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________________ साहित्य-सम्मेलनकी परीक्षाओंमें जैनदर्शन _ [ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद ] हिन्दी-साहित्य सम्मेलन प्रयागका हिन्दी संसारमें प्रदान करदी है। प्रायः वही स्थान और महत्त्व है, जो कि भार- जैन-छात्र प्रतिवर्ष सैकड़ोंकी संख्यामें इन परीतीय-राजनैतिक जगत्में कांग्रेसका । गत तीस वर्षों क्षाओं में सम्मिलित होते हैं और अच्छी श्रेणीमें से यह संस्था हिन्दी-साहित्य और हिन्दी-भाषाकी सम्मेलनसे मेडल तक प्राप्त करके सम्मानपूर्वक इन अच्छी सेवा करती आरही है। हिन्दीका व्यापक परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होते रहते हैं। किन्तु अनेक और स्थायी प्रचार करनेकी दृष्टिसे इसने “हिन्दी- छात्रों और जैन संस्थाओंको विषय-चुनावमें कठिविश्व-विद्यालय" नामक एक अलग परीक्षा-विभाग नाई आती है, अतः मैंने सोचा कि यदि प्रथमा कायम कर रक्खा है, जो कि नियमानसार एवं मध्यमामें जैनदर्शनको भी वैकल्पिक विषयों में व्यवस्थित ढंगसे प्रतिवर्ष अनेक परीक्षाएँ लेता है। स्थान दे दिया जाय तो जैनछात्रों और जैन संभारतके लगभग सभी प्रान्तोंके और प्रायः सभी स्थाओंको बहुत सुविधा हो जायगी। जैन-संस्थाओंजातियों एवं धर्मों के हजारों छात्र इन परिक्षाओं में के पाठ्यक्रममें भी सादृश्यता आजावेगी और प्रति सम्मिलित होते रहते हैं। परीक्षाओंका क्रम, विषयों- वर्ष जैन परीक्षार्थियोंकी संख्या भी बढ़ जावेगी। का वर्गीकरण, पाठ्यक्रमकी शैली, ऐच्छिक विषयों- मेरा प्रस्ताव तो यहाँ तक है कि प्रथमा, विशाका चुनाव, उपाधि प्रदान-पद्धति, आदि व्यवस्था रद और साहित्यरत्नमें प्राकृत-अपभ्रंश भाषा और सरकारी विश्वविद्यालयों के समान ही इसकी भी जैनदर्शन दोनोंको वैकल्पिक विषयों में स्थान दिया हैं। इसकी प्रथमा परीक्षाकी पद्धति और विषयोंका जाय । कारण यह है कि भारतीय दर्शन-धाराका वर्गीकरण मैट्रिकके समान है, विशारदकी शैली अध्ययन तबतक अपूर्ण, एकांगी और अव्यवस्थित बी०ए० के सदृश है और साहित्यरत्नके विषयोंका रहता है, जब तक कि जैन दर्शनका भी तुलनात्मक वर्गीकरण एम० ए० के समान है । परीक्षार्थियोंकी और विश्लेषणात्मक पद्धतिसे बौद्धदर्शन और योग्यता भी इन परीक्षाओंसे अच्छी हो जाती है। वैदिकदर्शनके साथ अध्ययन नहीं करलिया जाय । इन परीक्षाओंका स्टेन्डर्ड ऊँचा होनेसे इनका मान भारतीय-विचारपद्धति, भारतीय संस्कृति, भारतीयभी देशमें ठीक ठीक किया जाता है। बिहार सर- कला और भारतीय-साहित्यके निर्माण में जैनदर्शनकारने (और शायद यू० पी० सरकारने भी) इनको ने हर प्रकारसे सर्वतोमुखी और महत्त्वपूर्ण भाग सरकारी तौर पर मान दे दिया है । यू० पी० बोर्ड- लिया है ।भारतीय विकासकी सभी दिशाओं में ने तो विशारद उत्तीर्णको मैट्रिक और एफ० ए० के जैनदर्शनने अमिट प्रभाव डाला है और पूग पूरा एक ही विषयमें "अंग्रेजी" में भी बैठने की आज्ञा सहयोग दिया है । दूसरा कारण यह है कि जैन
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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