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________________ 124 अनेकान्त - वर्ष 3, किरण 1 - 'इन्द्रिय कषायाप्रतक्रियाः' पदसे किया गया है,जैसे कि भ्यायो दशमः / 225 पर्यंतमादितः / समाप्तं चैतदिगम्बर सूत्रपाठमें पाया जाता है और सिद्धसेन तथा दुमास्वातिवाचकस्य प्रकरणपंचशती कर्तुः कृतिस्तत्वाहरिभद्रकी कृतियोंमें भी जिसे भाष्यमान्य सूत्रपाठके धिगमप्रकरणं // " रूपमें माना गया है; परन्तु बंगाल एशियाटिक सोसाइटी इसमें मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी आद्यन्तकारिकाके उक्त संस्करणमें उसके स्थान पर 'भवतकषायेन्द्रि- ओं सहित ग्रंथसंख्या 225 श्लोकपरिमाण दी है और पक्रियाः' पाठ दिया हुआ है और पं० सुखलालजीने उसके रचयिता उमास्वातिको श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार भी अपने अनुवादमें उसीको स्वीकार किया है, जिसका पाँचसौ प्रकरणोंका अथवा 'प्रकरणपंचशती' का कर्ता कारण इस सूत्रके भाष्यमें 'अवत' पाठका प्रथम होना सूचित किया है, जिनमें से अथवा जिसका एक प्रकरण जान पड़ताहै और इसलिये जो बादमें भाष्यके व्याख्या- यह 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। क्रमानुसार सूत्रके सुधारको सूचित करता है। (6) उक्त पुष्पिकाके अनन्तर 6 पद्य दिये हैं, जो (7) दिगम्बर-सम्प्रदायमें जो सूत्र श्वेताम्बरीय टिप्पणकारकी खुदको कृति है। उनमेंसे प्रथम सात पद्य मान्यता की अपेक्षा कमती-बढ़ती रूपमें माने जाते हैं दुर्वादापहारके रूपमें हैं और शेष दो पद्य अन्तिम मंगल अथवा माने ही नहीं जाते उनका उल्लेख करते हुए तथा टिप्पणकारके नामसूचनको लिये हुए हैं। इन टिप्पणमें कहीं-कहीं अपशब्दोंका प्रयोग भी किया गया पिछले पद्योंके प्रत्येक चरणके दूसरे अदरको क्रमशः है। अर्थात् प्राचीन दिगम्बराचार्योंको 'पाखंडी' तथा मिलाकर रखनेसे 'रवसिंहो जिनं वंदे" ऐसा वाक्य 'जड़बुद्धि' तक कहा गया है। यथा उपलब्ध होता है, और इसीको टिप्पणमें "इत्यन्तिममनु-नहोत्तर-कापिठ-महाशुक्र-सहस्रारेषु नेद्रोत्पति- गाथाद्वयरहस्य" पदके द्वारा पिछले दोनों गाथा पद्योंका रिति परवादिमतमेतावतैव सत्यापितमिति कश्चिन्मा रहस्य सूचित किया है / ये दोनों पद्य इस प्रकार हैंमहाकिन पाखंडिनः स्वकपोलकल्पितबुद्धयैव षोडश निषेप्यो / नवपयोदप्रभारुचिरदेहः / पान्याहुः, नोचेदशाष्ठपंचषोडशविकरुपा इत्येव स्पष्ट / सूत्रकारोऽसूत्रयिष्यचयालंडनीयो निन्हवः।" धीसिंधुर्जिनराजो / महोदयं दिशति न कियद्भ्यः // 8 // "केचिउजडाः 'ग्रहाणामेकं' इत्यादि मूलसूत्रान्यपि वनिनोपतापहारी / सनंदिमविचकोरचंद्रास्मा / न मन्यते चन्द्रार्कादीनां मिथः स्थितिभेदोस्तीत्यपि न ये न भावं भविना तन्वन्मुदे न संजायते केषां // 6 .... ...... पश्यति।" इससे भी अधिक अपशब्दोंका जो प्रयोग किया इससे स्पष्ट है कि यह टिप्पण 'रत्नसिंह' नामके गया है उसका परिचय पाठकोंको आगे चलकर मालम किमी श्वेताम्बराचार्य का बनाया हुआ है / श्वेताम्बरहोगा। सम्प्रदायमें 'रत्नसिंह' नामके अनेक सरि-श्राचार्य हो (8) दसवें अध्यायके अन्तर्मे जो पुष्पिका (अन्तिम गये हैं; परन्तु उनमेंसे इस टिप्पणके रचयिता कौन हैं, सन्धि) दी है वह इस प्रकार है ॐ इन दोनों पचोंके अन्त में "श्रेयोन्तु" ऐसा “इति तायाधिगमेऽहंपचनसंग्रहे मोप्ररूपणा- भाशीर्वाक्य दिया हुआ है।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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