर भण्डारों मेंनहीं किया यापनीय साहित्यका क्या हुआ ? गया परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय इन बातोंको मानता है बेलगांवके 'दोड्डवस्ति' नामक जैनमन्दिरकी इसलिए उसके भण्डारोंमें यह संग्रहीत रहा / श्रीनेमिनाथकी मूर्ति के नीचे एक खंडित लेख' है, जैसा कि पाठकोंको आगे चलकर मालम होगा जिससे मालूम होता है कि उक्त मन्दिर यापनीय संघके यापनीय संघ सूत्र या आगम ग्रन्थोंको भी मानता किसी पारिसय्या नामक व्यक्तिने शक 635 ( वि० था और उनके भागमोंकी वाचना उपलब्ध वल्लभी सं० 1070 ) में बनवाया था और अाजकल उक्त वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है, मन्दिरकी यापनीयप्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरियोंदारा पजी शायट कळभिन्न थी। उसपर उनको स्वतत्र टाकाय भा जाती है। होंगी जैसी कि अपराजित सूरिकी दशवकालिक सत्रपर ___ जिस तरह यापनीय संघको उक्त प्रतिमा इस समय टीका थी। इस सब साहित्यमेंसे कुछ न कुछ साहित्य दिगम्बर संप्रदायद्वारा मानी-पूजी जाती है, क्या ज़रूर मिलना चाहिए। आश्चर्य है जो उनके साहित्यका भी समावेश उसके जिस सम्प्रदायके अस्तित्वका पन्द्रहवीं शताब्दि साहित्यमें हो गया हो ! यापनीय संघकी प्रतिमायें तक पता लगता है और जिसमें शाकटायन, रविकीर्ति निर्वस्त्र होती हैं, इसलिए सरसरी तौरसे नहीं पहिचानी जैसे प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं, उसका साहित्य सर्वथा जा सकतीं कि वे दिगम्बर संप्रदायकी हैं या यापनीयकी। ही नष्ट हो गया होगा, इस बातपर सहसा विश्वास यापनाय संघका बहुत-सा साहित्य भी नहीं किया जा सकता / वह अवश्य होगा और दिगम्बरतो ऐसा हो सकता है जो स्थल दृष्टिसे दिगम्बर श्वेताम्बर भंडारोंमें ज्ञात-अज्ञात रूपमें पड़ा होगा। सम्प्रदाय जैसा ही मालूम हो / उदाहरण के लिए विक्रमकी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दि तक कनड़ी हमारे सामने शाकटायन व्याकरण है ही। वह दिगम्बर साहित्यमें जैन विद्वानोंने सैकडो एकसे एक बढकर संप्रदायमें सैकड़ों वर्षोंसे केवल मान्य ही नहीं है उस ग्रन्थ लिखे हैं। कोई कारण नहीं है कि जब उस समय पर बहुत-से दिगम्बर विद्वानोंने टीकायें तक लिखी तक यापनीय संघके विद्वानोंकी परम्परा चली श्रा रही थी तब उन्होंने भी कनडी साहित्यको दस-बीस ग्रन्थ शाकटायनाचार्यका व्याकरणके अतिरिक्त एक जैन साहित्य संशोधक भाग 2 अंक 3, 4 में यह 1 देखो जैनदर्शन वर्ष 4 अंक 7 प्रकरण प्रकाशित हो चुका है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं० 2466] यापनीय साहित्यकीखोज 61 भेंट न किये होंगे। सग्रन्थावस्थामें तथा परशासनसे भी मुक्त होना सम्भव यापनीय संघके साहित्यकी एक बड़ी भारी उप- है। इसके सिवाय शाकटायनकी अमोघवृत्तिके कुछ योगिता यह है कि जैनधर्मका तुलनात्मक अध्ययन उदाहरणोंसे मालूम होता है कि यापनीय संघमें श्रावकरनेवालोंको उससे बड़ी सहायता मिलेगी / दिगम्बर- श्यक, छेद-सत्र, नियुक्ति और दशवैकालिक आदि श्वेताम्बर मत भेदों के मलका पता लगाने के लिए यह ग्रन्थोंका पठन-पाठन भी होता था अर्थात् इन बातोंमें दोनोंके बीचका और दोनोंको परस्पर जोड़नेवाला वे श्वेताम्बरियोंके समान थे / साहित्य है और इसके प्रकाशमें आये बिना जैनधर्मका अपराजितमूरि यापनीय थे | प्रारम्भिक इतिहास एक तरहसे अपूर्ण ही रहेगा। यापनीय संघकी मानताओंका थोड़ा-सा परिचय - यापनीय सम्प्रदायका स्वरूप देकर अब हम यह बतलाना चाहते हैं कि क्या सचमुच ही मैंने अपने 'दर्शनसार-विवेचना और उसके परि- कुछ यापनीय साहित्य ऐसा है जिसे इस समय दिगम्बर शिष्ट२ में यापनीयोंका विस्तृत परिचय दिया है और सम्प्रदाय अपना मान रहा है, जिस तरह कि कुछ सप्रमाण दिया है / यहाँ मैं उसकी पुनरावत्ति न करके स्थानोंमें उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओंको ? इसके सार-मात्र लिख देता हूँ, जिससे इस लेखका अग्रिम प्रमाणमें हम सबसे पहिले मलाराधनाकी टीका श्रीभाग समझने में कोई असुविधा न हो। विजयोदयाको उपस्थित करते हैं, जो अपराजितसरि या - ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्रसूरि, षटदर्शनसमुच्चय- श्रीविजयाचार्यकी बनाई हुई है। के टीकाकार गुणरत्नसूरि और षटप्राभूत के व्याख्याता यह टीका भगवती अाराधनाके वचनिकाकार श्रुतसागरसूरिके अनुसार यापनीय संघके मुनि नग्न रहते पं० सदासुखजीके सम्मुख थी। सबसे पहले उन्होंने थे, मोरकी पिच्छि रखते थे, पाणितल भोजी थे, नग्न ही इस पर सन्देह किया था और लिखा था कि इस मूर्तियाँ पनते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको ग्रन्थको टीकाका कर्ता श्वेताम्बर है / वस्त्र,पात्र, धर्मलाभ देते थे। ये सब बातें तो दिगम्बरियों जैसी कम्बलादिका पोषण करता है, इसलिए अप्रमाण है / थीं, परन्तु साथ ही वे मानते थे कि स्त्रियोंको उसी सदासुखजी चंकि यापनीय संघसे परिचित नहीं थे, . भवमें मोक्ष हो सकता है, केवली भोजन करते हैं और इसलिए वे अपराजितसूरिको श्वेताम्बरके सिवाय और 1-2 देखो जैनहितैषी भाग 13 अंक कुछ लिख भी नहीं सकते थे। इसी तरह स्व० डाक्टर और 1-10 , के० बी० पाठकको भी अमोघवृत्ति में आवश्यक छेद___३ “या पंचजैनाभासैरंचलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि 4 एतकमावश्यकमध्यापय / इयमावश्यकमध्यापय / प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चार्चनीया च / " अमोघवृत्ति 1-2-203-4 षट्नाभृतटीका पृष्ठ 76 / श्रुतसागरके इस वचनसे भवता खलु छेदसूत्रं वोढव्यं / नियुक्तिरधीश्व / मालूम होता है कि यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें नियुक्ति धीते / 4-4-133-40 नग्न होती थीं क्योंकि यापनीय उनके पाँच जैनाभासोंके कालिकसूत्रस्यानध्यायदेशकालाः पठिताः / 3-2-47 अन्र्तगत हैं। अथो क्षमाश्रमणैस्ते ज्ञानं दीयते 1-2-201 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष 3, किरण 1 - सूत्र, नियुक्ति प्रादिके उदाहरण देखकर शाकटायनको आचेलक्कुद्दे सियसेज्जाहररायपिंडकरियम्मे / श्वेताम्बर मान लेना पड़ा था, जो कि निश्चित रूपसे वद जट्ठ पडिवक्कमणे मासं पज्जो सवणकप्पो॥ यापनीय थे। ____ इस गाथामें दश प्रकारके श्रमणकल्प अर्थात् .. अपराजितसरिके यापनीय होनेका सबसे स्पष्ट श्रमणों या जैन साधुअोंके प्राचार गिनाये हैं। उनमें प्रमाण यह है कि उन्होंने दशवैकालिक सूत्रपर एक सबसे पहला श्रमणकल्प आचेलक्य या अचेलकता या टीका लिखी थी और उसका भी नाम इस टीकाके निर्वस्त्रता है / साधुओंको क्यों नग्न रहना चाहिए, समान 'श्रीविजयोदया' रखा था। इसका जिक्र उन्होंने और निर्वस्त्रतामें क्या क्या गुण हैं, वह कितनी अावस्वयं 1167 नम्बरकी गाथाकी टीकामें किया है- श्यक है, इस बातको टीकाकारने खूब विस्तारके साथ "दशवकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपं- लगभग दो पेजमें स्पष्ट किया है और इसका बड़े जोरोंसे चिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते / " अर्थात् समर्थन किया है। उसके बाद शंका की है कि यदि मैंने उद्गमादि दोषोंका वर्णनदशवैकालिक टीका में किया ऐसा मानते हो, अचेलकताको ही ठीक समझते हो, तो है, इसलिये अब उसे यहाँ नहीं करता / दिगम्बर फिर पूर्वागमोंमें जो वस्त्र-पात्रादिका ग्रहण उपदिष्ट है, सम्प्रदायका कोई प्राचार्य किसी अन्य सम्प्रदायके श्रा. सो कैसे ?* चार-ग्रन्थकी टीका लिखेगा, यह एक तरहसे अद्भुत-सी पूर्वागमोंमें वस्त्रपात्रादि कहाँ उपदिष्ट हैं, इसके बात है जब कि दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिमें दशवैका- उत्तरमें आगे उन पूर्वागमोंसे नाम और स्थानसहित लिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं / वे इस नामके किसी उद्धरण दिये हैं। जिन आगमोंके वे उद्धरण हैं, ग्रन्थके अस्तित्व में मानते ही नहीं हैं। उनके नामोंसे और उन उद्धरणोंका जो अभिप्राय यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि श्वेतांबर है, उससे साफ समझमें आ जाता है कि वे कोई दिग- . संप्रदाय-मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं यापनीयसंघ शायद म्बर सम्प्रदायके आगम या शास्त्र नहीं हैं बल्कि वही उन सभीको मानता था; परन्तु ऐसा जान पड़ता है हैं जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उपलब्ध हैं और कुछ पाठकि दोनोंके आगमोंमें कुछ पाठ-भेद था और इसका भेदके साथ यापनीय संघमें माने जाते थे। कारण शायद यह हो कि वर्तमान वल्लभीवाचना अक्सर ग्रन्थकार किसी मतका खंडन करने के लिए से पहलेकी कोई वाचना ( संभवतः माथुरी वाचना) उमी मतके ग्रन्थोंका भी हवाला दिया करते हैं और यापनीय संघके पास रही हो। क्योंकि विजयोदया अपने सिद्धांतको पुष्ट करते हैं / परन्तु इस टीका में टीकामें आगमोंके जो उद्धरण दिये गये हैं वे श्वेतांबर ऐसा नहीं है। यहाँ तो अपने ही आगामोंका हवाला श्रागमोंमें विल्कुल ज्योंके त्यों नहीं मिलते है। देकर अचेलकता सिद्ध की गई है और बतलाया है कि अपवादरूपसे अवस्था-विशेषमें ही वस्त्रका उपयोग जिस 427 नं० की गाथाकी टीकापरसे पं० सदा. किया जा सकता है। सखजीने टीकाकारको श्वेतांबरी करार दिया है, वह अथवमन्यसे पर्वागमेष वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तथा ( तत्कथं ?) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकीखोज पहला उद्धरण 'श्राचार-प्रणिधि' का है और यह और पाल्पाकारवाला पात्र मिलेगा, तो उसे ग्रहण आचार-प्रणिधि दशवैकालिक सूत्रके आठवें अध्ययनका करूंगा / / नाम है / उसमें लिखा है कि पात्र और कम्बलकी इन उद्धरणोंको देकर पूछा है कि यदि वस्त्रप्रतिलेखना करना चाहिए, अर्थात् देख लेना पात्रादि ग्राह्य न हो तो फिर ये सूत्र कैसे लिये जावे चाहिए कि वे निर्जन्तुक हैं या नहीं। और फिर कहा है हैं ! कि प्रतिलेखना तो तभीकी जायगी जब पात्र कम्बलादि इसके आगे भावना (आचारांगसूत्रका 24 वाँ होंगे, उनके बिना वह कैसे होगी 1 दूसरा उद्धरण अध्ययन ) का उद्धरण दिया है कि भगवान् महावीरने आचारांगसूत्र का है उसके लोकविचय नामके दूसरे एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया और उसके बाद वे अध्ययनके पाँचवे उद्देश्य में भी कहा है कि भिक्षु अचेलक ( निर्वस्त्र ) हो गये / ' पिच्छिका, रजोहरण, उग्गह और कटासन इनमेंसे कोई सूत्रकृतांगके पुण्डरीक अध्ययनमें कहा है कि साधुउपाधि रक्खे / को किसो वस्त्रपात्रादिकी प्राप्ति के मतलबसे धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्रके दूसरे उद्देश्यमें इसके आगे वत्थेसणा (वस्त्रैषणा) और पाएषणा भी कहा है कि जो भिद वस्त्र-पात्रोंको एक साथ ग्रहण ( पात्रषणा ) के तीन उद्धरण दिये हैं जिनका सारांश करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त लेना पड़ता है।' यह है कि जो साधु ह्रीमान या लज्जालु हो, वह एक शंकाकार कहता है कि इस तरह सूत्रोंमें जब वस्त्रवस्त्र धारण करे और दूसरा प्रतिलेखनाके लिए रखे, ग्रहणका निर्देश है, तब अचेलता कैसे बन सकती जिसका लिंग बेडौल जुगुप्साकर हो वह दो वस्त्र धारण है ? इसके समाधानमें टीकाकार कहते हैं कि अगममें करे और तीसरा प्रतिलेखनाके लिए रखे और जिसे अर्थात् अाचारांगादिमें आर्यिकाओंको वस्त्रकी अनुज्ञा शीतादि परिषह सहन न हो वह तीन वस्त्र धारण करे है परन्तु भिक्षुओंको वह अनुज्ञा कारणकी अपेक्षा है / और चौथा प्रतिलेखनाके लिए, रखे५ / यदि मुझे तूंबी जिस भिक्षुके शरीरावयव लज्जाकर हैं और जो परीषह लकड़ी या मिट्टीका अल्पप्राण, अल्पबीज, अल्पप्रसार, + पुनश्चौक्तं तत्रैव-पानाबुपतं वा दारुगपत्तं-प्राचारपणिधौ भणितं / २-३-प्रतिलिखे. वा मटिगपत्तं वा अप्पपाण अप्पबीजं अप्प सरिदं तथा स्पात्रकम्बलं ध्रुवमिति / असत्सु पात्रादिष कथं प्रति- अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्समीति / लेखना ध्रुवं क्रियते / ४-आचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो वस्त्रपात्रे यदि न माझे कथमेतानि सूत्राणि लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तं / पडिलेहणं पादपुंछणं उग्गहं कडासणं अण्णदरं उपधिं पावेज -वरिसं चीवरधारि तेन परमचेलके तु जिणे / इति / १-तथा वत्येसणाए वत्तं तत्थ एसेहिरिमणे सेगं. वत्थं वा धारेज पडिलेहणं विदियं, तत्थ एसे जुग्गिदे २-ण कहेज्जो धम्मकहं बस्थपत्तादिहेदुमिति / दुवे बत्थाणि-धारेजपडिलेहणंतिदियं / तत्थ एसे परिस्स ३-कसिणाई वत्थकंबज्ञाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदिहं अणधिहासस्स तगोवत्थाणि-धारेज पडिलेहणच- पज्जदि मासिगं लहुगं इति / "-एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इति / उत्थं। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (वर्ष 3, किरण 1 सहन करने में असमर्थ है वही वस्त्र ग्रहण करता है। पात्रग्रहण सिद्ध है तो यह ठीक नहीं है / क्योंकि अचे और फिर इस बातकी पुष्टिमें प्राचारांग तथा कल्प२ लताका अर्थ है परिग्रहका त्याग और पांत्र परिग्रह (बृहत्कल्प ) के दो उद्धरण देकर आचारांगका एक है, इसलिए उसका त्यात्र सिद्ध है / अर्थात् वस्त्रऐसा उद्धरण दिया है जिसमें कारणकी अपेक्षा वस्त्र पात्र ग्रहण कारणसापेक्ष है / जो उपकरण कारणग्रहण करनेका विधान है और उसकी टीका करते हुए की अपेक्षा ग्रहण किये जाते हैं उनकी जिस तरह ग्रहणलिखा है कि यह जो कहा है कि हेमन्त ऋतुके समाप्त हो विधि है उसी तरह उनका परिहरण भी अवश्य करना जाने पर परिजीर्ण उपाधिको रख दे, सो इसका अर्थ यह चाहिए / इसलिए बहुतसे सूत्रोंमें अधिकारकी अपेक्षा है कि यदि शीतका कष्ट सहन न हो तो वस्त्र ग्रहण जो वस्त्र-पात्र कहे हैं सो उन्हें ऐसा मानना चाहिए कि कर ले और फिर ग्रीष्मकाल आ जाने पर उसे उतार कारणसापेक्ष ही कहे गये हैं। और जो भावना ( श्रादे / इसमें कारणकी अपेक्षा ग्रहण कहा है। परन्तु चारांगका 24 वाँ अध्ययन ) में कहा है कि भगवान जीर्णको छोड़ दे, इसका मतलब यह नहीं है कि दृढ महावीरने एक वर्ष तक चीवर धारण किया और उसके (मजबूत ) को न छोड़े / अन्यथा अचेलतावचनसे बाद वे अचेलक हो गये, सो इसमें बहुत सी विपत्तिविरोध या जायगा / वस्त्रकी परि जीर्णता कही गई है, पत्तियाँ हैं, बहुतसे विरोध और मतभेद हैं / क्योंकि कुछ प्रेक्षालनादि संस्कारके अभावसे, दृढका त्याग करनेके लोग कहते हैं कि वीर जिनके उसबस्त्रको उसीदिन उस लिए नहीं हैं और यदि ऐना मानोगे कि संयमके लिए लटका देनेवालेने ही ले लिया था दूसरे कहते हैं कि वह काँटों और डालियों ग्रादिसे छह महीने में छिन्न १-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया भिक्षूणाम् / हीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्ब- भिन्न हो गया था। कुछ लोग कहते हैं कि एक वर्षसे मानबीजो वा परीषहसहने वा अमः स गहाति। कुछ अधिक बीत जाने पर खंडलक नामक ब्राह्मणने - २-हिरिहेतुकं व होइ देहदुगंछंतिदेहे जुग्गिदगे धारेज उसे ले लिया था और दूसरे कहते हैं कि जब वह हवासे सियं वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति / उड़ गया और भगवान्ने उसकी उपेक्षा की, तो लट ३-द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं प्राचारांगे विद्यते-अह पुण एवं जाणे काने वालेने फिर उनके कन्धेपर रख दिया / इस तरह ज्ज / पातिकते हेमंतेहिं सुपडि वण्णे से अथ पडिज अनेक विपत्तिपत्तियाँ होने के कारण इस बात में कोई एणमुवधि पदिटावेज्ज / तत्त्व नहीं दिखलाई देता / यदि सचेललिंग प्रकट करने ४-हिमसमये शीतबाधासहः परिब्रह्म चेलं तस्मि- के लिए भगवानने वस्त्र ग्रहण किया था तो फिर उसका न्निष्क्रान्ते ग्रीष्मेसमायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणमपेक्ष्य विनाश क्यों इष्ट हया? उसे मदा. ही धारण किये ग्रहणमाख्यातं / / परिजीर्णविशेषोपादानाडानाम ---- परित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः। प्रक्षाल- स्यापि त्यागः सिद्ध एवेति / तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रमात्रनादि संस्कार विरहात्परिजीर्णता वस्त्रत्य कथिता न ग्रहणं / यदुपकरणं गाते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणतु दृढ़स्यत्यागकथनार्थ पात्रप्रतिष्ठापनासूत्रेणोक्तेति / विधिः ग्रहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव / तस्मासंयमार्थं पात्रग्रहणं सिद्धयति इति मन्यसे, नैव। द्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्त अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति त- तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] / स०२४६६] यापनीय साहित्यकीखोज रहना था और यदि उन्हें पता था कि वह नष्ट हो इसके बाद कहा है कि परीषहसूत्रोंमें (उत्तराध्ययनजायगा तो फिर उसका ग्रहण करना निरर्थक हुआ. में) जो शीत-दंश-मसक तृणस्पर्श-परीषहोंके सहनके वचन और यदि पता नहीं था तो वे अज्ञानी सिद्ध होते हैं। हैं वे सब अचेलताके साधक हैं। क्योंकि जो सचेल या और फिर यदि उन्हें चेलप्रज्ञापना वांछनीय थी तो फिर सवस्त्र हैं उन्हें शीतादिकी बाधा होती ही नहीं है / 2 यह वचन मिथ्या हो जायगा कि पहले और अन्तिम फिर उत्तराध्ययनकी ऐसी नौ गाथायें उद्धृत की हैं तीर्थंकरका धर्म आचेलक्य (निर्वस्त्रता ) था'। जो अचेलताको प्रकट करती हैं। इस तरह इस ____ और जो नवस्थान (?) में कहा है कि जिस आचेलक्य श्रमणकल्पकी समाप्त की गई है। तरह मैं अचेलक हूँ उसी तरह पिछले जिन (तीर्थकर) इससे अच्छी तरह स्पष्ट होजाता है कि व्याख्याकार भी अचेलक होंगे, सो इससे भी विरोध अायगा / इसके यापनीय संघके हैं, वे उन सब आगमों आदिको सिवाय वीर भगवान के समान यदि अन्य तीर्थंकरोंके भी मानते हैं जिनके उद्धरण उन्होंने अचेलकताके प्रकरणमें वस्त्र थे तो उनका वस्त्र-त्याग-काल क्यों नहीं बतलाया दिये हैं / उनका अभिप्राय यह है कि साधुओंको जाता है ? इसलिए यही कहना उचित मालम होता है नग्न रहना चाहिए; नग्न रहनेकी ही आगमोंकी आज्ञा कि सब कुछ त्यागकर जब जिन (वीर भगवान् ) स्थित है और कही कहीं जो वस्त्रादिका उल्लेख मिलता है सो थे तब किसीने उनके ऊपर वस्त्र डाल दिया था और उसका अर्थ इतना ही है कि यदि कभी अनिवार्य ज़रूरत वह एक तरहका उपसर्ग था। श्रा पड़े, शीतादिकी तकलीफब - बेडौल घिनौना हो तो कपड़ा ग्रहण किया जा सकता है १-यच्चभावानायामुक्त-वरिसं चीवरधारि तेण परमचेलगो जिनोति तदुक्तं विप्रतिपतिबहुलत्वात् / कथं ? तेषामपि भवेत् / एवं तु युक्तं वक्तुं सर्वत्यागं कृत्वा केचिद्वदन्ति तस्मिनैव दिने तद्वस्त्रवीरजिनस्य विलम्बन• स्थिते जिने केनचिद्वस्त्रं वस्तुं निचितं उपसर्ग इति / . कारिणा गृहीतमिति / अन्येषण मासाच्छिन्नं तत्कण्टक शाखादिभिरिति / साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खण्डलक- २-इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमसकतणब्राह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति / केचिद्वातेन स्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु / नहि सचेल शीतापतितमुयेक्षित जिनेनेत्यपरे वदन्ति विलम्बनकारिण दयो वाधन्ते / जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति / एवं विप्रतिपत्ति बाहुल्या- ३-स्थानाभावसे यहाँ उत्तराध्ययनकी चार ही न दृश्यते तत्त्वं / सचेललिंगप्रकटनार्थ यदि चेलग्रहणं जिनस्य कथं तद्विनाश इष्टः ? सदातद्धारयितव्यम् / किं ___ गाथायें दी जाती हैं न चं, यदि नश्यतीति ज्ञानं निरर्थकं तस्य ग्रहणं, यदि न परिचत्तेसु वत्थेषु ण पुणो चेलमादिए, अचेलपवरोज्ञातमज्ञानस्य प्राप्नोति / अपि च चेलप्रज्ञापना बांछि- भिक्खू जिणरूबधरे सदा / अचेलंगस्स लहस्स संजयस्स ता चेत् 'पाचेलक्को धम्मो पुरिमचरिमाणं' इति वचो तवस्सियो, तणेसु सयमाणस्स णं ते होदि विराहिणा मिथ्या भवेत् / ण मे णिवारणं अस्थि छवित्ताणं ण विज्जई. अहंत २-यदुक्तं 'यथाहमचेली तथा होउ पच्छिमो इति अग्गि सेवामि इदि भिक्ख ण चिंतए // आचेलक्को य होक्खदिति ' तेनापि विरोधः। किं च जिनानामितरेषां जो धम्मो जो वायं पुणरुत्तरो,देसिदो वड्ढमाणेण पासेण वस्त्रत्यागकालः वीरजिनस्येव किं न निर्दिश्यते यदि वस्त्रं य महप्पणा / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनेकान्त वर्ष 3, किरण 1 परन्तु वह ग्रहण करना कारणसापेक्ष है और एक तरह प्राप्त हुआ था और श्रीनन्दिगणि के कहनेसे उन्होंने यह से अपवादरूप है / भगवान् महावीस्की के उन सब टीका लिखी थी। वे अारातीय सूरियोंमें श्रेष्ट थे। श्रीभिन्न भिन्न कथानोंका उल्लेख करते हैं जो उनके कुछ विजय उनका दूसरा नाम था और शायद इसीसे इस काल तक वस्त्रधारी रहने के सम्बन्धमें श्वेताम्बर-सम्प्र- टीकाका तथा दशवकालिक टीकाका नाम श्रीविजयोदया दायमें प्रचलित हैं और दिगम्बर सम्प्रदायमें जिनका रखा गया है / कहीं जिक्र तक नहीं है। दिगम्बर-सम्प्रदाय के किसी भी संघकी गुर्वावली या विजयोदया टीकाका यह एक ही प्रसंग उसे याप- पट्टावलीमें यह गुरुपरम्परा नहीं मिलती और यह आरानीय सिद्ध करने के लिए काफी है और इसी लिए यह तीय पद भी विनयदत्त,श्रीदत्त,शिवदत्त और अर्हद्दत्त,इन खास तौरसे पाठकों के सामने पेश किया गया है / और चार श्राचार्योंके सिवाय और किसी भी प्राचार्य के लिए भी कई प्रसंग और उद्धरण दिये जा सकते हैं परन्तु व्यवहृत नहीं किया गया है / सर्वार्थसिद्धि टीका के अनु उनमें जो दिगम्बर-यापनीय भेद हैं वे इतने सूक्ष्म हैं कि सारभगवान्के साक्षात शिष्य गणधर और श्रुतकेवलियों के उन्हें जल्दी नहीं समझाया जा सकता। और उन पर बाद जो प्राचार्य हुए हैं और जिन्होंन दशवैकालिकादि विवाद भी किया जा सकता हैं। सत्र उपनिबद्ध किये हैं वे श्रारातीय कहलाते हैं / अपराजितसरिकी / गुरुपरम्परा श्रीविजयोदया टीकाके अनुसार अपराजितसरि / -"चन्द्रनन्दिमहाप्रकृत्याचार्यः प्रशिष्येण बलदेवसरिके शिष्य और चन्द्रनन्दि महाप्रकृत्याचार्यके पारातीयसरिचूलामणिना नागनन्दिगणिपादपद्मोप सेवाजातमतिलवेन बलदेवसरिशिष्येण जिनशासनोद्धप्रशिष्य थे / नागनन्दिगणिकी चरण-सेवासे उन्हें ज्ञान रणधीरेण लब्धयशः प्रसरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दि_ इस विषयमें यापनीय संघकी तलना शुरूके गणिनावचोदितेन रचिता-" भट्टारकोंसे की जासकती है। वे थे तो दिगम्बर सम्प्रदा- २-आशाधरने अपराजितको अपने ग्रन्थोंमें यके ही अनुयायी, श्रीकुन्दकुन्दकी आम्नायके माननेवाले श्रीविजयाचार्यके नामसे भी लिखा है-" एतच्च श्री और नग्नताके पोषक, परन्तु अनिवार्य आवश्यकता होने विजयाचार्यविरचितसंस्कृत मूलाराधनटीकायां सुस्थित पर वस्त्रका भी उपयोग कर लेते थे, यों वे अपने मठोंमें सूत्रे विस्तरतः समर्पितं दृष्टव्यं / " वस्त्र छोड़कर नग्न ही रहते थे और भोजन के समय भी - -अनगारधर्मामृत टीका पृ० 673 नग्न होनाते थे। श्रीश्रुतसागरसूरिने षट्पाहुड़ टीकामें ३-विनयधरःश्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते। इसे अपवादवेष कहा है यथा पारातीयाः यतयस्ततो ऽभवन्नङ्ग पूर्वधराः // 24 ___ "कलौ किन म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वा उपद्रवं यतीना --श्रुतावतार कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गेःश्री वसन्तकीर्तिना स्वामिना ४-त्रयो वक्तारः सर्वज्ञतीर्थकरः इतरो वा श्रुतचर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य पन- केवलीपारातीय श्चेति / / स्तन्मुञ्चति इत्युपदेशःकृतः संयमिना, इत्यपवादवेषः / " ___-अनागार धर्मामृतटीका पृ०६७३ तत्त्वार्थटीकामें उन्होंने इसे व्यलिंग कहा है यथा- भारातीयै पुनराचार्यैः कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मति "द्रव्यलिङ्गिनः असमर्था महर्षयःशीतकालादौ कम्बला- बलशिष्यानुग्रहार्थदशवैकालिकाद्युपनिबद्धं. तत्प्रमाणमर्थदिकंगृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं तस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव / कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंताति।" -01 सूत्र 20 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज 67 चंकि अपराजितसरिने दशवैकालिककी टीका लिखी थी, अर्ककीर्ति मुनिको मान्यपुर ( मैसूर राज्यके नेल मंगल शायद इसीलिए वे 'श्रारातीय-चूडामणि' कहलाते हों / ताल्लुकेका मौने नामक ग्राम ) के शिलाग्राम जिनेन्द्रदिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार दशवैकालिकादि अंगबाह्य भवनको एक गाँव भेंट किया गया है। उसमें स्पष्टतासे श्रुत तो हैं; परन्तु उसकी दृष्टि में वे छिन्न होगये हैं और "श्रीयापनीय-नन्दिसंघ-'नागवृत्तमूलगण" लिखा हुआ जो उपलब्ध हैं वे अप्रमाण हैं / अतएव दिगम्बर है। इस नन्दिसंघके अन्तर्गत उसकी शाखारूप पूनागसम्प्रदायका कोई भी श्राचार्य इस पदवीका धारक * वृक्षमूल नामका गण था / जिस तरह मूलसंघके नहीं है। अन्तर्गत, देशीय काणूर श्रादि गणं हैं, उसी तरह यापयापनीयों का नन्दिसंघ नीयनन्दिसंघमें यह भी था। रायबाग के शिलालेखमें गंगवंशी पृथ्वीकोङ्गणि महाराजका शक 168 (वि० जो ई०स० 1020 का लिखा हुआ है, यापनीयसंघ. सं०८३३) का एक दानपत्र' मिला है जो श्रीपुर पुन्नागवक्षमूलगणके कुमारकीर्तिदेवको कुछ दान (शिरूर) के लोकतिलक नामक जैनमन्दिरको दिया गया है / इसी तरह कोल्हापुरके 'मंगलवारबस्ति' 'पोन्नल्लि' नामक ग्रामके रूपमें दिया गया था / उसमें नामक जैनमन्दिरकी एक प्रतिमाके नीचे एक शिलालेख जो गुरुपरम्परा दी है वह इस प्रकार है-श्रीचन्द्रनन्दि है जिससे मालूम होता है कि पुन्नागवृक्षमूलगण गुरु, उनके शिष्य कुमारनन्दि, उनके कीर्तिनन्दि और यापनीयसंघके विजयकीर्ति पण्डितके शिष्य और उनके विमलचन्द्राचार्य / इन्हें श्रीमूल २मूलगणाभि- रवियएणके भाई वोमियण्णने उसकी प्रतिष्ठा कराई थी। नन्दित नंदिसंघ, एरे गित्तूर नामक गण और मूलिकल इन दो लेखोंमें यापनीयसंघ : पुन्नागवृक्षमूलगणका गच्छका बतलाया है / हमारा खयाल है कि जिस तरह उल्लेख तो है परन्तु नन्दिसंघका नहीं है, फिर भी यह मूलसंघके अन्तर्गत एक नन्दिसंघ है, उसी तरह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि नन्दिसंघ यापनीयों यापनीय संघके अन्तर्गत भी एक नन्दि संघ था। इसके में भी था और उसके अन्तर्गतपुन्नागवृक्ष मूलगण था / प्रमाणमें हम राष्ट्रकूटनरेश द्वि० प्रभूतवर्ष के एक दानपत्रको पेश कर सकते हैं, जिसमें शक 735 (वि० सं० द्रविड़ संघमें भी नन्दिसंघ 870) को यापनीय नन्दिसंघके विजयकीर्तिके शिष्य यापनीय संघ ही नहीं द्रविड़ या प्रमिल संघमें भी नन्दिसंघ नामका संघ था जिसका उल्लेख, कई - इण्डियन एण्टिक्वेरी 2-156-56 श्रीमूलमूलशरणाभिनन्दित-नन्दिसंघान्वयएरेगित्तर नाम्नि १-जर्नल आफ बाम्बे हिस्टारिकल सुसाइटी जिल्द गणेमूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणकिरणप्रततिप्रह्लादितसकललोकश्चन्द्र इवापरश्चन्द्रनन्दिनाम गुरुरासीत् / / पृ० 112-200... .. . ____२-'श्रीमूलमूलशरणाभिनन्दित' पाठ शायद ठीक २-प्रो० के. जी. कुंडनगरने कनड़ी मासिक पत्र नहीं है। सम्भव है पढ़नेवालेने 'गण' को 'शरण' 'जिनविजय' (सन् 1932) में यह और यापनीयोंके पढ़ लिया है। अन्य लेख प्रकाशित किये थे / इनका उल्लेख प्रो उपा__३-इं०ए० जिल्द 12 पृ०१३-१६...श्रीयापनीय- ध्यायने अपने 'यापनीय संघ' शीर्षक लेख में किया है। नन्दिसंघपुंनागवृक्षमूलगणे श्रीकीर्त्याचार्यान्वये / देखो जैनदर्शन वर्ष 4 अंक 7 / . .. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 अनेकान्त / (वर्ष 3, किरण 1 शिलालेखोंमें मिलता है और यह एक मार्केकी बात है दिया है / यद्यपि वृक्षोंसे नामोंकी कोई ठीक उपकि देवसेनसूरिने यापनीयके समान द्रविड़ संघको भी पत्ति नहीं बैठती है फिर भी यह माननेमें कोई हर्ज नहीं जैनाभासोंमें गिना है। ...... कि शुरू शुरूमें कुछ संघों या गणोंके नाम वृक्षोंपरसे - प्रायः प्रत्येक संघमें गण, गच्छ, अन्वय, वाल भी पड़े थे। आदि शाखायें रहती थीं / कभी कभी गण गच्छादिको ये पुन्नागवृक्षमूलगण और श्रीमूलमूलगण भी संघ और संघोंको.गण गच्छ भी लिख दिया जाता था। इसी तरहके मालूम होते हैं। नाग नागकेसरको कहते मतलब सबका मुनियोंके एक समूहले था। हैं और श्रीमूल शाल्मलि या सेमरको / बंगला भाषामें संघों और गणोंके नामकी उपपत्ति सेमरको 'शिमूल' कहते हैं जो श्रीमूलका ही अपइन संघों या गणों के नाम कुछ देशोंके नामसे भ्रंश मालूम होता है / कनड़ीमें भी संभव है कि शिमूल जैसे द्रविड़,माथुर, लाड-बागड़ आदि, कुछ ग्रामोंके या श्रीमूलसे ही मिलता जुलता कोई शब्द सेमर के लिए नामसे जैसे कित्तूर, नमिलूर, तगरिल", श्रीपुर, हन- होगा / सोगे आदि, और कुछ दूसरे चिन्होंसे रक्खे गये हैं। . संस्कृत कोषोंमें नन्दि भी एक वृक्षका नाम है, ____ इन्द्रनन्दिने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि इससे कल्पना होती है कि शायद नन्दिसंघ नाम भी शाल्मलिवृक्षमूलसे आये उनका अमुक नाम पड़ा, उक्त वृक्षके कारण पड़ा होगा। ऐसी दशामें मूल संघके जो खण्डकेसरद्रुममूलसे आये उनका अमुक और जो समान अन्य संघोंमें भी नन्दि संघ होना स्वाभाविक है। अशोकवाटिकासे आये उनका अमुक। इस विषयमें हमारा अनुमान है कि पृथ्वीकौङ्गणि महाराजजो मतभेद हैं उनका भी उन्होंने उल्लेख कर के दानपत्रके चन्द्रनन्दि आचार्यके ही प्रशिष्य अपरा१-श्रीमहमिलसंघेस्मिन्नन्दिसंघेऽस्त्यरुंगलः / जितसूरि होंगे। उक्त दानपत्रमें उनके एक शिष्य ' अन्वयो भाति योऽशेषशास्त्रवारीश पारगः // कुमारनन्दिकी ही शिष्यपरम्परा दी है, दूसरे शिष्य . ...श्री द्रमिणगणदनन्दिसंघदरुङ्गलान्वयदाचार्यावलि. बलदेवसूरिकी परम्परामें अपराजिप सूरि हुए होंगे। येन्ते दोड़े...... ____ दानपत्रमें मूलसंघ (दि० स०) के नन्दिसंघसे पृथजैनशिलालेखसंग्रह पृ० 367 २-दक्षिणमहुएजादो दाविडसंघो महामोहो। यत्व प्रकट करने के लिए 'श्रीमूलमू नगणाभिनन्दित विशे___३-७-इन नामोंके स्थान कर्नाटकमें अब भी हैं। पण दिया गया है। बलि, गच्छ और अन्वयके नाम इन्हींपरसे रक्खे गये हैं। क्या शिवार्य भी यापनीय थे ? गित्तूर और कित्तूर एक ही हैं। कित्तूरका पुराना नाम अपराजितसूरि के विषयमें विचार करते हुए मूल कीर्तिपुर है जो पुन्नाट देशकी राजधानी थी / 'एरे' ग्रन्थमें भी कुछ बातें ऐसी मिली हैं जिनसे मुझे उसके कनडीमें को कहते हैं / 'कित्तूर' और 'एरे गित्तर' दोनों ही नामके गण या गच्छ हैं। कर्ता शिवार्य भी यापनीय संघके मालूम होते हैं। देखिए_-ये शाल्मलिमहाद्रुममूलाद्यतयोऽभ्युपगताः / ये खण्डकैसरद्रुममूलान्मुनयः समागताः, प्रथितादशोक 1 इस ग्रंथकी प्रशस्तिमें लिखा है कि आर्य वाटारसमागता ये मुनीश्वराः इत्यादि। जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुत गणि और आर्य मित्र Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज 66 - नन्दि गणिके चरणोंसे अच्छी तरह सूत्र और उनका होती है कि पूर्वाचार्योंकी रची हुई गाथायें उनकी उपअर्थ समझकर और पूर्वाचार्योंकी रचनाको उपजीव्य जीव्य हैं / बनाकर 'पाणितलभोजी' शिवार्यने यह आराधना रची' जिन तीन गुरुओंकेचरणोंमें बैठकर उन्होंने पाराहम लोगोंके लिये प्रायः ये सभी नाम अपरिचित धना रची है उनमें से 'सर्वगुप्त गणि' शायद वही हैं हैं / अपराजितसूरिकी परम्पराके समान यह जिनके विषयमें शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें लिखा है कि परम्परा भी दिगम्बर सम्प्रदायकी . पहावली या "उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः" 1-3-104 / अर्थात् गुर्वावली आदिमें नहीं मिलती। शिवकोटि और शिवा- सारे व्याख्याता या टीकाकार सर्वगुप्त से नीचे हैं / र्य एक ही हैं जो स्वामि समन्तभद्र के शिष्य थे, इस चूंकि शाकटायन यापनीय संघके थे इसलिए विशेष धारणाके सही होनेका भी कोई पुष्ट और निर्धान्त सम्भव यही है कि सर्वगुप्त यापनीय संघके ही सूत्रों प्रमाण अभी तक नहीं मिला है / जो कुछ प्रमाण इस या आगमोंके व्याख्याता होंगे। सम्बन्धमें दिये जाते हैं, वह बहुत पीछेके गढ़े हुए शिवार्यने अपनेको "पाणितलभोजी" अर्थात् मालूम होते हैं / स्वयं शिवार्य ही यह स्वीकार नहीं हाथों में पास लेकर भोजन करनेवाला कहा है। यह करते कि मैं समन्तभद्रका शिष्य हूँ। विशेषण उन्होंने अपनेको श्वेताम्बर सम्प्रदायसे अलग अपराजितसूरि यदि यापनीय संघके थे तो अधिक प्रकट करनेके लिए दिया है / यापनीय साधु हाथ पर सम्भावना यही है कि उन्होंने अपने ही सम्प्रदायके ही भोजन करते थे। ग्रन्थकी टीका की होगी। ____ अाराधनाकी 1132 वीं गाथामें मेदस्स मुणिस्स अाराधनाकी गाथायें काफी तादादमें श्वेताम्बर अक्खणं' ( मेतार्यमुनेराख्यानम्) अर्थात् मेतार्य मुनिसूत्रोंमें मिलती हैं, इससे शिवार्यकेइस कथनकी पुष्टि की कंथाका उल्लेख किया है जहाँ तक हम जानते हैं १-अज्जजिणणंदिगणिज्जमित्तणंदीणं / दिगम्बर साहित्यमें कहीं यह कथा नहीं मिलती है / भवगमियपायमले सम्म सत्तंच प्रस्थं च // 21, यही कारण है कि पं० सदासुखजीने अपनी वचनिकापुब्वायरियणिवद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए। में इस पदका अर्थ ही नहीं किया है / यही हाल भाराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोरणा रहदा // पंजिनदास शास्त्रीका भी है / संस्कृतटीकाकार पं० 2162 अाशाधरजीने तो इस गाथाकी टीका इसलिए विशेष नहीं २-यापनीय संघके मुनियोंमें कीर्तिनामान्त अधिः की है कि वह सुगम है परन्तु आचार्य अमितगतिने कतासे हैं जैसे पाल्यकीर्ति, रविकीर्ति, विजयकीर्ति, धर्मकीर्ति, आदि नन्दि, चन्द्र, गुप्त नामान्त भी हैं ' इसका संस्कृतानुवाद करना क्यों छोड़ दिया ? जैसे-जिननन्दि, मित्रनन्दि, सर्वगुप्त, नागचन्द, नेमिचन्द्र -भगवती आराधना वचरिकाके अन्तमें उन आदि नामोंसे किसी संघका निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं गाथाओंकी एक सूची दी है जो मूलाचार और भाराधहो सकता है। नामें एकसी हैं और पं०सुखलालजी द्वारा सम्पादित पंच ३-देखो भगवती चाराधना पनिकाकी भूमिका प्रतिक्रमण सूबमें मूलाचास्की उन गाथाओं की सूची दी पृ. 