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________________ अनेकान्त [वर्ष ३, किरण १ तो मामा हूँ, पर केवल मामा ही तो नहीं हूँ देवदत्तका को स्थान ही नहीं है । इस मध्यस्थताका निर्वाह उत्तरपिता भी हूँ । इसी तरह देवदत्तसे कहा--बेटा कालीन श्राचार्योंने अंशतः परपक्ष खण्डनमें पड़कर भले देवदत्त ! तुमने भी तो ठीक कहा, मैं तुम्हारा दरअसल ही पूर्णरूपसे न किया हो और किसी अमुक अाचार्य के पिता हूँ, पर केवल पिता ही तो नहीं हूँ, यज्ञदत्तका फैसलेमें अपीलकी भी गुंजाइश हो, पर वह पुनीत मामा भी हूँ । तात्पर्य यह कि उस समन्वयदृष्टिसे दोनों दृष्टि हमेशा उनको प्रकाश देती रही और इसी प्रकाशके बच्चोंके मनका मैल निकल गया और फिर वे कभी भी कारण उन्होंने परपक्षको भी नयदृष्टि से उचित स्थान पिता और मामाके नारण नहीं झगड़े। दिया है । जिस प्रकार न्यायाधीशके फैसलेके उपक्रममें इस उदाहरणसे समझमें आ सकता है कि हर उभयपक्षीय दलीलोंके बलाबलकी जाँचमें एक दूसरेकी एक एकान्तके समर्थनसे वस्तुके एक एक अंशका श्रा- दलीलोंका यथासंभव उपयोग होता है, ठीक उसी तरह शय लेकर गढ़ी गई दलीलें तब तक बराबर चाल रहेंगी जैनदर्शनमें भी इतरदर्शनोंके बलाबलकी जाँचमें और एक दूसरेका खंडन ही नहीं किन्तु इसके फलस्वरूप एक दूसरेकी युक्तियोंका उपयोग किया गया है । अन्तमें रागद्वेष-हिंसाकी परम्परा बराबर चलेगी जब तक कि अनेकान्तदृष्टि से उनका समन्वय कर व्यवहार्य फैसला भी अनेकान्तदृष्टि से उनका वास्तविक वस्तु स्पर्शी समाधान दिया है । इस फैसलेकी मिसलें ही जैनदर्शनशास्त्र हैं । न हो जाय । अनेकान्तदृष्टि ही उन एकान्त पक्षीय अनेकान्त दृष्टिकी व्यवहाराधारता कल्पनाअोंकी चरमरेखा बनकर उनका समन्वय कराती बात यह है कि-महावीर पूर्ण दृढ अहिंसक व्यक्ति है । इसके बाद तो बौद्धिक दलीलोंकी कल्पनाका स्रोत थे। उनको बातकी अपेक्षा कार्य अधिक पसन्द था । अपने आप सूख जायगा । उस समय एक ही मार्ग जब तक हवाई बातोंसे कार्योपयोगी व्यवहार्य वस्तु न रह जायगा कि-निर्णीन वस्तुतत्त्वका जीवन-शोधनमें निकाली जाय तब तक वाद तो हो सकता है, कार्य नहीं। उपयोग किया जाय। मानस अहिंसाका निर्वाह तो अनेकान्तदृष्टिके बिना न्यायाधीशका फैसला एक एक पक्षके वकीलों- खरविषाण की तरह असंभव था। अतः उन्होंने मानस द्वारा संकलित स्वपक्ष समर्थनकी दलीलोंकी फाइलोंकी अहिंसाका मूल ध्रुवमन्त्र अनेकान्तदृष्टिका आविर्भाव तरह आकारमें भले ही बड़ा न हो, पर उसमें वस्तुस्पर्श, किया । वे मात्र बुद्धिजीवी या कल्पनालोक में विचरण व्यावहारिकता एवं सूक्ष्मता अवश्य रहती है। और यदि करनेवाले नहीं थे, उन्हें तो सर्वाङ्गीण अहिंसा प्रचारका उसमें मध्यस्थदृष्टि-अनेकान्तदृष्टि-का विचारपूर्वक सुलभ रास्ता निकालकर जगतको शक्तिका सन्देश देना उपयोग किया गया हो तो अपीलकी कोई गुंजाइश ही था। उन्हें शुष्क मस्तिष्क के कल्पनात्मक बहुव्यायामकी नहीं रहती । इसी तरह एकान्तके समर्थनमें प्रयुक्त अपेक्षा सत्हृदयसे निकली हुई छोटीसी आवाज़की दलीलोंके भंडारभूत इतरदर्शनोंको तरह जैनदर्शनमें कीमत थी तथा वही कारगर भी होती है । यह ठीक भी कल्पनाओंका कोटिक्रम भले ही अधिक न हो और है कि-बुद्धिजीवी वर्ग, जिसका प्राचारसे कोई उसका परिमाण भी उतना न हो, पर उसकी वस्तु सम्पर्क ही न हो, बैठे बैठे अनन्त कल्पनाजालकी रचना सर्शिता, व्यावहारिकता एवं अहिंसाधारतामें तो सन्देह- कर सकता है और यही कारण है कि बुद्धिजीवी
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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