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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] धवलादि-श्रुत-परचय AAAAAAAAIL भद्रबाहुके अनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, लोहाचार्य के बाद सर्व अंगों तथा पूर्वोका वह एकजयाचार्य', नागाचार्य २,सिद्धार्थदेव, धृतिषेण, विजया- देशश्रुत जो प्राचार्य-परम्परा से चला आया था धरचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये क्रमशः ११ सेनाचार्यको प्राप्त हुआ। धनसेनाचार्य अष्टाँग महाआचार्य ग्यारह अंगों और उत्पादपर्वादि दश पर्वो के निमित्तके पारगामी-थे । वे जिस समय सोरठ देशके पारगामी तथा शेष चार पूर्वोके एक देश धारी हुए। गिरिनगर (गिरनार ) पहाड़की चन्द्र-गुहामें स्थित थे धर्मसेनके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, उन्हें अपने पासके ग्रन्थ (श्रुत) के व्युच्छेद हो जानेका ध्रुवसेनछ और कंसाचार्य ये क्रमशः पांच श्राचार्य ग्यारह भय हुआ, और इसलिये प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित अंगोंके पारगामी और चौदह पूर्वोके एक देश-धारी हुए। होकर उन्होंने दक्षिणा-पथके प्राचार्यों के पास, जो उस कंसाचार्य के अनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु । समय महिमा नगरी में सम्मिलित हुए थे ('दक्खिणाऔर लोहाचार्य ये क्रमशः चार आचार्य आचारांगके वहाइरियाणं महीमाए मिलियाणं' )। एक लेख पूर्णपाठी और शेष अंगों तथा पर्वोके एक देशधारी (पत्र) भेजा। लेखस्थित धरसेन के वचनानुसार उन हुए। श्राचार्योंने दो साधुओंको, जो कि ग्रहण-धारणमें समर्थ १, २, ३, इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें जयसेन, नाग- चौदह पूर्वोके एकदेश-धारी लिखा और न विशाखासेन, विजयसेन, ऐसे पूरे नाम दिये हैं । जयधवलामें भी चार्यादिको शेष चार पूर्वोके एक देश-धारी ही बतलाया जयसेन, नागसेन-रूपसे उल्लेख है परन्तु साथमें विजय- है। इसलिये धवलाके ये उल्लेख खास विशेषताको को विजयसेन-रूपसे उल्लेखित नहीं किया । इससे मूल लिए हुए हैं और बुद्धि-ग्राह्य तथा समुचित मालूम नामोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। होते हैं। * यहाँ पर यद्यपि द्रुमसेन (दुमसेणो) नाम दिया महिमानगड' नामक एक गांव सतारा जिले है परन्तु इसी ग्रंथके 'वेदना' खंडमें और जयधवलामें में हैं (देखो, 'स्थलनामकोश'), संभवतः यह वही बान भी उसे ध्र वसेन नामसे उल्लेखित किया है--पूर्ववर्ती पड़ता है। ग्रंथ 'तिलोयपणयत्ती' में भी ध्रुवसेन नामका उल्लेख हिन्द्र नन्दि-श्रुतावतारके निम्न वाक्यसे यह कचन मिलता है। इससे यही नाम ठीक जान पड़ता है। स्पष्ट नहीं होता--वह कुछ गड़बड़को लिये हुये जान अथवा द्रमसेन को इसका नामान्तर समझना चाहिये। पड़ता है :-- इन्द्र नन्दि श्रुतावतारमें द्रुमसेन नामसे ही उल्लेख “देशेन्द्र (sन्ध?) देशनामनि वेणाकतटीपुरे महाकिया है। महिमा । समुदित मुनीन् प्रति..." अनेक पट्ठावलियोंमें यशोवाहुको भद्रबाहु · इसमें महामहिमासमुदितमुनीन्' लिखा है तो पागे, (द्वितीय) सूचित किया है और इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार लेखपत्रके अर्थका उल्लेख करते हुए, उसमें वेणाकमें 'जयबाहु' नाम दिया है तथा यशोभद्रकी जगह "" तटसमुदितयतीन्' विशेषण दिया है जो कि 'महिमा' अभयभद्र नामका उल्लेख किया है। * इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें इन प्राचार्योंको शेष अंगों और 'वेण्यातट'के वाच्योंको ठीक रूपमें न समझनेका तथा पूर्वोके एक देश धारी नही लिखा, न धर्मसेनादिको परिणाम हो सकता है ।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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