3-6 / है जो भद्रबाहुकृत 'भावश्यकनियुक्ति' में भी हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनेकान्त - [वर्ष 3, किरण 1 मेतार्य मुनिकी कथा श्वेताम्बर सम्प्रदायमें बहुत आराधनाको 665 और 666 नम्बरकी गाथायें प्रसिद्ध है / वे एक चाण्डालिनीके लड़के थे परन्तु भी दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल नहीं खाती हैं / किसी सेठके घर पले थे / अत्यन्त दयाशील थे / एक दिन उनका अभिप्राय यह है कि लब्धियुक्त और मायावे एक सुनारके यहाँ भिक्षाके लिए गये / उसने उसी चाररहित चार मुनि ग्लानिरहित होकर क्षपकके योग्य समय सोनेके जौ बनाकर रक्खे थे / वह भिक्षा लानेके निर्दोष भोजन और पानक (पेय) लावें / इसपर पं०सदालिए भीतर गया और मुनि वहीं खड़े रहे जहाँ जौ सुखजीने आपत्ति की है और लिखा है कि “यह भोजन रक्खे थे / इतनेमें एक क्रौंच पक्षीने आकर वे जौ चग लानेकी बात प्रमाणरूप नहीं है / " इसी तरह 'सेजोगालिये / सुनारको सन्देह हुआ कि मुनिने ही जौ चुरा लिये सणिसेजार' आदि गाथापर (जो मूलाचारमें भी हैं / मुनिने पक्षीको चुगते तो देख लिया था परन्तु कहा है ) कविवर वृन्दावनदासजीको शंका हुई थी और नहीं / यदि कह देते तो सुनार उसे मार डालता और उसका समाधान करनेके लिए दीवान अमरचन्दजीको जौ निकाल लेता / सुनारने सन्देह हो जानेसे मुनिको पत्र लिखा था / दीवानजीने उत्तर दिया था कि “इसमें बहुत कष्ट दिया और अन्तमें भीगे चमड़ेमें कस दिया वैयावृत्ति करने वाला मुनि आहार श्रादिसे मुनिका उपजिससे उनकाशरीरान्त होगया और उन्होंने केवल ज्ञान कार करे; परन्तु यह स्पष्ट नहीं किया है कि आहार प्राप्त किया। मेरी समझमें यह कथा दिगम्बर सम्प्रदायमें स्वयं हाथसे बनाकर दे / मुनिकी ऐसी चर्या प्राचाहो भी नहीं सकती। रांगमें नहीं बतलाई है / दश स्थितिकल्पोंके नामवाली गाथा जिसकी आराधनाका चालीसवाँ / 'विजहना' नामका टीकासे अपराजितसूरिको यापनीय संघ सिद्ध किया अधिकार भी विलक्षण और दिगम्बर सम्प्रदायके लिए गया है, जीतकल्प-भाष्यकी 1672 नं० की गाथा अभूतपूर्व है, जिसमें मुनिके मृत शरीरको रात्रि भर है / श्वेताम्बर सम्प्रदायकी अन्य टीकाओं और निर्य- जागरण करके रखनेकी और दूसरे दिन किसी अच्छे क्तियोंमें भी यह मिलती है और प्राचार्य प्रभाचन्द्रने स्थानमें वैसे ही (बिना जलाये) छोड़ अाने की विधि अपने प्रमेयकमलमार्तण्डके स्त्री-मुक्ति-विचार (नया १-चतारिजणा भत्तं (पाण) उवकप्पंति अगिलाएडीशन पृ० 331) प्रकरणमें इसका उल्लेख श्वे णए पाउग्गं। . ताम्बर सिद्धान्त के रूपमें ही किया है छडियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपणा / / -"नाचालेक्यं नेष्यते ( अपि तु ईष्यते व) 'आ २-सेज्जोगासणिसेज्जा तहो उवहिपडिलिहणचेलक्कुहेसिय सेज्जाहर रायपिंडकियिकम्मे' इत्या __हि उवगाहो। देः पुरुषं प्रति दशविधस्य स्थितिकल्पस्य मध्ये -मूलाचार 361 तदुपदेशात् / " आहारोसयभोयणविकिंचणं वंदणादीणं // -देखो आवश्यक नियुक्ति गोथा 867-70 / / -भगवती आराधना 310 . २-चाण्डालिनीके लड़केका मुनि होना भी शायद ३-देखो भ० प्रा० वचनिकाकी भूमिका.पृष्ठ 12 दिगम्बर-सम्प्रदायके अनुकूल नहीं है। और 13 / / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण-सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज .............. -----------.............. वर्णित है / अन्य किसी दिगम्बर ग्रन्थमें अभी तक यह पं० श्राशाधरकी टीकामें लिखा है-'माचारस्य जीदस्य देखने में नहीं आई। . ., कल्पस्य च गुणप्रकाशना / एतानि हि शास्त्राणि 1544 नम्बरकी गाथामें कहा है कि घोर अवमोदर्य रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति / ' पं० जिनदास शास्त्रीने हिन्दी या अल्प भोजनके कष्टसे बिना संक्लेश बुद्धि के किये अर्थमें लिखा है कि 'श्राचार शास्त्र,जीत शास्त्र,और कल्प हुए भद्रबाहु मुनि उत्तम स्थानको प्राप्त हुए / शास्त्र इनके गुणोंका प्रकाशन होता है।'अर्थात् तीनोंके दिगम्बर सम्प्रदायकी किसी भी कथामें भद्रबाहुके मत्तसे इन नामोंके शास्त्र हैं और यह कहनेकी जरूरत इस ऊनोदर-कष्टके सहनका कोई उल्लेख नहीं है। नहीं कि श्राचारांग और जीतकल्प श्वेताम्बर सम्प्रदाय___ 428 वे नम्बरकी गाथा में आधारवत्व गुणके में प्रसिद्ध हैं धारक अाचार्यको 'कप्पववहारधारी' विशेषण दिया है इन सब बातोंसे मेरा अनुमान है कि शिवार्य भी और कल्प-व्यवहार निशीथ सूत्र श्वेताम्बर सम्प्रदायके यापनीय संघके आचार्य होंगे / पण्डित जन सावधानीसे प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं / इसी तरह 407 नम्बरकी गाथा में अध्ययन करेंगे तो इस तरहकी और भी अनेक बातें मूलनिर्यापक गुरुकी खोजके लिए परसंघमें जानेवाले मुनि ग्रन्थमें उन्हें मिलेगी जो दिगम्बर सम्प्रदायके साथ मेल की 'आयार-जीद-कप्पगुणदीवणा' होती है। विजयोदया नहीं खातीं / मैने तो यहाँ दिग्दर्शन मात्र किया है / टीकामें इस पदका अर्थ किया है—'प्राचारस्य जीद- साम्प्रदायिक अाग्रहसे और पाण्डित्यके जोरसे खींच-तान संशितस्य कल्पस्य च गुण प्रकाशना / ' और करके मेल बिठाया जा सकता है, परन्तु इतिहासके १-देखो भ० अ० वचनिकाकी भूमिका पृष्ठ 12 विद्यार्थी ऐसे पाण्डित्यसे दूर रहते हैं, उनके निकट और 13 / सत्यकी खोज ही बड़ी चीज़ है / २-मोमोदारिए घोराए भह बाहनसंकिलिष्टमदी। अन्तमें मैं फिर इस बातपर जोर देता हूँ कि याप घोराए विगिछाये प्रडिवण्णो उत्तमं ठाणं॥ नीय संघके साहित्यकी खोज होनी चाहिए, जो न केवल ३-चोहसदसणवपुवीमतामदीसायरोव गंभीगे हमारे प्राचीन मन्दिरोंमें ही बन्द पड़ा है बल्कि विजयो कम्पववहारधारी होदिहु प्राधारवं णाम // दयाटीका और मूलाराधनाके समान उसे हम अबतक 4 मायारजीदकप्पगुणदीवण्णा अत्तसोधिनिझंझा / कुछका कुछ समझते रहे हैं। प्रज्जवम्मदव-लाघवतुट्ठी पल्हादणं च गुणाः // विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे श्रीवट्टकेरि आचार्यके यही गाथा जरासे पाठान्तरके साथ 130 3 नम्बर मूलाचारकी भी जाँच करें कि कहीं वह भी तो यापनीय पर भी है उसमें 'तुट्ठी पल्हादणं च गुणाः' की जगह संघका नहीं है / कुछ कथाग्रन्थ भी यापनीय संघके 'भत्ती पल्हादकरणं च' पाठ है। मिल सकते हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक मातृत्व श्री. भगवत जैन HMM UMEMEMMELMEZMELMEELMS13 3 फूलों की कोमलतामें, ज्योत्स्ना की स्निग्धताके भीतर और प्रकृतिके सु-विस्तृत-अंचलमें है 5 मिलती है मातृत्वकी हृदय-इष्टभावना' ! 'अ-कपट-प्रेम और आत्मीयताके पवित्र-बन्धनोंसे र अलंकृत रहता है-मातृत्व !... जिसे समग्र-संसारकी निधियों भी नहीं खरीद सकती ! जो ( अमूल्यतासे ध्रुव सम्बन्ध रखता है ! ........ HINL-IN.PN-INL-INL-PLAM.FAMILINLAIL-INLS समृद्धिकी गोदमें बैठे हुये इस छोटेसे परिवारको कर्लभ दृष्टान्तोंमें उसे कहना चाहिए-नमूना! इसीकी आवश्यकता थी कि, तमसान्वित-भवन श्रालो उजैसी कि प्रायः देखने-सुनने में नहीं आती, कित हो ! सुघड़, दृष्टि-प्रिय वल्लरी स-फल, स-पुष्प हो! वह वैसी ही बात थी !...... और वह हो सकता था एक पुत्र रत्नकी प्राप्ति के द्वारा वसुदत्ता थी बड़ी, और वसुमित्रा थी छोटी। दोनों ही !... बालकका जन्मोत्सव एक महान् त्रुटिकी पूर्ति के में अपार स्नेह,अगाध प्रेम ! और दोनों ही अनिंद्य-सुन्दरी, रूपमें मनाया गया ! न बड़ी कम, न छोटी ज्यादह ! उज्वल-भविष्यका क्रान्तिमय-पिएड-सा, वह सुको. ____ वणिक-वर समुद्रदत्त अपनी दोनों स्त्रियोंकी हार्दि- मल-शिशु! ऐसा लगता, जैसे परिवार के अपरिमितकता पर अतीव प्रसन्न ! घरमें स्वर्ग सुख ! मनोमालि- हर्षका साकार केन्द्र-स्थल हो ! या हो तीनों अधिकारी न्य, ईर्षा, देष और स्वभावतः होने वाला गृह-कलह संरक्षोंके मोदमय-जीवनका प्रथम-अध्याय ! दिन-कानाममात्रको भी नहीं ! इससे अधिक चाहिए भी क्या ? दिन वीत जाता, रातके दो-दो पहर निकल जाते; तब फिर पति-प्रेम भी न्याय—संगत-दोनोंको बराबर बरा- भी वह बच्चेको खिलाते, चुमकारते और आनन्द लेते वर प्राप्त था! दिखलाई देते ! परीक्षाके लिए बैठे विद्यार्थीकी भाँति दिन अानन्दमें बीतते गए। जैसे वह अध्ययनमें संलग्न हों ! और बार-बार फेल इसी समय वसुमित्राको प्रसूति हुई / मरु-भूमिमें होनेके बाद, मिला हो परीक्षार्थियोंकी पंक्तिमें बैठनेका जैसे हरियाली पनपी ! चिर-पिपासित-नेत्रों की तृषा अवसर!:." शमन होने को आई ! देखा-नवनीत-सा, बालक ! इसके बाद भी—समुद्रदत्तको एक बात और देखने चांद-सा सुन्दर,चांदनी-सा श्राहादकर! सारा घर प्रसन्न- को मिली, जो उनके लिए असीम अानन्द-दायक थी! तामें डूबने उतराने लगा ! - और दूसरे लोगोंके लिए विस्मय-जनक ! वह यह कि Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] मातृत्व वसुमित्राको माँ बनते देखकर भी, प्रथम-पत्नी-वसुदत्ता- व्यापारके सुनहरे-प्रलोभनों और निवास-नगरकी ईर्षालु न हुई ! न उसके हृदयमें विषादका अंकुर ही असुविधाोंने समुद्रदत्तको नगर छोड़ देनेके लिये विवश उगा ! बल्कि वह और भी सरस हृदय, विनोदप्रिय और किया / कुछ दिन बात टालमटूल पर रही ! अाखिर श्रानन्दी बनती गई ! . वह दिन आकर ही रहा, जब समुद्रदत्त अपने छोटे-से __बालक जितना वसुदत्ता पर खेलता, प्रसन्न रहता, परिवारको लिए, राजगृही श्रा उपस्थित हुए !... उतना दूसरों पर नहीं ! वह अपनी माँ से भी अधिक उन दिनों 'राजगृही' महाराज श्रेणिककी राजधानी वसुदत्ता पर हिल गया ! इसका कारण ?-मौलिक थी। जो अपनी न्याय-निष्टा और कर्तव्य-परायणताके नहीं ! यही कि पालन-पोषणकी सावधानी और स्नेह- सबब काफ़ी ख्याति उपार्जन कर रहे थे !...उनके पूर्ण-दुलार ! इन्हीं चीज़ोंकी तो बालकको ज़रूरत थी। अाधीनस्थ एक ऐसी शक्ति थी, जो उनसे अधिक विज्ञ, उस छोटेसे सुन्दराकार माँस-पिण्डको अभी साँसारिक- चतुर और राज-नीतिमें पारंगत थी। उसकी विलक्षणता गम्भीर और घिशद-अभिलाषाोंने दबाया ही कहाँ था, के द्वारा होने वाले रहस्य-मय, उलझन-पूर्ण मामलोंके जो दिन प्रति बढ़ने वाली आवश्यकताएँ-उत्पीडन न्याय, संसार के लिए चर्चा के विषय बन जाते थे ! सहदेती ? थोड़ा सा क्षेत्र और सीमित-इच्छा !... योगी-शासक-वर्ग उन न्याय-पूर्ण रहस्योद्घाटनको देख स्वर्ग और नरककी परिभाषा करते समय यदि सांसा- सुन अवाक रह जाता, दांतों तले उंगली दाब जाता ! रिक दृष्टिकोणको अधिक तरजीह दी जाए तो यही फल उस साकार-शक्ति का नाम था—अभयकुमार ! सामने आयेगा कि जहाँ मैत्री है, प्रेम है, हार्दिकता है, जो महाराजका प्यारा पुत्र था / प्रजाकी गंभीर वहीं स्वर्ग है / और नरक उसकी संज्ञा है---जहाँ कलह, और आशा-पूर्ण मुखरित वाणी थी / दूसरे शब्द हत्या, पशुत्व और श्रात्म-हननकी साधनाएँ सद्भाव में जनताका सहायक-नेता और अधिनायक सेनापति रखती हैं !.. था। इसलिए कि शासनकी बागडोर अभी उसके हाथ में तो ऐसे ही स्वर्गीय-सुखोंमें बढ़ने लगा वह नवजात- नहीं थी—युवराज था—वह ! शिशु ! जिसके पास-अन्य, शैशव-विभूतिवानोंसेद्विगणित-मातृत्व था ! क्या चर्चा उसके भाग्योदय थोड़ा समय और निकल गया। की? अचानक समुद्रदत्त पर रुग्णता का प्रहार हुआ ! इस अरुचिकर-यवनिका-पातने सारे घरकी प्रसन्नताको अदर्शनीय बना दिया ! दोनों नारी-हृदय भयाकुल कई वर्ष अाए और चले गए !- .. हो, तमसाच्छन्न-भविष्यकी डरावनी-कल्पनामें लीन होने इस बीचमें कितना युगान्तर हुअा, इसका ठीक लगे! यथा-साध्य उपचार करनेमें कुछ त्रुटि न रह बतला सकना कठिन है ! दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, जाए, इसका सतर्कता पूर्वक ध्यान रखा जाने लगा !... अयण और वर्षने समय समयमें जो परिवर्तन किया, जब तक संज्ञा-शून्य न हुए, किंचित भी होश और वह सोचनेकी बात है !... वाणी-प्रकाशनकी सामर्थ्य रही, बराबर समुद्रदत्त न Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 रियोंके हृदयोंको सान्त्वनात्मक-शब्द और अमर श्राशा, ति-परिवार यहां आ बसा है ! कुछ दिन हुए तभी ! ये बालकके मुकुलित-मुखको निरख निरख, सन्तोष प्रकट दोनों स्त्रियां स्वर्गीय-सेठकी सहधर्मणी हैं / बालक पर करते रहे !: "लेकिन जब जीवन-नाटकके अन्त होनेका अब तक दोनोंकी समान ममता दिखलाई देती रही है / समय आ पहुँचा, तब किसीकी एक न चली! पता नहीं, यथार्थमें माँ कौन है—इस सुन्दर-बालक और..............? की..?... और ड्राप-सीन होकर ही रहा ! अपने विषयके ज्ञाता प्रजाके माननीय प्रतिनिधियोंने राज-सत्ताका भय भिषगवरोंकी चेष्टाएँ, बहुमूल्य, दुर्लभ प्राप्य औष- दिखलानेका रूपक बांधते हुए कहा-'एक पुत्रकी दो धियोंकी रामबाणकी तरह दुर्निवार-शक्तियां, चिताकी माताएँ नहीं हो सकतीं ! अवश्य ही,तुम दोनों में से एक राखकी भांति बेकार-निष्फल साबित हुई ! का कहना गलत है ! शायद तुम नहीं जानतीं कि, इस फिर...?—विवशताका अवलम्ब ! प्रकार जिम्मेदारीके कार्यमें झूठ बोलना तुम्हारे लिये दो नारी कण्ठोंके हृदयबेधक क्रन्दनसे सदनकी कितना हानिकारक हो सकता है ! बात अभी पंचायत चहार-दीवारें निनादित होने लगी ! 'प्रकम्पित होने के अधिकार में है, जो प्रत्येक तरह की सहानुभूति तुम लगा–वायु-मण्डल !! . लोगों को दे सकती है ! और अगर पंचायत इस उलरौद्रताका ताण्डव !!! झनको नहीं निपटा सकती तो उसका अर्थ-झगड़ेका लुट गया, सौभाग्य-सिन्दूर ! दर्बारमें पहुँचना और मिथ्याभाषिणीको कष्ट मिलना होता है !: "सोचलो एकबार ! खुला सत्य है- . यह / ' [3] 'पुत्र मेरा है / इसे मिथ्या नहीं ठहराया जा सकता' तीसरे दिन वसुदत्ताने दृढ स्वरमें कहा। पंचायतके सामने एक नई समस्या थी, नया मज़- गलत ! झूठ कह रही है-बहिन ! पुत्रकी मन !...... माँ, मैं हूँ ! पुत्र मेरा है !' -वसुमित्राने कम्पितकहा गया-'जिसका यह पुत्र है, वही सेठजीकी स्वरमें व्यक्त किया !: मुंह पर थी अमर-उदासी ! अपार-विभूतिकी स्वामिनी है !' 'प्रमाण-सुबूत ?'–पूछा गया। इस पर 'सुबूत ?'-वसुमित्रा सोचमें पड़ गई ! बोली'मेरा पुत्र है ! 'सत्यके लिये भी सुबूतकी जरूरत होती है भाई ?... 'नहीं, मेरा है ! माँ, अपने पुत्रको कह सकने-भरका अधिकार नहीं पंच गण दंग !: "विस्मित !! अाश्चर्यान्वित !!... रखती ?-उसके लिए भी सुबूत चाहिए ? यही सुबूत क्या निर्णय दें ? है कि यह मेरा पुत्र है, मेरा ही लाल है !' / इन सबके इतिहाससे अनभिज्ञ ! वह इतना ही ...पंलग पर पड़ा बालक शिशु-जात-कल्पनाओंके जानते हैं-'जाने कहांसे आकर यह छोटा-सा स-विभ- साथ खेल रहा था ! विकार-वर्जित मुखपर खेल रही Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६]] मातृत्व थी-मृदु-मुस्कान !... अनेक विद्वान-सभासद और कौतूहलकी अजय वसुमित्रा ने एकबार ममता-मयी दृष्टिसे बालककी प्रेरणा-द्वारा प्रेरित जन-समूह विद्यमान था ! सब, इस ओर देखा और सिसकने लगी, जैसे उसके मातृत्वको विचित्र-न्यायको देखने के लिए लालायित थे !...तीक्ष्ण ठेस लगी हो, किया गया हो निर्दयता-पूर्वक उसपर बुद्धि-द्वारा दम्भके माया-जालसे मातृत्वकोखोज निकालना अाघात ! __ था !... प्रमुख-निर्णायकने अबकी बार वसुदत्ताकी ओर 'पुत्र किसका है ? ताका!... 'मेरा...' वह बोली-'ये सम्बन्ध सुबूतके मुहताज नहीं,क्रिया 'नहीं, मेरा है !' बतलाती है ! माँका नाता हार्दिक नाता होता है, वह तो फिर झगड़ा क्या है' दोनोंका ही सही ! दोनों जबर्दस्ती किसी पर लादा नहीं जा सकता ! न-उसके प्रेम करती हो ?' भीतर भ्रमके लिए स्थान ही है ! निश्चय ही वसुमित्रा हाँ !'-दोनोंका एक ही उत्तर ! को धन-लिप्साने इतना विवेकशून्य बना दिया है कि 'लेकिन प्रेम और मातृत्व दो अलग-अलग चीजें वह मातृत्व-तकको चुरा सकनेकी सामर्थ्य खोज हैं / प्रेम सार्वजनिक है और मातृत्व व्यक्तिगत ! प्रेम रही है ! दोनों कर सकती हो, लेकिन माँ दो नहीं बन सकती !' ___ न सुलझी, आखिर जटिल-उलझन ! लौट आए श्मशान-शान्ति ! पंच ! कौन निर्णय दे कि कौन यथार्थ में माँ है, और कोई चिन्ता नहीं ! न्यायकी कसौटीको झूठ भुलावा कौन धन-प्राप्ति के लिए दम्भ रचने वाली ? दोनोंकी पुत्र नहीं दे सकता ! अगर अब भी चाहो, सच बतला दो! पर समान-ममता, समान-स्नेह है ! अाजसे, अभीसे, अभयकुमारने दोनोंकी अोर समानतासे देखते हुए कहा / नहीं, जबसे समुद्रदत्तने यहाँ डेरा डाला, तभीसे लोगोंने मेरा...पुत्र है !' वसुमित्राके वाष्पाकुलित कण्ठसे इसी प्रकार देखा है ! प्रारम्भसे ही यह भ्रम जड़ पकड़ता निकला ! रहा है !... 'झूठ कह रही है, पुत्र मेरा है !'- वसुदत्ताने जमी हुई आवाज़ में निवेदन किया / [4] 'ठीक !' अभयकुमारने प्रहरीसे कहा-'एक छुरा न्यायालयमें !- . लाभो!' महाराज श्रेणिकने गंभीरतापूर्वक वस्तु-स्थिति पर छुरा लाया गया ! विचार किया। लेकिन समस्याका हल न खोज सके ! दर्शक-नेत्र विस्फारित हो, देखने लगे! वसुमित्राका कहना पड़ा-'इसका न्याय-भार अभयकुमारको मुँह सूखने लगा ! आँखें निर्निमेष !... दिया जाय !' वसुदत्ता अटल खड़ी रही! __ और तभी उभय-पक्षके व्यक्ति युवराज राज-नीति- दूसरे ही क्षणपण्डित-अभयकुमारके दरबारमें आउपस्थित हुए !. बालकको लिटाया गया ! हाथमें चमचमाता हुअा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 छुरा लेकर अभयकुमारने कहा- 'जब दोनों ही भरे स्वर में—'बालककी माँ वसुमित्रा है ! उसीके पास इसको माँ हैं तो न्याय कहता है-दोनोंको बराबर- मातृत्व है ! ममता, मोह, और हार्दिकता सभी कुछ बराबर अधिकार है ! उसी न्यायकी दुहाई देकर इसके प्रमाण हैं।! ....वसुदत्ता प्रेमकी बाड़में धनकी अभिमैं बच्चे के दो-टुकड़े कर, दोनोंको दे देना चाहता हूँ ! लाषिणीहै-कोरा दम्भ है उसका! वह मातृत्वकी पवित्रकहो, ठीक है न ?'-एक भेद-भरी निगाहसे चारों ओर महानतासे कोसों दूर है !...विपुल-विभूतिको ठुकरा कर देखा! भी जो बालकका जीवन सुरक्षित चाहता है, वही ___...और उत्तरकी प्रतीक्षा किए बिना ही छुरा बालक आदर्श मातृत्व है !' के शरीर पर रखने लगे कि...! उपस्थित जनता न्याय-शैलीकी भूरि-भूरि प्रशंसा __ 'न मारो, बच्चेको !...उसीका पुत्र है, मैं तो करने लगी! अभयकुमार पर सभासदोंकी श्रद्धा-सी व्यर्थ ही झगड़ रही थी !...मैं कुछ नहीं कहती-कुछ उमड़ पड़ी ! नहीं चाहती, पर बच्चेको न मारो ! फूल-सा बच्चा...!' मुँहसे अनायास निकला-'वाह !'...... __ अविरल-अाँसुअोंकी धारा बहाती हुई वसुमित्रा पगलीकी तरह दौड़ी ! वह इस समय अपने 'श्रापे' में न थी ! नहीं जानती थी-कहाँ है ? कौन है ? क्या कर इसके बादरही है ?... बस, अब इतनी ही बात कहना और शेष है कि और वसुदत्ता ?-अपने स्थान पर शूलीके लहेकी मातृत्वको मिश्री-सा मधुर कल-कण्ठ-सा-'माँ' कहने भांति अचल खड़ी थी ! जैसे प्रतीक्षा कर रही हो- वाला बालक मिला और मातृत्वको कलंकित या दम्भ / अर्ध-खण्ड बालककी ! विपुल-सम्पत्तिका अाधा-भाग ! साबित करने वाली वसुदत्ताको मिला-अपमान, घृणा ___ अभयकुमारके मुँह पर उपाकी सुनहरी मुस्कान की दृष्टि और राज्य-दण्ड !!! खेल उठी ! छुरेको दूर फेंक कर बोले-दृढ और उमंग सुभाषित "तुम गोराईमें चन्द्रमाको भी मात करने वाले हो तो क्या, यदि वाणीमें कटु-वाक्य भरे पड़े हैं / एक जापाना नीतिकारका कहना है-"रत्नमें पडा हा दाग खराद पर चढाकर निकाला जा सकता है, परन्तु हृदयमें लगा हुआ कुवाक्यका दाग़ मिटाया नहीं जा सकता / " . __"वाणी व्यक्तित्वका परिचय देनमें प्रथम है, क्योंकि अन्य गुण तो साथ रहने पर धीरे-धीरे प्रकट होते हैं, पर बाणीकी गरिमा तत्काल प्रकट होती है / इसके द्वारा सर्वथा अपरिचितको भी थोड़े वार्तालापमें ही स्नेह और सहानुभूतिक सूत्रमं बान्धा जा सकता है / दिव्य वाणी बोलने वालोंके लिये संसारमें चारों तरफ-अमीर-गरीब, परिचित-अपरिचित सबके द्वार स्वागतके लिये खुले रहते हैं। उनके मगमें लोग पलक-पाँवड़े बिछा देते हैं / ऐसा सम्मान छत्रधारी सम्राट होने पर भी शायद ही कोई पा सके।".. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस विश्ववंद्यविभूतिका धुंधला चित्रण [ले०-श्री देवेन्द्रजी जैन] भगवान् महावीरका जीवन संसारके उन इनेगिने हुआ देखकर उनके साथी राजकुमार तथा सामन्त-पुत्र ' जीवन रत्नोंमेंसे है जिनकी दमकती हुई प्रकाश- भाग खड़े हुए, पर वीरने निर्भयतापूर्वक सर्पके फनको रेखाने भूले-भटके विश्वको सुपथ पर लगाया था। रोंध डाला, अन्तमें वीरके चरणोंकी चोटसे आहत हुए महावीर-जन्मके पूर्वमें संसारकी हालत बिलकुल उस महानागरूपधारक मायावी देवने वीरके चरणोंको गिर चुकी थी / मानवोंके दिमाग प्रायः गुलाम थे। चूमकर क्षमा माँगी तथा उनका नाम 'महावीर' रक्खा। पंडितों और पुरोहितोंकी आज्ञा पालन करना ही उनका न जाने ऐसी कितनी घटनाएँ वीरके दिव्य जीवनमें घटी धर्म बन गया था। उस समय धर्मकी वेदीपर जितने होंगी, जिन्हें वे लीला ही समझते रहे / अस्तु / प्राणियोंका बलिदान किया गया था उतना शायद समय दिन-रातके पंख लगाकर उड़ता गया। वीरविश्वके इतिहासमें कभी भी न हुआ होगा / बलिवेदियों के सुन्दर शरीरसे यौवनकी मदमाती रेखाएँ फूट पड़ी। पर चढे प्राणियोंके छिन्न-भिन्न रुण्ड मुण्डोंके संग्रहसे हि- पिताने विवाहके लिए प्रस्ताव किया / परन्तु वीरने मालय जैसी गगनचुम्बी चोटियाँ चिनी जासकती थीं और दृढ़तापूर्वक किन्तु नम्रता भरे शब्दों में कहा-पिताजी ! रक्त-प्रपातसे गंगा-यमुना-सी नदियाँ बहाई जा सकती मेरे जीवनका ध्येय गुमराह विश्वको सन्मार्ग दिखलाना थीं / विश्वकी उस बेबसी और बेकसीके दिनोंमें वीरका और ऊँचे उठाना है / अतः मैं शादीका सेहरा बंधानेके जन्म इन्द्रपुरीसे इठलाते और नन्दनवन-से विकसित, लिये अपनेको असमर्थ पाता हूँ / वह मेरी तपस्याका कुण्डलपुर नगरमें हुआ था / उनके पिताका नाम था सबल बाधक है।' सिद्धार्थ और माताका नाम था त्रिशला देवी / यथेष्ट माताने ममता भरी-वाणीमें कहा-बेटा ! तेरे वैभव-सम्पन्न माता-पिताका अपने इकलौते लाल पर बिना मैं जीवित न रह सकूँगी / भो मेरी आँखोंके तारे ! अधिक प्यार था; अतः इनका लालन-पालन भी निराली मेरे लाडले लाल ! तेरी यह किशोरावस्था, उठता हुआ शानसे हुआ था। यौवन, गुलाबी बदन, लम्बी लम्बी भुजाएँ, विशाल वक्ष____ बालकपनसे ही वीर एक चतुर एवं निडर खिलाड़ी स्थल और यह सुहावना सुकुमार शरीर क्या तपस्यामें थे। कच्ची एवं कोमल किशोरावस्थामें ही वे ऐसे भयङ्कर झुलसा देने के लिये है ? प्रसङ्गोंका सामना सहज ही में कर चुके थे जिनकी प्रत्युत्तरमें वीरने कहा- मां ! यह आपका केवल कल्पना भी मौजूदा नवयुवकोंका दिल दहला सकती * व्यामोह है / क्या कोई भी दयालु दिल यह बात है / एक दिनकी घटना इस प्रकार है-वन-क्रीड़ाके गवारा कर सकता है कि जब दर्दभरे नारोंसे नभके भी समय वृक्षकी जड़से एक विशालकाय कृष्ण सर्पको लिपटा मौन-प्रदेश गूंज उठे हों, त्राहिमाम् त्राहिमाम्की Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (वर्ष 3, किरण 1 प आवाजें उसके कानोंसे टकराकर अनन्तमें व्याप्त हो रहीं करने में अपना अहोभाग्य मानती थी / बर्फीली, नुकीली हों तब वह रंगरेलियों में मस्त रहे ? यदि विषय-भोग एवं तवा-सी तपी दरदरी चट्टानें उनको आसन थीं। मानवको संतुष्ट और मुक्तकर सकते तो भरत जैसे भारते. पर यह सब प्रायोजन अपनी मुक्ति तथा संसारके श्वर क्योंकर भव्य भाण्डारोंको ठुकराकर वनकी राह उद्धारके लिये था, न कि महादेवकी तरह पार्वतीको लेते? रिझानेके लिये अथवा अर्जुनकी तरह शत्रु-संहारके .. वीरके इस प्रकारके एक एक करके सभी शब्द वास्ते / प्रागके धधकते शोले थे, जिन्होंने मांकी ममताका अन्तमें बारह वर्षकी कड़ी तपस्याके बाद उन्हें जनाज़ा जला डाला / और तब राजमाताने दीक्षाकी सफलता-देवीने अपनाया और वे केवल ज्ञानको प्राप्त आज्ञा देदी। कर विश्वोद्धारको निकल पड़े। उन्होंने संसारको सत्य ____ वीर भी दुनियाँकी ऐशो-इशरतको ठुकराकर वनके और अहिंसाका पूर्ण सारगर्भित मार्मिक उपदेश दिया उस शान्त प्रदेशको चले गये जहाँ प्रकृति अपनी विश्वको भाईचारेका सफल पाठ पढ़ाया और मानवोंकी अनुपम छटा दिखला रही थी / वनके उस हरियाले दिमाग़ी गुलामीको दूर कर उन्हें पूर्णस्वाधीनता वैभवमें वे भी अपनी सदियों से बिछुड़ी निधिको खोजने- (मुकम्मिल श्राज़ादी) प्राप्त करने का मार्ग सुझाया, जिसे में व्यस्त हो गये ! आज भी पराधीन भारतकी कोटि कोटि जनता एकंकण्ठसे __ अब उनका जीवन एक तपस्वी जीवन था / वह पुकार रही है। बाल सुलभ-चंचलता विलीन हो चुकी थी / वहाँ न इस प्रकार अपना और लोकका हितसाधन करके राग था, न रंग और न द्वेष तथा दम्भ / कर्मों पर वीर भगवान् 72 वर्षकी उम्र में मुक्तिको प्राप्त हुए और . विजय हासिल करके आत्म विकास करना उनकी एक. लोकके अग्रभागमें जा विराजे / मात्र साधना थी, जिसके लिये वे कठोरसे कठोर यह है उनके विशाल-जीवनकी नन्हीं-सी कहानी, यातना भी सहनेको कटिबद्ध थे / अतः उन्होंने अपनी जो कि उनके जीवन-पटपर धुंधलासा प्रकाश फेंक सारी शक्तियाँ इसी मोर्चे पर लगादीं। सकती है / वास्तवमें वीरका जीवन एक ऐसा महान् ___ कंकरीली, नुकीली, ऊबड़-खाबड़ जमीन उनका ग्रन्थ है जिसके प्रत्येक पत्रके प्रत्येक पृष्ठकी प्रत्येक बिस्तर थी और खुला आसमान था चादर ! इस पंक्तिमें 'अहिंसा महान् धर्म है' 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है" सेजके सहारे सर्दी की बर्फीली रातें और गर्मी के आग-से 'सत्य कहीं नहीं हारता' 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, दिन यों ही बिता देते थे। सम्यक् चरित्र ही मोक्षमार्ग है'-जैसे मुक्तिपथ-प्रदर्शक समाधि उनकी साधनाका साधन थी कोमल सेज तथा सूत्र भरे पड़े हैं। सोचो-यदि भगवान् महावीरका मुलायम गलीचों पर आराम करने वाला उनका सुकु- जीवन-ग्रन्थ न होता तो फिर हम जैसे अल्पज्ञ मार शरीर काफी कठिन एवं कृश हो चुका था / वर्षाकी - इन विस्मृत महान् सूत्ररत्नोंकी झांकी, कहाँ, कैसे और वज्रभेदी बौछारें उन्हें नहला जाती, गर्मीकी सनसनाती किससे पाते ? आपटें तपा जातीं और सर्दीकी ठंडी हवा उनसे किल्लोले 72 वर्षके लम्बे चित्रणमें वीरका जीवन क्रमसे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] उस विश्ववंद्य विभूतिका धुंधला चित्रण 76 अनेक रूपोंमें आता है / कभी वह बाखलीलाके नामक किताब खिताबमें देनेका साहस हो सका। श्रावेगमें सर्पराजको रोंधते हैं, कभी नग्न साधुके वेशमें यह ध्रुव सत्य है कि यदि भगवान महावीर न होते कर्मोके खिलाफ जिहाद बोल देते हैं और कभी एक तो विश्व अपने कोने-कोनेमें कलकत्ताका कालीघाट उपदेशकके रूपमें निखिल विश्वको मंगलमय मार्गकी होता और पगपग पर पतित-पावन कही जानेवाली श्रोर इंगित करते हैं / किन्तु उन सब रूपोंमें एक ही गंगा और यमुनाकी जगह नरककी रक्तमयी वैतरणी झलक झलकती है, और वह यह कि तुम निडरता एवं इठलाती इतराती-सी नज़र आती। तब शायद हमारा सच्ची लगनसे सत्य और अहिंसापर कायम रहो. प्रात्म- और आपका भी जीवन किसी हवनका शाकल्य बना बलमें विश्वास रखो, फिर श्रागके धधकते शोले झक दिया जाता। झोर आँधीका अंधड़ और तूफानी बादल भी तुम्हारा पर यह उस विश्ववन्ध विभूतिके महान् जीवनकी कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। बस, यही सफलताकी सच्ची अमर देन है, जो कि हम आज इस बर्बरता और कुंजी है / उस समय उनकी उच्चत्तम शिक्षाओंको अशान्तिके युगमें भी सत्य और अहिंसाके सहारे बाधाविश्वने हृदयसे माना और उनके अनुकूल आचरण भी प्रोंकी दुर्जय चट्टानोंको चीरकर अपने ध्येयकी ओर बढ़ किया / फलतः एकबार फिर विश्व-प्रेमकी लुप्त लहर रहे हैं। . लहरा उठी। वीरका जीवन आज भी हमें गाँधीके रूपमें अपनी परन्तु खेद है कि कुछ अर्से बाद फिर वही धार्मिक संस्कृति एवं सभ्यता पर स्थिर रहनेको 'गित कर कटुता और हत्याके नज़ारे भारतभू पर पनप उठे ! रहा है / अतः प्रायो, उनकी शासन-जयन्तीके जिनके प्रत्यक्ष सबूत कलकत्तेके कालीघाटके रूपमें पुनीत अवसर पर-श्रावणकृष्णप्रतिपदाके दिनअाज भी मौजूद हैं, जिसे यदि धार्मिक हत्या-सदन उनके दिव्यसंदेशको विश्वके कोने कोनेमें पहुँचानेकी (मज़हबी ज़िबहखाना-स्लाटर हाउस) भी कहा जाय योजनाकर अपने कर्तव्यका पालन करें, उनके ऋणसे तो अत्युक्ति न होगी। तथा इन्हींकी बदौलत ही उऋण होनेका यत्न करें और जीवित जौहरके जरिये मिस मेयो-सी गैरजिम्मेदार स्त्रीको भीभारतसे विज्ञान- जगतीमें जिन्दादिली भरदें, जिससे कि सारा विश्व तिलक, धर्मप्रधान देशको 'मदर आफ इंडिया' आज़ादी एवं अमनचैनसे रह सके / विविध-प्रश्न प्र०-इन कर्मो के क्षय होनेसे आत्मा कहाँ जाती है? लिये इसका पुनर्जन्म नहीं होता। उ०-अनंत और शाश्वत मोक्षमें। प्र०—केवलीके क्या लक्षण हैं ? प्र०—क्या इस आत्माकी कभी मोक्ष हुई है ? उ०–चार घनघाती कमों का क्षय करके और शेष उ०--नहीं। चार कर्मों को कृश करके जो पुरुष त्रयोदश गुणप्र०--क्यों? स्थानकवती होकर विहार करते हैं,वे केवली हैं / उ०—मोक्ष प्राप्त आत्मा कर्म मलसे रहित है, इस -राजचन्द्र Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मजदूरोंसे राजनीतिज्ञ [ले०-बाबू माईदयाल जैन, बी. ए. बी. टी. ] पाक ज़माना था जब कि राष्ट्रोंके भाग्य-विधाता-कुछ कान्तके पाठकोंके लिए यहाँ दिया जाता है:-- इने गिने प्रसिद्ध तथा उच्च घरानोंसे सम्बन्ध जर्मनीका डिक्टेटर हर हिटलर ईट-मिट्टी दोनेवाला रखते थे और साधारण जनताके लिए उन पदोंकी मज़दूर था और बादमें वह वीश्रानामें मकानोंको रंगने आकाँक्षा करना 'झोपड़ीमें रहना और महलोंके स्वप्न का काम करता था। देखना' समझा जाता था। किन्तु इतिहास ऐसे उदा- इटलीका डिक्टेटर मुसोलिनी एक कसाईका नौकर हरणोंसे भरा पड़ा है जिनमें व्यक्तित्वशाली, पराक्रमी था और अपने काममें असफल था। तथा वीरपुरुषोंने अत्यन्त साधारण स्थितिसे उठकर एस्थोनिया-जो कि बालटिक समुद्र के किनारे एक महानता प्राप्त की और राज्यों तकको हासिल किया है। छोटी सी रियासत है-का प्रेजीडेण्ट कौनस्टैटिन पैट्स उनके संचालन में महत्वपूर्ण कार्य किया है / भारतवर्ष में एक मकान बनानेवालेका लड़का है और वह पहले चाणक्य, हैदरअली, शिवाजी, क्लाइव, वारनहैस्टिंगस, समाचारपत्रोंमें काम करके अपनी आजीविका कमाता इंग्लैण्ड में रैम्जेमैकडानल्ड, फारिसमें नादिरशाह, फ्रांसमें था। उसकी अपनी बहुत ही थोड़ी सी भूमि है। नेपोलियन, इटलीमें मैज़ेनी, अमेरिकामें अब्राहमलिंकन कौनस्टैण्टिनका दायाँ हाथकार्ल ऐनशपलू अान्त आदि ऐसे बहुतसे प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, मंत्री तथा राजा रिक मंत्री भी समाचार पत्रोंके दफ्तरमें काम करनेवाला. हुए हैं जिनके नाम आज भी सबको विदित हैं। था। प्रजातंत्रवादके इस युगमें अाज साधारणसे सा- डेन्मार्कका प्रधान मन्त्री थौरवाल्ड स्टानिग लुहारधारण मनुष्यको भी बड़ा बनने के उतने ही मौके मिल का लड़का है / और उसे बारह वर्षकी छोटी उम्रमें ही सकते हैं जितने कि बड़े आदमियोंको / इस बातसे तम्बाकूके कारखाने में काम करने जाना पड़ा था। ग़रीबोंको प्रोत्साहन मिलना चाहिए कि उनके लिए भी किन्तु उसमें महत्वाकांक्षा थी। शीघ्र ही वह समाचारबड़ेसे बड़े पदोंके लिए द्वार खुला हुआ है। प्रश्न पत्रोंमें लिखने का काम करने लगा। अब भी वह केवल योग्यता प्राप्त करने का है। डेन्मार्केके प्रसिद्ध समाचारपत्रके सम्पादकमंडलमें है / अभी इस सितम्बरके (Illustrated Weekly स्वीडनका प्रधान मंत्री पी०ए० हैनसन ईट बनाने. of India) 'इल्लस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया' में वालेका लड़का है और उसे बचपनमें हो वह काम एक लेख छपा है, जिसमें वर्तमान यूरूपके कई देशोंके करना पड़ा था। इसके पश्चात् उसने भी समाचारडिक्टेटरों, प्रधानमंत्रियों तथा राजनीतिज्ञोंका हाल पत्रोंके लिए लिखना प्रारम्भ किया। निकला है, जो कि अपनी बाल्यावस्थामें अत्यन्त सा- नारवेका प्रधानमन्त्री जौहन नटयार्डसवोल्ड मज़धारण मज़दूर या कृषक थे। उस लेखका सारांश अने- दूर तो नहीं पर एक कृषकका लड़का है / उसने लकड़ी Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] विविध प्रश्न 81 .... ...................... चीरने के कारखानेमें काम प्रारम्भ किया और फिर ही छोटे घरका था और उसका बाप एक छोटी-सी रेलकी लाइनों पर प्लेट रखनेका भी काम किया है। सरायका मालिक था। रूमानियाका श्रेष्ठ प्रधानमन्त्री जनरल ऐवरश्यु बलगेरियाका एक और डिक्टेटर ऐलैगजेण्डर एक कृषकका लड़का था। स्टाम् बोलिएकी एक किसानका लड़का था, जिसका ___ रुमानियाका कृषि-मंत्री श्राई श्रोन मिहिलेच एक छोटा-सा खेत था। कृषकसे अध्यापक बना था। वह उच्च आदर्शोका एक लैटवियाका प्रेजीडेण्ट कार्लिस उलमानिस छोटे अच्छा व्याख्याता था। कुलका है। यह सन् 1936 से इस पदका कार्य कर रूमानियाका एक और उच्चकोटिका राजनीतिज रहा है / बेटियान एक रेलवे इञ्जीनियर था / ___रूसका वर्तमान डिक्टेटर जोसेफ़ स्टेलिन पहले रूमानियामें ही एक पादरी पैट्रीअार्क क्रिस्टी राज्य- एक समाचारपत्रका काम करनेवाला था। युद्धमन्त्री का कर्ता-धर्ता था और उसकी मृत्यु मार्च सन् 1636 मार्शल वोरोशिलोफ़ने सात वर्षको अल्पायुमें कोयलेकी. . खानमें मजदूरी कमानी श्रारम्भ की थी। उसका बाप ज़ेकोस्लोवेकियाका भूतपूर्व प्रधानमन्त्री डाक्टर एक खान खोदनेवाला था / और उसकी माता किसी बेनेस एक किसानका लड़का था और उसने अपने घरमें नौकरनी थी। प्रयत्नसे ही इस उच्चपदको प्राप्त किया था। समस्त रूसकी पुलिसका अफ़सर निकोलाई यज़ोफ़ बलगेरियाका माहीद विधाता स्टाम-बुलौफ़ बहुत एक कारखानेमें पहले मज़दूर था / . विविध-प्रश्न प्र०-केवली तथा तीर्थकर इन दोनोंमें क्या अन्तर है ? प्र०--उसे किसने उत्पन्न किया था ! उ०-केवली तथा तीर्थकर शक्तिमें समान हैं, परंतु उ०—उनके पहलेके तीर्थकरोंने / तीर्थकरने पहले तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध किया प्र०-उनके और महावीरके उपदेशमें क्या कोई , है, इसलिये वे विशेषरूपसे बारहगुण और भिन्नता है ? अनेक अतिशयोंको प्राप्त करते हैं। उ०-तत्त्व दृष्टि से एक ही हैं / भिन्न 2 पात्रको प्र०-तीर्थकर घूम घूम कर उपदेश क्यों देते हैं ? वे लेकर उनकाउपदेश होनेसे और कुछ काल ___ तो वीतरागी हैं। भेद होनेके कारण सामान्य मनुष्यको भिन्नता उ०-पूर्वमें बाँधे हुए तीर्थकर नामकर्मके वेदन- अवश्य मालम होती है, परन्तु न्यायसे देखने करनेके लिये उन्हें अवश्य ऐसा करना पड़ता है। पर उसमें कोई भिन्नता नहीं है। . प्र०-आज कल प्रचलित शासन किसका है ? प्र०—इनका मुख्य उपदेश क्या है ? उ.