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________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ . थे, बहुविध निर्मल विनयसे विभूषित तथा शील-मालाके मट्टिय-मसयसमाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ॥१॥ धारक थे, गुरु-सेवामें सन्तुष्ट रहने वाले थे, देश दध (?) गारवपडिवद्धो विसयामिसविसवसेण कुल-जातिसे शुद्ध थे और सकल-कला-पारगामी एवं घुम्मतो । तीक्ष्ण बुद्धि के धारक प्राचार्य थे-आन्ध्र देशके वेण्या- सो णटुबोहिलाहो भमइ चिरं भववणे मूढो ॥२॥ तट नगरसे धरसेनाचार्य के पास भेजा । ( अंधवि- इस वचनसे स्वच्छन्दचारियोंको विद्या देना संसारसयवेण्णायडादो पेसिदा ) । वे दोनों साधु जब भयका बढ़ाने वाला है । ऐसा चिन्तन कर,शुभ-स्वप्नके आ रहे थे तब रात्रिके पिछले भागमें धरसेन भट्टारकने दर्शनसे ही पुरुषभेदको जाननेवाले धरसेनाचार्यने स्वप्न में सर्व-लक्षण सम्पन्न दो धवल वृषभोंको अपने फिर भी उनकी परीक्षा करना अंगीकार किया । सुपरीक्षा चरणोंमें पड़ते हुए देखा । इस प्रकार सन्तुष्ट हुए ही निःसन्देह हृदयको मुक्ति दिलाती है। । तब धरसेनने धरसेनाचार्य ने 'जयतु श्रुतदेवता'ऐसा कहा। उसी उन्हें दो विद्याएँ दी-जिनमे एक अधिकाक्षरी, दूसरी दिन वे दोनों साधुजन धरसेनाचार्य के पास पहुंच गये हीनाक्षरी थी और कहा कि इन्हें षष्ठोपवासके साथ और तब भगवान् धरसेनका कृतिकर्म (वन्दनादि) करके साधन करो। इसके बाद विद्या सिद्ध करके जब वे उन्होंने दो दिन विश्राम किया, फिर तीसरे दिन विनय विद्यादेवताओंको देखने लगे तो उन्हें मालम हुआ कि के साथ धरसेन भट्टारकको यह बतलाया कि 'हम दोनों एकका दाँत बाहरको बढ़ा हुआ है और दूसरी कानी जन अमुक कार्य के लिये आपकी चरण-शरण में पाए (एकाक्षिणी) है । देवताओंका ऐसा स्वभाव नहीं होता' हैं।' इसपर धरसेन भट्टारकने 'सुष्ठ भद्रं' ऐसा कह- यह विचार कर जब उन मंत्र-व्याकरण में निपुण कर उन दोनोंकी आश्वासन दिया और फिर वे इस मुनियोंने हीनाधिक अक्षरोंका क्षेपण-अपनयन विधान प्रकार चिन्तन करने लगे करके–कमीवेशीको दूरकरके-उन मंत्रोंको फिरसे पढ़ा *"सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि-जा- तो तुरन्त ही वे दोनों विद्या-देवियाँ अपने अपने स्वभावहयसुएहि ।" रूपमें स्थित होकर नज़र आने लगीं। तदनन्तर उन * 'वेण्या' नामकी एक नदी सतारा जिले में है मुनियोंने विद्या-सिद्धिका सब हाल पूर्णविनय के साथ (देखो 'स्थलनाम कोश') । संभवतः यह उसीके तट पर श्रोंको श्रुतका व्याख्यान करना है जो शैलघन, भग्नबसा हुआ नगर जान पड़ता है। घट, सर्प, छलनी, महिष, मेष, जोंक, शुक, मिट्टी और । इन्द्रनन्दिश्रुतावतारमें 'जयतु-श्रीदेवता' लिखा मशकके समान हैं--इन जैसी प्रकृतिको लिये हुए हैंहै, जो कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग वह मूढ बोधिलाभसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसारश्रुतदेवताका है। घनमें परिभ्रमण करता है।' + इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें तीन दिनके विश्रामका इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें 'सुपरीक्षा हृन्नितिकरीति, उल्लेख है । इत्यादि वाक्य के द्वारा परीक्षाकी यही बात सूचित की · * इन गाथाओंका संक्षिप्त श्राशययह है कि 'जो है; परन्तु इससे पूर्ववर्ती चिन्तनादि-विषयक कथन, आचार्य गौरवादिकके वशवर्ती हुआ मोहसे ऐसे श्रोता- जो इसपर 'धरसेन से प्रारम्भ होता है, उसमें नहीं है।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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