- श्रमण भगवान् महावीरका / उ०-उनका उपदेश यह है कि आत्माका उद्धार करो, प्र०—क्या महावीरसे पहले जैन-दर्शन था। आत्मामें अनन्त शक्तियोंका प्रकाश करो, और उ०-हाँ, था। इसे कर्मरूप अनन्त दुःखसे मुक्त करो।-राजचन्द्र Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा [ले-श्री ताराचन्द जैन, दर्शनशास्त्र तिवके रहस्यको स्पष्ट प्रकट करने वाले उपाय, उलझी हुई घटनाएँ नज़र आने लगती हैं और उस हेतु अथवा मार्गको 'दर्शन' कहते हैं; या यूं कहिये घटना के विवेचनमें यह कहावत अक्षरशः चरितार्थ होने कि जिसके द्वारा संसारकी कठिनसे कठिन उलझी हुई लगती है-'ज्यों केराके पातके पात-पातमें पात'। इतने गुत्थियाँ सुलझाई जाती हैं उसका नाम 'दर्शन' है / दुरूह, अत्यन्त गूढ और दुरवबोध विश्वतत्वके रहस्यके जिस प्रकार संसारकी प्राकृतिक रचना-पर्वत, समुद्र, खोज निकालनेका भार दर्शन (Philosophy) ने स्थल, देश, नद-नदी, पशु, पक्षी, झरना, जल-प्रपात अपने ऊपर लिया है / दार्शनिकका भावुकतापूर्ण हृदय आदिके सौन्दर्य और भयंकरताको देखकर कविका हृदय अपनी सामर्थ्य भर इस रहस्यके खोजनेमें तन्मय हो प्लावित हो जाता है / स-हृदय कवि जीवनके उत्थान- जाता है / पतनकी घटनाओंसे अपनेको पृथक् नहीं रख सकता, जानी हुई दुनियाँमें सुदीर्घ कालसे अनेक दार्शउनमें तन्मय हो जाता है और भावनापूर्ण कविका हृदय निक होते चले आये हैं, उनमें जिनकी जहाँतक सूझ संसारके परिवर्तनोंसे सिहर उठता है / उसी प्रकार दार्श- और प्रतिभा पहुँच सकी वहाँ तक उन्होंने विश्व के रहस्यनिकका प्रतिभापूर्ण मन भी संसारकी उथल-पुथल और की विशद एवं भद्र विवेचनाएँ की हैं / अनेकोंने अपना जीवनकी विषम-अवस्थाओंसे निजकोदूर नहीं रख सकता सारा जीवन विश्व प्रपंचके समझने तथा समझकर उन्हींमें घुल मिल-सा जाता है / दार्शनिक उन सब उसको मानव-समाजके सामने रखने में लगाया है। अवस्था श्रोंकी गुत्थियोंको सुलझानेका पर्ण प्रयास करता बहुतसे दर्शन उत्पन्न होने के बाद अपने जन्मदाताओं के है / मैं क्या हूँ ? यह संसार क्या है ? मैं कहाँसे आया साथ ही विलीन होगये और कतिपय दर्शन अपने अनु और मुझे कहां जाना है ? इत्यादि प्रश्नोंकी उधेड़ बुनसे यायियोंकी विरलता आदि उपयुक्त साधनाभावके कारण दार्शनिकका मस्तिष्क सराबोर रहता है / इसी तरह के अपनी नन्हों सी झाँकी दिखाकर नाम शेष होगये / प्रश्नोंकी उपज ही दर्शन शास्त्रका अाद्य स्थान है और जिन दर्शनोंके आविष्कर्ताओंने अपने दर्शनोंका संसारमें इस तरह के प्रश्न प्रायः प्रत्येक दार्शनिकके उर्वर प्रचार किया और लोगों के एक बड़े समूहको अपने मत मस्तिष्कमें उत्पन्न हुआ करते हैं / का अनुयायी बनाया, वे आज भी संसारमें जीते-जागते विश्व के रहस्यका उद्घाटन करना कितना कठिन नजर आ रहे हैं / जो दर्शन आज भी मानव-समाजके है, यह एक दार्शनिक ही समझ सकता है। कोई एक सामने मौजूद हैं, वे सभी उच्च, पूर्ण-सत्य एवं निर्दोष मामूली सी घटनाको ही ले लीजिये; जब उस घटनाका नहीं कहे जा सकते / इनमें कोई विरला दर्शन ही विश्लेषण करने लगते हैं तो उसमें उसी तरहकी अनेक उच्चतम, सर्वसत्वहितैषी, पूर्णसत्य और निर्दोष होना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] दर्शनोंकी स्थल रूपरेखा चाहिये / यद्यपि यह कह सकना बहुत कठिन है कि ग्रन्थ निर्माण कर सकते हैं / इस समय मेरा न तो अमुक दर्शन पूर्वोक्त उच्चतम आदि विशेषणोंके सर्वथा दर्शन ग्रन्थ निर्माण करनेका विचार है और न मुझे उपयुक्त है, तथापि दर्शनोंकी उपलब्ध विवेचनाओं पर उतनी बड़ी जानकारी ही है / परन्तु यहाँ पर (इस लेख ध्यान आकृष्ट करनेके बाद जिस दर्शनकी विवेचना. में) इन मान्यताओं पर कुछ प्रकाश डालना ज़रूरी है, मस्तिष्ककी उलझी हुई गुत्थियोंको सुलझावे और संसार जिससे यह मालूम हो सके कि अमुक मान्यता वा का कल्याण करने में अमोघ साबित हो वही सर्वोत्तम दर्शन सत्य तथा मंगलप्रद है और अमुक मान्यता वा समझा जाना चाहिये। दर्शन मिथ्या और अमंगलप्रद है / उपयुक्त ईश्वर दृश्यमान जड़ और चेतन जगतके रहस्यका अन्वे. श्रादिकी मान्यताओंका ठीक ज्ञान होते ही दार्शनिकके षण किस दर्शनने कितना किया है, यह जानने के लिये मस्तिष्कमें उठने वाले 'मैं क्या हूँ ?' यह विश्व क्या उन दर्शनोंकी विवेचनाओं पर एक सरसरी नज़र डाल है ? इत्यादि प्रश्नोंका सरलतासे हल निकल आता है / 'लेना आवश्यक है / यद्यपि दुनियाँ के तमाम दर्शनोंके और इन प्रश्नोंका निर्णय होते ही दर्शनका कार्य समाप्त मन्तव्योंके विषयमें यहाँ ऊहापोह नहीं किया जा सकता हो जाता है, इसलिये कहना होगा कि प्रकृति, जीव और और न उन सब दर्शनोंकी मुझे जानकारी ही है, तो भी ईश्वर इन तत्वोंमें ही विश्वका रहस्य अभिभत हो रहा यहाँ पर कतिपय मुख्य दर्शनों (जिन दर्शनोंमें ही प्रायः है तथा इनका विवेचन करना अत्यन्त आवश्यक है / अन्य दर्शनोंका अन्तर्भाव हो जाता है ) की तरफ़ ध्यान जिन दर्शनोंमें केवल ईश्वर ही माना गया है, आकृष्ट करना बहुत ज़रूरी है / संसारमें जितने भी उनका कहना है कि-अबसे सुदीर्घ काल पहले इस दर्शनोंका जन्म हुआ है उनका चार भागोंमें बटवारा चराचर विश्वका कोई पता न था, एकमात्र ईश्वर ही किया जा सकता है-(१) वे दर्शन जो केवल ईश्वरको का सद्भाव था / इस मान्यताको स्वीकार करने वाले ही मानते हैं, (2) एकमात्र प्रकृति अर्थात् जड़ पदार्थ दर्शनोंमें मुस्लिमदर्शन, ईसुदर्शन आदि प्रमुख हैं / को मानने वाले दर्शन, (3) वे दर्शन जो ईश्वर, जीव मुसलमान और ईसाई दार्शनिकोंका कहना है कि अबऔर प्रकृतिको मानते हैं, (4) और वे दर्शन जो जीव से बहुत समय पहले एक समय ऐसा था जब इस जड़ तथा अजीव प्रकृतिको स्वीकार करते हैं / इन चार और चेतन जगत् का नामोनिशान भी न था, केवल मान्यताओं से किसी न किसी एक मान्यतामें इस एक अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, पूर्ण ईश्वर अखिल विश्व-मण्डलका रहस्य छिपा हुआ है, जिसके अर्थात् खुदा गॉडका ही अस्तित्व था / यद्यपि ईश्वर लिये ही उक्त मान्यताएँ और उनकी शाखा-प्रशाखारूप परिपूर्ण था, उसे किसी प्रकारको आवश्यकता न थी, दर्शन उपत्न हुए। तथापि एक विशेष अवसर पर उसे सृष्टि-रचना करनेयद्यपि इन मान्यताओं और इनसे सम्बन्ध रखने की लालसा हुई / ईश्वरने स्वेच्छानुसार स्व-सामर्थ्य वाले दर्शनोंकी रूपरेखा खींचने के लिये महती विद्वत्ता द्वारा शून्य अर्थात् नास्तिसे यह दृश्य जगत उत्पन्न तथा समयकी प्रचुरताकी बहुत आवश्यकता है, ये बातें किया। छह दिन तक खुदा अपनी इच्छासे तमाम जिन विद्वानोंके पास संभव हों वे 'दर्शन' पर एक अच्छा रचना करता रहा / उसने पहाड़, समुद्र,नदी, भखण्ड, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 84 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 AAAAAAAAAAAAAAAEEEEEED हाथी, घोड़ा, बैल, सिंह, बकरा, बकरी आदि अचेतन जगह न देख प्रजापति रोने लगा, प्रजापतिकी अांखोंसे और चेतन जगत्की रचना की / इस रचनाके बाद अश्रु-विन्दु टपककर समुद्र के जल-पटल पर गिर कर खुदाने सोचा कि मेरी एक प्रतिमूर्ति भी होना चाहिये, पृथ्वीमें तब्दील हो गये / बादमें प्रजापतिने भूभागको इच्छा होनेकी देरी थी कि खुदाकी एक दूसरी प्रतिमूर्ति साफ़ किया, जिससे वायुमण्डल और श्राकाशकी तैयार होगई, खुदाने उसे अचेतन देख उसमें चेतन उत्पत्ति हुई। शक्ति का संचार किया / इतना विपुल कार्य करनेके बाद दूसरी जगह लिखा है कि प्रजापतिने एकसे. अनेक खुदा श्रान्त होगया, उसने अपनी प्रतिमूर्ति हज़रत होने के लिये तपस्या की, तपस्यासे वेद और जलकी आदमके सामने अपनी सम्पर्ण रचना रखदी और उसे उत्पत्ति हुई / प्रजापतिने त्रयीविद्याको लेकर जल में उन समस्त पदार्थों का नामकरण करनेका आदेश दे प्रवेश किया, इससे अण्डा उत्पन्न हुआ, प्रजापतिने ७वें दिन रविवारको विश्राम करने चला गया / हज़रत अण्डेको स्पर्श किया, जिससे अग्नि, वाष्प, मिट्टी आदि श्रादमने सबका यथोचित नाम-निर्देश किया / पैदा हुई / उपनिषदोंमें भी सृष्टि -रचना और ईश्वरके कतिपय समालोचक एकमात्र ईश्वरसे ही समस्त विषयमें अनेक प्रकारकी मान्यताएँ पायई जाती हैं / जगत्का निर्माण बताने वाले दर्शनको प्रमाण मानते हुए वृहदारण्यक उपनिषदमें एक स्थल पर असत्भी मुसलमान व ईसाई दार्शनिकोंकी इस जगत-रचना मृत्यु और क्षुधाको अभिन्न बताकर मृत्युसे जीवन, शैलीकी खिल्ली उड़ाते हैं। खुदाके इस रचनाक्रमको जल, अग्नि, लोक अादिकी उत्पत्ति बतलाई है। दूसरे बाज़ीगरका खेल बताकर खूब उपहास करते हैं; परन्तु स्थान पर आत्मासे सृष्टि का उत्पत्तिक्रम मानकर कहा ऐसा करते हुए वे अपने मन्तव्यकी ओर ज़रा भी विचार गया है कि जिस समय अात्मामें संवेदनशक्तिका प्राविनहीं करते / वेदान्त, न्याय और वैशेषिक दर्शन ईश्वर- र्भाव हुआ, उस वक्त अात्मा निजको अकेला देखकर को अखिल विश्वका सर्जक मानते हैं / इन दर्शनोंके भयभीत हुआ / अात्मा पुरुष और स्त्रीमें विभक्त होगया। आविष्कर्ताोंने भी ईश्वर और जगतके विषयमें अनेक स्त्रीने सोचा कि पुरुष मेरा उत्पादक तथा प्रणयी है, मनोरञ्जक कल्पनाएँ स्थापित की हैं; उदाहरणार्थ कुछ- इसलिये उसने गायका रूप धारण कर लिया, पुरुष भी का निर्देश करना यहाँ उपयुक्त होगा बैल बन गया / गायने बकरीके रूपमें तब्दीली करली, - तैत्तरीय ब्राह्मणका अभिमत है कि सृष्टि रचनाके बैल भी बकरा बन गया / इसी तरह सिंह-सिंहनी आदि पहले पृथ्वी, आकाश आदि किसी भी पदार्थका युगलोंका प्रादुर्भाव हुआ। एक जगह ब्रह्मसे लोकका अस्तित्व नहीं था / प्रजापतिको एकसे अनेक होने की सृजन मानकर लिखा है कि ब्रह्मने अपने में पर्ण-शक्तिइच्छा हुई,एतदर्थ उसने घोर तपश्चरण किया,तपश्चरण- का अभाव देख ब्राह्मणादि चारों वर्णोका निर्माण के प्रभावसे धूप, अग्नि, प्रकाश, ज्वाला, किरणें और किया / छान्दोपनिषद्में असत्को अण्डा बताकर वाष्प उत्पन्न हुए / उत्पन्न होने के बाद ये पदार्थ जम अण्डे के फटनेसे पृथिवी, आकाश आदि समस्त संसारकी कर अत्यन्त कठिन होगये, इससे प्रजापतिका लिंग फट उत्पत्ति बतलाई है। गया और उससे समुद्र बह निकला / अपने ठहरनेको इस उपर्युक्त निर्देश में जहाँ ईश्वर ब्रह्मा या Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा 85 .................. प्रजापतिको लोक-निर्माता बताया गया है वहाँ उसे अपने पूर्व पिंडाकारका परित्याग कर ही कड़ा, कुण्डल, मुसलमान और ईसाई दार्शनिकोंकी तरह ही प्रायः बाली, श्रादि पर्यायों--हालतोंको धारण करता है, स्वीकार किया गया है, फिर न जाने ऊपर लिखी परन्तु उन सभी पर्यायोंमें--जो स्वर्ण के पिण्डसे शुरू मान्यतासे सहमत होते हुए भी कतिपय विद्वान खुदा होती हैं, स्वर्ण व स्वर्ण के पीतादि समस्त गुण पाये और गॉडका उपहास क्यों करते हैं ? यदि वे खुदाका जाते हैं / इसी तरह मृत्तिका आदि जितने भी उपादान मज़ाक उड़ाते हैं तो उन्हें प्रजापतिके तपश्चरण और कारण देखने में श्राते हैं, वे सभी निजसे उत्पन्न होनेवाले उसके लिंग फटने, उससे समुद्र निकलने आदिको न कार्योंमें पर्याय परिवर्तनके सिवाय समानरूपसे पाये जाते भूलना चाहिये और इस गुलगपाड़ेका भी अवश्य भंडा- हैं / यदि ईश्वर जगतका उपादान कारण है तो संसारमें फोड़ करना चाहिये / वेदान्त, न्याय,वैशेषिक, मुसलमान, पर्वत, समुद्र, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि जितने भी कार्य ईसाई श्रादि जिन दर्शनोंमें सष्टि उत्पत्तिके पहले एक- हैं उन सभीमें ईश्वरका अस्तिख व ईश्वरके सर्वज्ञत्व, मात्र ईश्वरके अस्तित्वकी कल्पना की है प्रायः उन व्यापकत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि गुणोंका सद्भाव अवश्य सभी दर्शनोंमें इसी तरहकी बेसिर पैरकी कल्पनाएँ पाया जाना चाहिये / परन्तु सूक्ष्मरूपसे देखनेपर भी पाई जाती हैं | उन कल्पनाओंकी बुनियाद जगत्के संसार के किसी भी कार्यमें ईश्वरका एक भी गुण नज़र स्वरूप व उसके आदि-अन्तका ठीक पता न लगानेवाले नहीं आता / अतः युक्ति और प्रत्यक्ष प्रमाणसे ईश्वरको दार्शनिकोंके मस्तिष्ककी उपज ही है। जब वे दार्शनिक जगत्का उपादान कारण मानना ठीक नहीं मालूम बहुत कुछ कोशिश करने पर भी लोकका स्वरूप ठीक होता और न ईश्वरका ऐसी झंझटोंमें फंसना ही हृदय न समझ सके, तब उन्होंने एक छिपी हुई महती शक्ति- व बुद्धिको लगता है / इसलिये कहना होगा कि ईश्वरका अनुमान किया और किसीने उसे ब्रह्म, किसीने विषयक उक्त मान्यता मिथ्या और अवैज्ञानिक है। ईश्वर, किसीने प्रजापति, किसीने खुदा और किसीने एकमात्र प्रकृति --जड़पदार्थ की मान्यताको गॉड (God) आदि कहा / जब उस शक्तिकी कल्पना स्वीकार करनेवाले दर्शनोंमें चार्वाक-दर्शन प्रमुख है। की गई बब उसके बाद उसके विषयमें दूसरी भी अनेक चार्वाक दर्शनके माननेवाले दार्शनिकोंका अमिमत है कल्पनाएँ गढी गई और उससे ही समस्त सजीव तथा कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन भूत चतुष्टयके निर्जीव जगतका निर्माण माना गया। सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है। इन जड मतइस मान्यताको माननेवाले दार्शनिक चराचर चतुष्टयसे ही संसार बना है। संसारमें जितने कार्य जगत्को उत्पत्तिमें ईश्वरको ही उपादान तथा निमित्त- नज़र आते हैं वे सब इन्हीं भूतचतुष्टयके सम्मेलनसे कारण घोषित करते हैं, परन्तु बुद्धिकी कसौटी पर पैदा हुए हैं | चेतन, जीव या आत्मा नामका पदार्थ कसनेसे यह बिलकुल ही मिथ्या साबित होता है। भी पृथ्वी श्रादिसे भिन्न नहीं हैं। जिस तरह कोद्रव दार्शनिक जगत्को यह भलीभाँति विदित है कि उपादान (अन्नविशेष ) गुड, महुअा अादि विशिष्ट पदार्थों के कारण अपना पूर्व रूप अर्थात् अपनी पूर्व पर्याय व सम्मिश्रणसे शराब पैदा हो जाती है, ठीक उसी तरह हालत मिटाकर ही कार्यरूपमें परिणत होता है / स्वर्ण पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके स्वाभाविक विशिष्ट Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 संयोगसे चैतन्यकी अभिव्यक्ति (उत्पत्ति ) होती है, तीसरी मान्यतामें ईश्वर, जीव और प्रकृतिसे उसीको चेतन, जीव, आत्मा आदि नामसे पुकारते हैं, जगत्का निर्माण माना गया है / इस मान्यतामें न्यायशरीरसे भिन्न कोई 'जीव' नामका पदार्थ नहीं है / धर्म, वैशेषिक श्रादि जितने भी दर्शनोंका अन्तर्भाव होता है अधर्म, स्वर्ग-मोक्ष, पुण्य-पाप अादि पदार्थोंका भी सर्वथा उन सबका यह अभिमत है कि ईश्वरने जीव और अभाव है / कहा भी है अजीव प्रकृतिसे इस जगतकी रचना की है अर्थात् लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृतिः। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा-मकोड़ा श्रादि जितने जीवधर्माधौं न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः॥ धारी प्राणी हैं उनका उपादान कारण जीव है और कतिपय वैज्ञानिक लोग भी जीवके विषयमें ऐसी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, समुद्र, नदही कल्पनाएँ घड़ते हैं, परन्तु युक्तिकी कसौटी पर कसने- नदी अादि जितने अचेतन पदार्थ देखनेमें आते हैं से उक्त वैज्ञानिक व दार्शनिक अपनी कल्पनामें अत- उनका उपादान कारण अजीव–अर्थात् प्रकृति है, फल मालूम होते हैं / शरीरादिसे भिन्न अहंकारात्मक परन्तु इस चेतन और अचेतन जगत्की रचनामें ईश्वर प्रवृत्ति होती है, पृथ्वी श्रादिके संयोगरूप शरीरका पूर्ण- अनिवार्य निमित्त कारण व व्यवस्थापक है। इन तौरसे अस्तित्व रहने पर भी चेतन या जीवके अभावमें दार्शनिकोंकी इस रचनाक्रमके समर्थनमें जो प्रबल वैसी प्रवृत्ति नहीं होती। जीव जब एक शरीर छोड़ दलील है वह इस प्रकार हैदेता—मर जाता है, तब उस शरीरमें चेतनसे सम्बन्ध संसार में जितने भी कार्य देखने में आते हैं वे किसी रखनेवाली सभी क्रियाओंका अभाव होजाता है, इस न किसी उस-उस कार्यके ज्ञाताके द्वारा ही बनाए जाते लिये पृथिवी आदि अचेतन पदार्थोंका चैतन्यरूपमें हैं / उदाहरणरूपमें जब हम अंगूठीकी अोर दृष्टिपात परिणमन होना वा उनसे चेतन-जीवकी अभिव्यक्ति करते हैं तो हमें साफ़ मालूम हो जाता है कि अंगूठी और उत्पत्ति मानना सारहीन ही नहीं असंभव भी है। अपने प्रा. से ही तय्यार नहीं हुई, किन्तु उसमें स्वर्ण जीवका जड-पदार्थोंसे पृथक्त्व होना तब और भी दृढ़- उपादान कारण होनेपर भी अंगूठी बनानेकी कलाका होजाता है जब एक मनुष्य मरकर पुनः मनुष्य-पर्याय जानकार सुनार ही अंगूठी बनाता है। इसी तरह कुम्हाधारणकर अपने पूर्व-मनुष्य-पर्यायकी घटनाअोंको बिल. र घड़ा, जुलाहा वस्त्र और अन्य कार्योंको जाननेवाला कुल सत्य बतला देता है—यहाँ तक कि अपने कुटु- अन्यकार्योंकी रचना करता है / चूंकि जगत्-रचना भी म्बियों और पड़ौसियोंका परिचय और अपने धन आदि- एक विशेष और बहुत बड़ा कार्य है, इसलिये इस का ठीक व्योरा लोगोंके सामने पेश कर देता है। यह कार्यका भी कोई अत्यन्त बुद्धिमान् कर्ता होना चाहिये, केवल एक किंवदन्ती ही नहीं है, किन्तु ऐसे सत्य इस विपुल कार्यका जो कर्ता है वह महान् ईश्वर है, उदाहरण आये दिन अनेक सुनने वा देखनेमें आते ईश्वरसे भिन्न कोई भी इतने विपुल कार्यका निर्माण रहते हैं / अतः जडपदार्थसे ही तमाम जगत्का निर्माण नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और स्वीकार करनेवाले दर्शन विश्वका रहस्य खोजनेमें व्यापक है, इसलिये वह तमाम सूक्ष्मसे सूक्ष्म और सर्वथा असमर्थ हैं। ... बड़े से बड़े कार्योको सरलतासे करता रहता है, उसे इस Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं दर्शनोंकी स्थूल रूपरेखा 87 कार्यके करनेमें कोई असुविधा वा अधिक श्रम नहीं बिलकुल अभाव, कहीं पानी ही पानी, कहीं अतिवृष्टि, करना पड़ता / दूसरे अचेतन जगत्की उत्पत्ति अचेतन कहीं अनावृष्टि, कहीं अकाल-कहतका पड़ना, जहाँ परमाणुओं और कर्म-शक्ति से नहीं हो सकती; क्योंकि ज़मीन नीची होना चाहिये वहाँ उसका एकदम ऊँचा ऐसी व्यवस्थित और सुन्दर रचना जडपरमाणु व कर्म- होना और जहाँ ऊँचा होना आवश्यक था वहाँ नीचा शक्ति विचारः-शून्यताके कारण कैसे कर सकते हैं ? होना, निर्जन भयंकर पर्वतों और जंगलोंमें सुन्दरजलचेतन जीव भी चेतन जगतकी ऐसी. विशेष रचना प्रपात और झरनोंका बहना, उल्कापात, महामारी, अल्पज्ञ व स्वल्पशक्तिसम्पन्न होनेकी वजहसे नहीं कर डाँस-मच्छर, कीड़ा-मकोड़ा, साँप बिच्छू सिंह-व्याघ्र सकता, इसलिये चेतनाचेतनात्मक उभय जगत्का कर्ता आदिकी सृष्टि होना, मनुष्यमें एक धनवान दूसरा एकमात्र ईश्वर ही हो सकता है।' निर्धन, एक मालिक दूसरा नौकर, एक स्त्री-पुत्रादिके संसारके समस्त कार्य उपादान और निमित्तकारणके न होनेसे दुखी, दूसरा इन सबके रहने पर भी दरिद्रताके बिना उत्पन्न नहीं होते, इसमें किसीको भी ऐतराज़ नहीं कारण महान् दुखी, एक पंडित दूसरा अक्लका दुश्मन है और होना भी न चाहिये / परन्तु घट, वस्त्र श्रादिके –महामूर्ख और सोनेमें रूप होनेपर भी उसका सुगन्ध समान सभी कार्योका कर्ता-निमित्त कारण-चेतन रहित होना, स्वादिष्ट रसभरे गन्नेमें फलका न लगना, ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है। घास विना किसीके चन्दनके वक्षमें फलोंका न होना तथा पंडितोंका निर्धन उद्यमके बारिश आदिके होनेपर स्वयं पैदा होजाती है; और प्रायः अल्पायुष्क होना आदि संसारमें ऐसे कार्य मूंगा, मणि, माणिक्य, गजमुक्ता आदि भी केवल वैसे देखे जाते हैं जिससे मालूम होता है कि जगतकी रचना कारण मिलनेपर प्रकृतिसे ही पैदा होते हैं, इन्हें कोई त्रुटियोंसे खाली नहीं है / और इसलिये यह जगत नहीं बनाता / यदि कहो कि इन समस्त कार्योका कर्ता किसी एक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा व्यापक ईश्वर वही परमेश्वर है, वह ही छिपा छिपा ऐसे कार्योंको द्वारा नहीं रचा गया और न वह इसका व्यवस्थापक करता रहता है, तो घड़ा, वस्त्र आदिको भी वही क्यों ही है / एक कविने सोनेमें सुगन्ध न होने अादिकी नहीं बना देता ? जिससे कुम्हार आदिकी ज़रूरत ही उक्त बातोंको लेकर ईश्वरकी बुद्धिमत्ता पर जो कटाक्ष न रहे, जीवनकी सभी आवश्यक चीज़ोंका निर्माण वही किया है और इस तरह सृष्टि के निर्मातामें जो किसी ईश्वर कर दिया करे ! जिन वस्तुओंका कर्ता नज़र बुद्धिमान कारणकी कल्पना की जाती है उसका उपहास आता है यदि उनका कर्ता ईश्वर नहीं माना जाता, तो किया है-वह कविके निम्न वाक्यमें देखने योग्य हैजिनका कर्ता सिर्फ स्वभाव है उनको क्यों ईश्वरका गन्धःसुवर्णे फलमिचुदंडे नाकारि पुष्पं किल चन्दनेषु / बनाया हुअा माना जाय ? विद्वान् धनाढ्यो न तु दीर्घजीवी धातुः पुरा कोऽपिनदूसरे, यदि ईश्वर कार्योका बनानेवाला होता, तो बुद्धिदोऽभूत् // वे सब सुंदर और व्यवस्थित होना चाहिये थे। परन्तु इसलिये कहना पड़ता है कि उपर्युक्त तीसरी माआबाद मकानोंकी छतों, अांगन और दीवारों पर घास- न्यतासे भी हमारे विषयका स्पष्टीकरण नहीं होता, उलटे का पैदा होना, कहीं मरुस्थल जैसे स्थानोंमें पानीका हम व्यर्थ के पचड़ेमें फँसे नज़र आते हैं। ईश्वरका Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 जैसा स्वरूप बांधा गया है वह बिलकुल अवैज्ञानिक है। बात ज़रूर है कि जगत-रचनामें अनादिसे जीव और उसको किसी तरह भी युक्ति व बुद्धिकी कसौटी पर अजीवका ही दखल है / जीव अजीवके पृथक् करनेसे कसनेसे खरा नहीं देख सकते हैं / अनेक प्रबल बाधाएँ जगत नामके पदार्थका स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं उसे जर्जरित कर देती हैं। ठहरता, इसलिये जगतको जीवाजीवात्मक कहना उप____ पाठक महानुभाव इस तमाम विवेचनसे समझ युक्त होगां / उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य--मूलरूपमें गये होंगे कि ये तीनों दार्शनिक मान्यताएँ जगत-रचना- सदा स्थिर रहना--जिसमें प्रत्येक समय पाया जाय उसे की उलझनको सुलझानेमें कहाँ तक सफल हुई हैं। द्रव्य, वस्तु या पदार्थ कहते हैं / संसारमें ऐसा कोई भी इनसे तो यही मालूम होता है कि या तो जगत पंच- पदार्थ नहीं है जिसमें उत्पत्ति आदि तीनों बातें एक ही भूतात्मक ही है अथवा ईश्वरात्मक या ईश्वराधीन ही कालमें न पायी जाती हों-भले ही कुछ पदार्थों में है / जगत क्या है ? मैं क्या हूँ ? मुझे कहाँ जाना है ? सूक्ष्मतर होनेके कारण ये स्पष्ट नज़र न आती हों। इत्यादि समस्त प्रश्न ईश्वर वा प्रकृतिमें ही लीन हो उत्पाद न्यय ध्रौव्य पना द्रव्यका सामान्य लक्षण है, जो जाते हैं, विशेष तर्क-वितर्क करनेकी कोई गुंजाइश नहीं भी द्रव्य है उसमें यह अनिवार्यरूसे पाया जाता है / रखी गई। इन तीन बातोंके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम ही नहीं __चौथी मान्यता जीव और अजीव अथवा चेतन- रह सकता, वह सर्वथा विलुप्त हो जाता है / द्रव्यकी ये अचेतन विषयक है / इस मान्यताको जन्म देनेका श्रेय हालतें स्वभावसे ही होती रहती हैं उपादानरूपसे इनका प्रायः एकमात्र जैनदर्शनको ही है, वैसे बौद्धदर्शनादिने करनेवाला कोई विशेष व्यक्ति नहीं है। जिस तरह भी इस ओर झुकाव दर्शाया है, पर वह युक्तिके बलपर अग्निकी ज्वाला खुद ही ऊपरकी ओर जाती है, पानी टिकता नहीं, इसलिये उसे निर्दोष नहीं कहा जासकता। ढाल भूभागकी ओर बहता है और हवा तिरछी चला अब देखना यह है कि जैनदर्शनकी मान्यतासे दार्श- करती है, ठीक उसी तरह द्रव्य स्वभावसे ही प्रतिक्षण निकोंके मस्तिष्क में उठानेवाले प्रश्नोंका उत्तर मिलता उत्पाद, व्यय ओर ध्रौव्यरूपसे परिणत होता रहता है। है या नहीं ? द्रव्यका यह स्वभाव ही संसारमें अनेक परिवर्तनों तथा __ जैनदर्शन था उक्त मान्यताके अनुसार जगत, लोक, अलटन पलटनका मूल कारण है। विश्व या दुनियां अनादि-निधन अथवा अनादि-अनन्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ये है / जगत-रचनाके प्रारम्भकी कहनी उसी तरह बुद्धि- छह द्रव्य हैं, ये छहों द्रव्य अनादि-निधन हैं। परन्तु गम्य और रहस्यभरी है जैसे बीज और वृक्षकी। जिस इनमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हमेशा होता रहता है, इसलिये तरह यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि अमुक इनके द्रव्यत्वमें कोई फ़र्क नहीं आने पाता-। पर्यायें समयमें बीजसे वृक्ष अथवा वृक्षसे बीज पैदा हुआ है पलटती रहती हैं / इन छहों द्रव्योंमें श्राकाश सबसे उसी तरह जीव-अजीवसे भी जगत रचनाके प्रारम्भका महान् है, इसके क्षेत्रका कहीं अन्त नहीं है, अनन्तानिर्णय नहीं किया जा सकता--जगत अनादि है और नन्त है। आकाशके जितने क्षेत्रमें जीव, पुद्गल, उसका कभी भी अन्त होनेवाला नहीं है। हाँ इतनी धर्म, अधर्म और काल का अस्तित्व पाया जाता है, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] विविध प्रश्न दह - उसे लोक, लोकाकाश जगत या दुनियाँ कहते हैं। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते // लोकाकाशमें ये पाँचों द्रन्य सदासे ठसाठस भरे हुए हैं भगवद्गीताकार भी परमात्मा या ईश्वरके और भविष्यमें भी सदैव इसी तरह मरे रहेंगे / हाँ, जगत्कर्तृत्व आदिके विषय में कितने ही स्पष्ट और समुद्रव्यों में पर्यायाश्रित संभवित परिवर्तन जरूर होगा. पर क्तिक हृदयोद्गार प्रकट करते हैं। उनका कहना है न तो ये मूल द्रव्य विनष्ट-नेस्तनाबूद हो सकेंगे और न कि-'प्रभु अर्थात् ईश्वर या परमात्मालोगोंके कर्तृत्वको, इनके सिवाय अन्य द्रव्योंकी उत्पत्ति ही हो सकेगी। उनके कर्मको ( या उनको प्राप्त होनेवाले ) कर्मफलके 'गम्यंते जीवादयो यत्र तज्जगत् अथवा लोक्यन्ते संयोगको भी निर्माण नहीं करता। स्वभाव अर्थात् जीवादयो यत्र स लोका' अर्थात् जहाँ पर जीवादि छह प्रकृति ही सब कुछ किया करती है / विभु अर्थात् सर्वद्रव्य रहे—मालूम पड़ें उसे जगत् या लोक कहते हैं। व्यापी परमेश्वर किसीका पाप और किसीका पुण्य भी इससे मालन हुअा कि जीवादि छह द्रव्योंकी नहीं लेता / ज्ञान पर अज्ञानका पर्दा पड़ा रहनेके कारण समष्टिका नास ही जगत् है, वह न किसी व्यक्तिके द्वारा प्राणी मोहित हो जाते हैं, और अपनी नासमझीके रचा गया है, न उसका कोई व्यवस्थापक व पालक है कारण परमेश्वरको उस तरह मानने लगते हैं / यथा और न महेश्वर उसका संहार ही करता है। स्वभावसे न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः / ही जगत्में नाना प्रकारके परिवर्तन होते रहते हैं। न कर्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते // शरीरादिसे भिन्न चेतन रूपमें अहंबुद्धि रूपसे नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः / प्रवृत्ति होती है वही 'मैं' शब्दका वाच्य है / उसीको अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः // आत्मा आदि कहते हैं / जीव जैसे कर्म करता है उसे भग० गी० 5-14,15 उन कर्मों-कर्तव्योंके अनुसार ही सुख-दुःख देने वाले ऐसी हालतमें ईश्वरके जगत्कर्तृत्व आदिकी स्थानोंमें जन्म लेना पड़ता है / कोई दूसरा व्यक्ति उसे कल्पना बहुत ही निःसार है और उसका मूल कारण किसी योनिमें न तो भेजता और न दुःख ही देता है। अज्ञानभाव है / जैन-दर्शन अर्थात् वीर-शासनकी स्वकर्मानुसार ही जीव उसका फल भोगता है और खुद मान्यता बहुत ही युक्तियुक्त, स्वाभाविक तथा वस्तु ही अपने प्रयत्नसे कोंके बन्धन तथा संसारसे मुक्त स्थिति के अनुकूल है और हृदयको सोधी अपील करती होता है / कहा भी है है अतः वह सब तरहसे ग्रहण किये जानेके योग्य है। स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमरनुते / वीर सेवा-मन्दिर, सरसावा, ता०१६-१०-३६ प्रo--देह निमत्त किस कारणसे है ? उ०--अपने कर्मों के विपाकसे / विविध-प्रश्न प्र०--कर्मों की मुख्य प्रकृतियो कितनी हैं ? उ०--आठ। -राजचन्द्र Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'Pala [1] [97 #AAAAA [ 2] अज-सम्बोधन .. ( वध्य-भूमिको जाता हुआ बकरा ) . हे अज ! क्यों विषण्ण-मुख हो तुम, शायद तुमने समझ लिया है किस चिन्ताने घेरा है ? अब हम मारे जावेंगे, हे पैर न उठता देख तुम्हारा, इस दुर्बल औ' दीन दशामें खिन्न चित्त यह मेरा है ! भी नहिं रहने पावेंगे !! म. देखो, पिछली टाँग पकड़कर, छाया जिससे शोक हृदयमें तुमको वधिक उठाता है ! इस जगसे उठ जानेका, है और ज़ोरसे चलनेको फिर, इसीलिए है यत्न तुम्हारा, धक्का देता जाता है !! यह सब प्राण बचानेका !! कर देता है उलटा तुमको पर ऐसे क्या बच सकते हो, र दो पैरोंसे खड़ा कभी ! सोचो तो, है ध्यान कहाँ ? र दाँत पीस कर ऐंठ रहा है। तुम हो निबल, सबल यह घातक, . कान तुम्हारे कभी कभी !! __निष्ठुर, करुणा-हीन महा। कभी तुम्हारी क्षीण-कुक्षिमें स्वार्थ-साधुता फेल रही है, मुक्के खूब जमाता है ! न्याय तुम्हारे लिये नहीं ! अण्ड-कोषको खींच नीच यह रक्षक भक्षक हुए, कहो फिर, फिर फिर तुम्हें चलाता है !! __ कौन सुने फ़रियाद कहीं !! सह कर भी यह घोर यातना, इससे बेहतर खुशी खुशी तुम तुम नहिं कदम बढ़ाते हो, वध्य-भूमिको जा करके, कभी दुबकते, पीछे हटते, वधिक-छुरीके नीचे रख दो और ठहरते जाते हो !! निज सिर, स्वयं झुका करके / मानों सम्मुख खड़ा हुआ है 'आह' भरो उस दम यह कह कर, सिंह तुम्हारे बलधारी, " हो कोई अवतार नया, आर्तनादसे पूर्ण तुम्हारी महावीरके सदृश जगतमें' 'मेमे' है इस दम सारी !! __ फैलावे सर्वत्र दया" // [3] 6] "AAMARTH MAHARAAA FF.FA. . -'युगवीर' AARTHATAITHLETEYE Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासन-दिवस और हमारा उत्तरदायित्व [लेखक-श्री दशरथलाल जैन ] "अपने बड़ोंकी तुममें कुछ हो तो हम भी जानें। उनकी इस अनभिज्ञता-उदासीनतासे लाभ उठाकर गर वो नहीं तो बाबा फिर सब कहानियाँ हैं // " दूसरे धर्मवाले उनपर अपना प्रभाव जमानेमें इस संसारमें अनेक जैन तीर्थंकर धर्मतीर्थके समर्थ हो जाते हैं / उनका कुछ आकर्षण बढ़ने पर प्रवर्तन करनेवाले हुए हैं / उनकी धर्म-आज्ञाओं जब वे लोग उनके ग्रन्थोंको पढ़ने, उनकी सभा और व्यवस्थाओंका प्रसार भी परिमित काल तक सोसाइटियोंमें भाग लेने और उनकी किसी किसी ही रहा है / उसके बाद उसमें बराबर शिथिलता प्रवृत्तिको अपनाने या उसका अनुमोदन-मात्र आती रही है—यहाँ तक कि कभी कभी तो धर्मका करने लगते हैं, तो इधर अपने ही लोगोंकी ओरसे मार्ग ही अर्से के लिये लुप्तप्राय होगया है। कारण, उन्हें अनेक प्रकारको हृदयबेधक कटूक्तियाँ तथा यह संसार आत्मवाद और अनात्मवादकी सदैवसे फब्तियाँ सुननेको मिलती हैं, जिनसे उनका हृदय समरभूमि रहा है। जब कभी किसी अलौकिक विकल हो जाता है, उसमें कषाय जाग उठती है पुण्यशाली अध्यात्मवादकी प्रचण्ड तेजोमय मूर्ति- और वे अपने उस नये मार्गको ही हर तरहसे का प्रादुर्भाव होता है तब अज्ञानान्धकारमें चिर- पुष्ट करनेमें लग जाते हैं / उनका तमाम बुद्धि-बल कालसे भटकते हुए अज्ञानी और मिथ्यामार्गी तथा धन-बल उस ओर काम करने लगता है जीवोंको अपनी आत्माको पहचान सकनेका प्रकाश जिसके फलस्वरूप विपुलमाहित्यकी रचना तथा मिलता है। जिनका भविष्य उज्ज्वल होता है वे उसका प्रचार होकर प्रवाह बह जाता है और आत्मकल्याणकी ओर लग जाते हैं और शेष भद्र जन-बल भी बढ़ जाता है। आत्मानों में अपनी आत्माको पहचानने के लिये मनुष्योंमें विचारवान सन्मार्गी आत्माओंकी एक प्रकारका आन्दोलनसा मच जाता है। इस संख्या हमेशा कम रहा करती है, जन-साधारणका तरह कुछ काल तक संसारमें धर्ममार्गका प्रवर्तन बहुभाग तो सिर्फ गतानुगतिक ही होता है और रहता है, बादको फिर अज्ञानान्धकार छाजाता है। वे प्रायः “महाजनो येन गतः स पन्थाः" के ही पलोगोंमें बहुत कालातक एक ही धर्मका सेवन-वह थिक बन जाते हैं / यह ठीक है कि आत्माको पहभी अव्यवस्थित रूपसे-करते करते कुछ तो पूर्व चाननेवाले अलौकिक महान आत्माओंकी कृपासे पापके उदयसे स्वयं ही धर्ममें अरुचि हो जाती है जीवोंका झुकाव स्वात्माकी ओर होता है, लेकिन तथा प्रमाद बढ़ जाता है-वे अपने धर्मसे अन- इसके लिये उन्हें जड़वाद-अर्थात् प्रकृति और भिज्ञ तथा विमुखसे रहने लगते हैं, और कुछ उसकी साधक परिस्थितियोंसे सदैव यद्ध करना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 अनकान्त [वर्ष 3, किरण 1 रहते हैं। पड़ता है / जहाँ युद्ध रुका और आत्मा चुप बैठी हुई है। मान्य विद्वान् विद्यावारिधि वैरिष्टर चंपकि जड़वादका साम्राज्य उसे दबाने लगता है। तरायजीने अपनी तुलनात्मक पद्धतिसे संसारके इसलिये अज्ञान व प्रमादकी वृद्धिको रोकनेके सब धर्मोकी शोध-खोजकर सिद्ध कर दिया है कि लिये निरन्तर सद्ग्रन्थोंका अध्ययन, सत्संगतिका जैनधर्म एक अद्वितीय वैज्ञानिक धर्म है / ऐसे जैन सेवन विद्वानोंका समागम और सुसंस्कारोंकी धर्मका इस वैज्ञानिक युगमें भी प्रचार और प्रसार समय समयपर आवृत्तियाँ आवश्यक हो जाती हैं। न हो यह सचमुचमें हमारे धनशाली और धर्मधार्मिकपर्व हमारी त्रुटियों एवं कमजोरियोंको दूर परायण समाजके लिये बड़े ही आश्चर्य तथा शर्मकरनेके हेतु ही बने हैं। इनको भले प्रकार मनाते की बात है, और इसके जिम्मेदार वीर भगवानके रहनेसे हम संस्कारित होते हैं, अपने कर्तव्य- भक्त जैनधर्मके अवलम्बी हमी जैनी श्रीमान् धीमान पालनमें सावधान बनते हैं, हममें उत्साह तथा और उनके पीछे चलनेवाला सारा जैन समाज है। पुरुषार्थ जागृत होता है, हमारे समाजसे कदाचार- हमने अपने उत्तरदायित्वको जरा भी पूरा नहीं रूपी मैल छंटता रहता है और हम शुद्ध होते किया। कोई समय था जब जैनधर्मका प्रचार उसके इस तरह सभी धार्मिकपोंको सोल्लास मनाना कट्टर विरोधियोंके कारण रुका था और हम चिऔर उनके लिये सार्वजनिक उत्सवोंकी योजना ल्लाते फिरते थे कि अमुक जैनधर्मके विद्वेषी दुष्टकरना परमावश्यक मालूम होता है तथा महापुण्य- राजाओंने हमारे धर्मग्रन्थ जला दिये, मूर्तियाँ नष्ट का कारण है / संसारी प्राणियोंके परम कल्याणार्थ करदी, लोगोंको घानीमें पेर डाला इत्यादि, लेकिन / प्रकट होनेवाली वीर-भगवानकी धर्म-देशनाके अब उस धर्मके प्रकाश एवं प्रचारमें आनके मार्गमें दिन तो उत्सव मनानेकी और भी अधिक आव- बाधक कौन है ? हम जैनधर्मके परमभक्त कहलाने श्यकता है। इस महान धार्मिक पर्वकी महत्ता और वालोंके सिवा और कोई भी नहीं। मनानेकी आवश्यकता, उपयोगिता तथा विधि पर जैनधर्म हिन्दूधर्मकी एक शाखा है, बौद्धधर्म अनेक विद्वानोंने प्रकाश डाला ही है और वह सब जैनधर्मसे प्राचीन है या बौद्धधर्मका रूपान्तर है, ठीक ही है; लेकिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैनियोंकी अहिंसाने भारतीयोंको कायरबनादिया है जिस तरह योग्य गणधरके अभावमें जीवोंकी और वह भारतवर्षके पतनका कारण हुई, जैनिकल्याणकारिणी वीर भगवानकी पुण्य वाणी बहुत योंमें आत्मघातको धर्म बताया है, ये ईश्वरको नहीं काल तक खिरनेसे रुकी रही उसी तरह वर्तमानमें मानते, जैनियोंने भारतवर्षमें बुतपरस्तीका श्रीगणेश हमारे जैसे अयोग्य विद्वानों और वणिक-समाजकी किया है, जैनियोंका राजनैतिक क्षेत्रमें कोई स्वतंत्र स्वार्थपरायणता तथा अदूरदृष्टिमय स्थूल धर्म बद्धि- अस्तित्व नहीं हो सकता, जैनियोंका स्याद्वाद एक के कारण विज्ञानके इस वर्तमान बौद्धिकयुगमें भी गोरखधंधा है, इत्यादि अनेक मिथ्या धारणाएँ भगवानकी वाणी प्रकाश तथा प्रचारमें आनेसे रुकी आज भी न सिर्फ हमारे पड़ोसियोंके हृदयमें Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीर-शासन दिवस और हमारा उत्तरदायित्व 63 विद्यमान हैं बल्कि देशके बड़े बड़े नेताओं-लाला- संगमरमरके फर्श और टाइल्स जड़वानेमें खर्च लाजपतराय सरीखे राजनीतिज्ञों-और कई इति- करनेसे नहीं रुकते / परन्तु हम देव-शास्त्र गुरुका हासिज्ञोंके मनमें भी बैठी हुई पाई गयी हैं / कई एक ही दर्जा मानते हुए भी शास्त्रोंके पुनरुद्धारार्थ रियासतोंमें जैनियोंके विमान निकालने पर लोग विद्वानोंकी कोई भी समिति कायम नहीं कर पाये। नग्न मूर्तियों पर ऐतराज करते हैं और इतना हमारी पाठशालाएँ और विद्यालय अपने अपने जोर बाँधते हैं कि दंगातक करने लगते हैं-कोला- ढर्रे पर चल रहे हैं, वे प्रायः अध्यापकोंकी पुश्तैनी रम, कुडची, महगांव, बयाना आदि पचासों जायदाद बनादिये गये हैं; ऊँचे विद्यार्थी कितने स्थानोंपर धर्मपालनमें बाधाएँ पड़ीं। यह सब उस हैं, खर्च कितना है, इसका कोई ठीक ठिकाना नहीं; जमानेमें हो रहा है जब कि धर्मपालनमें राज्योंकी समाजका पैसा कितनी बेदर्दीसे धर्मके नामपर तरफसे पूर्ण स्वतंत्रताकी आम घोषणा है। पता है प्रचारक रखकर फूका जाता है, उसका भी कोई इन सब अन्यायोंके मूलमें कारण कौन है ? हम ठिकाना नहीं; माणिकचन्द्र परीक्षालय, महासभा भगवान महावीरकी नालायक सन्तान / परीक्षालय, परिषदपरीक्षालय, मालवा-परीक्षालय __ हम गाली देते हैं उन हिन्दुओंको जो हमपर सबके छकड़े दौड़ लगा रहे हैं, और अब तो विद्याअपनी अज्ञानताके कारण धार्मिक, सामाजिक र्थियोंसे फीस भी लेने लगे / गरज यह कि, अव्य और राजनैतिक हमले करते हैं, हम गाली देते हैं वस्थाका खासा साम्राज्य कायम है, धर्मके नामपर उन्हें जो हमारी उच्चताका मजाक उड़ाते हैं, हम चाहे जैसी अवांछित पुस्तकोंका प्रचार है। जहाँ बुरा कहते हैं उन्हें जो हमारे अलग राजनैतिक ज्ञान प्रसारके क्षेत्रमें जैन समाजमें यह अंधेरे हो हक़ोंको देनेसे इनकार करते हैं; इसी तरह कलि- वहां जैनेतर समाजमें धर्मप्रचारकी बात दिमाग़में युगको भी गाली देकर हम अपनी कायरताका आना ही मुश्किल है। यूनिवर्सिटियों,कालेजों और प्रमाण देते हैं / आखिर इस आत्मवञ्चनासे लाभ हाईस्कूलों तथा सार्वजनिक लाइब्रेरियोंमें तो हमारी क्या ? हम देखते हैं आये दिन हम अपनी एक पुस्तकोंका प्रायः पता भी नहीं मिलता-हमारे नहीं अनेक होनेवाली घरू और बाहरी आपत्तियों सार्वजनिक क्षेत्र हमारे प्रभावसे शून्य रहते हैं। के लिये रोते रहते हैं, लेकिन हम उसके कारण- ऐसी हालत है हमारी, जिसे आँख खोलकर देखते कलापोंको देखते हुए भी उसके वास्त्व क कारण हुए भी हम देख नहीं रहे हैं। भला सोचो तो, तक नहीं पहुँच पाये हैं। सच पूछिये तो हमें दूसरों इसमें किसका कसूर है। जो आँख देखनेके लिये का ऐबजोई करना जितना आसान रहा है, अपनी हो उससे हम विवेक पूर्वक देखें नहीं और आपत्ति अदूरदर्शिता पूर्ण कृतियों और उनके नतीजोंपर होनेपर रोवें तो हमें उस शायरके शब्दोंमें यही नज़र पहुँचाना उतनी ही टेढ़ी खीर रहा है। कहना पड़ेगा कि आज भी हम धर्मके नामपर लाखों रुपया “रोना हमारी चश्मका दस्तर होगया / , मन्दिर बनाने, रथ चलाने, सोना और रंग कराने, . दी थी खुदाने आँख सो नासूर होगया / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 अतः भाइयो ! अब इस प्रकार काम नहीं पड़े तो जहाँ मन्दिरोंमें अच्छी आमदनी हो वहाँचलेगा / अब भी सोचो, जैनधर्मके प्रचार और के धनसे कोष पुरा करो। साथ ही, वीरशासनके _ दिन ऐसे सन्दर, ससम्पादित-प्रकाशित ग्रन्थों प्रसारका मार्ग अभी भी खुला हुआ है,सिर्फ आव ' पुस्तकों तथा ट्रेक्टोंका अधिकाधिक संख्या प्रचार श्यकता है एक बार अपनी हालतका सिंहावलोकन करो। ये सब ऐसी आवश्यक क्रियाएँ हैं, जो वीरकरने और अपने कर्तव्य तथा उत्तरदायित्वको शासनके सम्बन्धमें हमारे उत्तरदायित्वको परा. समझनेकी / ईसाई अपने मिशनरियों और अपनी करा सकती हैं और जिनका चीरशासन-दिवस लिटरेचर सोसाइटियों-द्वारा, आर्यसमाज अपने मनाते समय हर जगह रिवाज पड़ जाना चाहिये। स्नातकों, सन्यासियों, तथा ब्रह्मचारियोंके द्वारा, जिस तरह अब भारतवर्षमें एक छोरसे दूसरे छोर तक महावीर-जयन्ती सार्वजनिकरूपसे और मुसलमान अपने बिरादराना सलूक व मनाई जाने लगी है और उसके निमित्तसे अजैन बाहमी हमदर्दीके द्वारा आज जो अपने अपने लोग जानने लगे हैं कि जैनधर्म क्या चीज़ है,उसी धर्मप्रचारका कार्य कर रहे हैं, वह दूसरा नहीं कर तरह वीर-शासन दिवसके दिन जैनग्रन्थों, रहा है / भगवान महावीरके शासनमें रहते और पुस्तकों तथा ट्रेक्टोंके सुसम्पादन, लेखन तथा उसके अनुयायी कहते और उसके अनयायी कह- प्रकाशनके लिये खासतौर पर योजनाएँ की जानी . चाहियें, धन एकत्र किया जाना चाहिये और उस लाते तुम्हारा यह कर्तव्य हो जाता है कि तुम वीर एकत्रित धनसे प्रकाशित साहित्यको जैन-जैनेतर शासन-दिवसको सार्थक बनानेके लिये वीरभग- संसारमें सम्यकज्ञानको जाग्रत करने के लिये खब वानकी शिक्षाओं पर यथाशक्ति अमल करनेके प्रचारित करना चाहिये / उस दिन प्रातःकाल संकल्पके साथ साथ जैनधर्मके अलौकिक ज्ञानके पूजन विधानादि हो तो दूसरे समयोंमें कमसे कम प्रसारार्थ पैसा दान करो और कराओ, एक बडी वीर भगवानके महान् ज्ञानको प्रकाशमें लानेका समिति ग्रन्थ-प्रकाशनके लिये योग्य विद्वानोंकी क्रियात्मक उद्योग अवश्य होना चाहिये, तभी हम अपने उत्तर दायित्वको कुछ निभा सकेंगे / अन्यथा क़ायम करो, ताकि वह तुलनात्मक पद्धति, इति- हमें एक विद्वानके शब्दोंमें किंचित् परिवर्तनके हास और पुरातत्वके आधारपर जैनधर्मके महत्व साथ कहना पड़ेगा कि- . पूर्णग्रन्थोंका नये ढंगसे उत्तम संपादन एवं प्रकाशन "न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ जिनधर्मके भक्तो ! कराए और धर्मके एक एक तत्त्व-उसके एक- तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में // " एक पहलू पर छोटे छोटे किन्तु सुन्दर और अल्प आशा है वीर भगवान और उनके शासनके मूल्य पर बेचेजानेवाले सरल और सीधे शब्दोंमें भक्त मेरे इस निवेदन और सामयिक सूचन पर ट्रेक्ट तथा पुस्तकें पुरस्कार दे देकर लिखाए और अवश्य ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और आने वाले उन्हें लाखोंकी तादादमें छपानेमें स्वतंत्र रहे / उसे वीर जयन्तीके पुण्य-दिवस (श्रावणकृष्णाप्रतिपदा) धनकी कमी न रहना चाहिये / चन्देसे पर्वोमें. पर शासन-सम्बन्धमें अपने उपयुक्त कर्तव्य तथा जन्म, मरण, शादी और अन्य संस्कारोंमें योग्य , उत्तरदायित्वको पूरा करने के लिये अभीसे उसकी तय्यारी करेंगे। दान देकर उसका कोष बढ़ाओ और आवश्यकता Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक ले-श्री जयभगवानजी बी० ए० वकील ] चान्तिम जैनतीर्थकर श्रीवीर भगवान् ने विपुलाचल पर्वत तबसे तू क्या जाने, क्षितिजमें कितने सांझ सवेरे नपर संसारी आरमाको लक्ष्य करके उसके उद्धारार्थ हुए, और विलय हो गये। नभमें कितनी अँधयारी जो सारभूत दिव्य उपदेश दिया था उसकी एक झलक चांदनी रातें आई और चली गई / भूपर कितने ऋतुइस प्रकार है: चक्र नाचे और उड़ गये / लोकमें कितने युग उठे ऐ जीव ! तू अजर अमर है, महाशक्तिशाली और और बैठ गये / संसारमें कितने संग्रह बने और बिखर सारपूर्ण है / और यह दीखनेवाला जगत क्षणिक है, गये / जगमें कितने नाटक-पट खुले और बन्द हो गये। असमर्थ और निःसार है। तू इससे न्यारा है और यह जीवनमें कितने साथी मिले और बिछुड़ गये। तुझसे न्यारा है। ये सब अतीतकालकी स्मृतियां हैं। गई-गुजरी क परन्तु अनादि मिथ्यात्ववश तू शरीरको स्वात्मा, विषय- हानियाँ हैं / परन्तु ये गई कहाँ ? इनके संस्कार प्राज भोगको सुख, परिग्रहको सम्पदा, नामको वैभव, रूपको भी तेरी चाल ढाल, तेरे हावभाव, तेरी इच्छा कामना सुन्दरता और पशुबलको वीरता मानता रहा है। और तेरी प्रकृति में अंकित हैं / इन सबको अपनी सत्ता___ मोहवश इनके लाभको अपना लाभ, इनकी वृद्धि- में उठाये तू अभी तक अनथक चला जा रहा है। वही को अपनी वृद्धि, इनके हासको अपना हास और इनके वेदना, वही उत्साह और वही उद्यम ! कालजीर्ण हो नाशको अपना नाश समझता रहा है। इसीलिए तू गया, लोकजीर्ण हो गये, युगयुगान्तर जीर्ण होगये; उन्मत्तसमान कभी खुश हो हँसता है और कभी दुःखी परन्तु तू अभी तक अजीर्ण है, नवीन है, सनातन है। हो रोता है। क्या यह सब कुछ तेरी अमरता और जगकी क्षणिइसी मायाकी प्राशासे छला तू निरन्तर भवभ्रमण कताका सबूत नहीं ? क्या यह तेरी अलौकिक शक्ति कर रहा है मृत्यु-द्वारसे हो निरन्तर एक घाटसे दूसरे और जगकी असमर्थताका प्रमाण नहीं ? क्या यह घाटपर जा रहा है। / तेरी सारपूर्णता और जगकी निस्सारताका उदाहरण प्रमादवश तु इस माया प्रपंचमें ऐसा तल्लीन है नहीं ? कि तुझे हरएक लोक पहला ही लोक और हरएक जीवन परन्तु हा ! तू अभी तक अपनेको मरणशील, पहला ही जीवन दिखाई देता है / तुझे पता नहीं कि असमर्थ निस्सार मानता हुआ मरीचिका-समान जगकी तू बहुत पुराना पथिक है / तुझे चलते, ठहरते, देखते, झूठी आशाओं में उलझा हुआ है / तू अभी तक इसकी विदा होते और पुनः पुनः उदय होते अनन्तकाल बीत ही बालक्रीडाओं, गुण-लालसाओं और प्रौढ चिन्ताओं में गया है। संलग्न है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 अरे मूढ ! पुत्र-कलत्र, गृह-वाटिका, धन-दौलत. कठिन है। जिन्हें तू अपने समझना है, वे तेरे कहाँ हैं ? ममत्व- तुझे पता नहीं,जीवको अपनी क्षण क्षण मरने जीने भावसे हो त उनके साथ बँधा है / ममस्व तोड़ और वाली निगोद दशासे ऊपर उठ, मनुष्यभव तक पहुँचनेदेख, वे स्वभाव, क्षेत्र, काल आदि सब ही अपेक्षाओंसे में कितनी कितनी बाधाओं और आपदाओंसे लड़ना तुझसे भिन्न हैं। वे न तेरे साथ पाये हैं, न तेरे साथ पड़ा है। कितनी असफलताओं और निराशाओंका जायेंगे / न वे तेरे रोग, शोक, जरा मृत्युको हरण करने मुँह देखना पड़ा है कितनी भूलों और सुधारों में से वाले हैं / वे सब नाशवान हैं। इनके मोहमें पड़कर निकलना पड़ा है / जीवनका उत्कर्षमार्ग अगणित मौत. सु क्यों व्यर्थ ही अपनेको खोता है ? के दरोंमेंसे होकर गुजरता है और शोक-संतापकी वे तो क्या, यह शरीर भी, जिसपरतू इतना छायासे सदा ढका है / मनुष्यभव इसी उस्कर्षमार्ग मोहित है, जिसकी तू अहर्निश सेवा करता है, तु नहीं की अंतिम मंजिल है। है। यह तेरो एक कृत्ति है, जो कि प्रकृतिका सहारा यहां ही जीवको पहली बार उस वेदनाका अनुभव ले जीवन उत्थानके लिये रची गई है। इसका पोषण होता है जो उसे दुःखसे सुखकी ओर, मृत्युसे अमृतजीवन उत्कर्षके लिये है,जीवन इसके पोषणके लिये नहीं की ओर, नीचे से ऊपरकी अोर, विकल्पोंसे एकताकी है / ज़रा स्वचारहित इसके स्वरूपको तो विचार / यह पोर, बाहिरसे अन्दरकी अोर लखानेको मजबूर कतना घिनावना और दुर्गन्धमय है / यह अस्थिपंजर- करती है। से बना हुआ है, माँससे विलेपित है, मलमूत्र और यहाँ ही पहली बार उस सुबुद्धिका विकास होता कृमिकुल से भरा है। इसके द्वारोंसे निरन्तर मल झर है जो इसे हेय उपादेय हित अहित, निज परमें विवेक रहा है। कौन बुद्धिवर इसे अपनाएगा? करना सिखाती है। तेरा शरीर पानीके बुलबुले के समान क्षणिक है। यहाँ ही पहली बार उस अलौकिक दृष्टिका उदय तेरा अायु कालगतिके साथ क्षण क्षण क्षीण हो रही होता है जो इसे लौकिक क्षेत्रोंसे ऊपर अलौकिक क्षेत्रोंहै और तेरा यौवन स्वप्नलीलाके समान नितान्त का भान कराती है / जो इसे शिल्पिक, नैतिक, वैज्ञा जरामें बदल रहा है। तुझे अपने भविष्यका तनिक निक और पारमार्थिक क्षेत्रोंका दर्शन कराती है / भी ध्यान नहीं / परन्तु मृत्यु निरन्तर तेरी ओर ताक यहाँ ही पहली बार अर्थशक्ति की वह प्रेरणा अनुलगाये बैठी है। भव होती है जो इसके पुरुषार्थको भौतिक उद्योगोंसे __ हे मानव ! तू व्यर्थही इस मनुष्य भवको व्यसनोंमें उठा अलौकिक उद्योगोंकी अोर लगाती है। सना हुआ, श्राहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रहमें लगा हुआ यहाँ ही पहली बार उस अवस्थाकी आवश्यकता बरबाद न कर यह मनुष्यभव चिंतामणि रत्नके समान मालूम होती है जो इसे स्वच्छन्दता, सुखशीलताको महामूल्यवान, महादुर्लभ और महाकष्टसाध्य पदार्थ छोड़ यम नियम. व्यवहार रोति, संस्था. प्रथा धारण है / जीवनमें रूप-श्राकार, भोग विलास, कंचन-कामिनी करनेकी प्रेरणा करती है। सब ही मिल सकते हैं; परंतु मनुष्यभव मिलना बहुत यहाँ ही पहली बार वह धर्मवृक्ष अंकुरित होता है Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] वीरके दिव्य उपदेशकी एक झलक भारमश्रद्धा जिसका मूल है,, साम्यता जिसकी स्निग्ध दिये हैं। काया है। दया जिसका मद है। आत्मज्ञान जिसका ऐ भव्यात्मा ! यदि तू वास्तवमें बुद्धिमान है। प्रफुल्ल पुष्प है / त्याग जिसका सौरभ है और अमर स्वहितेषी है और उद्यमी है तो अब ऐसी योजन कर जिसका फल है। कि तुझे फिर अधोगति जाना न पड़े। बारबार मृत्युके इन्हीं अलौकिक शक्तियों के कारण मनुष्यभव सबसे चक्करमें गिरना न पड़े। बहुत काल बीत चुका है / महान् है, प्रधान है और अमूल्य है। उसका एक समय भी अब किसी प्रकार वापिस नहीं परन्तु हा ! जीवन मानवी शरीरसे उभर भौतिक हो सकता है / जो काल बाकी है बड़ी तेजीके साथ क्षेत्रसे जितना ऊँचा उठा, जितना इसकी बुद्धि, पाच- गुजर रहा है / देरका अवसर नहीं ! प्रमाद छोड़, जाग रण और पुरुषार्थका विकास बढ़ा, जितना इसकी दुःख और खड़ा हो / जो कल करना है वह श्राज कर, जो अनुभूति और दुःख निवृतिकी कामनाने ज़ोर पकड़ा, आज करना है वह अब कर / जितना दुःखसमस्याको हल करनेके लिये इसने जीवन इससे पहिले कि मृत्यु अपनी टंकारसे तेरे प्राणोंको नगतको देखने, जानने और सुखमार्ग खोजनेका परिश्रम घायल करे, और तेरा शरीर पके हुए पातके समान किरा / उतना ही उतना इसकी भूल भ्रान्तियोंने, आयुडालसे टूटकर धराशायी हो, तू इसे आत्मसाधनाइसकी मिथ्या कल्पनाओं और मान्यताओंने भी जोर में लगादे। पकड़ा / इसकी आशायें और लालसायें भी विचित्र दिलकी ग्रन्थियोंको तोड़, संशय छोड़, निशंक हुई / इसका विकल्पप्रपञ्च और विमोह भी विस्तीर्ण बन, अपनेमें विश्वास धर कि तू तू ही है। तू सबमें है, सब तुझमें हैं पर तुझ सिवा तुझमें नहीं। ___ इन ही नवीन भ्रान्तियों, मान्यताओं और श्रा- मोहजालके तार तार कर, अन्दर बैठ, निर्वात हो शाओंके कारण इसकी बाधायें और विपदायें भी सबसे दीपक जगा और देख, तू कितना ऊँचा और महान है। गहन हैं। इसकी समस्यायें और जिम्मेवारियाँ भी इसमें ईर्षा और द्वेष कहाँ है / तू कितना सोहना सु. सबसे जटिल हैं। ___न्दर है, इसमें प्रारमअरुचि और परासक्ति कहाँ है। . पाशाके इन पाशोंमें फँसकर तनिक गिरना शुरू मेरा तेरा छोड़, जगसे मुँह मोड़, निर्भय बन, हुआ कि पतनका ठिकाना नहीं। फिर वह रोके नहीं अपने ही में लीन हो, और अनुभव कर, तू कितना रुकता / सीधा रसातलकी ही राह लेता है। मधुर और प्रानन्दमय है / इसमें दुःख कहाँ और शोक ओह ! मोहजालके इन मृदु तारोंने, झूठी प्रा- कहाँ है / तू कितना परिपूर्ण है इसमें राग और इच्छा शाओंकी मधुर मुस्कानने तुझ समान समुन्नत, समु. की गुब्जाइश कहाँ है। तू तो निरा अमृत सरोवर है ज्ज्वल अनेक जीवन बान्ध बान्धकर रसातलको पहुँचा इसमें जरा और मृत्यु कहाँ है। हुआ। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-परिचय और समालोचन 5. ... [अनेकान्तमें 'साहित्य परिचय और समालोचन' नामका एक स्तम्भ रखनेका बहुत दिनोंसे विचार चल रहा है। अनवकारणदि कुछ कारणोंके वश अबतक उसका प्रारम्भ नहीं हो सका था, अब इस वर्षके इसी अङ्कसे उसका प्रारम्भ किया जाता है / इस स्तम्भके नीचे समालोचनार्थ तथा भेट स्वरूप प्राप्त साहित्यका परिचय रहेगा। सामान्यपरिचय प्रायः प्रातिके समय ही दे दिया जाया करेगा-सामान्य प्रालोचन भी उसी समय हो सकेगा। विशेष परिचय और विशेष समालोचनका कार्य बादको यथावकाश हुआ करेगा और वह उन्हीं ग्रन्थों-पुस्तकों आदिका हो सकेगा जिनके विषयमें वैसा करना उचित और श्रावश्यक समझा जायगा / हाँ, दूसरे विद्वान् यदि किसी ग्रन्थादिकी समालोचना खास अनेकान्तके लिये लिखकर भेजनेकी कृपा करेंगे तो उसे भी, उनके नामके साथ, इस स्तम्भके नीचे स्थान दिया जासकेगा। -सम्पादक ... (1) अकलंकग्रंथत्रयम्--मूल लेखक, भट्टाक- सका, इसीसे वह साथमें नहीं दिया जासका / इन लकदेव / सम्पादक, न्यायाचार्य पं०महेन्द्रकुमारजी स्वोपज्ञभाष्यों तथा प्रमाण संग्रहके अकलंक द्वारा जैन शास्त्री, न्यायाध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय रचे जानेकी सबसे पहले सूचना अनेकान्त द्वारा बनारस / प्रकाशक, मुनिजिनविजय, संचालक सन् 1930 में की गई थी और इनको तथा 'सिंघी जैनग्रंथमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता / न्यायविनिश्चय मूलको खोज निकालनेकी प्रेरणा बड़ा साइज पृष्ठ सं०, सब मिलाकर 520 / मूल्य, भी की गई थी। साथ ही, समन्तभद्राश्रम-विज्ञप्ति सजिल्द 5) रु०। . नं०४ के द्वारा दूसरे ग्रन्थोंके साथ इन ग्रन्थोंको _ यह कलकत्ताके प्रसिद्ध श्वे० सेठ श्री बहादुर भी खोजने के लिये पारितोषिककी सूचना निकाली . सिंहजी सिंघीकी ओरसे उनके पूज्य पिता श्री गई थी / / लुप्तप्राय जैन ग्रन्थांकी खोज-सम्बन्धी डालचन्दजी सिंघीकी पुण्यस्मृतिमें निकलने वाली मेरे इस आन्दोलनके फलस्वरूप इन ग्रंथोंका उद्धार 'सिंघी जैनग्रंथमालाका 12 वाँ ग्रन्थ है / इसमें होनेस मेरी महती प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है, श्रीभट्टाकलंकदेव-विरचित उच्चकोटि के न्यायविषयक और इसलिये मैंने इन ग्रन्थोंके उद्धार संबन्धी शुभ तीन संस्कृत ग्रन्थोंका संग्रह है, जिनमेंसे एकका - * देखो, अनेकान्त प्रथम वर्षकी प्रथम किरणमें प्रकाशित नाम 'लघीयस्त्रय' है, जो कि प्रमाण-नय-प्रवचन लुप्तप्रायजैन ग्रंथोंकी खोज-विषयक विज्ञप्ति नं०३ और विषयक तीन लघु प्रकरणोंको लिये हुए है; दूसरेका तीसरी किरणमें प्रकाशित 'पुरानी बातोंकी खोज' नाम 'न्यायविनिश्चय'और तीसरेका 'प्रमाण संग्रह' शीर्षकके नीचे,'अकलंक ग्रन्थ और उनके स्वोपज्ञभाष्य' है / पहले तथा तीसरे ग्रंथकेसाथ खुद भट्टाकलंक नामका उपशीर्षक लेख। देव विरचित स्वोपन्नभाष्य भी लगा हुआ है, दूसरे ग्रन्थका स्वोपज्ञभाष्य उपलब्ध नहीं हो / देखो, अनेकान्त वर्ष 1 किरण / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य-परिचय और समालोचन समाचारको गतवर्षके अनेकान्तकी प्रथम किरणमें वे बधाईके पात्र हैं। उनकी प्रस्तावनाको पूर्णरूपसे ही प्रकट कर दिया था (पृ० 103) और यह भी देखनेका यद्यपि मुझे अभी तक यथेष्ट अवसर नहीं सूचित कर दिया था कि ये ग्रंथ सिंघी जैन-ग्रंथ- मिल सका, फिर भी उसके कुछ अंशों पर सरसरी मालामें छप गये हैं और जल्दी ही भूमिकादिसे तौरसे नजर डालभे पर उसमें विद्वानोंके लिये सुसज्जित होकर प्रकाशित होने वाले हैं, परन्तु विचारकी काफी सामग्री मालम होती है / कितनी इनके प्रकाशनमें पूरा एक साल और लग गया। ही बातें विशेष विचारके योग्य भी हैं; जैसे और इसलिये अब अक्टूबर में प्रकाशित होकर अकलंकका समय, जिसे उन्होंने विक्रमकी ७वीं आने पर मुझे सबसे पहले इस स्तम्भके नीचे इन्हीं शताब्दीके स्थानपर ८वीं-९वीं शताब्दी सिद्ध करनेका संक्षिप्त परिचय देनेमें आनन्द मालूम होता है ! का यत्न किया है। इस संग्रहमें 'न्यायविनिश्चय' के साथ उसके दिगम्बर सम्प्रदायके इन लुप्तप्राय महत्वपूर्ण वादिराजसूरिकृत विवरणपरसे कारिकाओंके ग्रन्थरत्नोंका एक श्वेताम्बर-संस्था (सिंघी-जैनउत्थान-वाक्योंको ज्योंका त्यों तथा संक्षेपमें उद्धृत ज्ञानपीठ ) द्वारा उद्धार देखकर, जहाँ दिगम्बरकिया गया है, जिससे कारिकाओंका अर्थ समझने समाजकी अपने साहित्यके प्रति उपेक्षा-उदासीनता, और उनके सम्बन्धको मालूम करनेमें आसानी हो; और कर्तव्यविमुखता पर खेद होता है वहाँ श्वेतीनों ग्रन्थों पर जुदी-जुदी टिप्पणियाँ अलग दी ताम्बर भाइयोंको इस उदारता, दूरदृष्टिता और गई हैं; तीनोंका विषयानुक्रम भी साथमें लगाया गुणग्राहकताकी प्रशंसा किये बिना भी नहीं रहा गया है; 9 उपयोगी परिशिष्ट दिये हैं, जिनमें इन जाता। इसके लिये सिंघी जैनग्रंथमालाके सुसंचा. ग्रन्थोंके कारिकाओंकी अनुक्रमणिकाएँ, अवतरण लक मुनि श्रीजिनविजय, उसके संस्थापक एवं वाक्योंकी सूचियाँ और सभी दार्शनिक तथा लाक्ष- पोषक उदारचेता बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी और णिक शब्दोंकी सूची खास तौरसे उल्लेखनीय हैं। इन ग्रंथोंके इस तरह प्रकाशनकी योजना तथा इनके अतिरिक्त ग्रंथके शुरूमें क्रमशः ग्रंथमालाके प्रेरणा करनेवाले समर्थ विद्वान प्रज्ञाचक्षु पं० सुखमुख्य सम्पादक श्री जिनविजयजीका 'प्रास्ताविक', लालजी विशेष धन्यवादके पात्र हैं। इस प्रकारके पं० सुखलालजी संघवी दर्शनाध्यापक हिन्दू प्रयत्न निःसन्देह साम्प्रदायिक कट्टरताको मिटाने के विश्वविद्यालय, काशीका 'प्राक्कथन', न्यायाचार्य प्रधान साधन हैं, और इसलिये मैं इनका हृदयसे पं० महेन्द्रकुमारजीका 'सम्पादकीय वक्तव्य' और अभिनन्दन करता हूँ। लिखे गये हैं, सब मिलकर ग्रन्थकी उपयोगिताको भी अच्छा पुष्ट लगाया है और जिल्द सुन्दर तथा बहुत ज्यादा बढ़ा रहे हैं / इस ग्रंथके सम्पादनमें मनोमोहक है / परिश्रमादिको देखते हुए मूल्य भी न्यायाचार्यजीने काफी परिश्रम किया है और उस- अधिक नहीं है। संक्षेपमें ग्रन्थ विद्वानोंके अपने के कारण उन्हें जो सफलता मिली है उसके लिये पास रखने, मनन करने और लायब्रेरियों, ज्ञान Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 अनेकान्त " [वर्ष 3, किरण 1 मन्दिरों, विद्यालयों तथा शिक्षा संस्थाओंमें संग्रह रामजी प्रेमी, बम्बईने प्रो० साहबको इस ग्रन्थके करनेके योग्य है। सम्पादनके लिये प्रेरित किया, उसीका फल प्रन्थका (2) वराङ्गचरित-मूल लेखक, श्री जटासिंह यह प्रथम संस्करण है और यह उक्त ग्रन्थमालाका नन्दिाचार्य / सम्पादक, प्रोफेसर ए० एन० 40 वां ग्रन्थ है। . उपाध्याय, राजाराम कालिज कोल्हापुर / प्रकाशक, ग्रन्थका विषय उसके नामसे ही स्पष्ट है। पं० नाथूराम प्रेमी, मंत्री 'माणिकचन्द्र दिगम्बर यह 'वराङ्ग' नामके एक राजकुमारकी कथा है, जो जैनग्रंथमाला, हीराबाग, बम्बई 4 / साइज़, अपनी विमाता मृगसेनाके डाह एवं षडयन्त्रके 20430, 16 पेजी। पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर कारण अनेक संकटोंमें गुजरता हुआ और 497 / मूल्य, सजिल्द 3) रु०। अपनी योग्यतासे उन्हें पार करता हुआ अन्तको ___ यह प्राचीन संस्कृत ग्रंथ भी उन लुप्तप्राय जैन- अपना नया स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में समर्थ ग्रन्थों में से है जिनके उद्धारार्थ-आजसे दस वर्ष हुआ और जिसने बादको जैनमुनि होकर भगवान पहले अनेकान्तमें समन्तभद्राश्रम-विज्ञप्तियोंके नेमिनाथके तीर्थमें मुक्ति लाभ किया और इस द्वारा आन्दोलन उठाया गया था और पारितोषिक तरह अपना उत्कर्ष सिद्ध करके पूर्ण स्वाधीनताभी निकाला गया था। इसके उद्धारका सारा श्रेय मय सिद्धपदकी प्राप्ति की। कथा रोचक है; 31 इसके सुयोग्य सम्पादक प्रोफेसर ए० एन० (आदि. सोंमें वर्णित है और प्राचीन साहित्यका एक नाथ नेमिनाथ ) उपाध्यायजीको है, जिन्होंने सब अच्छा नमूना प्रस्तुत करती है। से पहले कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन भट्टारकके मठसे प्रो०साहबने इस ग्रन्थका सम्पादन बड़ी योग्यइसकी एक पुरानी ताडपत्रीय प्रतिका खोज निकाला ता तथा परिश्रमके साथ किया है / आप सम्पादन और उसका परिचय पूनाके 'एनल्स आफ दि कलामें खूब सिद्धहस्त हैं,इससे पहले प्रवचनसार भाण्डारकर आरियटल रिसर्च इन्स्टिट चट' नामक और परमात्मप्रकाश | नामक ग्रन्थका उत्तम अंग्रेजी पत्रकी 14 वीं जिल्द के अंक नं० 102 में सम्पादन करके अच्छी ख्याति लाभ कर चुके हैं। प्रकट किया। साथही यह भी सप्रमाण प्रकट किया बम्बई यूनिवर्सिटीने आपके उत्तम सम्पादनके कि इस वरांगचरितके रचयिता आचार्य जटासिंह कारण ही इस ग्रन्थ के प्रकाशन में 250 रु० की नन्दी हैं, जिन्हें जटिलमुनि भी कहते हैं और जो सहायता प्रदान की है, प्रवचनसारकी प्रस्तावना ई० सन् 778 से पहले हुए हैं-श्रीजिनसेनाचार्य पर भी वह पहले 250 रु० पुरस्कारमें दे चुकी है कृत हरिवंशपुराणके एक उल्लेख परसे इसे जो पद्म- और हालमें उसने प्रो० साहबको डाक्टर आफ चरितके कर्ता रविषेणाचार्यकी कृति समझ लिया लिटरेचर (डी० लिट०) की उपाधि से विभूषित गया था वह उस उल्लेखको ठीक न समझनेको इस ग्रन्थकी विस्तृत समालोचनाके लिये देखो, गलतीका परिणाम था / उक्त परिचयको पाकर जैन सिद्धान्त भास्करमें प्रकाशित 'प्रवचनसारका नया माणिकचन्द ग्रन्थमालाके सुयोग्य मंत्री पं० नाथू. संस्करण' नामक लेख / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य-परिचय और समालोचन कर विशेषरूपसे सम्मानित भी किया है / ऐसी नामोंकी भी एक पंचपृष्ठात्मक अनुक्रमणिका हालतमें आपकी सम्पादन योग्यताके विषयमें लगाई गई है। इस तरह ग्रन्थके इस संस्करणको अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। बहुत कुछ उपयोगी बनाया गया है / छपाई सफाई ____ इस ग्रन्थके साथमें प्रो० साहबकी 56 पृष्ठों- अच्छी और गेट अप भी ठीक है। ग्रन्थ सब तरहसे की अंग्रेजी प्रस्तावना देखने योग्य है, जिसका संग्रह करने योग्य है / प्रन्थके इस उद्धार कार्यके हिन्दी सार भी पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीसे लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवादके लिखाकर साथमें लगा दिया गया है और इससे पात्र हैं / हाँ, ग्रन्थका मूल्य अधिक नहीं तो कम हिन्दी जानने वाल भी उससे कितना ही लाभ भी नहीं है / खेद है कि माणिकचंद ग्रंथमालाको उठा सकते हैं। प्रस्तावनामें (1) सम्पादनोपयुक्त- दिगम्बर जैनसमाजका बहुत ही कम सहयोग सामग्री (2) मूलका संगठन (3) मूलके रचयिता प्राप्त है। उसकी आर्थिक स्थिति बड़ी ही शोच. (4) जटासिंहनन्दि आचार्य, (5) जटामिएनन्दी- नीय है, ग्रंथ बिकते नहीं, उनका भारी स्टाक पड़ा का समय और उनकी दूसरी रचनाएँ, इन विषयों हुआ है / इसीसे वह अब अपने ग्रंथोंका मूल्य पर प्रकाश डालनेके बाद (6) वरांग चरितका कम रखनेमें असमर्थ जान पड़ती है। दिगम्बर आलोचनात्मक-गणदोषनात्मक और तुलनात्मक जैनोंका अपने साहित्यके प्रति यह अप्रेम और परिचय कराया गया है, जिसमें ग्रन्थ-विषयका सार उपेक्षाभाव निःसन्देह खेदजनक ही नहीं, बल्कि काव्यके रूपमें धर्मकथा, ग्रंथमेसे दान्तिक उनकी भावी उन्नतिमें बहुत बड़ा बाधक है / आशा वर्णन वादानुवादात्मक स्थलोंका निर्देश, तत्का- है समाजका ध्यान इस ओर जायगा, और वह लीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितिका अधिक नहीं तो मन्दिरोंके द्रव्यसे ही प्रकाशित दिग्दर्शन, अश्वघोष और जटिल, वराङ्ग चरित ग्रंथोंसे शीघ्र खरीद कर उन्हें मन्दिरोंमें रखनेकी और उत्तरकालीन ग्रन्थकार, ग्रन्थकी व्याकरण योजना करेगा, जिससे अन्य ग्रंथोंके प्रकाशनको सम्बन्धी विशेषताएँ, ग्रन्थके छन्द और ग्रन्थको अवसर मिल सके। रचनाशैली जैसी विषयोंका समावेश किया गया (3) तत्त्वार्थसूत्र-(हिन्दी अनुवादादि सहित) है और अन्त में (7) दूसरे चार वरांग-चरितोंका मूललेखक, आचार्य उमास्वाति / अनुवादक और परिचय देकर प्रस्तावनाको समाप्त किया है। विवेचक, पं० सुखलालजी संघवी, प्रधान जैनप्रस्तावनाके बाद सर्ग क्रमसे ग्रन्थका विषयानु- दर्शनाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस / क्रम दिया है / ग्रन्थके पदोंकी वर्णानुक्रम सूची सम्पादक पं० कृष्णचन्द्र जैनागम दर्शन-शास्त्री, भी ग्रन्थ मेंलगाई गई है / इनके अतिरिक्त सर्ग- अधिष्ठाता श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस / क्रमसे पद्योंकी सूचनाको साथमें लिए हुए तथा पं० दलसुख मालवणिया, न्यायतीर्थ, जैनकुछ महत्वकी टिप्पणियां (Notes) भी अंग्रेजीमें गमाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस / अलग दी गई हैं। और ग्रन्थमें पायेजानेवाले प्रकाशक श्री मोहनलाल दीपचन्द्र चोकसी, मंत्री Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 mumentaronunction जैनाचार्य श्री आत्मानन्द-जन्म-शताब्दी-स्मारक गुजरातीका अनुवाद होने पर भी इसमें अनेक ट्रस्ट बोर्ड, बाबा कांटा, बहोरानो जूनोमालो चौथा महत्वके सुधार तथा परिवर्धन भी किये गये हैं। माला, बम्बई न०३ / मूल्य 11 // ) रु०। पहलेके कुछ विचार जो बादमें विशेष आधार यह ग्रन्थ प्रायः पूर्वमें प्रकाशित अपने गुजराती वाले नहीं जान पड़े उन्हें निकाल कर उनके स्थानमें संस्करणका, कुछ संशोधन और परिवर्धनके साथ, नये प्रमाणों और नये अध्ययनके आधार पर खास हिन्दीरूपान्तर है / इस संस्करणकी मुख्य दो विशेष- महत्वकी बातें लिख दी हैं / उमास्वाति श्वेताम्बर ताएँ हैं / एक तो इसमें पारिभाषिक शब्दकोष और परम्पराके थे और उनका सभाष्य तत्वार्थ सचेलसटिप्पण मूलसूत्रपाठ जोड़ा गया है, जिनमेंसे शब्द- पक्षके श्रुतके आधार पर ही बना है यह वस्तु कोषको पं० श्रीकृष्णचन्द्रजी सम्पादकने और सत्र- बतलानेके वास्ते दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय श्रत पाठको पं० दलसुखभाई सम्पादकने तय्यार किया व आचार भेदका इतिहास दिया गया है और अचेल है। ये दोनों उपयोगी चीजें गुजराती संस्करणमें तथा सचेल पक्षके पारस्परिक सम्बन्ध और भेदके नहीं थीं / इनके तय्यार करने में जो दृष्टि रक्खी ऊपर थोड़ा सा प्रकाश डाला गया है, जो गुजराती गई है वह पं० सुखलालजीके वक्तव्य के शब्दोंमें परिचयमें न था / भाष्य के टीकाकार सिद्धसेन इस प्रकार है गणि ही गंधहस्ती हैं ऐसी जो मान्यता मैंने गुज“पारिभाषिक शब्दकोश इस दृष्टिसे तय्यार राती परिचयमें स्थिरकी थी उसका नये अकाट्य किया है कि सूत्र और विवेचन-गत सभी जैन- प्रमाणके द्वारा हिन्दी परिचयमें समर्थन किया है जैनेतर पारिभाषिक व दार्शनिक शब्द संग्रहीत हो और गन्धहस्ती तथा हरिभद्र के पारस्परिक सम्बन्ध जायँ, जो कोशकी दृष्टिसे तथा विषय चुननेकी एवं पौर्वापर्य के विषय में भी पुनर्विचार किया गया दृष्टि से उपयुक्त हो सकें। इस कोषमें जैनतत्त्वज्ञान है। साथ ही दिगम्बर परम्परामें प्रचलित समन्त और जैन आचारसे सम्बन्ध रखने वाले प्रायः भद्रकी गंधहस्तित्वविषयक मान्यताको निराधार सभी शब्द आजाते हैं। और साथही उनके प्रयोगके बतलानेका नया प्रयत्न किया है। गुजराती परिचय * स्थान भी मालूम हो जाते हैं। सूत्रपाठमें श्वेता- में भाष्यगत् प्रशस्तिका अर्थ लिखने में जो भ्रांति म्बरीय और दिगम्बरीय दोनों सूत्रपाठ तो हैं ही रह गई थी उसे इस जगह सुधार लिया है। और फिर भी अभी तकके छपे हुए सूत्रपाठोंमें नहीं उमास्वातिकी तटस्थ परम्पराके बारेमें जो मैंने आए ऐसे सूत्र दोनों परम्पराओंके व्याख्या-ग्रन्थोंको कल्पना विचारार्थ रखी थी उसको भी निराधार देखकर इसमें प्रथमवार ही टिप्पणीमें दिये गये समझकर इस संस्करणमें स्थान नहीं दिया है। भाष्यवृत्तिकार हरिभद्र कौनसे हरिभद्र थे-यह वस्तु दूसरी विशेषता परिचय-प्रस्तावनाकी है, और गुजराती परिचयमें संदिग्ध रूपमें थी जब कि इस जो पं० सुखलालजीके शब्दोंमें इसप्रकार है-. हिन्दी परिचयमें याकिनीसू रूपसे उन हरिभद्रका "प्रस्तुत आवृत्तिमें छपा परिचय सामान्यरूपसे निर्णय स्थिर किया है।" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य-परिचय और समालोचना / अर्थात् प्रथम वर्षके अनेकान्तकी 6 से 12 पं०बेचरदास / अंग्रेजीमें प्रस्तावनाऽनुवादक, प्रो० नम्बर तककी किरणोंमें पं० सुखलालजीके जो ए०बी० आथवले, एम०ए०; मूल तथा टीकानुवादक तीन लेख–१ तत्त्वार्थसूत्रके प्रणेता उमास्वाति; 2 प्रो० ए० एस० गोपनी, एम० ए०। सम्पादक, उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र, 3 तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्या. पं०दलसुख मालवनिया प्रकाशक, सैक्रेटरी श्री जैन, कार और व्याख्याएँ, इन शीर्षकोंके साथ-गुजरा- श्वेताम्बर एजुकेशन बोर्ड, 20 पायधुनी, बम्बई ती संस्करणके परिचय प्रस्तावनापरसे अनुवादित 3 / पृष्ट संख्या, 416 / मूल्य, 1) रु०। .. कर कुछ क्रमभेदके साथ दिये गये थे, वे सब सन्मतितर्क पर पं० सुखलाल और पं० बेचरइस संस्करणमें उक्त विशेषताके अनुरूप संशोधित दासजीने जो पहले सन् 1933 में गुजराती टीका और परिवर्तित होकर दिये गये हैं। और इसलिये तथा प्रस्तावना लिखी थी उसीका यह ग्रंथ मूलयह दूसरी विशेषता विद्वानोंके सामने कितनी ही कारिकाओंके साथ अँग्रेजी अनुवाद है, जो उक्त नई बातें विचारके लिये प्रस्तुत करती है / पं० दो विद्वानोंसे कराया गया है। साथमें नामादिसुखलालजीकी दृष्टिमें अब तत्त्वार्थाधिगमसूत्र विषयक दो उपयोगी Index भी लगाये गये पूर्णरूपसे श्वेताम्बरीय प्रन्थ है-उमास्वातिके और इस तरह उसके द्वारा अँग्रेजी जाननेवालों के दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदाय भेदसे भिन्न एक लिये सन्मतितर्कको पढ़ने-पढ़ाने और उसकी तटस्थं विद्वान होनेकी और इसीसे दोनों सम्प्रदायों महत्वपूर्ण प्रस्तावना (Introduction) से यथेष्ट द्वारा उनकी इस वृत्तिके अपनाये जानेकी जो लाभ उठानेका मार्ग सुगम किया गया है। पं०. कल्पना पहले उन्होंने की थी वह अब नहीं रही। सुखलालजी आदिका यह प्रयत्न प्रशंसनीय है / इस इस विशेषताकी कितनी ही बातों पर विशेष विचार ग्रंथके निर्माण तथा प्रकाशन कार्यमें श्रीमती लीलाप्रस्तुत करनेकी अपनी इच्छा है, जिसे यथावकाश वती धर्मपत्नी स्व० सेठ देवीदासकानजी बम्बईने बादको कार्यमें परिणत किया जायगा। 1100) रु० की और मास्टर रतनचन्द तलकचन्द ग्रन्थका यह संस्करण अनेक दृष्टियोंसे महत्व- जीने 300) रु० की सहायता प्रदान की है। पूर्ण है, हिन्दी-पाठकों के सामने विचारकी प्रचुर (5) श्री श्रात्मानन्द-जन्मशताब्दि-स्मारकग्रन्थ:सामग्री प्रस्तुत करता है, छपाई-सफाई भी इसकी सम्पादक, श्री मोहनलाल दलीचन्द देशाई, एडवो. सुन्दर हुई है और मूल्य 1 / / ) रु० तो प्रचारकी केट, बम्बई / प्रकाशक, श्री मगनलाल मूलचन्ददृष्टिसे कम रक्खा ही गया है, जबकि गुजराती शाह, मन्त्री श्री आत्मानन्द-जन्म-शताब्दि-स्मारकसंस्करणका मूल्य 21) रु० था। अतः ग्रंथ विद्वानों- समिति, बम्बई / मूल्य, 2 // ) रु०। के पढ़ने, विचारने तथा संग्रह करने के योग्य है। यह 'अनेकान्त'-साइजके आकारमें अनेका (4) सन्मतितर्क (अंग्रेजी अनुवाद सहित)- नेक लेखों तथा चित्रोंसे अलंकृत और कपड़ेकी सुन्दर मूलग्रन्थ लेखक, सिद्धसेनाचार्य, मूलगुजराती पुष्टजिल्दसे सुसज्जित 'कल्याण'केविशेषाङ्कों जैसाएक टीकाकार तथा प्रस्तावना लेखक, पं०सुखलाल व बहुत बड़ा दलदार ग्रन्थ है, जो श्वेताम्बर जैनाचार्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :104 अनेकान्त . वर्ष 3, किरण 1 श्रीमद्विजयानन्दसूरि, प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी सम्बन्ध रखते हैं और वे तिरंगे, फोटोके तथा महाराजकी जन्मशताब्दिकी स्मृतिमें एक समिती रेखा चित्रादि रूपसे अनेक प्रकार के हैं। स्थापित करके विशाल आयोजनके साथ निकाला गया है / इसमें लेखोंके मुख्य तीन विभाग हैं-- ___इस ग्रन्थमें लेखांका संग्रह तथा संकलन (1) अंग्रेजी, (2) हिन्दी और (3) गुजराती। अच्छा हुआ है। कितने ही लेख तो बड़े महत्वके अंग्रेजी लेखोंकी संख्या 35, हिन्दी लेखोंकी 40 हैं / 'जैनधर्म और अनेकान्त' नामका एक लेख और गुजराती लेखोंकी 58 है। गुजरातीके लेख उनमेंसे 'अनेकान्त' के गत् वर्षकी छठी किरणमें दो विभागोंमें बंटे हुए हैं--एक खास मुनि आ- उद्धृत भी किया गया था / चित्र भी कितने ही त्मारामजी-विषयक, जिनकी संख्या 26 है और मनमोहक तथा कामके हैं / संक्षेपमें अपने दूसरे अन्य विषयोंसे सम्बन्ध रखने वाले पाठकोंके लिये यह प्रन्थ अनुभव, विचार तथा जिनकी संख्या 32 है / अंग्रेजीके लेखोंकी मननकी अच्छी सामग्री प्रस्तुत करता है / छपाई पृष्ठ संख्या 190, हिन्दी लेखोंकी-(जिनमें कुछ सफाई और गेट-अप सब चित्ताकर्षक है, कागज संस्कृतके पद्य लेख भी शामिल हैं) 218, भी अच्छा चिकना तथा पुष्ट लगा है और मूल्यऔर गुजराती लेखोंकी 144+260 है / इनके का तो कहना ही क्या ! वह तो बहुत ही कम है अतिरिक्त सम्पादकीय वक्तव्य, प्रकाशकीय और स्मारक समितिकी प्रचार दृष्टिको सूचित निवेदन और लेखसूचियों आदिके पृष्ठोंका भी करता है। यदि इससे दुगना-पाँच रुपये-मूल्य यदि लेखा लगाया जाय तो ग्रंथकी कुल पृष्ठ संख्या भी रक्खा जाता तो भी कम ही होता / ऐसी हालत 850 के करीब होजाती है। चित्रोंकी कुल संख्या में कौन साहित्यप्रेमी है जो ऐसे ग्रन्थका संग्रह न 150 है, जिनमेंसे 29 अंग्रेजी विभागके साथ, करे ! श्वेताम्बर समाजका अपने वर्तमान युगीन 50 हिन्दी विभागके और 60 गुजराती लेखोंके एक सेवापरायण पूज्याचार्यके प्रति यह भक्ति साथ दिये हैं। शेष 11 चित्रोंमेंसे 9 तो लेखारम्भ- भाव और कृतज्ञता-प्रकाशनका आयोजन से पहले दिये हैं,एक शताब्दि नायकका सुन्दरचित्र निःसन्देह बड़ा ही स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है और बाहर कपड़ेकी जिल्दपर चिपकाया गया है और उसमें जीवनशक्तिके अस्तित्वको सूचित करता दूसरा जिल्दके भीतर ग्रन्थारम्भसे पहले छापा है। साथ ही दिगम्बर समाजके लिये ईर्षाके गया है। चित्र अनेक व्यक्तियों, संस्थाओं, जल्सों, योग्य है और उसके सामने इस दिशामें एक मंदिरों, मूर्तियों, शिलालेखों तथा हस्तलेखोंसे अच्छा कर्तव्यपाठ प्रस्तुत करता है। . Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि [लेखकः-- श्री बाबू सूरजभानजी वकील ] न शास्त्रोंके पढ़ने और पं० गोपालदास श्रादि अधिक न उलझने पावे / सारचौबीसी नामक ग्रन्थमें "विख्यात विद्वानोंके उपदेशोंसे अब तक यही मालम लिखा हैहुआ है कि जैनधर्म मूर्तिपूजक नहीं है किन्तु मूर्तिसे यत्रागारे जिनार्चाहो नास्ति पुण्यकरानणाम् / मूर्तिका तो काम लेनेके वास्ते ही वीतराग भगवान्की तद्गृहं धार्मिकैः प्रोक्तं पापवं पचि स भम // 11 // मूर्तियोंको मन्दिरोंमें स्थापित करनेकी आज्ञा देता है, अर्थात् --जिस घरमें मनुष्योंको पुण्य प्राप्त कराने जिससे अहंत भगवान्की वीतराग छविको देखकर, वाली जिनप्रतिमा नहीं है उस घरको धार्मिक पुरुष देखने वालोंके हृदयमें भी वीतराग भाव पैदा हों / जैन- पाप उपजानेवाला पक्षियोंका घर बताते हैं / इस ही धर्मका सार एकमात्र वीतरागता और विज्ञानता ही प्रकार पद्मपुराणके पर्व ६२वें में लिखा है-- है, यह ही मोनका कारण है / इन दोनोंमें भी एकमात्र अचप्रभृति यद्गेहे विवं जैनं न विद्यते। . वीतरागता ही विज्ञानताका कारण है / वीतरागतासे मारी भवति तद्व्याघ्री यथाऽनायं कुरंगकम् / / ही केवलज्ञान प्राप्त होता है और सर्व सुख मिलता है अर्थात्--जिस घरमें जिन प्रतिमा नहीं है उस इस ही वास्ते जैनधर्म एकमात्र वीतरागता पर ही ज़ोर घरको (घर वालोंको) मारी (प्लेग जैमी बीमारी) उसी देता है, जो वास्तवमें जीवात्माका वास्तविक स्वभाव तरह खाती है जिस तरह अभय हिरणको शेरनी। . वा धर्म है / उस ही वीतरागताकी प्राप्तिका मुख्यहेतु जैनधर्म वीतराग धर्म है, इस ही कारण वह परम वीतराग कथित जिनवाणीका श्रवण, मनन और पठन- वीतरागीदेव, वीतरागीगुरु और वीतरागताकी शिक्षा पाठन है, जिसमें वीतरागताकी मुख्यता श्रेष्टताको भली देनेवाले शास्त्रोंकी ही पूजा वंदना करनेकी आज्ञा देता भाँति दिखाया गया है और वस्तुस्वभाव तथा नय-प्रमा- है तथा रागीदेव, रागीसाधु और रागको पुष्ट करने ण के द्वारा हृदयमें बिठानेकी प्रचुर कोशिश की गई है। वाले शास्त्रोंको अनायतन ठहराकर उससे बिलकुल ही इस ही के साथ जिन्होंने वीतरागता प्राप्त कर अपना दूर रहने पर जोर देता है / वीतरागदेव, गुरु, शास्त्रको परमानन्दपद प्राप्त कर लिया है उनको वीतराग-मूर्तिके पूजा-प्रतिष्ठा वंदना-स्तुति भी वह किसी सांसारिक कार्य दर्शन होते रहना भी वीतरागभाव उत्पन्न करनेके की सिद्धि के वास्ते करना कतई मना करता है / इस वास्ते कुछ कम कारण नहीं है / इसीसे जैनशास्त्रोंमें प्रकारको काँक्षा रखने वालेको तो जैनधर्म सच्चा श्रद्धानी घर घर जिनप्रतिमा विराजती रहनेको अत्यन्त जरूरी ही नहीं मानता है; किन्तु मिथ्यात्वी ठहराता है। भक्ति बताया है, जिससे उठते-बैठते हरवक्त ही सबका ध्यान स्तुति-पूजा-पाठ आदि धर्मकी सब क्रिया तो वह एक वीतराग-मूर्ति पर पड़ता रहे और यह पापी मन संसारमें मात्र वैराग भाव हल करने के वास्ते ही ज़रूरी बताता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 इसही कारण तीर्थकर भगवानकी भक्ति भी एक मात्र तीर्थकरकी प्रतिमा है / किसी भी तीर्थकरकी हो परम उनकी वीतराग अवस्थाकी ही करनी ज़रूरी बताई जाती वीतराग रूप प्रतिमा ज़रूर होनी चाहिये, जिसके दर्शनसे है, जिससे वीतरागताका भाव पैदा हो, न कि उनकी वीतरागताका भाव हमारे हृदय में भी पैदा होने लग गृहस्थावस्थाकी, जिससे राग-भाव पैदा होनेकी ही जाय / रही पूजने या भक्ति स्तुति करनेकी बात, वह सम्भावना हो सकती है / ऐसी दशामें सवाल यह पैदा बेशक अलग अलग तीर्थकरकी अलग अलग की जाती होता है कि वीतराग-प्रतिमा, जिसके घर-घर रखनेकी है, परन्तु जिस तीर्थकरकी प्रतिमा मन्दिर में नहीं होती है, जरूरत है; वह क्या इस प्रकार प्रतिष्ठित होनी ज़रूरी है, उनकी भी पूजा बंदना और भक्ति-स्तुति की जाती है। जिस प्रकार पंचकल्याणकोंकी लीला करके अाजकल यह भक्ति स्तुति प्रतिमाकी तो की ही नहीं जाती है और प्रतिष्ठित समझी जाती है, और प्रतिष्ठा होनेके बाद न मन्दिर में विराजमान प्रतिमाको वास्तविकरूपमें तीर्थकर शिल्पी द्वारा उनपर प्रतिष्ठित किया जाना अंकित भगवान ही माना जाता है / मूर्तिसे तो मूर्तिका ही काम कराया जाता है, अथवा बिना इस प्रकारकी लीलाके लेनेकी आज्ञा हैं अर्थात् यह ही समझने और माननेकी वैसे ही उनको विराजमान कर उनके दर्शनसे वीतरागता- ज़रूरत है कि यह तीर्थकरभगवान्की परम वीतरागरूप की शिक्षा लेते रहनेकी ही जरूरत है, जैसा कि प्राचीन अवस्थाकी मूर्ति है तब प्रत्येक तीर्थंकरकी अलग 2 कालके जैनी करते थे / क्योंकि प्राचीनकालकी जो प्रतिमा रखने और उनपर अलग२ चिन्ह बनानेकी तो जैनप्रतिमाएँ धरतीमेंसे निकलती हैं वे चौथे कालकी कुछ भी ज़रूरत नहीं है वहाँ यदि इन मूर्तियोंको ही हों या पंचम कालकी; उनपर प्रतिष्ठा होना अंकित नहीं साक्षात् भगवान मानकर पूजनेकी श्राज्ञा होती तब तो होता है जैसा कि आजकलकी मूर्तियों पर होता है / मूर्ती बेशक अलग 2 तीर्थकरकी अलग२ मूर्ति बनाने की भी . निर्माण कराने वाले शिल्पशास्त्रोंमें प्रत्येक तीर्थकरकी जरूरत होती; परन्तु अब तो परम वीतरागताकी मूर्ति के 'अलग अलग शक्ल नहीं बताई गई है, जिससे शिल्प- दर्शन करने के वास्ते एक ही मूर्ति काफी है, जो सबही कार पहलेसे ही प्रत्येक तीर्थकरकी अलग अलग मूर्ति तीर्थकरोंकी मूर्ति समझी जासकती है / इसही कारण बनावें / वह तो सबही मूर्तियों एक समान बनाता है कोई भी चिन्ह बनाने की जरूरत मालूम नहीं होती है। और उसमें महावीतरागताका भाव दर्शानेका ख्याल अब भी जिन मंदिरोंमें सबही तीर्थकरोंके चिन्होंवाली रखता है / फिर चाहे जिस पर चाहे जिस तीर्थकरका मूर्तियाँ नहीं होती हैं / एक, दो या तीन ही मूर्तियाँ चिन्ह बना देता है / तब यदि यह चिन्हन बनाया जावे होती हैं, उन मंदिरोंमें भी तो चौबीसों तीर्थंकरोंकी पूजातो वह मूर्ति सबही तीर्थकरोंकी, उनकी परम वीतराग- भक्ति होती है अर्थात् वीतरागताकी शिक्षा तो उन विरूप अवस्थाकी समझी जा सकती है, ऐसी ही वे प्राचीन राजमान प्रतिमाओंसे लेली जाती है और पूजाभक्ति मूर्तियाँ समझी जाती थीं जो धरतीके नीचेसे निकलती सबकी अपने मनमें उनका स्मरण करके करली जाती हैं और जिन पर प्रायः कोई चिन्ह बना हुआ नहीं होता है / यहाँ पर यह कहा जासकता है कि जिन तीर्थंकरोंहै / वीतरागताका भाव पैदा करनेके वास्ते तो हमको की प्रतिमा नहीं होती हैं उनकी स्थापना अक्षतों द्वारा इस बातकी कुछ भी ज़रूरत नहीं होती है कि वह किसी करली जाती है / परन्तु स्थापना करके पजन तो एक दो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमाश्रोंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि 107 ही करते हैं, बाकी जो सैकड़ों जैनी मंदिरमें आते हैं और अपने हृदयमें बिठाते रहनेसे हृदय में उनकी भक्ति वीतराग प्रतिमाके दर्शन करके सबही तीर्थंकरोंको स्मरण स्तुति करते रहनेसे-हरवक्त ही हमारे भावोंकी शुद्धि होती कर, उनकी भक्ति स्तुति करते हैं और चावल, लौंग, रहती है और यह भक्ति स्तुति हम बार बार हर जगह बादाम आदि हाथमें जो हो वह भक्तिसहित सबही कर सकते हैं / वहाँ प्रतिमा हो या न हो, इस बातकी तीर्थंकरोंकों चढ़ाते हैं, तो क्या स्थापनाके बिना वह कोई ज़रूरत नहीं है; परम वीतरागरूप प्रतिमाके दर्शन उनकी भक्तिस्तुति बिल्कुल ही निरर्थक होती है / इसके तो हमको वीतरागताकी उत्तेजना दे देते हैं, उससे वीतअलावा मंदिरके समयसे अलग जो लोग अपने घरपर रागरूप भावोंकी उत्तेजना होने पर हमारा यह काम है या मंदिरके एक कौनेमें बैठकर 24 तीर्थंकरोंका या पंच- कि परम वीतरागी पुरुषों, अर्हतो, सिद्धों, और साधुओंको परमेष्ठीका जाप करते हैं-हृदयसे उनकी भक्तिस्तुति याद करकर उस वीतरागरूप भावको हृदयमें जमाते और बंदना करते हैं तो क्या स्थापना न करनेसे या रहें और जब जब भी मौका मिले उनके गुणोंकी भक्तिउनकी मूर्ति सामने न होनेसे जिनकी वे भक्तिस्तुति स्तुति और पूजा बंदना अपने हृदय में करते रहें / और करते हैं उनकी वह भक्तिस्तुति या जाप आदि व्यर्थ यदि हो सके तो दिनमें कोई 2 समय ऐसा स्थिर करलें ही जाता है / नहीं नहीं ! व्यर्थ नहीं जाता है / यदि वे जब एकान्तमें बैठकर स्थिर चित्तसे उनकी भक्तिस्तुति उनके वीतरागरूप गुणोंको याद करके, उन गुणोंकी पूजा बंदना कर सकें, जिसके वास्ते हर वक्त प्रतिमा भक्ति स्तुति करते हैं तो बेशक उनका यह कार्य महा- सामने रखने व स्थापना करनेकी ज़रूरत नहीं है। यह कार्यकारी और फलदायक होता है / यह ही जैनशास्त्रों- सब तो हृदय मन्दिरमें ही हो जाती है। .. का स्पष्ट आशय है / जिससे यह साफ़ सिद्ध है कि इस प्रकार जब वीतरागरूप मूर्तिसे मूर्तिका ही काम भक्ति स्तुति और पूजा बंदनाके वास्ते न तो प्रतिमा ही लिया जाता है; उसको साक्षात तीर्थकर माननेसे साफ़ 2 ज़रूरी है और न स्थापना या जलचन्दनादि द्रव्य इनकार किया जाता है। किसी प्रकार भी अपनेको मूर्तिही, किन्तु एकमात्र वीतरागरूप परमेष्ठियोंके वैराग्य पूजक नहीं बताया जाता है। और मूर्ति भी वीतरागरूप और त्यागरूप गुणांकी बड़ाई अपने हृदयमें बैठानेकी ही रखनेकी ताकीद है / कोई वस्त्र अलंकार यहाँ तक ही ज़रूरत है; जिससे हमारे पापी हृदयमेंसे भी रागद्वेष कि अगर एक तागा भी उस पर पड़ जाय तो वह कामरूप मैल कम हो होकर हमारा हृदय भी कुछ पवित्र की नहीं रहती है; तो गर्भ-जन्म, खेल-कूद और राजहोने लग जाय, हमारे * हृदयमें भी वीतरागरूप भावोंको भोग आदिका संस्कार उसमें पैदा करनेकी क्या ज़रूरत स्थान मिलने लग जाय / और हम भी कल्याणके मार्ग है, जो प्रतिष्ठा विधिके द्वारा कुछ दिनोंसे किया जाना पर लगने के योग्य हो जायें। शुरू हो रहा है / हम दिगम्बर-श्राम्नायके माननेवाले ___ बेशक तीर्थंकरोंकी वीतरागरूप , प्रतिमाके दर्शनसे जैनी, तीर्थकर भगवान्की राजअवस्थाकी मूर्तिको भी हमको वैराग्यकी उत्तेजना मिलती है, परन्तु श्री माननेसे साफ़ इनकार करते हैं। अनेक तीर्थंकरोंने तीर्थकरों, सिद्धों और सब ही वीतरागी साधुओंके वीत- विवाह कगया है / यदि उनकी उस अवस्थाकी मूर्ति रागरूप गुणोंको याद करके, उन गुणोंकी प्रतिष्ठा उनकी स्त्रियों सहित बनाई जाय, जो तीर्थकर चक्रवर्ती Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 अनेकान्त [ वर्ष 3, किरण 1 हुए हैं, उनकी मूर्ति उनकी 66 हज़ार रानियों सहित तालाबमें नहाती हुई नंगी स्त्रियोंके चीरहरणके महाबनाई जाय और जब वे फौज पलटन लेकर छह खंड निंदनीय किलोलको कृष्ण के साथ राधाके प्रेमको, या फ़तह करनेको निकले थे, तबकी उनकी मूर्ति फ़ौज शेषनागके पकड़ने और कंसको मार डालनेकी कृष्णकी पलटन और लड़ाई के सब हथियारोंसहित बनाई जाय बहादुरीको पूजने बँदनेयोग्य समझ, इस ही रूपमें तो क्या हमारे दिगम्बर भाई उसको अपने जैन मन्दिरों में उसकी भक्ति स्तुति करते हैं; उसके इन ही सब कृत्योंकी रखना मंजूर कर लेंगे ? क्या उनकोभी इसी तरह मानेंगे लीला करके अपनेको धन्य समझते हैं / यह ही उनका जिस तरह इन वीतरागी प्रतिमाओंको मानते हैं और कीर्तन,भक्ति-स्तुति और पूजन है / ऐसी ही अवस्थाओंक्या ऐसा करना जैनधर्म, जैनशास्त्रों और जैनसिद्धान्तोंके की वे मूर्तियाँ अपने मन्दिरोंमें बनाते हैं और प्रतिमायें विरुद्ध न होगा। स्थापन करते हैं / इन ही सब लीलाअोंके करनेसे वे यदि गृहस्थावस्था और राजपाटके समयकी तीर्थ- कृष्ण भगवान्की प्रतिमाको प्रतिष्ठित और मन्दिरमें कर भगवान्की मूर्तियाँ मन्दिर में रखने और दर्शन और स्थापने पूजने और बंदने योग्य बनाते हैं। ऐसी ही मनन करने के योग्य नहीं हैं तब इन परम वीतरागी प्रतिमा वे श्रीरामचन्द्रकी बनाते हैं, जिनको बगल में प्रतिमाअोंको मन्दिर में रखने और दर्शन मनन करने सीता बैठी हो, हनुमान गदा लिये पास खड़ा हो / इस योग्य बनाने के वास्ते इनके ऊपर गर्भ, जन्म और राज प्रतिमाकी प्रतिष्ठा यदि वे सीताके हरण हो जाने. पर भोगकी लीलाओंका हो जाना क्यों जरूरी समझा जाने रोते फिरने, फिर हनुमानकी सहायतासे लंका पर चढ़ाई लगा है / यह तो बिल्कुल ही उलटी बात हुई / जब करने, महाघमासान युद्ध कर लाखों करोड़ों पुरुषोंका हम भगवान्के बालपन या गृहस्थ-जीवनकी मूर्तियां बध होने के बाद रावणको मार सीताको घर ले आनेकी अपने लिये कार्यकारी नहीं समझते हैं, किन्तु उनकी लीला करने के द्वारा करें तो ठीक ही है। उनके मतके परमवीतराग अवस्थाकी मूर्ति ही अपने लिये कार्यकारी अनुसार उनके परमपज्य विष्णुभगवान्ने रावणको समझते हैं, जिसके दर्शनसे हमको भी वीतरागताकी मारनेके वास्ते ही तो रामचन्द्ररूपमें जन्म लिया था, शाहो हम भी इस पापी गहस्थके जंजालके महा- और फिर इस ही प्रकार कंसको मारने और गोपियोंका मोहको तोड़ अपने आत्म कल्याण में लगें और महादुख- उद्धार करने के वास्ते ही कृष्णके रूपमें जन्म लिया था। दाई संसारसागरसे निकल अविनाशी सच्चे सुखका इस ही प्रकार के रूपोंमें वे अपने विष्णु भगवान्को अनभव करें, तब इन परमवीतराग रूप मूर्तियोंके ऊपर पूजते हैं / इस कारण उनका राम और कृष्णकी यह गर्भ-जन्म और गृहस्थभोग आदिका संस्कार करनेसे तो सब लीलायें करना, इन ही सब लीलाओंकी भक्ति इनको साफ़ तौर पर बिगाड़ना और अपने कामके योग्य स्तुति करना, इन सब लीलाओंके करने से ही इनकी नहीं रहने देना ही है / प्रतिमाओं को पूज्य और प्रतिष्ठित बनाना तो बेशक ठीक वैष्णव हिन्दू श्रीकृष्णकी बाल्यावस्थाको “ठुमक बैठता है, लेकिन इन अपने पड़ौमियोंकी रीसकर, हमारा ठमक चलत बाल बाजत पैंजनियां' ग्रामकी गोपियोंके भी अपनी परमवीतरागरूप प्रतिमाओं पर अपने साथ उसकी नाना प्रकारकी क्रीड़ाओं और किलोलोंको, तीर्थंकर भगवान्के बालपन, गृहस्थजीवन और राजभोग Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि 106. आदिकी लीला करके ही उनको प्रतिष्ठित मानना कैसे बनाने के वास्ते उसके पास तीर तरकश, ढाल-तलवार ठीक बैठ सकता है ? यह तो उलटा उनको बिगाड़ना, और गदा आदि सब हथियार रखते हो तो क्या उस और अपने कारज के विरुद्ध बनाना है। वीतराग प्रतिमाकी जो पद्मासन लगाये, हाथ-पै-हाथ ___ कव्या हंसकी चाल चले या हंस कव्वेकी चाल चले रक्खे, आत्मध्यानमें मग्न दिखाई देरही है, जिसके दोनों ही सूरतोंमें नकल ठीक नहीं बैठा करती है; किन्तु सिरके केश नोचे हुए मालूम पड़ रहे हैं, पूर्ण परम बात हंसी मखौल के ही योग्य हो जाती है / यही हाल दिगम्बर अवस्था है, जिसकी परम वीतरागरूप छबि इस विषयमें हमारा हो रहा है / हम दूसरोंकी रीस करके बनाने के वास्ते कारीगरने अपनी सारी कारीगरी खर्च लीला तो करना चाहते हैं गर्भसे लेकर निर्वाण तककी करदी है और प्रतिष्ठा कराने वाले ने भी सबसे अधिक अवस्था की, परन्तु हमारे पास है केवल एक परम वीत- वीतराग छबि दिखानेवाली यह प्रतिमा कारीगरकी राग अवस्थाकी ही प्रतिमा / उसहीको प्रतिष्ठित करने के अनेक प्रतिमाओंमेंसे छाँटकर ली है। ऐसी प्रतिमाके बहानेसे हम यह सब लीला ..रचते हैं; परन्तु बहाना तो पास मनुष्योंकी हिंसाके करनेवाले युद्ध के हथियार रख * बहाना ही होता है / इसही कारण उस अपनी परम .. देनेसे क्या वह राजाकी मूर्ति बन जाली है / नहीं नहीं; वीतरागरूप प्रतिमाको ही गर्भ में रखकर गर्भका बहाना ऐसा करनेसे न तो वह राजाकी ही लीला, बनती है करते हैं, उस ही परमवैरागरूप प्रतिमाको पालने में ओंधी और न वीतरागकी ही; किन्तु बिल्कुल ही एक विलरखकर इस तरह झुलाते हैं जिस तरह छोटे छोटे बच्चों- क्षण लीला बनजाती है जो आजकलके जैनियोंकी को झुलाया करते हैं / यह झूला झुलानेकी लीला प्रतिष्ठा-: बुद्धिकी माप कराने वाली सर्वसाधारणके वास्ते प्रत्यक्ष की विधि करने वाले ही नहीं करते हैं; किन्तु सबही कसौटी होती है / .. . यात्री स्त्री-पुरुष अाकर एक-एक दो दो झोटे देते हैंइन सब बेसिर पैरकी अद्भुत लीलाओंके अलावा और रुपये चढ़ाते हैं / परन्तु इन सबही झोटा देनेवाले यह भी तो सोचनेकी बात है कि यदि वास्तवमें इन यात्रियोंसे ज़रा पूछो तो सही कि पालने में गोंधी पड़ी अद्भुत लीलाओंके करनेसे तीर्थंकर भगवान्के बालहुई जिस मूर्तिको तुमने झुलाया है वह बालक अवस्थाकी . पन, गृहस्थभोग, विवाह शादी, स्त्रीभोग, राजभोग और -मूर्ति नज़र आती थी या परम वीतराग अवस्थाकी 1. युद्धादि करनेका सब संस्कार उस वीतराग प्रतिमा जवाब यह. ही मिलेगा कि मूर्ति तो पालने में परम वीत- पर पड़ता है, जिसके साथ यह लीलाएँ की जाती हैं राग अवस्थाकी ही औंधी डाल रक्खी थी। तब तुमने जिसकी प्रतिष्ठाकी जाती है, तो उस प्रतिमा में यह सब बालकको झुलाया या भगवानकी परम वीतराग अवस्था- . संस्कार पड़ जानेसे वह परम वीतरागरूप कैसे रह की मूर्तिको; और वह भी औंधी डालकर / सोचो और सकती है ? परम वीतरागरूप तो वह तबतकही थी खूब सोचो कि यह लीला तुम किस तरह कर रहे हो ? जबतककी उसमें यह महारागरूप राजपाटके संस्कार यह जैनधर्मकी लीला कर रहे हो या उसका मखोल 1 नहीं डाले गये थे / उस परम वीतराग रूप भगवानकी इसही प्रकार जब इसही परम वीतरागरूप प्रतिमाको महावीतरागरूप प्रतिमाको यह सब लीलाएँ कराकर कंकण और अन्य आभूषण पहनाते हो औरराज अवस्था तो मानों परम वीतरागरूप भगवानको आपने फिरसे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 anmamta Homesinfurthem.rea in गृहस्थमें डाला है और उनकी इस परम वीतरागरूप राग देवतालीमें भी रागका प्रवेश कराने के लिये परम प्रतिमा में भी गहस्थ और राजपाटके सब संस्कार घुसेड़े वीतरागरूप प्रतिमाओंमें भी गृहस्थ भोगका संस्कार हैं। अर्थ जिसका यह होता है कि प्रतिष्ठा करनेसे पहले डाल, इन अपनी वीतरामरूप मूर्तियोंको मूर्ति न मान जो यह परम वीतरागरूप प्रतिमा कारीगरने बनाई कर अपने वैष्णव भाईयोंकी तरह इन मूर्तियोंको ही थी उसमें तो एक मात्र वीतरागताही वीतरागता. साक्षात् रागी परमात्मा ठहराकर उनके पूजनेसे उस ही थी, जोप योगी नहीं थी, अब आपने उसमें तरह अपने गृह कार्योंकी सिद्धि चाहने लग गये हैं जिस गृहस्थ और राज भोग के सब संस्कार डालकर ही तरह उनके पड़ोसी भाई “अपने रागी देवताओंको पज "उसको अपने कामकी बनाया है, परन्तु जरा सोचो तो कर करते हैं। सद्दी कि यह काम आपका जैनधर्म के अनुकूल है. या परन्तु इसमें एक बात विलक्षण है और वह यह बिल्कुल ही उसके विपरीत / चाहे कन्वेने हंसकी चाल है कि प्रतिष्ठाविधिमें किसी एक ही प्रतिमाका गर्भ, चली हो या हंसने कन्वेकी चाल चली हो, परन्तु यह जन्म और राजपाट आदि संस्कार होता है। सिर्फ एक चाल न तो हंसकी ही रही है, और न कव्वेकी ही, ही प्रतिमा, जो किमी एक ही तीर्थकर भगवान्की होती किन्तु विलक्षण रूप एक तीसरी ही चाल होगई / वैष्णव है, वह ही एक पालने में झुलाई जाती है, उस ही को लोग अपने भगवानकी रागरूप अवस्थाको पूजते हैं कंकण श्रादि श्राभूषा पहनाये जाते हैं और उस ही के और सीही उनकी प्रतिमा बनाते हैं और जैनी वीतराग पास तीर कमान और ढाल तलवार श्रादि मनुष्य हिंसा के रुप भगवानको पूजते हैं और उसही अवस्थाकी उमकी उपकरण रखे जाते हैं / तब जो भी राग संस्कार पैदा मंतिमा बनाते हैं। इन वीतरागरूप प्रतिमाओंमें ज़रा हो सकते हों वे तो उस एक ही भगवान्की एक प्रतिमामें भी रामरूप भावं आ जाय, उनको वस्त्र प्राभूषण पड़ेंगे, जिसके साथ यह सब लीलाएँ की जावेगी; बाकी पहना दिये जायें या युद्ध के हथियार उनके साथ लगा सैकड़ों प्रतिमाएँ जो वहाँ रक्खी होंगी, उनके साथ ऐसी दिये जायें तो वह प्रतिमाएँ उनके कामकी नहीं रहती लीला न होने से उनमें तो रागके संस्कार किसी तरह भी है; परन्तु जब कारीगर उनको ऐसीही वीतरागरूप नहीं पड़ सकेंगे, वे तो वैसी ही परमवीतरागरूप रहेंगी प्रतिमा बनाकर देते हैं, जैसी वे चाहते हैं तब आजकलके जैसी कि शिल्पीने बना कर दी थीं। तब वे श्राजकलके क्षम' जैनीलीग उन वीतरागरूप प्रतिमाओंको उस जैनियोंके वास्ते पूज्य और उनके गृह कार्योंको सिद्ध वक्त तक क्यों नाकाफ़ी या बिना कामकी समझते हैं करनेवाली कैसे हो जाती हैं ? जब तककी उनके साथ गृहस्थ जीवन और राजभोगकी वास्तवमें बात यही है कि हमने दूसरोंकी रीस करके लीलाएँ करके उनमें रागका संस्कार नहीं कर लेते हैं। और भट्टारकोंके बहकायेमें आकर अपनी असली चालक्या इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनधर्म अब परम को खोदिया है, जिससे हम इधरके रहे हैं न उधरके / वीक्सग धर्म नहीं रहा है किन्तु अपने इरवक्तके पड़ौसी हमारी पहली चाल उन प्राचीन प्रतिमाओंसे साफ वैष्णाच भाइयोंको अपने परमरांगी देवताओंकी ही मालूम होती है जो धरतीमंसे निकलती हैं, जिनपर भक्ति-स्तुति पूजा बंदना करता देख अपने परम वीत- प्रतिष्ठित होनेका कोई चिन्ह नहीं होता है और जिनको Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] - वीतराग प्रतिमश्रिीकी अजीब प्रतिष्ठा विधि ............................ ........ अाजकलके हमारे भाई चौथेकालकी अर्थात् सतजुगकी. खाना खिलानेकी कोशिश किया करते हैं और उसके ने कहने लगते हैं / चौथे काल या सतजुगकी होनेसे तो खाने पर दुखी होकर उसे फोड़ डालते हैं। परन्तु ये हमको उनसे सबक लेना चाहिये और बिना इस प्रकार- बच्चे भी ऐसी ग़लती हर्गिज नहीं करते हैं कि घोड़े पर की प्रतिष्ठा कराये ही जैसी अाजकल होती है, शिल्पीके चढ़ी हुई किसी मिट्टीकी मूर्तिको झलेमें चढ़ाकर मुलाने दाथसे लेते ही अपने काममें लाने लगना चाहिये / लगें या विस्तर पर पड़ाकर सुलाने लगें / उसको तो ज़रा विचारनेसे हमारे भाइयोंकी समझमें भाजायगा कि वे उस ही प्रकार चलानेकी कोशिश करेंगे जिस प्रकार किस प्रकार श्रापसे आप ही वस्तुअोंकी प्रतिष्ठा होने लग घोड़ा चलता है / यह तो हम ही ऐसे विचित्र पुरुष है जाती है / बाजार में बजाजकी दुकान पर अनेक टोपियाँ जो पद्मासन बैठी हुई हाथ पर हाथ धरे ध्यानमें मग्न .. और बड़ी पगड़ियाँ बिक्रीके वास्ते रक्खी रहती हैं; उनकी परमवीतराग प्रतिमाको * ही श्रौन्धा लिटाकर मला कोई खाम प्रतिष्ठा किसीके हृदयमें नहीं रहती है। झुलाते हैं, कंकण आदि आभूषण पहनाते है और परन्तु ज्यांही हम उनमें से किसी टोपी या पगड़ीको खरीद उसके पास युद्धके श्रायुध रखकर भी अपनेको बीसराग कर अपने सिरपर रखने लगते हैं, तब ही से उम * धर्मके मानने वाले जैनी बताते हैं। टोपी या पगड़ीकी इज्ज़त व प्रतिष्ठा होना शुरू हो जाती अब रही प्रतिष्ठा-विधिकी बात, उसमें और भी क्या है। इस ही प्रकार मूर्ति भी जबतक कारीगरके पास क्या अद्भुत कार्य होता है, उसकी भी ज़रा झलक रहती है, तबतक वह मामूली चीज़ होती है, परन्तु ज्योंही दिखादेनी ज़रूरी है / यह प्रतिष्ठाएँ बहुत करके प्रतिष्ठा. हम उसको कारीगरसे लेकर अपने इष्टदेवताकी मति सारोद्वार ग्रन्थके द्वारा होती चली प्रारही हैं, जिसको मानने लगते हैं तब ही से उसकी प्रतिष्ठा व इज्जत होना पं० श्राशाधरने विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीमें प्रतिष्ठासारके शुरू हो जाती है / उसकी प्रतिष्ठाके लिये इस प्रकारकी आधार पर बनाया है जिसको वसुनन्दीने कुछ ही समय बेजोड़ लीलाअोंके करने की कोई जरूरत नहीं है जैसी पहले बनाया था। विक्रमकी 16 वीं शताब्दीमें नेमिचन्द्र अाजकल की जाती है / परन्तु अाजकल तो हम लोग नाम के एक विद्वानने भी एक बृहत् प्रतिष्ठा पाठ बनाया वीतरागप्रतिमासे वीतरागभावोंकी प्राप्तिका काम नहीं है और इसके बाद 17 वीं शताब्दीमें अकलंक प्रतिष्ठा लिया चाहते हैं। मूर्तिको मूर्ति ही नहीं मानना पाठ नामका भी एक ग्रन्थ बना है जिसमें ग्रन्थ कर्ताका चाहते हैं / किन्तु उसको हमारे गृहकार्योंके सिद्ध करने नाम भट्टाकलंकदेव लिखा रहनेसे बहुतसे भाई इसको वाला रागी-द्वेषी देवता बनाना चाहते हैं। ऐसी हालतमें राजवार्तिक आदि महान्ग्रन्थोके कर्ता श्री अकलंक. कारीगरसे हमको वीतरागरूप प्रतिमा नहीं बनवानी स्वामीका बनाया हुआ समझते रहे हैं जो कि विक्रमकी चाहिये / किन्तु साफ-साफ रागरूप ही प्रतिमा बनवानी ७वीं शताब्दीमें हुए हैं, परन्तु ग्रंथ-परीक्षा तृतीय भागचाहिये / वीतरागरूप प्रतिमा बनवाकर फिर उसमें राग- में पं० जुगलकिशोर मुख्तारने साफ सिद्ध कर दिया है रूप संस्कार डालनेकी कोशिश करने में तो न वह बीत- कि यह ग्रंथ राजवार्तिक कर्ता अकलंक स्वामीसे आठसौ समाप ही रहती है न रागरूप ही, किन्तु एकमात्र नौमो बरस पीछे लिखा गया है / इस ही प्रकार नेमिबच्चोंका मा खेल हो जाता है, जो मिट्टी के खिलौनको चन्द्र प्रतिष्ठापाठको भी बहुत लोग गोम्मटसारके कर्ता Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 [वर्ष 3, किरण 1 श्री नेमिचन्द्र आचार्यका बनाया हुआ समझते रहे हैं,... आगे चलकर लिखा है कि प्रतिष्ठाके सात-आठ नेमिचन्द्र आचार्य विक्रमकी 11 वीं शताब्दीमें हुए हैं दिन बाकी रहनेपर प्रतिष्ठा करानेवाला सेठ प्रतिष्ठा करने और यह ग्रंथ उनसे पाँचतौ छैसौ बरस पीछे एक वाले विद्वानके घर पर जावे / स्त्रियां तो अक्षत भरे हुए गृहस्थ ब्राह्मणके द्वारा लिखा गया है जैसा कि बा० जुग- थाल हाथमें लिये हुए गाती हुई आगे जारही हों और लकिशोर मुख्तारने जैन-हितैषीके 12 वे भागमें सिद्ध साथमें साधर्मी भाई हो। इस प्रकार उसके घरसे उसको किया है / पं० श्राशाधर १३वीं शताब्दीमें संस्कृतके बहत अपने घर लावे / वहाँ चौकी बिछाकर उसपर सिंहासन बड़े विद्वान होगये हैं, उन्होंने ग्रन्थ भी अनेक रचे हैं रक्खे और चौमुखा दीपक जलावे / सिंहासन पर उस इस ही कारण विद्वान् लोग उनके ग्रंथोंको बड़ी भारी विद्वानको बिठा गीत नृत्य बाजोंके साथ, वस्त्राभूषणमें प्रतिष्ठा के साथ पढ़ते हैं, बहुतसे संस्कृतज्ञ पंडित तो उनके शोभायमान चार सधवा जवान स्त्रियाँ उसके शरीर पर वाक्योंको श्राचार्य वाक्यके समान मानते हैं / परन्तु चन्दन लगावें, फिर उसके अंगमें तेल उबटना लगाया पं० आशाधर पूर्णतया भट्टारकीय मतके प्रचारक रहे हैं. जावे / फिर पीली खलीसे तेल दूर कर स्नान कराया जैसा कि प्रतिष्ठा विषयक नीचे लिखे हमारे कथनोंसे जावे / फिर स्वादिष्ट भोजन करा वस्त्राभूषणसे सजाया सिद्ध होगा। नीचे लिखा कथन यद्यपि ऊपर वर्णित जावे ( जवान स्त्रियाँ ही क्यों उसके अंगको चन्दन सबही प्रतिष्ठापाठोंके अनुसार होगा परन्तु उस कथनका लगावें बढ़ी स्त्रियां क्यों न लगावें, इसका कोई कारण विशेष अाधार पं० आशाधर विरचित प्रतिष्ठासारोद्धार नहीं बताया गया है ) / ही होगा, क्योंकि उस ही पर पंडितोंकी अधिक श्रद्धा है। इसके बाद मंडप और वेदी बनवाकर नदी किनारेकी - पं०अाशाधरजी लिखते हैं कि-"जिनमन्दिर तैयार वामी श्रादिकी पवित्र मिट्टी, पृथ्वी पर नहीं गिरा हुआ होने में कुछहीं बाकी रह जाने पर शिल्यादिके कल्याण के पवित्र गोबर ऊमरादि वृक्षोंकी छालका बना हुआ लिए यह विधि की जावे कि प्रत्तिमा विराजमान होनेवाली काढ़ा इन सबको मिलाकर इससे आभूषणादिसे सुसवेदीके बीच में ताँबेका घड़ा दो वस्त्रोंसे ढकाहुअा रखे। . ज्जित कन्याएँ उस वेदीको लीपें / ऐसा ही नेमिचन्द्र घड़ेमें दूध, घी, शक्कर भरदे और चन्दन,पुष्प, अक्षत्से / प्रतिष्ठा पाठ के नवम परिच्छेदके श्लोक ३में श्री खंडादि उसकी पूजन करे फिर उस घड़े में पाँच प्रकारके रत्न, . कलाशाभिषेकके वर्णनमें लिखा है कि इन कलशोंमें और सब औषधि, सब अनाज, पारा, लोहा आदि पाँच * गाय का गोबरग्रादि अनेक वस्तुएँ होती हैं / फिर श्लोक धातुएँ भरदे, फिर चाँदी वा सोनेका मनुष्याकार पुतला - ४में पंचगव्य कलशाभिषेकका वर्णन करते हुए लिखा बनाकर उसको घी आदि उत्तम द्रव्योंसे स्नान कराकर है कि इसमें गायका गोबर, मूत्र, दूध, दही, घी आदि 'अक्षत श्रादिसे पूज निवारसे बुनी हुई गद्दी तकिये , भरे होते हैं / इसही अध्यायमें गाय के गोबरके पिंड अनेक / सहित सेजपर अनादि सिद्ध मन्त्र पढ़कर लिटावे / फिर दिशामें क्षेपण करना, अपने पाप नाश कराने के वास्ते जिन भगवानका पूजनकर उत्सवसहित उस पुतलेको लिखा है। ऐसा ही १३वें परिच्छेदमें गायके गोबर घड़ेमें रक्खे / ऐसा करनेसे कारीगरोंको कोई विघ्न नहीं अादिसे मण्डपको शुद्ध कराकर सोलहकारण भावनाके .. होता है, शुभ फलही होता हैं। डूंज रक्खे / फिर इसही १३वें परिच्छेदमें लिखा है कि Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमानोकी अजीब प्रतिष्ठा विधि %3 % D गायके गोबरके पिंडादिसे अपने पाप नाश करनेके देवे, चन्द्रमा कुशल देवे, मंगल मंगल करै, बुद्ध बुद्धि वास्ते अर्हतोकी अवतरण क्रिया करै / .. . देवे, बृहस्पति शुभजीवन देने, शुक्र कीर्ति देवे, शनि वेदियाँ तय्यार करानेके बाद प्रतिष्ठाके पहले दिन बहुत सम्पत्ति देवे, राहु वाहुबल देवे, केतु पृथ्वी पर सब लोग सरोवर पर जावें / खूब सजी हुई प्रसन्नचित्त प्रतिष्ठा देवे, ऐसी प्रार्थना प्रत्येककी पूजामें की जावे / स्त्रियाँ दूध, दही, अक्षतसे पूजित, 'फल से भरे हुए घड़ों- अलग 2 ग्रह अलग 2 तरहकी लकड़ी होम करनेसे को उठाये हुए साथ हो, प्रतिष्ठाचार्य जौ और सरसोंको प्रसन्न होता है / सूर्य आखकी लकड़ीसे, चन्द्रमा पलाससे मंत्रसे मंत्रित कर चारोंतरफ़ बखेरता जावे, सरोवर पर मंगल खैरसे, बुद्ध अपाभार्गसे बृहस्पति पीपलसे, शुक्र पहुँचकर सरोवरको और वास्तुदेवको (जिसका कथन फल्गुसे शनि शमीसे, राहु दूबसे और केतु दाभसे / आगे किया जायगा ) अर्घ देकर, वायकुमार देवोंके प्रत्येकका अष्ट द्रव्यसे पूजन कर, इनही लकड़ियोंसे होम आह्वाननसे भूमिको साफ़कर, मेघकुमार देवोंके आहा- करना चाहिये / इन सबका पूजन करनेके बाद सातहनसे छिड़ककर, अमिकुमार देवोंके श्राहाहनसे अग्नि सात मुट्ठी तिल, शाली, धान और जो यह तीन अनाज, जलाकर, 60 हजार नागोंको पूजकर, शान्तिविधानकर पानीमें डाले / आह्वाहन सब ग्रहोंका उनके परिवार अर्हतका अभिषेक करे / फिर सरोवर (तालाब) को और अनुचरों आदि सहित इस प्रकार करै- ... अर्घ देवे, फिर अहंत आदिकी पूजा करै / फिर जया ही मादित्य भागछ 2 संवौषट् / * ही पत्र श्रादि देवताओंका पूजन करके, सूर्य आदि नवग्रहोंका तिष्ठ२ . H / *हीं मम सनिहितो भव 2 वटा पूजन करै / सूर्यका रंग लाल है और वस्त्र, चमर, छत्र, मादित्याय स्वाहा / श्रादित्यपरिजनाय स्वाहा / पावित विमान भी लाल हैं / चन्द्रमा सफ़ेद है। मंगल त्यानुचराय स्वाहा / भादित्य महत्तराय स्वाहा / भग्वये लाल है, बुध और बृहस्पतिका रंग सोने जैसा है, शुक्र स्वाहा / अनिताय स्वाहा / वरुणाय स्वाहा / प्रजापतये सफ़ेद है / शनि, राहु और केतु काले हैं / इनको इनही- स्वाहा / स्वाहा / भूः स्वाहा / भुवः स्वाहा / के समान रंगके द्रव्यसे पूजनेसे आनन्दमंगल प्राप्त स्वाहा / भूभुवः स्वःस्वाहा स्वधा / धादित्याप स्व. होता है / उनके समान रंगवाले अक्षतको रख, उनपर गणपरिवताय इदमयं, पाचं, गंध, पचतान, पुष्प, वीर्ष, उनहीके रंग के समान रंगे हुए दर्भके अासन रक्खे / रूपं, चकं, बलिं, फलं, स्वस्तिकं, यज्ञभागं च यजामहे नागकुमार शरीर पीड़ा करते हैं, यक्ष धन हरते हैं, भूत प्रतिगृह्यता र स्वाहा / वस्वार्थ जियते पूजा सनसम्बोस्तु स्थान भ्रष्ठ करते हैं, राक्षस धातुवैषभ्य करते हैं, इन ग्रहोंको नः सदा // पूजनेसे सब विघ्न दूर होजाते हैं और कापालिक, भिक्षु, अब जो अलग 2 वस्तु जिस 2 ग्रह को चढ़ाई वार्णी, संन्यासी ( मिथ्याती साधुत्रों) के किये हुए उप- जाती है वह लिखते हैं (1) सूर्यको जास्वंती आदिके द्रव भी शांत होते हैं / तापस, कापालिक आदि भिन्न 2 फूल नारंगी श्रादि फल चढ़ावे और श्राकके इंधनसे प्रकारके मिथ्यात्वी साधु अलग 2 इन ग्रहोंको पूजते हैं। पकाई हुई खीरको आहुति दे, घी, गुड़, लङ्क से पूजे / कोई किसी ग्रहको और कोई किसी ग्रहको, उन ही की (2) चन्द्रमा कोसफेद रंगके पुष्प, अक्षत् और दूध पूजासे यह अलग 2 ग्रह प्रसन्न होते हैं। सूर्य शौर्यगुण आदिसे पूजे, देवदारुकी लकड़ीका चूरा, घी, धूप Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ..... . . [वर्ष 3, किरण 1 पाककी लकड़ीसे पकाया अन्न, दूध मिलाकर अग्निमें वायुकुमार, मेघकुमार, अग्निकुमार देवोंका आहुति देवे / (3) मंगलको खैरकी लकड़ीसे अाहाहन कर भूमि शुद्ध कर, नागकुमारको तृप्त भुने हुए गुड़ घी मिले हुए जौके सत्तसे और गूगल, करे / फिर द्वारपालदेवोंको पूजकर नागराजको सफेद धी, लाल इलायची, अगरुकी धूपसे बाहुति देवे। चूर्णसे, कुवेरको पीलेसे; हरितदेवको हरेसे, रक्त(४) बुद्धको अपामार्गकी लकड़ीसे भात बना कर प्रभदेवको लालसे, कृष्णप्रभदेवको काले चूर्णसे, दूध डाल राल घी से आहुति देवे / (5) बृहस्पतिको शत्रुओं के नाश के वास्ते स्थापन करे / फिर अर्हतपीपलकी लकड़ीसे बनी हुई खीर, घी, धूपसे आहुति की पूजाकर 16 विद्या देवियोंकी पूजा अाह्वाहनादि देवे। (6) शुक्रको ऊंबरकी लकड़ी फल्गुकी लकड़ीसे करके अलग 2 अष्टद्रव्यसे करे / फिर 24 जिनभुने हुए जौ, गुड़, घी, की आहुति देवे (7) शनिको माताओंकी पूजा अष्टद्रव्यसे , 32 इन्द्रोंकी समीकी लकड़ी, उड़द, तेल, चावल, राल, घी, पूजा. करे। फिर 24 यक्षदेवोंकी, फिर 24 यक्षीअगरकी श्राहति देवे / () राहको दबके ईधनसे देवियोंकी श्राहाहनादिके साथ अष्टद्रव्यसे करे। फिर पकाया हुअा गेहूँ आदिका चूर्ण, काजल, दूध, घी, द्वारपालोंकी, फिर चारदिशाओंके यक्षोंकी, फिर लाखकी आहुति देवे। (6) केतुको उड़द और कुलथीके अनावृत यक्षकी, फिर छत्रादि आठ मंगल द्रव्योंकी चूनको दर्भके ईधनसे पका कर धी. कच्ची बेल पूजा अष्टद्रव्य से करे, और फिर अ आयुध ( हथि-: मिला कर आहुति देवे / यार.) स्थापन करे / फिर आठ ध्वजा स्थापन करे / फिर परम ब्रह्म अर्हतदेवकी पूजा कर श्री आदि अब यहाँ, इस मौके पर, इन देवी देवताओंका देवियोंको प्रष्ट द्रव्य चढ़ावे, फिर गंगा आदि देवियोंको कुछ स्वरूप भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है बढ़ाये, फिर सीता नंदीके महाकुडके देवोंको : जो कि इनकी पूजा समय प्रतिष्ठाग्रन्थोंके अनचढ़ावे, फिर लतणादधि, कालोदधिके समुद्रोंके - सार वर्णन किया जाता है / वज्र, चक्र, तलवार, मुद्गर मागधनादि तीर्थ देवोंको, फिर सीता सीतोदानदियोंके और गदाअादि हथियारों को रुद्राणी, वैष्णवी, बाराही, मामधश्रादि तीर्थ. . देवताओंको फिर असंख्य ब्राह्माणी, लक्ष्मी, चामुंडा, कौमारी और इन्द्राणी धारण (अनगणित) समुद्रोंके देवोंको, फिर जिनको लोक किये होती हैं। ये देवियों कोई ऐरावत पर, कोई गरुड़ मानते हैं ऐसे तीर्थ देवोंको, जल आदि अष्टद्रव्य चढ़ावे। पर, कोई मोर पर, कोई जंगलीसूअर आदि पर सवार सब ही जल देवताओंको अष्ट द्रव्य पूजासे प्रसन्न कर होती हैं / ध्वजा भी जया, विजया, सुप्रभा, चन्द्रमाला, सरोवरमें घुसे और कलशोंको पानोसे भरकर उन मनोहरा, मेघमाला, पद्मा और प्रभावती नामकी देवियों कलशोंको चन्दन, पुष्पमाला, दूब, दर्भ, अक्षत और के हाथमें होती है। 16 विद्यादेवियोंके नाम रोहिणी सरसोंसे पूज कर सौभाग्यवती स्त्रियोंके हाथ मंडपमें प्राप्ति, वज्रशृंखला, वज्रांकुशा, जम्बुनदा, पुरुषदत्ता, लेजाकर जिनेन्द्रदेवकी पूजा करे। . काली, महाकाली, गौरी, गांधारी, ज्वालामालिनी, - अहंत आदिका : पूर्जनकर क्षेत्रपालकी मानवी, बैरोटी, अच्युता, मानसी, महामानसी नामकी पूजा अष्टद्रव्यसे करे / फिर वास्तुदेवकी पूजाकर,' हैं / इनमें से कोई घोड़े पर सवार होती है, कोई हाथी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमाओंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि 115 पर, कोई मोर पर, कोई मग पर, कोई अष्टापद पर, नम्रा, दुरिता, पुरुषदत्ता, मोहनी, काली, ज्वालामालिनी, कोई गोह पर, कोई कछुए पर, कोई भैंसे पर, कोई मशकाली, चामुंडा, गौरी, विद्युतमालिनी, बैरोटी, विज़ंसूअर पर, कोई सिंह पर, कोई साँप पर और कोई भणी, मानसी, कंदर्पा, गांधारिणी, काली, मनजात, हंस पर, इनमेंसे अनेकोंके चार चार हाथ हैं और बहुरूपिणी, कुसुमालिनी, कुष्मांडिनी; पद्मावती, और किसी किसी के आठ आठ भी। हाथों में तलवार. चक्र भद्रासना है। इनमेंसे भी कोई हँस पर, कोई हाथी-पर, खड्ग, वज्रकी सांकल, अंकुश, भाला, वज्र, मूसल, कोई घोड़े पर, कोई बैल पर, कोई भैंसेपर, कोई कछुए . धनुष, बाण, त्रिशूल, और फल कमल श्रादि होते हैं। पर, कोई सूअर पर, कोई हिरण पर, कोई मगरमच्छ पर, इसी रूपमें इनका आह्वाहन कर अलग 2 अष्टद्रव्य कोई अजगर पर, कोई बाघ पर, कोई मोर पर, कोई से इनकी पूजा की जाती है / अष्टापद पर, कोई काले साँप पर, कोई कुक्कुट सर्प पर ___ धर्मात्माओंके बैरियोंका नाश करनेवाले 24 यक्ष चढ़कर पूजा करनेको आती हैं। इनके भी किसीके जिनकी श्राहाहनकर पूजा की जाती है। वे जिस रूपमें चार हाथ किसीके आठ और किसीके उससे भी ज्यादा पूजे जाते हैं, उसका वर्णन इस प्रकार है / नाम इनका हाथ होते हैं / हाथोंमें वज्र, चक्र परशु, तलवार, नागगोमुख, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुंबर, पुष्प, मातंग, * पाश, त्रिशूल, धनुष, बाण, ढाल, मुग्दर, मूसल, अंकुश, श्याम, अजित, ब्रह्म, ईश्वर, कुमार, चतुर्मुख, पाताल, मच्छली, साँप, हिरण, वृक्षकी टहनी और वृक्ष और किन्नर, गरूड़, गंधर्व, खेन्द्र, कुवेर, वरुण, भृकुटी, फल आदि होते हैं। गोमेध, धरण और मातंग है / इनमेंसे किसीके तीन दिक्पालोंकों उनके आयुध, बाहन स्त्री और परिवार मुख हैं, किसीके चार / किसीका गायकासा मुख है। सहित श्राहाहन आदि द्वारा बुलाकर पूजाकी जाती है किसीके तीन आँख, किसीका काल कुटिल मुख, किसीके और बलि दीजाती है / नाम उनके इन्द्र, अग्नि, यम नागफणके तीन सिर तीन मुख, किसीका तिर्खामुख, नैऋत्यु वरुण, वायु, कुवेर, ईशान, धरणेन्द्र और चंद्र किसीकी देहमें सांपोंका जनेऊ / कोई बैल पर सवार, हैं / इनमें कोई ऐरावत पर, कोई मेंढ़ेपर, कोई भैसेपर, कोई हाथी पर, कोई सूअर पर, कोई गरूड़ पर, कोई कोई हाथी पर, कोई घोड़े पर,कोई बैल पर, कोई कार, हिरण पर, कोई सिंह पर, कोई कबूतर पर, कोई कछुए- पर, कोई सिंह पर सवार होकर. अाता है, इनके भी' पर, कोई सिंह पर, और कोई मोर पर, कोई मगरमच्छ हाथोंमें बन, अग्नि ज्वाला; शक्ति, दंड, मुग्दर, नागपर और कोई मच्छलीपर / हाथोंमें फरसा, चक्र, त्रिशूल, पाश, वृक्ष, त्रिशूल, भाला और अन्य वस्तुएं होती हैं। अंकुश, तलवार, दंड, धनुष, बाण, सांप, भाला, शक्ति, किसीके सर्पाकृति भूषण, किसीके अांखसे अग्निकी गदा, चाबुक, हल, मुग्द्र, नागपाश और फल आदि ज्वाला निकले, कोई नाग देवोंसे युक्त, फण पर मणि लिये हुए, किसीके चार हाथ, किसीके अाठ और किसी- सूर्यके समान चमके, अष्ट दिव्यसे इनकी पूजा करनेके के इससे भी ज्यादा। . . बाद जौ, गेहूँ, मूंग, शाली, उड़द आदि सात प्रकारके ___ 24 यक्षीदेवियोंकी पूजा, जिस रूपमें की जाती है, अनाजकी सात सात मुट्ठीकी आहुति इन दिकपालोंके वह इस प्रकार है / नाम इनका चक्रेश्वरी अजिता, वास्ते जल कुंडमें दी जावे / श्राहाहन इनका परिवार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 :. . अनेकान्तः : ... वर्ष 3, किरण 1 AnuuuuuN सहित इस प्रकार किया जावे:- .. . .. कोई गरुड़ पर, कोई घोड़े पर, कोई हाथी पर, कोई . "हीको स्वायुधवाहनबन्धुचिन्हसपरिवार के सिंह पर, कोई सूअर पर, कोई अष्टापद पर, कोई हंस इन्छ मागच्छ र संवौषट् तिष्ठ तिष्ठ :: मम सहितो पर चढ़ कर आता है / किसीकी भैंसेश्रादि सात भव भव वषट्, इन्द्राय स्वाहा, परिजनाय स्वाहा, अनुः प्रकारकी सेना, किसीकी मगर श्रादि सेना, किसीकी चराय स्वाहा, महत्तराय स्वाहा, भग्नये स्वाहा, भनि- ऊंट आदि सात प्रकारकी सेना, किसीकी सिंहादि बाय स्वाहा, वरुणाय स्वाहा, प्रजापतये स्वाहा / " सात प्रकारकी सेना, किसीकी घोड़ा आदि सात प्रकार अनावृत यक्ष, जिसकी पूजा कीजाती है, वह गरुड़ की सेना; किसीके हाथमें दंड, किसीके हाथ में तलवार पर सवार होते हैं / चार हाथोंमें चक्र, शंख आदि लिए किसीका आयुध वृक्ष किसीके हाथमें नागपाशादि होते हैं जम्बूदीपके जम्बूवृक्ष पर रहते हैं जयन्त,अपर- होता है। ज्योतिषेन्द्र जिनकी पूजा होती है दो हैं एक जित, विजय, वैजयंत उनके नाम है। पूर्वकी तरफ चन्द्रमा, जिसकी सिंहकी सवारी और दूसरा सूर्य उनको बलि दी जाती है। सोम, यम, वरुण, कुवेर ये जिसकी सवारी घोड़ा होता है। चार द्वारपाल है, जो दुष्टोंके वास्ते यमके समान हैं / इनके तिथि देवता 15 हैं जिनकी पूजा होती है, यह हाथमें भी क्रमशः धनुष, दण्ड, पाश और गदा होती है। भी यक्ष होते हैं। यह अग्नि, पवन, जल आदि पाठ ब्रह्मबलि इस प्रकार दी जाती है-ओं ह्रीं क्रो रक्तवण- प्रकारके रूपके होते हैं / यक्ष, वैश्वानर, राक्षस, नधृत, यन आयुध युवति जन सहित ब्रह्मन् भूर्भुवः स्वः स्वाहा पन्नग, असुर, सुकुमार, पित, विश्वमाली, चमरवैरोचन, इमं सायं चरु अमृतमिव स्वस्तिकं गृहाण / इसही प्रकार महाविद्य, मार, विश्वेश्वर, पिंडाशिन इनके नाम हैं / और भी दिकपालोको बलि दीजाती है / जयादि देवियों- कुमुद, अंजन, बामन और पुष्पदंत इन चार द्वारपालोकी पूजा अष्टद्रव्यसे की जाती है / नाम इनके जया, की पूजा होती है। सर्वाण्ह यक्षकी पूजा होती है जो विनया, अजिता, अपराजिता; जुभा, मोहा, स्तंभा, सफेद हाथी पर चढ़कर आता है। महाध्वज यक्षकी स्तंमिनी है, इनके भी हाथ होते हैं। पर्वतोंके पूजा होती है, अष्टदिक्कन्याओंकी पूजा होती है, और सरोवरोंके कमलोंमें रहनेवाली देवियोंकी भी पूजा वास्तुदेवको बलि दी जाती है जो इस प्रकार है-पद कीजाती है : नाम जैश्री, ही, धृति, कीर्ति बुद्धि, लक्ष्मी देवको मांजी बड़े और भातकी बलि ब्रह्माको जो शांति और. पुष्टि हैं। 32 प्रकारके इन्द्रोंकी भी पूजा गांव खेत और घरोंमें रहता है, घी दूध मिला हुआ होती है जिनमें भवनवासी और व्यन्तरके नाम असु. भात, इन्द्रको फूल; अग्निको दूध घी, यमको जो रेन्द्र, नागेन्द्र, सुपरेन्द्र, दीपकुमारंन्द्र, उदधिकुमारेन्द्र, भैंसेपर सवार है. तिल और शमी / नैऋत्यको तेल मिली स्तनितकुमारेन्द्र, विद्युतकुमारेन्द्र, दिक्कुमारेन्द्र, अग्नि हुई खली। वरुणको दूध भात वायुको हल्दीका चूर्ण कुमारेन्द्र, बातकुमारेन्द्र, किन्नरेन्द्र, किंपुरुषेन्द्र; महो- कुवेरको खीर अन्न / ईशानको घी दूध मिला हुआ रगेन्द्र, गंधर्वेन्द्र, यक्षेन्द्र, राक्षसेन्द्र, भूतेन्द्र, और भात, आर्यको पूरी लङ्क, और फल, विस्वस्तको उड़द पिशाचेन्द्र, इनमेंसे हर एक इन्द्रकी दो दो हजार और तिल, मित्रदेवको दही और दूब, महीधरको दूध देवियाँ है। इनमें से भी कोई भैंसे पर, कोई कछवे पर, सवीन्द्रको धानकी खील, साबिन्द्रको काफूर फैसर और Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० 2466] वीतराग प्रतिमाश्रींकी अजीब प्रतिष्ठा विधि 117 इन्द्रको जो व्यंतरोंका राजा है मूंगका बाटा, और बड़े विधिमें भी लिखा है कि मंदिरके शिखरपरके कलशोंसे इन्द्रराजको बड़े और मूंगका आटा, रुद्रको जो व्यंतरों एक हाथ ऊँची ध्वजा आरोग्यता करती है, दो हाथ का राजा है गुड़ के गुलगुले, व्यंतरोंके राजा रुद्रजय ऊँची पुत्रादि सम्पत्ति देती है, तीन हाथ ऊँची धान्य को भी गुड़के गुलगुले, श्राप देवताको गुड़के गुलगुले, आदि सम्पत्ति, चार हाथ ऊंची राजाकी वृद्धि, पाँच कमल और संख, पर्जन्यदेवको घी,जयंतदेवको लोणी, हाथ ऊँची सुभिक्ष और राज वृद्धि करती है, इत्यादि / घो अतंरिक्षदेवको हलद और उड़दका चून, पूषनदेवको अन्य भी अद्भुत बातें इन प्रतिष्ठा पाठोंमें लिखी हैं, सेवयोंका भात, विरुथदेवको कुट्ट अनाज, राक्षसदेवको जिनके द्वारा वीतराग भगवानकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की ज्येष्ठमध, गंधर्वदेवको कपूर आदि सुगंध, भगराजदेवको गई हमारे मंदिरोंमें विराजमान हैं / दूध भात, मृषदेवको उड़द, दौवारिकदेवको चावलोंका प्राचीन श्राचार्योंके ग्रन्थोंमें तो यह लिखा मिलता आटा, सुग्रीवदेवको लड्डु, पुष्पदन्तदेवको फूल, असुर- है कि जिनेन्द्रदेवके गुण-गान करनेसे सब विघ्न दूर देवको लाल रंगका अन्न, शोषदेवको धुले हुए तिल होजाते हैं,कोई भी भय नहीं रहता है,सब ही पाप दूर हो चावल, रोगदेवको कारिका, नागदेवको शक्कर मिली जाते हैं / दुष्ट देव किसी तरहकी कोई खराबी नहीं कर हुई खील, मुख्यदेवको उत्तम वस्तु, भल्लाटदेवको गुड़ सकते हैं / सबही काम यथेष्ट रूपसे होते रहते हैं, परन्तु मिला हुअा भात, मृगदेवको गुड़के गुलगुले, अदिति इन प्रतिष्ठा पाठोंके द्वारा तो श्री अर्हत भगवान्का पंच को लड्डु उदितिको उत्तम वस्तु, विचारदेवको नमकीन. कल्याणक निर्विघ्न समाप्त होनेके वास्ते भी बुरे भले सब खाना, पूतनादेवीको पिसे हुए तिल, पापराक्षसीको ही प्रकारके देवी देवताओं यहाँतक कि भूतों प्रेतों राक्षसों कुलथी अनाज, चारकी देवीको घी शक्कर / अादि सबही व्यंतरों और सोम,शनिश्चर,राहु,केतु आदि ___ इतने ही से पाठक समझ सकते हैं कि क्या इस सबही ग्रहोंको अष्ट द्रव्यसे पूजा जाता है, उनकी रुचिकी प्रकार दुनिया भरके सभी देवी देवताओंको पूजनेसे अलग२ बलि दी जाती हैं और यज्ञ भाग देकर विदा ही वह वीतरागरूप प्रतिमा मन्दिर में विराजमान किया जाता है। उनके सब परिवार और अनुचरों सहित करने योग्य हो सकती है, अन्यथा नहीं / या इस इसही तरह अाह्वान किया जाताहै जिस प्रकार श्रीअर्हतों प्रकार इन रागीद्वेषी देवताओंको पूजनेसे हमारा श्रद्धान का किया जाता है, मानों जैनधर्म ही बदल कर कुछका भ्रष्ट होता है और प्रतिमा पर भी खोटे ही संस्कार पड़ते कुछ होगया है / उदाहरणके तौर पर तिलोयपण्णत्तिकी हैं / पं० अाशाधरके प्रतिष्ठापाठमें और प्रायः अन्य सब एक गाथा 1, 30 नीचे उद्धृतकी जाती है जो धवलमें ही प्रतिष्ठापाठोंमें यक्ष यक्षिणियों, क्षेत्रपाल श्रादिकी भी उद्घतकी गई है / जिनेन्द्र भगवानकें स्मरणकरनेके मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाविधि भी लिखी है, जिनकी प्रतिष्ठा दिव्य प्रभावके ऐसे२ कथन सबही प्राचीन शास्त्रोंमें भरे होनेके बाद मंदिरमें विराजमान कर, नित्य पूजन करते पड़े हैं जिनको पढ़कर हमको अपने श्रद्धानको ठीक रहनेकी हिदायत है। यक्षोंकी प्रतिष्ठा पाँच स्थानोंके करना चाहिये और मिथ्यातसे भरे हुए इन प्रतिष्ठा पाठोंके जलसे प्रतिबिम्बका अभिषेककर रात्रिमें करनी चाहिए। जालमें फँसकर अपने श्रद्धानको नहीं बिगाड़ना चाहिये / पं० श्राशाधरजीने मंदिर के शिखर पर ध्वजा चढ़ानेकी णासदि विग्धं भेददियं हो दुट्टासुराणलंघति / - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 इटो अत्थो लब्भर जिणणामंगहणमेत्तेण // 1-30 // बिम्ब अंकित कराकर उनको अयोध्या के बाहरी दर्वाज़ों विघ्नाः प्राणश्यन्ति भयं न जातु न दुष्टदेवाःपरिलंघयन्ति और राजमहलके बाहरी दर्वाजोंपर लटकाया / जब वे अर्थान्यथेष्टांश्च सदालभन्ते जिनोत्तमानां परिकीर्तनेन // 21 आते जाते थे तो उन्हें इन घंटोंपर अंकित हुई मूर्तियोंको ___ अर्थात्-जिनेन्द्र भगवानके नाम लेने मात्रसे देखकर भगवान्का स्मरण हो पाता था और तब वे विघ्न नाश होजाते हैं,पाप दूर हो जाते हैं, दुष्ट देव कुछ इन घंटोंपर अंकित जिनबिम्बोंकी बंदना तथा पूजा किया बाधा नहीं कर सकते हैं, इष्ट पदार्थोकी प्राप्ति होती है। करते थे। कुछ दिन पीछे नगरके लोगोंने भी ऐसे घंटे ___ इसके अलावा जिनेन्द्र भगवान्की मूर्ति बिना प्रतिष्ठा- अपनेर मकानोंके बाहरी द्वारों पर बांध दिये, और वेभी के ही पूज्य है, इसके लिये हमको अादिपुराण पर्व 41 के उन पर अंकित जिन-बिम्बोंकी पूजा बन्दना करने लगे। श्लोक 85 से 15 तकका वह कथन पढ़ना चाहिये, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि भगवान्की मूर्तियोंको प्रतिष्ठा जिसमें लिखा है कि, भरत महाराजने घंटोंके ऊपर जिन- करानेकी कोई आवश्यकता नहीं है वे वैसे ही पूज्य हैं / .विनयसे तत्वकी सिद्धि है राजगृही नगरीके राज्यासन पर जिस समय उस परसे आम तोड़ लिये। बादमें दूसरे मात्रके श्रेणिक राजा विराजमान था उस समय उस द्वारा उसे जैसाका तैसा कर दिया। बाद में चांडाल नगरीमें एक चाण्डाल रहता था। एक समय इस अपने घर आया। इस तरह अपनी स्त्रीकी इच्छा चांडालकी स्त्रीको गर्भ रहा / चाडालिनीको आम पूरी करनेके लिये निरन्तर यह चांडाल विद्याके खानेकी इच्छा उत्पन्न हुई / उसने आमोंको लाने- बलसे वहाँसे आम लाने लगा। एक दिन फिरते 2 के लिये चांडालसे कहा / चांडालने कहा, यह मालीकी दृष्टि उन आमों पर गई। आमोंकी चोरी श्रामोंका मौसम नहीं,इसलिये मैं निरुपाय हूँ। नहीं हुई जानकर उसने श्रेणिक राजाके आगे जाकर तो मैं आम चाहे कितने ही ऊँचे हों वहींसे अपनी नम्रतापूर्वक सब हाल कहा / श्रेणिककी आज्ञासे विद्याके बलसे तोड़ कर तेरी इच्छा पूर्ण करता / अभयकुमार नामके बुद्धशाली प्रधानने युक्तिके चांडालिनीने कहा, राजाकी महारानीके बागमें एक द्वारा उस चाडालको ढूंढ निकाला / च।डालको असमय फल देने वाला आम है; उसमें आज कल अपने आगे बुलाकर अभयकुमारने पूछा, इतने आम लगे होंगे / इसलिये आप वहाँ जाकर आमों मनु य बागमें रहते हैं, फिर भी तू किस रीतिसे को लावें / अपनी स्त्रीकी इच्छा पूर्ण करनेको चा. ऊपर चढ़कर आम तोड़कर ले जाता है, कि यह डाल उस बागमें गया। चांडालने गुप्तरीतिमे आम- बात किसीके जाननेम नहीं आती ? चांडालने कहा, के समीप जाकर मंत्र पढ़कर वृक्षको नवाया और आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैं सच 2 कह देता Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० 2466] विनयसे तत्त्वकी सिद्धि है 116 हूँ कि मेरे पास एक विद्या है / उसके प्रभावसे होगई है। मैं इन आमोंको तोड़ सका हूँ। अभयकुमारने कहा यह बात केवल शिक्षा ग्रहण करनेके वास्ते मैं स्वयं तो क्षमा नहीं कर सकता, परन्तु महाराज है। एक चांडालकी भी विनय किये बिना श्रेणिकश्रेणिकको यदि तू इस विद्याको देना स्वीकार करे, जैसे राजाको विद्या सिद्ध नहीं हुई, इसमेंसे यही तो उन्हें इस विद्याके लेनेकी अभिलाषा होनेके सार ग्रहण करना चाहिये कि सद्विद्याको सिद्ध कारण तेरे उपकारके बदले मैं तेरा अपराध क्षमा करने के लिये विनय करना आवश्यक है। आत्मकरा सकता हूँ / चांडालने इस बातको स्वीकार कर विद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुका विनय लिया। तत्पश्चात् अभयकुमारने चांडालको जहाँ करें, तो कितना मंगलदायक हो। श्रेणिक राजा सिंहामन पर बैठे थे वहाँ लाकर विनय, यह उत्तम वशीकरण है। उत्तराध्ययनश्रेणिकके सामने खड़ा किया और राजाको सब में भगवान्ने विनयको धर्मका मूल कहकर वर्णन बात कह सुनाई / इस बातको राजाने स्वीकार किया है / गुरुका, मुनिका, विद्वान्का, माता-पिताकिया / बादमें चांडाल सामने खड़ा रहकर थरथराते का और अपनेसे बड़ोंका विनय करना, ये अपनी पगमे श्रेणिकको उस विद्याका बोध देने लगा, परन्तु उत्तमताके कारण हैं। वह बोध नहीं लगा / झटसे खड़े होकर अभय -श्रीमद् राजचन्द्र कुमार बोले, महाराज ! आपको यदि यह विद्या अवश्य सीखनी है, तो आप सामने आकर खड़े * किसी कविने क्या खूब कहा हैरहें और इसे सिंहासन दें। राजाने विद्या लेनेके उत्तम गुणको लीजिए यदपि नीच पै होय / / वाम ऐसा ही किया, तो तत्काल ही विद्या सिद्ध परौ अपावन ठौर में कंचन तजे न कोय / आलोचन जैनधर्ममें आलोचन अथवा आलोचनाको बड़ा महत्व प्राप्त है, उसकी गणना अंतरंग तपमें है और वह प्रायश्चित्त नामके अंतरंग तपका पहला भेद है, जिसके द्वारा आत्मशुद्धिका उपक्रम किया जाता है / अपने किये हुए दोषों, अपराधों तथा प्रमादोंको खुले दिलसे गुरुसे निवेदन करना अथवा अन्यप्रकारसे उन्हें प्रकट कर देना आलोचना कहलाता है और वह आत्मविकास के लिये बहुत ही आवश्यक वस्तु है। जब तक मनुष्य अपने दोषोंको दोष, अपराधोंको अपराध और प्रमादोंको प्रमाद नहीं समझता अथवा समझता हुआ भी अहंकारवश उन्हें छिपानेकी और उनका संशोधन न होने देनेकी कोशिम करता है तबतक उसका उत्थान नहीं हो मकता--नसे पतनोन्मुख समझना चाहिये--वह आत्मशुद्धि एवं विकासके मार्गपर अग्रसर नहीं हो सकता। अतः आत्मशुद्धिके अभिलाषियोंका ग्रह पहला कर्तव्य है कि वे आलोचनाको अपनाएँ, अपने दोषों अपनी त्रुटियोंको समझे और उन्हें सद्गुरु आदिसे निवेदनकर अपनेको शुद्ध एवं हलका बनाएँ / मात्र आलोचना-पाठ के पढ़लेनेसे आलोचना नहीं बनती। उससे तो यांत्रिक चारित्रकी-जड़मशीनों-जैसे आचरणकी वृद्धि होती है। -युगवीर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 विवेकका अर्थ लघु शिष्य-भगवन आप हमें जगह जगह ज्ञानदर्शनरूप आत्माके सत्यभाव पदार्थको अज्ञान कहते आये हैं कि विवेक महान श्रेयस्कर है। विवे- और श्रदर्शनरूपी असत् वस्तुओंने घेर लिया है / क अन्धकारमें पड़ी हुई आत्माको पहिचाननेके इसमें इतनी अधिक मिश्रता आगई है कि परीक्षा लिये दीपक है। विवेकसे धर्म टिकता है / जहाँ करना अत्यन्त ही दुर्लभ है। संसारके सुखोंको विवेक नहीं वहाँ धर्म नहीं, तो विवेक किसे कहते आत्माके अनंतबार भोगने पर भी उनमेंसे अभी हैं, यह हमें कहिये। भी आत्माका मोह नहीं छूटा, और आत्माने उन्हें गुरु-आयुष्मानों ! सत्यासत्यको उसके अमृतके तुल्य गिना, यह अविवेक है / कारण कि स्वरूपसे समझनेका नाम विवेक है। संसार कड़ वा है तथा यह कड़वे विपाकको देता लघु शिष्य-सत्यको सत्य और असत्यको है। इसी तरह आत्माने कड़वे विपाककी औषधअसत्य कहना तो सभी समझते हैं। तो महाराज ! रूप वैराग्यको कड़ वा गिना यह भी अविवेक है / क्या इन लोगोंने धर्मके मूलको पालिया, यह कहा ज्ञान दर्शन आदि गुणोंको अज्ञानदर्शनने घेर कर जा सकता है ? जो मिश्रता कर डाली है, उसे पहचान कर भाव___ गुरु-तुम लोग जो बात कहते हो उसका अमृतमें आनेका नाम विवेक है / अब कहो कि . कोई दृष्टान्त दो। विवेक यह कैसी वस्तु सिद्ध हुई। ___ लघु शिष्य-हम स्वयं कड़वेको कड़वा ही लघशिष्य--अहो ! विवेक ही धर्मका मूल कहते हैं, मधुरको मधुर कहते हैं, जहरको जहर और धर्मका रक्षक कहलाता है, यह सत्य है। और अमृतको अमृत कहते हैं। आत्माके स्वरूपको विवेक बिना नहीं पहचान ___गुरु-आयुष्मानों ! ये समस्त द्रव्य पदार्थ हैं। सकते, यह भी सत्य है / ज्ञान, शील, धर्म, तत्त्व, परन्तु आत्मामें क्या कडुवास, क्या मिठास, क्या और तप यह सब बिवेक बिना उदित नहीं होते, जहर और क्या अमृत है ? इन भाव पदार्थोंकी यह आपका कहना यथार्थ है / जो विवेकी नहीं, क्या इससे परीक्षा हो सकती है ? वह अज्ञानी और मंद है / वही पुरुष मतभेद और लघुशिष्य--भगवन् ! इस ओर तो हमारा मिथ्यादर्शन में लिपटा रहता है / आपकी विवेक लक्ष्य भी नहीं। संबन्धी शिक्षाका हम निरन्तर मनन करेंगे। गुरु--इसलिये यही समझना चाहिये कि –श्रीमद् राजचन्द्र Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति [सम्पादकीय ] -:: मार्सा कई सालका हुआ सुहृद्धर पं० नाथूरामजी प्रेमीने 32 पद्य तथा प्रशस्तिरूपसे 6 पद्य और दिये हैं वे बम्बईसे तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक पुरानी हस्त- सब कारिकाएँ एवं पद्य इस सटिपप्ण प्रतिमें ज्यों-के-त्यों लिखित सटिप्पण प्रति, सेठ राजमलजी बड़जात्याके पाये जाते हैं,और इससे ऐसा मालूम होताहै कि टिप्पणयहाँसे लेकर, मेरे पास देखने के लिए भेजी थी / देखकर कारने उन्हें मूल तत्त्वार्थसूत्रके ही अंग समझा है / मैंने उसी समय उसपरसे अावश्यक नोट्स (Notes) (3) इस प्रतिमें संपूर्ण सूत्रोंकी संख्या 346 और लेलिये थे, जो अभी तक मेरे संग्रहमें सुरक्षित हैं / यह प्रत्येक अध्यायके सूत्रोंकी संख्या क्रमशः 35, 53, 16 सटिप्पण प्रति श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी है और 54, 45, 27, 33, 26, 46, 8 दी है / अर्थात् दूसरे जहाँतक मैं समझता हूँ अभी तक प्रकाशित नहीं हुई। तीसरे, चौथे, पाँचवे, छठे और दसवें अध्यायमें सभाष्य श्वे. जैन कॉन्फ्रेंस-द्वारा अनेक भण्डारों और उनकी तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी उक्त सोसाइटी वाले संस्करणकी सूचियों आदि परसे खोजकर तय्यार की गई 'जैन ग्रन्था- छपी हुई प्रतिसे एक-एक सूत्र बढ़ा हुआ है; और वे सब वली'में इसका नाम तक भी नहीं है और न हालमें प्रकाशित बढ़े हुए सूत्र अपने-अपने नम्बरसहित क्रमशः इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकी पं० सुखलालजी-कृत विवेचनकी विस्तृत हैं:प्रस्तावना (परिचयादि) में ही, जिसमें उपलब्ध टीका- तैजसमपि१०, धर्मा वंशा शैल्लांजनारिष्टा माघम्या टिप्पणोंका परिचय भी कराया गया है, इसका कोई माघवीति च 2, उच्छू वसाहारवेदनोपपातानुभावतश्च उल्लेख है ।और इसलिये इस टिप्पणकी प्रतियाँ बहुत कुछ साध्याः 23, स द्विविधः 42, सम्यक्तं च २१;धर्मास्तिविरलसी ही जान पड़ती हैं / अस्तु; इस सटिप्पण प्रतिका कायाभावात् / परिचय प्रकट होनेसे अनेक बातें प्रकाशमें आएँगी, और सातवें अध्याय में एक सूत्र कम है-अर्थात् 'सचित्त अतः आज उसे अनेकान्तके पाठकोंके सामने रक्खा निक्षेपापिधानपरण्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः // ' जाता है / यह सूत्र नहीं है। (1) यह प्रति मध्यमाकारके 8 पत्रों पर है, जिनपर : सूत्रोंकी इस वृद्धि हानिके कारण अपने२ अध्यायमें पत्राङ्क 11 से 18 तक पड़े हैं / मूल मध्यमें और टिप्पणी अगले-अगले सूत्रोंके नम्बर बदल गये हैं / उदाहरणके हाशियों (Margins) पर लिखी हुई है। तौर पर दूसरे अध्यायमें 503 नम्बरपर 'तैजसमपि' सूत्र (2) बंगाल-एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ताद्वारा आजानेके कारण ५०वें 'शुभं विशुद्ध 'सूत्रका नम्बर 51 सं० 1956 में प्रकाशित सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके हो गया है,और ७वें अध्यायमें ३१वाँ 'निक्षेपापिधान' शुरूमें जो 31 सम्बन्ध-कारिकाएँ दी हैं और अन्तमें सूत्र न रहनेके कारण उस नम्बर पर 'जीवितमरणा.' Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण नामका 32 वाँ सूत्र आगया है। पुढवीयो छत्ताइछत्तसंठाण' इत्यागमात् / " .. दूसरी प्रतियोंमें बढ़े हुए सूत्रोंकी बाबत जो यह . ग-"केचिज्जडाः ‘स द्विविध' इत्यादिसूत्राणि कहा जाता है कि वे भाष्यके वाक्योंको ही गलतीसे सूत्र न मन्यते / " समझ लेने के कारण सूत्रोंमें दाखिल होगये हैं, वह यहाँ ये तीनों वाक्य प्रायः दिगम्बर आचार्योंको लक्ष्य 'सम्यक्त्वंच' सूत्रकी बाबत संगत मालूम नहीं होता;क्योंकि करके कहे गये हैं / पहले वाक्यमें कहा है कि 'कुछ लोग पूर्वोत्तरवर्ती सूत्रोंके भाष्यमें इसका कहीं भी उल्लेख नहीं अाहारकके निर्देशात्मक सूत्रसे पूर्व ही “तैजसमपि" है और यह सूत्र दिगम्बरसूत्रपाठमें 21 वें नम्बर पर ही यह सूत्र पाठ मानते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं; क्योंकि पाया जाता है। पं० सुखलालजी भी अपने तत्त्वार्थसूत्र- ऐसा होने पर श्राहारक शरीर लब्धि जन्य नहीं ऐसा भ्रम विवेचनमें इस सूत्रका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उत्पन्न होता है, आहारककी तो लब्धि ही योनि है / ' श्वेताम्बरीय परम्पराके अनुसार भाष्यमें यह बात सम्य- दूसरे वाक्यमें बतलाया है कि 'कुछ लोग 'धर्मा वंशा' क्त्वको देवायुके श्रास्रवका कारण बतलाना) नहीं है। इत्यादि सूत्रको जो नहीं मानते हैं वह ठीक नहीं है।' इससे स्पष्टहै कि भाष्यमान्य सूत्रपाठ श्वेताम्बरसम्प्रदाय- साथ ही, ठीक न होने के हेतुरूपमें नरकमियोंके दूसरे में बहुत कुछ विवादापन्न है,और उसकी यह विवादापन्नता नामोंवाली एक गाथा देकर लिखा है कि 'चकि टिप्पणमें सातवें अध्यायके उक्त 31 वें. सूत्रके न होनेसे आगममें नरकभूमियों के नाम तथा संस्थानके उल्लेख और भी अधिक बढ़ जाती है; क्योंकि इस सूत्रपर भाष्य वाला यह वाक्य पाया जाता है, इसलिये इन नामों भी दिया हुआ है, जिसका टिप्पणकारके सामनेवाली वाले सूत्रको न मानना अयुक्त है / ' परन्तु यह नहीं उस भाष्यप्रतिमें होना नहीं पाया जाता जिसपर वे विश्वास बतलाया कि जब सूत्रकारने 'रत्नप्रभा' आदि नामोंके करते थे, और यदि किसी प्रतिमें होगा भी तो उसे उन्होंने द्वारा सप्त नरकभूमियोंका उल्लेख पहले ही सूत्रमें कर प्रक्षिप्त समझा होगा / अन्यथा,यह नहीं होसकता कि जो दिया है तब उनके लिये यह कहां लाज़िमी श्राता है टिप्पणकार भाष्यको मूल-चूल-सहित तत्त्वार्थसूत्रका कि वे उन नरकभूमियोंके दूसरे नामोंका भी उल्लेख त्राता (रक्षक) मानता हो वह भाष्यतकके साथमें विद्य- एक दूसरे सूत्र-द्वारा करें। इससे टिप्पणकारका यह हेतु मान होते हुए उसके किसी सूत्रको छोड़ देवे। कुछ विचित्रसा ही जान पड़ता है। दूसरे प्रसिद्ध (4) बढ़े हुए बाज़ सूत्रोंके सम्बन्धमें टिप्पणीके श्वेताम्बराचार्योंने भी उक्त 'धर्मा वंशा' श्रादि सूत्रको कुछ वाक्य इस प्रकार हैं: नहीं माना है, और इसलिये यह वाक्य कुछ उन्हें भी ____क-"केचित्वाहारकनिर्देशान्पूर्व "तैजसमपि" लक्ष्य करके कहा गया है। तीसरे वाक्य में उन श्राचार्यों इति पाठं मन्यते, नैवं युक्तं तथासत्याहारकं न लब्धि- को 'जडबुद्धि' ठहराया है जो “स द्विविधः" इत्यादि जमिति भ्रमः समुत्पद्यते, आहारकस्य तु लब्धि- सूत्रोंको नहीं मानते हैं !! यहां 'श्रादि' शब्दका अभिप्राय रेव योनिः।" 'अनादिरादिमांश्च,' 'रूपिष्वादिमान्,' . 'योगोपयोगी __ख-"केचित्तु धर्मावंशेत्यादिसूत्रं न सन्यते तदसत्। जीवेषु,' इन तीन सूत्रोंसे है जिन्हें 'स द्विविधः' सूत्र'घम्मा वंसा सेला अंजनरि / मघा य माधवई, नामेहि सहित दिगम्बराचार्य सूत्रकारकी कृति नहीं मानते हैं / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] | तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति परन्तु इन चार सूत्रोंमेंसे 'स द्विविधः' सूत्रको तो दूसरे इसलिये उक्त सूत्ररूपसे पाठान्तर निरर्थक है। श्वेताम्बराचार्योंने भी नहीं माना है / और इसलिये यहां 'कुलालचक्रे' इत्यादिरूपसे जिन श्लोकोंका अकस्मात्में 'जडाः' पदका वे भी निशाना बन गये हैं ! सूचन किया है वे उक्त सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके उन पर भी जडबुद्धि होनेका आरोप लगा दिया अन्तमें लगे हुए 32 श्लोकोंमेंसे 10, 11, 12, 14 गया है !! _ नम्बरके श्लोक हैं, जिनका विषय वही है जो उक्त सूत्रका____ इससे श्वेताम्बरोंमें भाष्य-मान्य-सूत्रपाठका विषय उक्त सूत्रमें वर्णित चार उदाहरणोंको अलग-अलग चार और भी अधिक विवादापन्न हो जाता है और यह श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है / ऐसी हालतमें उक्त सूत्रके निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि उसका पूर्ण सूत्रकारकी कृति होने में क्या बाधा आतीहै उसे यहाँ एवं यथार्थ रूप क्या है। जब कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पर कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। यदि किसी बातको सूत्रपाठके विषय में दिगम्बराचार्योंमें परस्पर कोई मतभेद श्लोकमें कह देने मात्रसे ही उस श्राशयका सूत्र निरर्थक नहीं है / यदि दिगम्बर सम्प्रदायमें सर्वार्थसिद्धिसे पहले होजाता है और वह सूत्रकारकी कृति नहीं रहता, तो भाष्यमान्य अथवा कोई दूसरा सूत्रपाठ रूढ़ हुआ होता फिर २२वें श्लोकमें 'धर्मास्तिकायस्याभावात् स हि हेतुऔर सर्वार्थसिद्धिकार ( श्री पूज्यपादाचार्य) ने उसमें गतः परः' इस पाठके मौजूद होते हुए टिप्पणकारने कुछ उलटफेर किया होता तो यह संभव नहीं था कि "धर्मास्तिक याभावात्" यह सूत्र क्यों माना ?--उसे दिगम्बर आचार्यों में सूत्र गठ के सम्बन्धमें परस्पर कोई सूत्रकारकी कृति होनेसे इनकार करते हुए निरर्थक क्यों मतभेद न होता / श्वेताम्बरोंमें भाष्यमान्य सूत्रपाठके नहीं कहा ? यह प्रश्न पैदा होता है, जिसका कोई भी विषयमें मतभेदका होना बहुधा भाष्यसे पहले किसी समुचित उत्तर नहीं बन सकता / इस तरह तो दसवें दूसरे सूत्रपाठके अस्तित्व अथवा प्रचलित होनेको सूचित अध्यायके प्रथम छह सूत्रभी निरर्थकही ठहरते हैं क्योंकि करता है। उनका सब विषय उक्त 32 श्लोकोंके प्रारम्भके श्लोकों (5) दसवें अध्याय के एक दिगम्बर सूत्रके सम्बन्ध में प्रागया है-उन्हें भी सूत्रकारकी कृति न कहना चाहिये में टिप्पणकारने लिखा है-. . था / अतः टिप्पणकारका उक्त तर्क निःसार है-उससे * “केचित्तु 'प्राविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतले उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता,अर्थात् उक्त दिगम्बर पालांबुवदेरण्डवीजवदग्निशिखावच्च' इति नव्यं सूत्रं सूत्रपर कोई आपत्ति नहीं अासकती / प्रत्युत इसके,उसका प्रक्षिपंति तन्न सूत्रकारकृतिः, 'कुलालचक्रे दोलाया- सूत्रपाठ उसीके हाथों बहुत कुछ अापत्तिका विषय बन मिषौ चापि यथेष्यते' इत्यादिश्लोकैः सिंद्धस्य जाता है / गतिस्वरूपं प्रोक्तमेव, ततः पाठान्तरमपार्थ / " (6) इस सटिप्पण प्रतिके कुछ सूत्रोंमें थोड़ासा अर्थात्-कुछ लोग 'पाविद्धकुलालचक्र' नामका पाठ-भेद भी उपलब्ध होता है-जैसे कि तृतीय अध्यायके नया सूत्र प्रक्षिप्त करते हैं, वह सूत्रकारकी कृति नहीं १०वे सूत्रके शुरूमें 'तत्र' शब्द नहींहै वह दिगम्बर सूत्रहै। क्योंकि 'कुलालचक्रेदोलायामिषौ चापि यथेष्यते' पाठकी तरह 'भरतहैमवतहरिविदे'सेही प्रारम्भ होता है। इत्यादि श्लोकोंके द्वारा सिद्धगतिका स्वरूप कहा ही है, और छठे अध्यायके ६ठे (दि. ५वे सूत्रका प्रारम्भ ) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 अनेकान्त - वर्ष 3, किरण 1 - 'इन्द्रिय कषायाप्रतक्रियाः' पदसे किया गया है,जैसे कि भ्यायो दशमः / 225 पर्यंतमादितः / समाप्तं चैतदिगम्बर सूत्रपाठमें पाया जाता है और सिद्धसेन तथा दुमास्वातिवाचकस्य प्रकरणपंचशती कर्तुः कृतिस्तत्वाहरिभद्रकी कृतियोंमें भी जिसे भाष्यमान्य सूत्रपाठके धिगमप्रकरणं // " रूपमें माना गया है; परन्तु बंगाल एशियाटिक सोसाइटी इसमें मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी आद्यन्तकारिकाके उक्त संस्करणमें उसके स्थान पर 'भवतकषायेन्द्रि- ओं सहित ग्रंथसंख्या 225 श्लोकपरिमाण दी है और पक्रियाः' पाठ दिया हुआ है और पं० सुखलालजीने उसके रचयिता उमास्वातिको श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार भी अपने अनुवादमें उसीको स्वीकार किया है, जिसका पाँचसौ प्रकरणोंका अथवा 'प्रकरणपंचशती' का कर्ता कारण इस सूत्रके भाष्यमें 'अवत' पाठका प्रथम होना सूचित किया है, जिनमें से अथवा जिसका एक प्रकरण जान पड़ताहै और इसलिये जो बादमें भाष्यके व्याख्या- यह 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। क्रमानुसार सूत्रके सुधारको सूचित करता है। (6) उक्त पुष्पिकाके अनन्तर 6 पद्य दिये हैं, जो (7) दिगम्बर-सम्प्रदायमें जो सूत्र श्वेताम्बरीय टिप्पणकारकी खुदको कृति है। उनमेंसे प्रथम सात पद्य मान्यता की अपेक्षा कमती-बढ़ती रूपमें माने जाते हैं दुर्वादापहारके रूपमें हैं और शेष दो पद्य अन्तिम मंगल अथवा माने ही नहीं जाते उनका उल्लेख करते हुए तथा टिप्पणकारके नामसूचनको लिये हुए हैं। इन टिप्पणमें कहीं-कहीं अपशब्दोंका प्रयोग भी किया गया पिछले पद्योंके प्रत्येक चरणके दूसरे अदरको क्रमशः है। अर्थात् प्राचीन दिगम्बराचार्योंको 'पाखंडी' तथा मिलाकर रखनेसे 'रवसिंहो जिनं वंदे" ऐसा वाक्य 'जड़बुद्धि' तक कहा गया है। यथा उपलब्ध होता है, और इसीको टिप्पणमें "इत्यन्तिममनु-नहोत्तर-कापिठ-महाशुक्र-सहस्रारेषु नेद्रोत्पति- गाथाद्वयरहस्य" पदके द्वारा पिछले दोनों गाथा पद्योंका रिति परवादिमतमेतावतैव सत्यापितमिति कश्चिन्मा रहस्य सूचित किया है / ये दोनों पद्य इस प्रकार हैंमहाकिन पाखंडिनः स्वकपोलकल्पितबुद्धयैव षोडश निषेप्यो / नवपयोदप्रभारुचिरदेहः / पान्याहुः, नोचेदशाष्ठपंचषोडशविकरुपा इत्येव स्पष्ट / सूत्रकारोऽसूत्रयिष्यचयालंडनीयो निन्हवः।" धीसिंधुर्जिनराजो / महोदयं दिशति न कियद्भ्यः // 8 // "केचिउजडाः 'ग्रहाणामेकं' इत्यादि मूलसूत्रान्यपि वनिनोपतापहारी / सनंदिमविचकोरचंद्रास्मा / न मन्यते चन्द्रार्कादीनां मिथः स्थितिभेदोस्तीत्यपि न ये न भावं भविना तन्वन्मुदे न संजायते केषां // 6 .... ...... पश्यति।" इससे भी अधिक अपशब्दोंका जो प्रयोग किया इससे स्पष्ट है कि यह टिप्पण 'रत्नसिंह' नामके गया है उसका परिचय पाठकोंको आगे चलकर मालम किमी श्वेताम्बराचार्य का बनाया हुआ है / श्वेताम्बरहोगा। सम्प्रदायमें 'रत्नसिंह' नामके अनेक सरि-श्राचार्य हो (8) दसवें अध्यायके अन्तर्मे जो पुष्पिका (अन्तिम गये हैं; परन्तु उनमेंसे इस टिप्पणके रचयिता कौन हैं, सन्धि) दी है वह इस प्रकार है ॐ इन दोनों पचोंके अन्त में "श्रेयोन्तु" ऐसा “इति तायाधिगमेऽहंपचनसंग्रहे मोप्ररूपणा- भाशीर्वाक्य दिया हुआ है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति इसका ठीक पता मालूम नहीं हो सका; क्योंकि 'जैन- चिरं दीर्घजीयाज्जयं गम्यादित्याशीर्वचोस्मा लेखकानां ग्रन्थावली' और 'जैनसाहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' जैसे निर्मलग्रंथरकाय प्राग्वचनचौरिकायामशक्यायेति / " . ग्रंथों में किसी भी रत्नसिंहके नाम के साथ इस टिप्पण भावार्थ-जिसने इस तत्त्वाथशास्त्रको अपने ही ग्रन्थका कोई उल्लेख नहीं है। और इसलिये इनके वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों द्वारा समय-सम्बन्धमें यद्यपि अभी निश्चित रूपसे कुछ भी ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर—यह देखकर कि ऐसी कुत्तानहीं कहा जासकता, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि ये प्रकृतिके विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रविक्रमकी १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् श्राचार्य हेम- दायका बनाने वाले हैं—पहले ही इस शास्त्रकी मूलचन्द्र के बाद हुए हैं;क्योंकि इन्होंने अपने एक टिप्पणमें चूल-सहित रक्षाकी है-इसे ज्योंका त्यों श्वेताम्बरहेमचन्द्र के कोषका प्रमाण 'इति हैमः' वाक्यके साथ सम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूप में ही कायम रक्खा दिया है। साथ ही, यह भी स्पष्ट ही है कि इनमें है-वह भाष्यकार (जिसका नाम मालूम नही) चिरंसाम्प्रदायिक-कट्टरता बहुत बढ़ी चढ़ी थी और वह जीव होवे-चिरकाल तक जयको प्राप्त होवे-ऐसा हम सभ्यता तथा शिष्टताको भी उल्लंघ गई थी, जिसका कुछ टिप्पणकार-जैसे लेखकोंका उस निर्मल ग्रन्थके रक्षक अनुभव पाठकोंको अगले परिचयसे प्राप्त हो सकेगा। तथा प्राचीन-वचनोंकी चोरीमें असमर्थ के प्रति आशी (10) उक्त दोनों पद्योंके पर्वमें जो 7 पद्य . दिये र्वाद है। हैं और जिनके अन्तमें "इति दुर्वादापहार" लिखा है पूर्वाचार्यकृतेरपि कविचौरः किंचिदात्मसास्कृत्वा / उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है। यहाँ व्याख्यानयति नवीनं न तत्समः कश्चिदपि पिशुनः // 2 // उनका क्रमशः टिप्पणी-सहित कुछ परिचय कराया टिप्पा-"प्रथ ये केचन दुरास्मानः सूत्रवचनचौराः जाता है: स्वमनीषया यथास्थानं यथेप्सितपाठप्रक्षेपं प्रदर्य स्वापरप्रागेवैतददक्षिणभषणगणादास्यमानमिव मत्वा / 20 क्योंकि टिप्पणकारने भाष्यकारका नाम न देकर त्रातं समूलचनं स भाष्यकारविरं जीयात् // 1 // उसके लिये 'स कश्चित्' (वह कोई) शब्दोंका प्रयोग टिप्प.-'दक्षिणे सग्लोदारावितिहमा प्रदक्षिणा किया है। जबकि मूलसूत्रकारका नाम उमास्वाति कई असरलाः स्ववचनस्यैव परुपातमलिना इति यावत्त एवं स्सा . स्थानों पर स्पष्ट रूपसे दिया है इससे साफ ध्वनित होता भषणाःकुर्कुरास्तेषां गणेपदास्यमानं प्रहिष्यमानं स्वायत्ती- है कि टिप्पणकारको भाष्यकारका नाम मालूम नहीं था वह उसे मूलसूत्रकारसे भिन्न समझता था / करिष्यमाणमिति यावत्तथाभूतमिवैतत्तत्वार्थशासं प्रागेव भाष्यकारका निर्मलग्रन्थरतकाय' विशेषणके साथ पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः सह मूलचूलाभ्यामिति 'प्राग्वचनचौरिकायामशक्याय' विशेषण भी इसो बातसमूलचूलं जातं रचितं स कश्चिद् भाष्यकारो भाष्यकर्ता को सूचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है, भाष्यकारने उसे चुराकर ___"दक्षिणे सरलोदारौ" यह पाठ अमरकोशका अपना नहीं बनाया-वह अपनी मनःपरिणतिके है, उसे 'इति हैमः' लिखकर हेमचन्द्राचार्यके कोषका कारण ऐसा करने के लिये असमर्थ था—यही भाशय प्रकट करना टिप्पणकारकी विचित्र नीतिको सूचित यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्वातिके लिये करता है। इस विशेषणकी कोई जरूरत नहीं थी। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 ...... अनेकान्त [वर्ष 3 किरण हिताफामं कथंचित् कुर्वन्ति तद्वाक्य शुश्रूषापरिहारायेद- ऐसा होनेसे ही क्या होगया ? हम तो एकमात्र इसीमें मुच्यते-पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि / ततः परं वादविह्व- श्रादररूप नहीं वर्तरहे हैं, छोटे तालायकी तरह / क्योंकि लानां सद्वक्तृवचोप्यमन्यमानानां वाक्यात्संशयेभ्यः अाज भी जिनेन्द्रोक्त अंगोपांगादि अागमसभुद्र गर्ज रहे सुज्ञेभ्यो निरीहतया सिद्धांतेतरशास्त्रस्मयापनोदकमेवं हैं, इस कारण उस समुद्र के एकदेशरूप इस प्रकरणसेब्रमः।" उसके जाने रहनेसे-क्या नतीजा है ? कुछ भी नहीं। __ भावार्थ-सूत्रवचनोंको चुरानेवाले जो कोई इस प्रकारके बहुतसे प्रकरण विद्यमान हैं, हम दुरात्मा अपनी बुद्धिसे यथास्थान यथेच्छ पाठप्रक्षेपको किन किनमें रमनेकी इच्छा करेंगे ? / दिखलाकर कथंचित् अपने तथा दूसरों के हितका लोप परमेतावचतुरैः कर्तव्यं शृणुत कच्मि सविवेकः / करते हैं उनके वाक्योंके सुननेका निषेध करनेके लिये शुद्धो योस्य विधाता स दूषणीयो न केनापि // 4 // 'पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि' पद्य कहा जाता है, जिसका टिप्प०-"एवं चाकर्ण्य वाचको युमास्वातिदिंग आशय यह है कि 'जो कविचोर पूर्वाचार्यकी कृतिमेंसे म्बरो निह्नव इति केचिन्मावदन्नदः शिक्षार्थ 'परमेताकुछ भी अपनाकर (चुराकर) उसे नवीनरूपमें व्याख्यान बच्चतुरैरिति' पचं महे-शुद्धःसत्यः प्रथम इति यावयः करता है-नवीन प्रगट करता है-उसके समान कोप्यस्य ग्रंथस्य निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न दूसरा कोई भी नीच अथवा धूर्त नहीं है।' निंदनीय एतावञ्चतुरै विधेयमिति / " / इसके बाद जो सुधीजन वाद-विह्वलो तथा सद्वक्ता- भावार्थ-ऊपरकी बातको सुनकर 'वाचक उमा. के वचनको भी न मानने वालोंके कथनसे संशयमें पड़े स्वाति निश्चयसे दिगम्बर निह्नव है ऐसा कोई न कहें, . हुए हैं उन्हें लक्ष्य करके सिद्धान्तसे भिन्न शास्त्र-स्मयको इस बात की शिक्षा के लिये हम 'परमेतावञ्चतुरैः' इत्यादि दूर करने के लिये कहते हैं पद्य कहते हैं, जिसका यह आशय है कि 'चतुर जनों को .. सुज्ञाः शृणुत निरीहाश्चेदाहो परगृहीतमेवेदं। इतना कर्तव्य पालन जरूर करना चाहिये कि जिससे सति जिनसमयसमुद्रे तदेकदेशेन किमनेन // 3 // इस तत्त्वार्थशास्त्रका जो कोई शुद्ध विधाता-श्राद्य टिप्प०-"शृणुत भोः कतिचिद्विज्ञाश्चेदाहो यद्युतेदं निर्माता-है वह किसी प्रकारसे दूषणीय-निन्दनीयतत्त्वार्थप्रकरणं परगृहीतं परोपात्तं परनिर्मितमेवेति न ठहरे। यावदिति भवंतः संशेरते किं जातमेतावता वयं त्वस्मि यः कुंदकुंदनामा नामांतरितो निरुच्यते कैश्चित् / न्नेव कृतादरा न वर्तामहे लघीयः सरसीव, यस्मादद्यापि ज्ञेयोऽन्य एव सोऽस्मात्स्पष्ट गुमास्वातिरिति विदितात् // 5 // जिनेंद्रोक्तांगोपांगाद्यामगसमुद्रा गर्जतीति हेतोः तक टिप्प०- "तहि कुंदकुंद एवैतत्प्रथमकर्तेति संशयादेशेनानेन कि ? न किंचिदित्यर्थः / ईदृशानि भूयांस्येव पोहाय स्पष्टं ज्ञापयामः यः कुंदकुंदनामेत्यादि'। अयं प्रकरणानि संति केषु केषु रिरिंसां करिष्याम इति / " च परतीर्थिकैः कुंदकुंद इडाचार्यः पद्मनंदी उमास्वा. ___ भावार्थ-भोः कतिपय विद्वानों ! सुनों, यद्यपि यह तिरित्यादिनामांताराणि कल्पयित्वा पठ्यते सोऽस्मातत्त्वार्थप्रकरण परगृहीत है-दूसरों के द्वारा अपनाया गया प्रकरणकतु रुमास्वातिरित्येव प्रसिद्धनाम्नः सकाहै—पर निर्मित ही है, यहाँ तक आप संशय करते हैं;परन्तु शादन्य एव ज्ञेयः किं पुनः पुनर्वेदयामः / " Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति भावार्थ-'तब कुन्दकुन्द ही इस तत्त्वार्थशास्त्रके कहते हैं कि हमारे वृद्धों-द्वारारचित इस तत्वार्थसूत्रको प्रथम कर्ता हैं,' इस संशयको दूर करनेके लिये हम 'यः पाकर और उसे समीचीन जानकर श्वेताम्बरोंने स्वेकुंदनामेत्यादि' पद्यके द्वारा स्पष्ट बतलाते हैं कि-पर च्छाचारपूर्वक कुछ सूत्रोंको तो तिरस्कृत कर दिया और तीर्थिकों (!) के द्वारा जो कुन्दकुन्दको कुन्दकुन्द, इडा- कुछ नये सूत्रोंको प्रक्षिप्त कर दिया-अपनी अोरस चार्य (?), पद्मनन्दी उमास्वाति * इत्यादि नामान्तरों मिला दिया है'। इस भ्रमको दूर करने के लिये हम की कल्पना करके उमास्वाति कहा जाता है वह हमारे 'श्वेताम्बरसिंहानां' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका इस प्रकरणकर्तासे, जिसका स्पष्ट 'उमास्वाति' ही प्रसिद्ध अभिप्राय यह है कि-श्वेताम्बरसिहोंके, जो कि स्वनाम है, भिन्न ही है, इस बातको हम बार-बार क्या भावसे ही विद्याओंके राजाधिराज हैं और स्वयं अत्यन्त बतलावें। उद्दड-ग्रन्थोंके रचने में समर्थ हैं, निव-निर्मित-शास्त्रोका श्वेतांबरसिंहानां सहनं राजाधिराजविद्यानां / ग्रहण किसी प्रकार भी नहीं होता है-वे परनिर्मित निवनिर्मितशास्त्राग्रहः कथंकारमपि न स्यात् // 6 // शास्त्रको तिरस्करण और प्रक्षेपादिके द्वारा कदाचित् भी टिप्प-नन्वत्र कुतोलभ्यते . यत्पाठांतरसत्राणि अपने नहीं बनाते हैं; क्योंकि जोदूसरेकी वस्तुको अपदिगंबरैरेव प्रक्षिप्तानि ? परे तु वयंति यदस्मद्वबैरचितमे नाते हैं—अपनी बनाते हैं--वे चोर होते हैं, महान् तत्प्राप्य सम्यगिति ज्ञात्वा श्वेतांबराः स्वैरं कतिचित्सू- अाशय के धारक तो अपने धनको भी निर्विशेषरूपसे वाणि तिरोकुर्वन् कतिचिच्च प्राषिपन्निति भ्रमभेदार्थ अवलोकन करते हैं उसमें अपनायतका (निजत्वका)'श्वेतांबरसिंहानामित्यादि' ब्रूमः / कोऽर्थः श्वेतांबर भाव नहीं रखते।' सिंहाः स्वयमत्यंतोइंस्ग्रंथग्रंथनप्रभूष्णवः परनिर्मितशास्त्रं तिरस्करण-प्रक्षेपादिभिर्न कदाचिदप्यात्मसाद्विदधीरन् / ___ पाठांतरमुपजीव्य भ्रमंति केचिद्वथैव संतोऽपि / यतः 'तस्करा एव जायंते परवस्त्वात्मसात्कराः, निर्वि- सर्वेषामपि तेषामतः परं भ्रांतिविगमोऽस्तु // 7 // शेषेण पश्यंति स्वमपि स्वं महाशयाः।' . टिप्प०-अतः सर्वरहस्यकोविदा अमृतरसे कल्पनाभावार्थ-यहाँ पर यदि कोई कहे कि 'यह बात विषपूरं न्यस्यमानं दूरतस्त्यक्त्वा जिनसमयार्णवानुसारकैसे उपलब्ध होती है कि जो पाठांतरित सूत्र हैं वे रसिका उमास्वातिमपि स्वतीर्थिक इति स्मरंतोऽनंतसंदिगम्बरोंने ही प्रक्षिप्त किये हैं ? क्योंकि दिगम्बर तो सारपाशं पतिष्यद्भिविशदमपि कलुपीकतु कामैः सह * जहाँ तक मुझे दिगम्बर जैनसाहित्यका परिचय निवैः संगं माकुर्वन्निति। है उसमें कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम उमास्वाति है भावार्थ-कुछ संत पुरुष भी. पाठान्तरका उपयोग ऐसा कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। कुन्दकुन्दके जो करके-उसे व्यवहारमें लाकर-वृथा ही भ्रमते हैं, उन पाँच नाम कहे जाते हैं उनमें मूल नाम पमनन्दी तथा सबकी भ्रान्तिका इसके बादसे विनाश होवे / प्रसिद्ध नाम कुन्दकुन्दको छोड़कर शेष तीन नाम एला अतः जो सर्वरहस्यको जानने वाले हैं और जिनाचार्य, वक्रग्रीव और गृद्धपिच्छाचार्य हैं। तथा कुन्दकुन्द और उमास्वातिकी भिन्नताके बहुत स्पष्ट उल्लेख पाये गमसमुद्र के अनुसरण-रसिक हैं वे अमृतरसमें न्यस्यजाते हैं / अतः इस नामका दिया जाना भ्रान्ति मान कल्पना विषपूरको दूरसे ही त्यागकर, उमास्वातिको भी स्वतीर्थिक स्मरण करते हुए, अनन्त संसारके जाल Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 अनेकान्त वर्ष 3, किरण 1 में पड़ने वाले उन निहवोंके साथ संगति न करें-कोई हैं जो जैनशासनकी जान तथा प्राण है और जिसके सम्पर्क नरक्खें-जो विशदकोभी कलुषित करना चाहतेहैं। अवलोकन करनेपर विरोध ठहर नहीं सकता--मनमुटाव (11) उक्त 7 पद्यों और उनकी टिप्पणीमें टिप्पण. कायम नहीं रह सकता / यदि ऐसे लेखकोंको अनेकान्तकारने अपने साम्प्रदायिक कट्टरतासे परिपूर्ण हृदयका दृष्टि प्राप्त होती और वे जैनी-नीतिका अनुसरण करते जो प्रदर्शन किया है-स्वसम्प्रदायके आचार्योंको होते तो कदापि इस प्रकारके विषबीज न बोते / खेद है 'सिंह' तथा 'विद्याभोंके राजाधिराज' और दूसरे सम्प्र- कि दोनों ही सम्प्रदायोंमें ऐसे विषबीज बोनेवाले तथा दाय वालोंको 'कुत्ते' तथा 'दुरात्मा' बतलाया है, द्वेष-कषायकी अग्निको भड़कानेवाले होते रहे हैं, जिसका अपने दिगम्बर भाइयोंको 'परतीर्थिक' अर्थात् भ० महा कटुक परिणाम आजकी जानको भुगतना पड़ रहा है !! वीरके तीर्थको न माननेवाले अन्यमती लिखा है और अतः वर्तमान वीरसंतानको चाहिये कि वह इस प्रकारसाथ ही अपने श्वेताम्बर भाइयोंको यह आदेश दिया की द्वेषमूलक तहरीरों—पुरानी अथवा आधुनिक लिहै कि वे दिगम्बरोंकी संगति न करें अर्थात् उनसे कोई खावटों पर कोई ध्यान न देवे और न ऐसे जैनप्रकारका सम्पर्क न रक्खें-उस सबकी आलोचनाका नीतिविरुद्ध आदेशोंपर कोई अमल ही करे / उसे अनेयहाँ कोई अवसर नहीं है, और न यह बतलानेकी ही कान्तदृष्टिको अपनाकर अपने हृदयको उदार तथा ज़रूरत है श्वेताम्बरसिंहोंने कौन कौन दिगम्बर विशाल बनाना चाहिये, उसमें विवेकको जागृत ग्रंथोंका अपहरण किया है और किन किन ग्रंथोंको करके साम्प्रदायिक मोहको दूर भगाना चाहिये और एक श्रादरके साथ ग्रहण करके अपने अपने ग्रंथोंमें उनका सम्प्रदायवालोंको दूसरे सम्प्रदायके साहित्यका प्रेमउपयोग किया है, उल्लेख किया है और उन्हें प्रमाणमें पूर्वक तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना चाहिये, जिससे उपस्थित किया है / जो लोग परीक्षात्मक, आलोचना- परस्परके गुण-दोष मालूम होकर सत्यके ग्रहणकी ओर स्मक एवं तुलनात्मक साहित्यको बराबर पढ़ते रहते हैं प्रवृत्ति होसके, दृष्टिविवेककी उपलब्धि होसके और उनसे ये बातें छिपी नहीं हैं / हाँ, इतना ज़रूर कहना साम्प्रदायिक संस्कारोंके वश कोई भी एकांगी अथवा होगा कि यह सब ऐसे कलुषितहृदय लेखकोंकी लेखनी ऐकान्तिक निर्णय न किया जासके; फलतः हम एक अथवा साम्प्रदायिक कट्टरताके गहरे रंगमें रंगे हुए दूसरेकी भूलों अथवा त्रुटियोंको प्रेमपूर्वक प्रकट कर सकें, कषायाभिभूत साधुओंकी कर्ततका ही परिणाम है और इस तरह परस्पर के कैर-विरोधको समूल नाश नतीजा है--जो अर्सेसे एक ही पिताकी संतानरूप करनेमें समर्थ होसकें / ऐसा करनेपर ही हम अपनेको भाइयों-भाइयोंमें-दिगम्बरों-श्वेताम्बरोंमें-परस्पर मन- वीरसंतान कहने और जैनशासनके अनुयायी बतलानेमुटाव चला जाता है और पारस्परिक कलह तथा विसं- के अधिकारी हो सकेंगे / साथ ही, उस उपहासको वाद शान्त होनेमें नहीं आता ! दोनों एक दूसरेपर मिटा सकेंगे जो अनेकान्तको अपना सिद्धान्त बनाकर कीचड़ उछालते हैं और विवेकको प्राप्त नहीं होते !!! उसके विरुद्ध आचरण करने के कारण लोकमें हमारा वास्तवमें दोनों ही अनेकान्तकी ओर पीठ दिये हुए हैं हो रहा है। और उस समीचीनदृष्टि-अनेकान्तदृष्टि-को भुलाये हुए वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० 11-11-1636 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-लक्षणावली अर्थात् लक्षणात्मक जैन-पारिभाषिक शब्दकोष वरसेवामन्दिर सरसावामें दो ढाई वर्षसे 'जैनलक्षणा- नहीं हो सका-उसमें अनेक अड़चनें तथा बाधाएँ ''वली' की तय्यारीका काम अविरामरूपसे होरहा है। उपस्थित हुर्ह / अनेक विद्वानोंके समय तथा ग्रन्थों के कई विद्वान् इस काममें लगे हुए हैं / कोई 200 मुख्य निर्माणकाल एवं ग्रन्थनिर्माताओंके सम्बन्धमें परस्पर दिगम्बर ग्रंथों और 200 के ही करीब प्रमुख-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें मतभेद है और कितने ही विद्वानों ग्रंथोंपरसे लक्ष्य शब्दों तथा उनके लक्षणोंके संग्रहका तथा ग्रन्थोंका समय सुनिश्चित नहीं है। ऐसी हालतमें कार्य हुअा है / संग्रहका कार्य समाप्तिके करीब है और दोनों सम्प्रदायोंके लक्षणोंको अलग अलग दो विभागोंमें उसमें 25 हज़ार के करीब लक्षणोंका समावेश समझिये। रक्खा गया है / और उनमें अपनी अपनी स्थूल मासंग्रहमें यह दृष्टि रक्खी गई है कि जो लक्षण शुद्ध लक्षण न्यता के अनुसार लक्षणोंका क्रम दिया गया है। इससे न होकर निरुक्तिपरक अथवा स्वरूपपरक लक्षण हैं भी उक्त उद्देश्यकी कुछ परिश्रमके साथ पूरी अथवा उन्हें भी उपयोगिताकी दृष्टि से कहीं कहीं पर ले लिया बहुतसे अंशोंमें सिद्धि हो सकेगी। क्योंकि ग्रन्थों तथा गया है / अब सगृहीत लक्षणोंका क्रमशः संकलन और ग्रन्थकारोंके समय-सम्बन्धमें प्रस्तावना लिखते समय सम्पादन होकर प्रेस-कापी तय्यार की जानेको है / जैसे यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा। . जैस प्रेस कापी तय्यार होती जायगी उसे प्रेसमें छपने के लिये देते रहनेका विचार है / प्रायः चार खण्डोंमें यह यह ग्रन्थ देशी-विदेशी सभी विद्वानोंके लिये एक प्रामामहान् ग्रंथ प्रकाशित होगा। णिक रिफेरेंस बुक(Reference book)का काम देता मेरा विचार ग्रंथमे लक्षणोंको कालक्रमसे देनेका हुआ उनकी ज्ञानवृद्धि तथा किसी विषयके निर्णय करथा और इसलिये मैं चाहता था कि दिगम्बरीय तथा नेमें कितना उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होगा उसे बतश्वेताम्बरीय लक्षणोंका इस दृष्टिसे एक ही क्रम तय्यार लानेकी ज़रूरत नहीं। ग्रंथकी प्रकृति एवं पद्धति परसे वह किया जाय, जिसने पाठकोंको लक्षणोंके क्रम- सहज ही में जाना जा सकता है / प्रथम तो प्रत्येक विद्वान् विकासका ( यदि कुछ हो), लक्षणकारोकी मनोवृत्ति के पास इतने अधिक ग्रंथोंका संग्रह नहीं होता और का और देश-कालकी उस परिस्थिति अथवा यदि किसीके पास हो भी तो यह मालूम करना बहुत ही समयादिककी माँगका भी कितना ही अनुभव कठिन तथा अतिशय परिश्रम-साध्य होता है कि कौन विहो सके जिसने उस विकासको जन्म दिया हो अथवा षय किस ग्रंथमें कहाँ कहाँ पर वर्णित है / इस एक ग्रन्थजिससे प्रेरित होकर पूर्ववर्ती किसी लक्षणमें कुछ परिवर्तन के सामने रहते सैंकड़ों ग्रन्थोंका हाल एक साथ मालूम अथवा फेर-फार करनेकी ज़रूरत पड़ी हो। परन्तु ऐसा हो जाता है-यह पता सहज ही में चल जाता है कि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण किस विषयका क्या कुछ लक्षण किस किस ग्रंथमें पाया लब्ध हुए हैं, और इसलिए उनके साथ दूसरे सम्प्रदायके जाता है और किस किसमें वह नहीं पाया जाता; क्योंकि लक्षणोंको नहीं दिया जा सका है / यदि दूसरे सम्प्रदायइस ग्रंथमें प्रत्येक लक्ष्यके लक्षणोंका संग्रहमें उपयुक्त हुए के किसी अन्य ग्रंथमें, जिसका उपयोग इस संग्रहमें नहीं सभी ग्रंथोंपरसे एकत्र संग्रह किया गया है, ग्रंथकार हो सका, उस लक्ष्यका लक्षण पाया जाता हो अथवा और ग्रंथके नाम के * साथ उसके स्थलका पता भी उपयुक्त ग्रन्थों से ही किसीमें उपलब्ध होता हो और दे दिया गया है और लक्ष्य शब्दोंको अकारादि-क्रमसे दृष्टिदोष के कारण इस संग्रहमें छूट गया हो, उसकी रक्खा है, जिससे किसी भी लक्ष्य के लक्षणोंको मालूम सूचना मिलने पर उसे बादको परिशिष्टमें दे दिया करनेमें आसानी रहे / कुछ लक्ष्य ऐसे भी हैं जो दूसरे जायगा। ग्रंथोंमें अपने पर्याय नामसे उल्लेखित हए हैं और उसी अाज इस लक्षणावलीके 'अ' भागके कुछ अंशांको नामसे उनका वहाँ लक्षण दिया है / उनके लक्षणोंको 'अनेकान्त'के पाठकोंके सामने नमूने के तौर पर रवा यहां प्रायः उनके नामक्रम के साथ ही मंग्रह किया गया जाता है. जिसमें उन्हें इस ग्रंथकी रूप-रेखाका कुछ है / हां, पर्याय नामवाले लक्ष्य शब्दको भी देखनेका साक्षात् अनुभव हो सके और वह इसकी उपयोगिता साथमें संकेत कर दिया गया है; जैसे 'अकथा' के साथ तथा आवश्यकताको भले प्रकार अनुभव कर सकें / में 'विकथा' को देखनेकी प्रेरणा की गई है। साथ ही, विद्वानोंसे यह नम्र निवेदन है कि वे लक्षणा कुछ लक्षण ऐसे हैं जो दिगम्बर ग्रन्थों में ही मिले सलीके रस बलीके इस रूपमें, जिसमें वह प्रस्तुत की जानको है, हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो श्वेताम्बर ग्रंथोंसे ही उप यदि कोई खास त्रुटि देखें अथवा उपयोगिताकी दृष्टिम * ग्रन्थका नाम पूरा न देकर संक्षेपमें दिया गया कोई विशेष बात सुझानेकी हो तो वे कृपया शीघ्र ही है / ग्रन्थोंके पूरे नामों आदिके लिये एक संकेत सूची सूचित कर अनुगृहीत करें, जिससे उसपर ममुचित प्रत्येक खण्डमें रहेगी, जिससे यह भी मालूम होसकेगा विचार होकर प्रेसकापीके समय यथोचित सुधार किया कि ग्रन्थ के कौनसे संस्करण अथवा कहाँकी हस्तलिखित जासके / विद्वानों के ऐस हर परामर्शका हृदयस अभिप्रतिका इस संग्रहमें उपयोग हुआ है। नन्दन किया जायगा और मैं उनकी इस कृपा के लिये __ पतेमें जहाँ एक ही संख्याङ्क दिया है वह ग्रन्थके बहुत ही अाभारी हूँगा। पथ अथवा सूत्र नम्बरको सूचित करता है,जहाँ दो संख्याङ्क दिये हैं वहाँ पहला अंक ग्रंथके अध्याय, परिच्छेदादिक- इस नमूनेमें जहाँ कहीं किमी लक्ष्य के लक्षणानन्तर का और दूसरा अंक पद्य तथा सूत्रके नम्बरका वाचक xxx ऐसे चिन्ह दिये गये हैं वहाँ उनके बाद अनेक है, जहाँ तीन संख्याङ्क दिये हैं वहाँ दूसरा अंक अध्या- लक्ष्य शब्द तथा उनके लक्षण रहे हुए हैं, जिन्हें इस यादिके अवान्तर भेद अथवा सूत्रका सूचक है और नमूनेमें उद्धृत नहीं किया गया। वे सब प्रकाशित होने तीसरा अंक पद्य वा सूत्रके नम्बरका द्योतक है। और वाले प्रथम खण्ड में यथास्थान रहेंगे। जहां 'पृ०' पूर्वक संख्याङ्क दिया है वह ग्रन्थके पृष्ठ नम्बरको बतलाता है। -मम्पादक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैन-लक्षणावली .................... ....................... ............................. अकथा (अकहा) चर्यभूशय्यामलधारणपरितापादिः अकामेन निर्जरा [श्वेताम्बरीय लक्षणम्] अकामनिर्जरा। -पूज्यपादः, सर्वा० सि०,६,२० / मिच्छत्तं वेयंतो जं अण्णाणी कहं परिकहेह। विषयानर्थनिवृत्तिं चात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्यालिंगत्थो व गिही वा सा अकहा देसिया समए // भोगनिरोधोऽकामनिर्जरा। -भद्रवाहुः, दशवैका० नि०, गा० 206 -अकलंकः, तत्त्वा० रा०६, 12 पश्य 'विकथा' प्रकामा कालपक्वनिर्जरणलक्षणा / —अाशाधरः, अन० ध० टी०, 2,43 अकल्प:-ल्प्यम् (अकप्पो) अकामे निर्जरा अकामनिर्जराः यः पुमान् चारक निरो[श्वे० ल०] धबंधनबद्धः पराधीनपराक्रमः सन् बुभुक्षानिरोध तृषा. अकप्पो जअ विहीए सेवइ। दुःखं ब्रह्मचर्यकृच्छू भूशयनकष्टं मलधारणं परितापादिकं __--सिद्ध सनः, जीतक० चूर्णिः, गा० 1 च सहमानः सहनेच्छारहितः सन् यत् ईषत्कर्म निर्जरपिण्ड-उपाश्रय-वस्त्र-पात्ररूपं चतुष्टयं यदनेषणीयं यति सा अकामनिर्जरा। .. तदकल्प्यम् ।--चन्द्र सूरिः, जीतक० च० व्या०, गा०१ --श्रुतसागरः, तत्त्वा० टी० 6,20 अकप्पो नाम पुढवाइकायाणं अपरिणयाणं गहणं करेइ, श्वेताम्बरीय लक्षणानि] अहवा उदउल्ल-ससणिद्ध-ससरक्खाइएहिं हत्थमत्तेहि गिबहइ, जं वा अगीयत्थेणं आहारोवहि उप्पाइयं तं अकामनिर्जरा पराधीनतयानुरोधाच्चाकुशलनिवृत्तिपरिभुजंतस्स अकप्पो। पंचकादिप्रायश्चित्तशुद्धियोग्य राहारादिनिरोधश्च / मपवादसेवनविधिं त्यक्त्वा गुरुतरदोषसेवनं वा अकप्पो / -उमास्वातिः, तत्वा० भा०, 6, 20 -श्रीचन्द्रसूरिः, जीतक० चू० व्या० गा०, 1 अकामनिर्जरा कुतश्चित् पारतन्त्र्यादुपभोगनिरोधरूपा तथापालनाया अयोगः। अकल्पोऽपरिणतपृथ्वीकायादिग्रहणमगीतार्थानीतोपधिशय्याऽऽहाराघुपभोगश्च। -हरिभद्रः, तत्त्वा० भा० टी०, 6,13 - -मल यगिरिः, व्य०सू० भा० वृ० 10,34 विषयानर्थनिवृत्तिमात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्यादुप भोगादिनिरोधः अकामनिर्जरा, अकामस्य-अनिच्छतो अकस्माद्भयम् निर्जरणं पापपरिशाटः पुण्यपुद्गलोपचयश्च, परवशस्य [श्वे० ल] चामरणमकामनिर्जरायुषः परिक्षयः / अकस्मादेव बामनिमित्तानपेदं गृहादिष्वेत्र ___-सिद्धसेनगणी, तत्त्वा० टी०, 6, 13 स्थितस्य राच्यादौ भयमकस्माद्भयम् / अनभिलषतोऽचिन्तयत एव कर्मपुद्गलपरिशाटः -मुनिचन्द्रः,ललितवि० 50, पृ० 38 / (अकामनिर्जरा)। बाह्यनिमित्तनिरपेक्षं भयमकस्माद्भयम् / --सिद्वसेनगणी, तत्त्वा० टी०, 6, 20 -विनयविजयः, कल्पसू० व०, 1, 15 अकामनिर्जरा यथाप्रवृत्तिकरणेन गिरिसरितुपलघोलनाअकामनिर्जरा कल्पेनाकामस्य निरभिलाषस्य या निर्जरा कर्मप्रदेश[दिगम्बरीय लक्षणानि] विचटनरूपा / अकामश्चारकनिरोधबन्धनबध्येषु क्षुत्तष्णानिरोधब्रह्म -हेमचन्द्रः, योगशा.१०,४, 107 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तं [वर्ष 3, किरण 1 अकालुष्यम् शेषेन्द्रियमनसो दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् / –वीरसेनः, धवला, जीव० चूलिका, 1 श्रा०प०,३०६ [दिग० ल०] तेषामेव (क्रोधमानमायालोभानामेव ) मन्दोदये तस्य सेसेंदियाणाणुप्पत्तीदो जो पुवमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामरणेण संवेदो अचक्खुणाणु(चित्तस्य) प्रसादोऽकालुष्यम् / प्यत्तीणिमित्तो तमचक्खदंसणमिदि। -अमृतचन्द्रः, पंचा० टी०, 138 -वीरसेनः, धवला, श्रा०पृ०, 386 अकिञ्चनता-त्वम् सोदघाणजिह्वाफासमणेहितो समुपज्जमाणकारणसगसं[दिग० ल] वेयणमचक्खुदंसणं णाम। / अकिंचनता सकलग्रन्थत्यागः / -वीरसेनः, धवला, खं० ४,अनुयो०५, प्रा०पृ०, 862 -अपराजितसूरिः, भग० प्रा० टी०, 1,46 यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुर्वर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रिअकिंचनता उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय याबलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येमावममेदमित्याभिसम्बन्धनिवृत्तिः। बुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् / __-वसुनन्दी, मूला * वृ०,११,५ -अमृतचन्द्रः, पञ्चा०, टी०, 42 [श्वे० ल०] सेसिदियप्पयासो णायब्वो सो अचक्खू त्ति / अकिंचणिया नाम सदेहे निस्संगता निम्ममत्तणं / -नमिचन्द्रः, गो० जी०, गा०४८४ ____-जिनदासगणी दशवै० सू० 42,1.0 18 शेषाणां पुनरक्षाणां (अर्थप्रकाशः) अचक्षु दर्शनम् / नास्य किन्चनद्रव्यमस्तीत्यकिन्चनस्तस्यभावोऽकिन्चनता -अमितगतिः, पंचसं०, 1, 250 शरीरधर्मोपकरणादिष्वपि निर्ममत्वमकिन्च नत्वम् / शेषेन्द्रियज्ञानोत्पादक प्रयत्नानुविद्ध-गुणीभूत विशेष –हेमचन्द्रः,योगशा०स्वो० वृ०, 4, 63 सामान्यालोचनमचक्षुर्दर्शनम् / अकिश्चित्करः (हेत्वाभासः) -वसुनन्दी, मूला०, टी०, 12, 188 शेषेन्द्रिय-नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति बहिरंगद्रव्ये-. दिग० ल] न्द्रिय-द्रव्यमनोवलम्बनेन यन्मूर्तामूतं च वस्तु निर्विकल्प सिद्धेऽकिञ्चत्करो हेतुः स्वयं साध्यव्यपेक्षया। सत्तावलोकेन यथासम्भवं पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम् / / -अकलंकः, प्रमाणसं०, 44 -जयसेनः, पंचा०टी०, 42 सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिंचित्करः। स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमत्वात्स्वकीय -माणिक्यनन्दी, परीक्षा०, 6, 35 अप्रयोजको हेतुरकिञ्चित्करः। स्वकीयबहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्त सत्तासामान्यं. -धर्मभूषणः, न्या० दी०, 3, 107 वि या विकल्परहितंपरोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम् --ब्रह्मदेवः, द्रव्यसं० टा०, 4 अकुशलम् [श्वे० ल०] [दिग० ल०] - शेषेन्द्रियैर्दर्शनं अनयनदर्शनं (प्रचक्षुर्दर्शनम्)। अकुशलं दुःखहेतुकम्। –यसुनन्दी, प्राप्तमी० वृ०८ // --चन्द्रमहर्षिः, पंचसं० वृ०, गा० 122 अचक्षुर्दर्शनम् (अचक्खुदंसणं):-- अचक्षुर्दर्शनं शेषेन्द्रियोपलब्धिलक्षणम् / [दिग० ल०] . --हरिभद्रः, तत्त्वा० टी०, 2, 5 सेसिदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खू त्ति। अचक्षुर्दर्शनं शेषेन्द्रियसामान्योपलब्धिलक्षणम् / -वीरसेनोद्ध तः, धवला, खं० 1, श्रा० पृ०, 54 ___--हरिभद्रः, अनुयो• वृ०,१०३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] जैन लक्षणावली 133 शेषेन्द्रियमनोविषयमविशिष्टमचक्षुर्दर्शनं / (हिंसादिभ्यो ) देशतो विरतिरणुवतम् / .. --सिद्धसेनगणी, तत्त्वा० वृ० 8,8 -पूज्यपादः, सर्वा० सि० 7,2 अचक्षुषा चक्षुर्वय॑शेषेन्द्रियचतुष्टयेनमनसा च दर्शनं हिंसादेर्देशतो विरतिरणुव्रतम् / सामान्यार्थग्रहणमेवाचतुर्दर्शनम् / .. -अकलंकः, तत्त्वा० रा०७२ --मलधारी हेमचन्द्रः, बन्धश० टी०,गा० 2, 3 देशतो हिंसादिभ्योविरतिरणुव्रतम् / अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोदर्शनमचक्षुर्दर्शनम् / -विद्यानन्दः, तत्त्वा० श्लो० 7,2 -मलयगिरिः, प्रज्ञा० वृ०, पद 23 विरतिः स्थूलहिंसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् / अचक्षुषा :चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषये -जिनसेनः, आदि० पु० 36,4 सामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् / विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः। -मलयगिरिः, प्रज्ञा० वृ०, पद 26 क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाधणुव्रतानि स्युः // सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि प्रचक्षुषा चतुर्वर्जशेषेन्द्रिय -आशाधरः, सा० ध० 4,5 मनोभिर्दर्शनं स्वस्वविषयसामान्यग्रहणमचक्षुर्दर्शनम् / तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् / -मलयगिरिः, षडशी० टी०, गा० 16 देशतोविरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् // प्रचक्षुषा चक्षुर्वर्जेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा वा दर्शनं तद -राजमल्लः, लाटीसं० 4,242 तुर्दर्शनम् / " " -पंचाध्यायी, 2,724 ___ --गोविन्दगणी, कर्मस्तव-टी०, गा०, 6, 10 देशतो विरतिरणुव्रतम् / -श्रुतसागरः, तत्त्वा० टी०७,२ अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यदर्शनं [श्वे०ल०] स्वस्वविषय-सामान्यपरिच्छेदोऽचक्षुर्दर्शनम् / हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतम् / -देवेन्द्रः, कर्मवि० टी०, गा० 10 -उमास्वातिः, तत्त्वा० भा० 7,2 अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यद् पंच उ अणुवयाइं थूलगपाणिवहविरमणाईणि / / दर्शनं सामान्यांशात्मकं ग्रहणं तद् अचक्षुर्दर्शनम् / -उमास्वातिः, श्राव० प्र० 106 ___ --देवेन्द्रः, षड्शी० टी०, गा० 12 अणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपाणि / यः सामान्यावबोधः स्याच्चक्षुर्वऑपरेन्द्रियैः / -हरिभद्रः, श्रा० प्र० टी० 6 अचक्षुर्दर्शनं तत्स्यात् सर्वेषामपि देहिनाम् // स्थूलप्राणातिपातादिभ्यो विरतिरणुव्रतानि / -विनयविजयः, लोकप्र०, खं० 1, पृ० 62 -हरिभद्रः, धर्मबिन्दुः 3,16 शेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् / . देशतो [हिंसादिभ्यः] विरतिरणुव्रतम् / / --यशोविजयः, कर्मप्र० टी०, पृ० 102 -सिद्धसेनगणी, तत्त्वा० टी० 7,2 विरति स्थूलहिंसादेर्द्विविधत्रिविधादिना / अणुव्रतम् (अंणुव्वयं) अहिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः // [दिग०ल –हेमचन्द्रः, यो० शा० 2,18 प्राणापतिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूर्छभ्यः। देशतो विरतिः पञ्चाणुव्रतानि / / स्थूलेभ्यः पापेभ्यो न्युपरमणमणुव्रतं भवति // -हेमचन्द्रः, त्रि० श० पु० च० 1,1,188 -समन्तभद्रः, रत्नक० श्रा० 3, 6 अतिचारः (अइयारो)पाणवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहि / / [दिग०-ल०] अपरिमिदिच्छादो वि श्र अणुव्वयाई विरमणाई॥ अतिचारो विषयेषु वर्तननम् / -शिवकोटिः, भगव० प्रा०, 8,2080 -अमितगतिः, भावनाद्वा०६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1. अतिचारो व्रतशैथिल्य ईषदसंयमसेवनं च। संयममविनाशयत्रततीत्यतिथिः, अथवा नाऽस्य तिथिर -वसुनन्दी, मूला० टी० 11,11 स्तीत्यतिथिरनियतकालगमनः / . सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभजनम् / -चामुण्डरायः, चारि० सा०, 12 -आशाधरः, सा० ध० 4,18 स्वयमेव गृहं साधुर्योऽत्रातति संयतः / अतीत्य चरणं यतिचारो माहात्म्यापकर्षोंऽशतो अन्वर्थवेदिभिः प्रोक्तः सोऽतिथिर्मुनिपुंगवैः // विनाशो वा। -अमितगतिः, सुभा० र० सं० 817 -आशाधरः, भग० प्रा० टी० 1,44 अतति स्वयमेव गृहं संयममधिराधयानाहूतः। . न हन्मीति व्रतं कुप्यन्निःकृपत्वान्नं पाति न / यः सोऽतिथिरुद्दिष्टः शब्दार्थविचक्षणैः साधुः // . भनक्त्यननंशधातत्राणादतिचरत्यधीः // -अमितगतिः, अमित० श्रा०, 6,65 - --मेधावी, धर्मसं० श्रा०६,१५ ज्ञानादिसिद्धयर्थतनुस्थित्यर्थासाय यः स्वयम् / [श्वे० ल०] यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः // 42 // अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलितम् [ चारित्रस्य] -अाशाधरः, सा० ध० 5,42 -उमास्वातिः, तत्त्वार्थ भा० 7,18 न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः, अथवा अतिचारा असदनुष्ठानविशेषाः। संयमलाभार्थमतति गच्छन्युइंडचर्या करोतीत्यतिथिः / -हरिभद्रः, श्राव० प्र०टी०८६ .. -श्रुतसागरः, चारि०, प्रा०, 25 अतिचरणान्यतिचाराश्चारित्रस्खलनाविशेषाः। संयममविराधयन् अतति भोजनार्थ गच्छति यः -हरिभद्रः, आव० वृ०, गा० 112 सोऽतिथिः अथवा न विद्यते तिथिः प्रतिपद्वितीयातृतीअतिचारो विराधना देशभङ्गः [चारित्रस्य]। दिका यस्य स अतिथिः अनियतकालभिक्षागमनः।। -मुनिचन्द्रः, धर्म० वृ० 3,20 -श्रुतसागरः, तत्त्वा० टी०, 7,21 अतिचरणमतिचारो मूलोत्तरगुणमर्यादातिक्रमः / / [ श्वे० ल०] -शान्तिसरिः, धर्मरत्नप्र० स्वो० वृ० पृ० 66 अतिचारो मालिन्यम् / -हेमचन्द्रः, योगशा० वृ. 3,86 निष्पादिताहारस्य गहिणो व्रती साधुरेवातिथिः / भोजनार्थ भोजनकालोपस्थाय्यतिथिरुच्यते / आत्माथअतिथिः (अइहि) -हरिभद्रः, श्रा०प्र० टी०, 326 दिग०-ल०] अतिथि जनार्थ भोजनकालोपस्थायी / स्वार्थ निर्वर्तसयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः, अथवा नास्य तिथिर- मानस्य गृहिवूतिनः साधुरेवातिथिः।। स्तीत्यतिथिः अनिश्चितकालगमनः / -सिद्धिसेनगणी, तत्त्वा० टी०, 7, 16 -पूज्यपादः, सर्वार्थसि०,७, 21 , , –यशोभद्रः, हारि०तत्त्वा०टी०, 7, 16 , , -अकलंकः, तत्त्वा० रा०, 7,21 न विद्यते सततप्रवृत्तातिविशदेकाकारानुष्ठानतया तिथ्यासंयममविराधयन्नततीत्यतिथिः।। दिदिनविभागो येषां ते अतिथयः। -विद्यानन्दः, तत्त्वा० श्लो०, 7,21 --मुनिचन्द्रः, धर्मविन्दु-व० 36 स संयमस्य वृद्धयर्थमततीत्यतिथिः स्मृतः। अतिथयो वीतरागधर्मस्थाः साधवः साध्व्यः श्रावकाः -जिनसेनः, हरिवंश० पु०,५६, 158 श्राविकाश्च / --मुनिचन्द्रः, धर्मविन्दुव० 3,18 पञ्चेन्द्रियप्रवृत्ताख्यास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः। तथा न विद्यते सततप्रवृत्तातिविशदैकाकारानुष्ठानतया संसारे श्रेयहेतुत्वात्ताभिर्मुक्तोऽतिथिर्भवेत् // तिथ्यादिदिनविभागो यस्य सोऽतिथिः / -सोमदेवः, यशस्ति०८,४१२ –हेमचन्द्रः, योगशा० 00 1,53 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक वीर निर्वाण सं०२४६६] जैन-लक्षणावली 135 अवग्रहः (अवग्गहो, उग्गहों) [ श्वे० ल.] प्रत्थाणं श्रीग्गहणम्मि उग्गहो। दिग० ल] -भद्रबाहु; श्राव०नि०, गा० 3 विषय-विषयि-सन्निपातसमयानन्तरमायग्रहणमवग्रहः / अध्यक्तं यथास्वमिन्द्रियविषयाणामालोचनावधारणविषयविषयिसमिपाते सति दर्शनं भवति तदनन्तर- मवग्रहः। -उमास्वातिः, तत्त्वा० भा०, 1, 15 मर्थस्य ग्रहणमवग्रहः / सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो। . -पज्यपादः सर्वा० सि० 1, 15 -जिनभद्रगणी, विशेषा० सू० 180 , --अर्कलंकः तत्वा० रा० 1, 15 उगहणमोग्गहो ति य अत्थावगमो हवइ सब्वं / अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः अवग्रहः / --जिनभद्रगणी, विशेषा० भा०, गा० 400 अकलंकः. लघीय० 1, 5 सामण्णस्स रूवादिविसेसणरहियस्य अनिद्देसस्स विषयविषयिसन्निपातानन्तरमा ग्रहणमवग्रहः / अवग्गहणमवग्गहो। - --अकलंकः लघीय० वि० 1, 5 —जिनदासः, नन्दी० चूर्णिः, 27 (26) - , . , विद्यानन्दः प्रमा०प०प०६८ अवग्रहणमवग्रहः-सामान्यमात्रानिर्दिश्यार्थग्रहणम् / अक्षार्थयोगजातवस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् / --हरिभद्रः, नन्दीसू० वृ०, 63 जातं यदस्तुभेदस्य ग्रहणं तदवग्रहः // सामान्यार्थस्याशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहण–विद्यानन्दः, तत्त्वा० श्लो०१, 15, 2 मवग्रहः। --हरिभद्रः, श्राव०व०, 2 पृ० 6 विसयाणं विसईणं संजोगाणंतरं हवे णियमा। मर्यादया सामान्यस्यानिर्देश्यस्य स्वरूपनामादिकल्पअवगहणाणं........... नारहितस्य दर्शनमालोचनं तदेवावधारणमालोचना. 5 –नेमिचन्द्रः, गो० जी०, 308 वधारणं, एतदवग्रहोऽभिधीयते / विषयविषयिसन्निपातानंतरभाविसत्तालोचनपुरःसरोमनु -- हरिभद्रः, तत्त्वा० टी०, 1, 15 व्यत्वाद्यवान्तरसामान्याध्यवसायिप्रत्ययोऽवग्रहः / अवग्रहणमवग्रहः-सामान्यार्थपरिच्छेदः। यद् विज्ञानं -वादिराजः, प्रमा० नि०,२, पृ० 28 स्पर्शनादीन्द्रियजं व्यञ्जनावग्रहादनन्तरक्षणे सामान्यविसई विसएहि जुदो सरणीवादस्स जो दु अवबोधो। स्यानिर्देश्यस्य स्वरूपकल्पनारहितस्य नामादिकल्पनारहि समणेतरादिगहिदे अवग्गहो सो हवे णियमा // तस्य च वस्तुनः परिच्छेदकं सोऽवग्रहः / -पद्मनन्दी, जम्बू० प्र०, 13,57 -सिद्धसेनमणी, तत्त्वा० टी० 1,15 विषयविषयिसन्निपातानम्तरमवग्रहणमवग्रहः। अवग्रहः सामान्यार्थग्रहणम् / अर्थानां रूपादीनां प्रथम -बसुनन्दी, मूला० ब०, 12,187 दर्शनानन्तरंग्रहणं यत्तदवग्रहः / अवग्रहः, विषयाक्षसन्निपातानन्तराद्यग्रहः स्मृतः / -कोट्याचार्यः, विशेषा० वृ०, गा० 176 -चीरनन्दी, प्राचा० सा०, 4,10 दर्शनमुत्तरपरिणामं स्वविषयव्यवस्थापनविकल्परूपं इन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनानन्तर- प्रतिपद्यमानमवग्रहः / / भावी सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुग्राहीज्ञानविशेषोऽवग्रहः। - अभयदेवः, सन्मति टी० 2,1, पृ०५५३ -धर्मभूषणः, न्यायदी०, 2 पृ० 16 सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः सन्निपातलक्षणदर्शनानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः। अव इति प्रथमतो ग्राणं परिच्छेदनमवग्रहः / -श्रुतसागरः, तत्त्वा० टी०, 5,15 --अभय देवः, स्थान सू० वृ०, 4, पृ० 283 विसयाणं विसईणं संजोगे दंसणं वियप्पवदं। अक्षार्थयोगे दर्शनानन्तरमथग्रहणमवग्रहः / अवगहणाणं ...... -शुभचन्द्रः, अंगप्र०, 2,61 --हेमचन्द्रः, प्रमा० मी०, 1,1,26 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष 3, किरण sane - विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरद- परापेक्षां विना ज्ञानं रूपिणं भणितोऽवधिः / र्शनाज्जातमाद्यमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणम --अमृतचन्द्रः, तत्वा० सा० 1, 25 वग्रहः। -वादिदेवसरिः, प्रमा० तत्त्वा०, 2, 7 अवहीयदित्ति श्रोही सीमाणाणेत्ति / अवग्रहणमवग्रहः-अनिर्देश्यसामान्यमात्रग्रहणम् / --नेमिचन्द्रः, गो० जी० 370 ~-मलयगिरिः, व्य०, सू० भा०, 10 276 द्रव्यक्षेत्रकालभावैः प्रत्येकं विज्ञायमानदेशपरमसर्वभेद मात्रावगमः। --धर्मसंहणीटी०, 44 भिन्नमवधिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तं रूपिद्रव्यविषयम.. अनिर्देश्यसामान्यमावरूपार्थग्रहणमित्यर्थः। वधिज्ञानम। -चामुण्डण्यः,चा० सा०, 1065 --मलयगिरिः, नन्दीसू० वृ, 26 पृ. 168 मूर्ताशेषपदर्थानां वेदको गद्यतेऽवधिः। तस्मात् (दर्शनात् ) जातमाद्यं सत्वसामान्यादवा -अमितगतिः, पंचसंग्रहः, 1, 220 न्तरैःसामान्याकारै मनुष्यत्वादिमिर्जातिविशेषैर्विशिष्टस्य अवधीयते व्यक्षेत्रकालभावैः परिमीयते इत्यवधिः। वस्तुनो यद्ग्रहणं ज्ञानं तदवग्रहः / -अभयचन्द्रः, गो०जी०टी०, 370 -रत्नप्रभः, रत्नकरा० 2, 7 अवधिर्नामाऽवधिज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमापेक्ष,, , -गुणरत्नः, षड्दर्श० टी०, पृ०२०८ या प्रादुर्भावो रूपाधिकरणभावगोचरो विशदावभासी अवग्रहोऽव्यक्तग्रहणम् / प्रत्ययविशेषः। -वादिराजः, प्रमाणनि०,पृ० 26 -रत्नशेखरः, गुरुगु०षट० पृ०४६ पुग्गलसीमेहि विदो पच्चक्खो सप्पभेद अवही दु। शब्दादीनो पदार्थानां प्रथमग्रहणं हि यत् , --पद्मनन्दी, जम्बद्वी० प्र०, 13, 134 (त) अवग्रहः स्यात्... अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमे सति मूर्त वस्तु यत्प्रत्यक्षेण -विनयविजयगणी, लोकप्र०, पृ०४६ जानाति तदवधिज्ञानम् / / अवधिज्ञानम् (ओहिणाणं)-- ___ --जयसेनः, पंचास्ति० टी०, 43, 3 अवधानादवधिः पुद्गलमर्यादावबोधः। (दिगम्बरीय लक्षणानि ) __-वसुनन्दी, मूला० टी० 12, 187 अंतिमखंदत्ताई परमाणुप्पहुदिमुत्तिदव्वाई / मूर्तमर्थ मितं क्षेत्रकालभावैरवस्फुटम् / मितैर्दधास्यनं पच्चक्लं जाणइ तमोहिणाणत्ति णायव्वं // वधिर्बोधः। -वीरनन्दी, श्राचा० सा० 4, 38 -यतिवृषभः, त्रिलोकप्र० अ०४। अवधिज्ञानावरणीयक्षयोपशमान्मूतं वस्तु यदेकदेशश्रवाग्धानादवच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः / प्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदवधिज्ञानम् / -पूज्यपादः, सर्वा० सि०१, 6 -ब्रह्मदेवः, द्रव्यस. टी., 5 अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमायुभयहेतुसन्निधाने सत्य मूर्तद्रव्यालम्बनमवधिज्ञानम् / वधीयतेऽवाग्दधात्यवाग्धानमात्रं वाऽवधिः / --अकलंकः, तत्त्वा० रा०, 1,6, --अभयचन्द्रः, लघी० टी० 6, 11 अवध्यावृतिविध्वंसविशेषादवधीयते / स्वावरणक्षयोपशमे सत्यधोगतं बहतरं द्रव्यमवच्चित्रं येन स्वार्थावधानं वा सोऽवधिनियतः स्थितिः॥ वा नियतं रूपिद्रव्यं धीयते व्यवस्थाप्यतेऽनेनेत्यवधिर्म -विद्यानन्दः, तत्त्वा०, श्लो०, 1,6,5, ख्यदेशप्रत्यक्षज्ञानविशेषः। . अवहीयदित्ति श्रोही सीमाणाणेत्ति / __ -अाशाधरः, अनगार० टी०, 304 -वीरसेनः, धवला, जीव० श्रा०प०५१ अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिमीयते इत्यवधिः, यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणाव- यत्तृतीयं सीमाविषयं ज्ञानं तदिदमवधिज्ञानम् / बुध्यते तदवधिज्ञानम् / -अमृतचन्द्रः, पञ्चा०टी० 41 -केशववर्णी, गो० जीव०टी०, 300 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कातिक, वीर निर्वाण सं० 2466] जैन-लक्षणावली 137 अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायचयोपशमसहकृः अवधिज्ञानं-इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनो रूपिदव्यताज्जातं रूपिद्रव्यमात्रविषयमवधिज्ञानम्। साक्षात्करणम् / -धर्मभूषणः, न्या० दी० 2, पृ० 36 --अभयदेवसरिः, स्थानाङ्गसूत्र वृ०२,१६४, पृ०४६ अवधानं अवधिः अधस्ताबहुतरविषयग्रहणादवधिः अवधिज्ञानं अवधिना मर्यादया रूपिद्रव्यलक्षणया रुच्यते, अवच्छिन्नविषयत्वाद्वाऽवधिः, रूपित्वलक्षणविव- ज्ञानमवधानं वा अवधिरुपयोगपूर्वकम् / चितविषयत्वाद्वाऽवधिः। श्रुतसागरः,श्रुतसा०टी०,१, 6 -जिनेश्वरसरिः, प्रमाल० टी०३ अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावेन मर्यादीक्रियते अवा- अवधिज्ञानावरणविलयविशेषसमुद्भवं भवगुणप्रत्ययं ग्धानं अवधिः, अधस्ताबहुतरविषयग्रहणादवधिः। रूपिद्रव्यगोचरमवधिज्ञानम् / -शुभचन्द्रः, कार्तिकेया० प्रे० टी०,२५७ -वादिदेवसरिः, प्रमा०तत्वा०२,२१ भवगुणपच्चयविहियं श्रोहीणाणं तु अवहिगं समये। अवधिना रूपिद्रव्यमर्यादात्मकेन ज्ञानमवधिज्ञानम् / सीमाणाणं स्वीपदस्थसंघादपच्चक्खं // -मलधारी हेमचन्दः, अनु० टी० पृ० 2 --शुभचन्द्रः अंगप्र, 2, 66 अवधिज्ञानस्यावरणविलयस्य तारतम्ये आवरणक्षयो' [ श्वेताम्बरीय लक्षणानि ] पशमविशेषे तन्निमित्तकोऽवधिरवधिज्ञानम् / अवधीयते अवधीयते अधोऽधो विस्तृतं ज्ञायते इति अवधिः इति अवधिः मर्यादा सा च रूपवद्रव्यविषया अवध्युअवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम् / पलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। --चन्द्रर्षिः, पंचसं० स्वो० टी०, 1, 5 _ --हेमचन्द्रः, प्रमा०मी०टी०,१,१,१८ अमूर्तपरिहारेण साक्षान्मूर्त विषयमिन्द्रियानपेक्षं मनः- अव अधोऽधोविस्तृतं रूपिवस्तुजातं धीयते-परिच्छिद्यते प्रणिधानवीर्यकमवधिज्ञानम् / ऽनेनास्मिन्नस्माद्वेत्यवधिः--तदावरणक्षयोपशमस्त तुकं --हरिभद्रः तत्वा० टी०, 1, 6 ज्ञानमभ्युपचारादवधिः यद्वा अवधानमवधिः-रूपिद्रव्यअधोविस्तृतविषयमनुत्तरोपपादिकादीनां ज्ञानमवधि- मर्यादया परिच्छेदनम्,अवधिश्चासौ ज्ञानं चेति अवधिज्ञानम् / अथवा अवधिः मर्यादा अमूर्तद्रव्यपरिहारेण ज्ञानम्। --मलयगिरिः, धर्मसंग्रहणी टी०, गा०८१६ मूर्तिनिबन्धनत्वादेव तस्यावधिज्ञानत्वम् / तच्च चत- अव अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छयतेऽनेनेत्वसष्वपि गतिष जन्तनां वर्तमानानामिन्द्रियनिरपेक्षं वधिः,अथवा अवधिः मर्यादा रूपिम्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकमनः प्रणिधानवीर्यकं प्रति विशिष्ट क्षयोपशमनिमित्तं तया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, यद्वा पुद्गलपरिच्छेदि देवमनुष्यतिर्यनारकस्वामिकमव- अवधानं आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः, अवधि धिज्ञानमिति / अवधिश्च स तज्ज्ञानं च तदित्यवधि- श्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानम् / ज्ञानम् / ---सिद्धसेनगणी, तत्वा० टी०, 1,6 -मलयगिरिः, श्रा० सू० टी० गा० 1 अन्तर्गतबहुतरपुद्गलद्रव्यावधानादवधिः पुद्गलद्रव्य- , , प्रज्ञापना वृ०, पद 26 मर्यादयैव वाऽऽत्मनः क्षयोपशमजःप्रकाशाविर्भावोऽवधिः . , , सप्ततिका टी०,६ इन्द्रियनिरपेक्ष साक्षात् ज्ञेयग्राही लोकाकाशप्रदेशमान , षडशीति-टीका, गा० 15 प्रकृतिभेदः / --सिद्धसेनगणी, तत्वा० टी०८,७ अव-अधोधो वस्तु धीयते-परिच्छिद्य तेऽनेनेत्यवधिः, रूपिद्रव्यग्रहणपरिणतिविशेषस्तु जीवस्य भवगुण- यद्वाऽवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रत्ययावधिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमप्रादुर्भूतो लोचना- प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः अवधिश्चासौ दिबाह्य मिननिरपेक्षः अवधिज्ञानमिति / ज्ञानं च अवधिज्ञानम्। भय देवसरिः, सम्म / टी० 2, 30 -श्रीसिद्धसेन सरिः, प्रव० सारो० टी० पृ० 361 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 अनेकान्त . . [वर्ष 3, किरण 1 अवधानमवधिरिन्द्रियायनपेक्षमात्सुनः सामदर्थग्रह- रूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमपि अवधिः अवधिश्च तज्ज्ञानं णम् / अवधिविज्ञानमवधिज्ञानम् / अथवाऽवधिर्म- चावधिज्ञानम् ।।...-देवेन्द्रः, कर्मवि० टी०,४ र्यादा तेन. अवधिनारूपि द्रव्यमर्यादात्मकेन ज्ञानम , षडशी० टी० 11 वृधिज्ञानम् / गोविन्दुगणी, कर्मस्तव टी० गाः 6,10 ,अवधानं स्यादवधिः, साक्षादविनिश्चयः / . अव अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेने अवशब्दोऽव्ययं यदा, सोऽधः शब्दार्थवाचकः // 3 // त्यवधिः / यद्वाऽवधिर्मर्यादा रूपिद्रव्येषु परिच्छेिदक-अधोधो विस्तृतं वस्तु, धीयते परिबुध्यते / तया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः / , .. अनेनेत्यवधिर्यद्वा, मर्यादावाचकोऽवधिः // 36 // --परमानन्दः, कर्मविपाक व्याख्या, गा०१५ मर्यादा रूपिद्रव्येषु, प्रवृत्तिनत्वरूपिषु / / / अवधीयतेऽनेनेत्यवधिः स च ज्ञानं चेति अवधिज्ञानम् .तयोपलक्षितं ज्ञानमवधिज्ञानमुच्यते // 37 // उत्पश्चानुत्पन्न विनष्ठार्थग्रहकं त्रिकालविषयं अनुगाम्या- . -विनयविजयः,लोकप्र०, खं०१, पृ०५३ दिषडभेदभिन्नं अवधिज्ञानम् / ... सकलरूपिद्रव्यविषयकजातीयमात्ममात्रापेक्षं ज्ञानमव........... -रत्नशेखरः, गुरुगु०. पट..३३ विज्ञानम् / . यशोविजयः, जैनतर्कपरि०, परि०१ अवधानमव धः इन्द्रियाद्यनपेचमात्मनः सानादर्थ- अवधिज्ञानत्वं रूपिसमव्याप्यविषयताशालिज्ञानवृत्तिग्रहणम् / अथवा अवशब्दोऽधः शब्दार्थ अव -अधोधो ज्ञानत्वव्याप्यजातिमत्वम् / विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेति अवधिः, यहा 'यशोविजयः, ज्ञानविन्दुः पृ० 143 भवधिमर्यादा रूपिण्येव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्ति Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धवलादि-श्रुत-पाचिय' का शेषांश (पृष्ठ 16 से आगे) भाचार्य-परम्परासे, चलकर आर्यमंतु और नागहस्ती यहाँ पर मैं इतना और भी बतलादेना चाहता हूँ नामके प्राचार्योंको प्राप्त हुई।। इन दोनों आचार्योंके कि धवला और जयधवलामें गौतमस्वामीसे आचारांगपाससे गुणधराचार्यकी उक्त गाथाओंके. अर्थको भले धारी लोहाचार्य तकके श्रुतधर प्राचार्योंकी एकत्र ग- ' प्रकार सुनकर यतिवृषभाचार्यने उन पर चूर्णि-सूत्रोंकी णना करके और उनकी रूढ़ काल-गणना 683 वर्षकी रचना की, जिनकी संख्या छह हज़ार श्लोक-परिमाण देकर उसके बाद.. धरसेन और मुणधर प्राचार्योंका है। इन चूर्णि-सूत्रोंको साथमें लेकर ही जयधवला-टीका नामोल्लेख किया गया है, साथमें इनकी गुरुपरम्पराका की रचना हुई है, जिसके प्रारम्भका एकः, तिहाई भाग कोई खास उल्लेख नहीं किया गया और इस तरह ( 20 हज़ार श्लोक-परिमाण ) वीरसेनाचार्यका और इन दोनों प्राचार्योका समय, वीर-निर्वाणसे 683 वर्ष शेष (40 हजार श्लोक-परिमाण ) उनके शिष्य जिन- बादका सूचित किया है / यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टिसे सेनाचार्यका लिखा हुआ है। कहाँ तक ठीक है अथवा क्या कुछ अापत्तिके योग्य है * नयधवलामें चूर्णिसूत्रों पर लिखे हुए उच्चारमा- // उसके विचारका यहाँ अवसरा नहीं है / फिर भी इतना जायके वृत्ति सूत्रोंका भी कितना ही उल्लेख पाया ज़रूर! कह देना होगा कि मूल सूत्रग्रंथोंको देखते हुए जाता है परन्तु उन्हें टीकाका मुख्याधार नहीं बनाया : टीकाकारका यह सूचन कुछ टिपर्ण अवश्य जान मया है और ज सम्पूर्ण वृत्ति-सूत्रोंको उद्धृत ही किया . पड़ता है। जिसका स्पष्टीकरण फिर किसो समय किया जान पड़ता है, जिनकी संख्याइन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें जायगा। . . . . . 12 हजार श्लोक-परिमाण बतलाई है। . . . . . . . . . . . . . इस प्रकार संक्षेपमें यह दो, सिद्धान्तागमोंके अव- - ..भाषा और साहित्य-विन्यास तारको कथा है, जिनके आधारपर फिर कितने ही ग्रंथों ... की रचना हुई है। इसमें इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे अनेकन दोनों मूल सूत्रग्रंथों-पटखण्डागम और कृषायअंशोंमें कितनी ही विशेषता और विभिन्नता पाई जाती .. प्राभुतकी भाषा, सामान्यतः प्राकृत और विशेषरूपसे है, जिसकी कुछ मुख्य मुख्य बातोंका दिग्दर्शन, तुलना- जैन शौरसेनी है तथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के .ग्रंथोंकी त्मक दृष्टि से, इस लेखके फुटनोटोंमें कराया गया है। . भाषासे मिलती-जुलती है / षट्खण्डागमकी रचना प्रायः ___ इन्द्रनन्दि श्रुतावतार में लिखा है कि 'गुणधरा--: / ॐ इन्द्रमन्दिने तो अपने श्रुतावतारमें यह स्पष्ट चार्यने इन गाथासूत्रोको रचकर स्वयं ही इनकी व्या. "ही लिख दिया है कि इन गुणधरे और घरसेनाचार्यकी ख्या नागहस्ती और पार्यमंक्षुको बतलाई।' इससे गुरुपरम्पराका हाल हमें मालूम नहीं है; क्योंकि उसको ऐतिहासिक कथनमें बहुत बड़ा अन्तर पड़ जाता है। बतलाने वाले शास्त्रों तथा मुनि-जनों का अभाव है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 गद्य सूत्रोंमें ही हुई है / परन्तु कहीं कहीं गाथा सूत्रोंका बिना नामके ही / ऐसी गाथाएँ बहुतसी 'उक्तं च' रूपसे भी प्रयोग किया गया है। जब कि कषायप्राभृतकी उद्धृत हैं जो गोम्मटसार' में प्रायः ज्योंकी त्यों तथा कहीं संपूर्ण रचना गाथा-सूत्रोंमें ही हुई है / ये गाथा- कहीं कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपलब्ध होती हैं / सूत्र बहुत संक्षिप्त हैं और अधिक अर्थके संसूचनको और चूंकि गोम्मटसार धवलादिकसे बहुत बादकी कृति लिये हुए हैं। इसीसे उनकी कुल संख्या 233 है इसलिये वे गाथाएँ इस बातको सूचित करती हैं कि होते हुए भी इनपर 60 हज़ार श्लोक-परिमाण टीका धवलादिकी रचनासे पहले कोई दूसरा महत्वका सिद्धान्त लिखी गई है। ग्रंथ भी मौजूद था जो इस समय अनुपलब्ध अथवा __धवल और जयधवलकी भाषा उक्त प्राकृत भाषाके अप्रसिद्ध जान पड़ता है। ऐसा एक प्राचीन ग्रन्थ अभी अतिरिक्त संस्कृत भाषा भी है—दोनों मिश्रित हैं—दोनों उपलब्ध हुआ है, जिसकी वीरसेवामन्दिर में जाँच हो में संस्कृतका परिमाण अधिक है। और दोनोंमें ही रही है, वह ग्रंथकर्ताके नामसे रहित है। इस प्रकार उभय भाषामें 'उक्तं च' रूपसे पद्य, गाथाएँ तथा गद्य- यह धवल और जयधवलका संक्षेपमें सामान्यप रिचय है। वाक्य उदधृत हैं-कहीं नामके साथ और अधिकांश वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० 20-11 1636 आवश्यक निवेदन निश्चित समय पर प्रकाशित करने के लोभको सँवरण न कर सकने के कारण 150 पृष्ठ के बजाए इस विशेषांक में 140 पृष्ठ ही दिए जासके हैं / इस विवशताको लिए सहृदय पाठकोंके प्रति हम कुछ अपराधी ज़रूर है फिर भी इन दस पृष्ठोंकी पर्ति दूसरी किरणमें कर देनेकी श्राशा रखते हैं। ___ विलम्बके ही भयसे इस किरणमें ऐतिहासिक जैन-व्यक्ति-कोष, सम्पादकीय तथा अन्य आवश्यकीय उपयोगी लेख भी नहीं दिये जासके है / यदि कोई बाधा उपस्थित न हुई तो ऐतिहासिक जैन-व्यक्ति-कोषको-जो पाठकोंके लिए बहुत ही मननीय और आकर्षक लेखमाला होगी-द्वितीय किरणसे क्रमशः प्रारम्भ करनेकी भावना है। धवलादि श्रुत परिचयके 8 पृष्ठके बजाए 16 पृष्ठ के करीब इस किरणमें जारहे हैं और इस लेखमालाको भी स्थायी रूपमें क्रमशः देनेका विचार है / हमें हर्ष है कि हमारी इन योजनाओंका सहर्ष स्वागत हुआ है। जैन लक्षणावलीके 8 पृष्ठ नमूनेके तौर पर अन्तमें दिए गए हैं उससे पाठकोंको विदित होगा कि वीर सेवा मन्दिर में कितना महत्वपूर्ण और स्थायी ठोस कार्य हो रहा है। अब यह अनेकान्त में प्रकाशित न होकर पुस्तक रूपमें कई खण्डोंमें प्रकाशित होगी। ___ अनेकान्तको इस द्वितीय वर्ष में जो भी सफलता प्राप्त हुई है उसका सब श्रेय उन आदरणीय लेखकों, जैनेतर संस्थात्रोंको अनेकान्त भेट स्वरूप भिजवाने वाले दातारों, ग्राहकों और पाठकोंको है। उन्हीं के सहयोग और श्रमका यह फल है / हम भी उनकी इस महती कृपाके कारण अनेकान्तकी कुछ सेवा कर सकने में अनेक त्रुटियाँ होने पर भी अपनेको समर्थ पाते हैं / --व्यवस्थापक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम उपास्य कर प्रभुकी वाणी अखिल-जग-तारनको जल-यान / वे हैं परम उपास्य, मोह जिन जीत लिया ॥ध्र व॥ ___ प्रकटी, वीर, तुम्हारी वाणी, जगमें सुधा-समान // 1. काम-क्रोध-मद-लोभ पछाड़े सुभट महा बलवान / अनेकान्तमय, स्यात्पद लांछित, नीति-न्यायकी खान / माया-कुटिल नीति नागनि हन किया आत्म-संत्राण // / सब कुवादका मूल नाशकर, फैलाती सत ज्ञान // 2 // ज्ञान-ज्योतिसे मिथ्यातमका जिनके हुआ विलोप / अनित्य अनेक-एक इत्यादिक वादि महान / राग द्वेषका मिटा उपद्रव,रहा न भय श्री शोक // 2 // नत-मस्तक हो जाते सम्मुख, छोड़ सकल अभिमान। इन्द्रिय-विषय-लालसा जिनकी रही नं कुछ अवशेष। जीव-अजीव-तत्व निर्णय कर, करती संशय-हान / तृष्णा नदी सुखादी सारी, धर असंग व्रत-वेष // 3 // साम्यभाव रस चखते हैं जो, करते इसका पान // 4 // दुख उद्विग्न कर नहिं जिनको,सुख न लुभावे चित्त / उंच. नीच औ. लघसदीर्घका, भेद न कर भगवान / आत्मरूप सन्तुष्ट, गिर्ने सम निर्धन और सवित्त॥४॥ सबके हितकी चिन्ता करती, सब पर दृष्टि समान // 5 निन्दा-स्तुति सम लखें बने जो निष्प्रमाद निष्पाप / अन्धी श्रद्धाका विरोध कर, हरती सब अज्ञान / साम्यभावरस-आस्वादनसे मिटा हृदय-सन्ताप / / 5 / / युक्ति-वादका पाठ पढ़ाकर, कर देती संज्ञान // 6 // अहंकार-ममकार-चक्रसे निकले जो धर धीर / ईश न जगकर्ता फलदाता, स्वयं सृष्टि-निर्माण / निर्विकार-निर हुए, पी विश्व-प्रेमका नीर // 6 // निज-उत्थान-पतन निज-करमें, करती यों सुविधान / / साध आत्महित जिन वीरोंने किया विश्व-कल्याण / हृदय बनाती उच्च, सिखाकर; धर्म सुदया-प्रधान / 'युगमुमुक्ष' उनको नित ध्यावे, छोड़ सकल अभिमान जो नित समझ आदरें इसको, वे 'युग-वीर महान। - युगवीर -युगवीर 'वीरसेवामन्दिर-ग्रंथमाला' को सहायता हालमें वीरसेवामन्दिर सरमावाको जो सहायता प्राप्त हुई है उममें श्रीमान् बाबू छोटेलालजी जैन रईम कलकत्ताका नाम खास तौर से उल्लेखनीय है / आपने 500) 10 की एक मुश्त सहायता 'वीर सेवामन्दिर-ग्रंथमाला' को प्रदान की है, और इस तरह आप ग्रंथमालाके. स्थायी सहायक' बने हैं। साथ ही कुछ दिन बाद आपने अपने मित्र बाबू रतनलालजी झाँझरी कलकत्तासे भी 100) रु० की सहायता प्राप्त करके भेजी है / इसके लिये आप और आपके उक्त मित्र दोनों ही हार्दिक धन्यवादके पात्र हैं / आशा है दूसरे सज्जन भी श्राफ्का अनुकरण करेंगे, और इस तरह ग्रन्थमालाके इस पुण्यकार्यमें आवश्यक प्रोत्साहन तथा प्रोत्तेजन प्रदान कर यशके भागी होंगे। .... . -अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' .... .... सरसावा जि० सहारनपुर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुभाषित आ !- गैरियतके परदे इकबार फिर उठादें। बशरने खाक पाया ताल पाया या गुहर पाया / बिछुड़ों को फिर मिला नक्शे दुई मिटादें // मिज़ाज अच्छा अगर पाया तो सबकुछ उसने भरपाया॥ दुनियाँके तीर्थो से ऊँचा हो अपना तीरथ / रगोंमें दौड़ने फिरनेके हम नहीं कायल / g दामाने ऑस्माँसे उसका कलस मिलादें // जो आँख ही से न टपका. वह लहू क्या है / ल हर सुबह उठके गाएँ मनतर वो मीठे मीठे / -दाग़ @ सारे पुजारियों को मय पीतकी पिलादें // चन्द दिन है शानोशौकतका खुमार / र शक्ति भी शान्ति भी भगतोंके गीतमें है। मौतकी तुर्शी नशा देगी उतार // ल धरतीके वासियोंकी मुक्ति प्रीत में है // जब उठाएँगे जनाज़ा मिलके. चार / -इक़बाल हाथ मल मलकर कहेंगे बार बार / / कमाले बुज़दिली है पस्त होना अपनी आँखोंमें। किस लिए आए थे हम क्या कर चले / * अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो फिर क्या हो नहीं सकता। जो यहाँ पाया यहीं पर घर चले // * उभरने ही नहीं देती हमें बेमाइगी दिलकी / -अज्ञात् नहीं तो कौन क़तरा है जो दरिया हो नहीं सकता। जो मौत आती है आए, मर्दको मरनेका ग़म कैसा ? 13 हविस जीनेकी है, दिन उम्रके बेकार कटते हैं। इमारतमें खुशीकी दफ्तरे रंजो अलम कैसा ? जो हमसे जिन्दगीका हक़ अदा होता तोक्या होता ? -ग्रहमान ARE अहले हिम्मत मंजिले मकसूद तक आ भी गये। कह रहा यह आस्माँ यह सब समाँ कुछ भी नहीं। बन्दए तकदीर किस्मतसे गिला करते रहे / पीस दूंगा एक गर्दिशमें जहाँ कुछ भी नहीं। / जिन्दगी यूं तो फ़क़त बाज़िए तिफ़लाना है। कह रहा यह आस्माँ कि कुछ समयका फेर है। मर्द चो है जो किसी रंगमें दीवाना है। पापका घट भर चुका अब फटनेकी देर है // ---चकबस्त जिनके महलोंमें हज़ारों रंगके फानस थे / R जो नरल पुर सभर हैं उठाते वो सर नहीं। झाड़ उनकी कनपर बाकी निशाँ कुछ भी नहीं। सरकश हैं वो दरख्त कि जिनपै समर नहीं // जिनकी नौबतकी सदासे गँजते थे आस्माँ / ॐ उस बोरिया नशींका दिली मैं मुरीद हूँ / दम बखुद हैं मकबरोंमें हूँ न हाँ कुछ भी नहीं / जिसके रियाजे जुहदमें बूए वफ़ा नहीं // -अज्ञात ---अज्ञात जिनके हँगामोंसे थे आबाद वीराने कभी / - जान जाए हाथसे जाए न सत्त / शहर उनके मिट गए आबादियाँ बन होगई // है यही इक बात हर मज़हबका तत्त // -- 'इकबाल' -इकबाल 'वीर प्रेस ऑफ इण्डिया' कनॉट सर्कस न्यू देहली में छपा /