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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] यापनीय साहित्यकी खोज 66 - नन्दि गणिके चरणोंसे अच्छी तरह सूत्र और उनका होती है कि पूर्वाचार्योंकी रची हुई गाथायें उनकी उपअर्थ समझकर और पूर्वाचार्योंकी रचनाको उपजीव्य जीव्य हैं / बनाकर 'पाणितलभोजी' शिवार्यने यह आराधना रची' जिन तीन गुरुओंकेचरणोंमें बैठकर उन्होंने पाराहम लोगोंके लिये प्रायः ये सभी नाम अपरिचित धना रची है उनमें से 'सर्वगुप्त गणि' शायद वही हैं हैं / अपराजितसूरिकी परम्पराके समान यह जिनके विषयमें शाकटायनकी अमोघवृत्तिमें लिखा है कि परम्परा भी दिगम्बर सम्प्रदायकी . पहावली या "उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः" 1-3-104 / अर्थात् गुर्वावली आदिमें नहीं मिलती। शिवकोटि और शिवा- सारे व्याख्याता या टीकाकार सर्वगुप्त से नीचे हैं / र्य एक ही हैं जो स्वामि समन्तभद्र के शिष्य थे, इस चूंकि शाकटायन यापनीय संघके थे इसलिए विशेष धारणाके सही होनेका भी कोई पुष्ट और निर्धान्त सम्भव यही है कि सर्वगुप्त यापनीय संघके ही सूत्रों प्रमाण अभी तक नहीं मिला है / जो कुछ प्रमाण इस या आगमोंके व्याख्याता होंगे। सम्बन्धमें दिये जाते हैं, वह बहुत पीछेके गढ़े हुए शिवार्यने अपनेको "पाणितलभोजी" अर्थात् मालूम होते हैं / स्वयं शिवार्य ही यह स्वीकार नहीं हाथों में पास लेकर भोजन करनेवाला कहा है। यह करते कि मैं समन्तभद्रका शिष्य हूँ। विशेषण उन्होंने अपनेको श्वेताम्बर सम्प्रदायसे अलग अपराजितसूरि यदि यापनीय संघके थे तो अधिक प्रकट करनेके लिए दिया है / यापनीय साधु हाथ पर सम्भावना यही है कि उन्होंने अपने ही सम्प्रदायके ही भोजन करते थे। ग्रन्थकी टीका की होगी। ____ अाराधनाकी 1132 वीं गाथामें मेदस्स मुणिस्स अाराधनाकी गाथायें काफी तादादमें श्वेताम्बर अक्खणं' ( मेतार्यमुनेराख्यानम्) अर्थात् मेतार्य मुनिसूत्रोंमें मिलती हैं, इससे शिवार्यकेइस कथनकी पुष्टि की कंथाका उल्लेख किया है जहाँ तक हम जानते हैं १-अज्जजिणणंदिगणिज्जमित्तणंदीणं / दिगम्बर साहित्यमें कहीं यह कथा नहीं मिलती है / भवगमियपायमले सम्म सत्तंच प्रस्थं च // 21, यही कारण है कि पं० सदासुखजीने अपनी वचनिकापुब्वायरियणिवद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए। में इस पदका अर्थ ही नहीं किया है / यही हाल भाराहणा सिवज्जेण पाणिदलभोरणा रहदा // पंजिनदास शास्त्रीका भी है / संस्कृतटीकाकार पं० 2162 अाशाधरजीने तो इस गाथाकी टीका इसलिए विशेष नहीं २-यापनीय संघके मुनियोंमें कीर्तिनामान्त अधिः की है कि वह सुगम है परन्तु आचार्य अमितगतिने कतासे हैं जैसे पाल्यकीर्ति, रविकीर्ति, विजयकीर्ति, धर्मकीर्ति, आदि नन्दि, चन्द्र, गुप्त नामान्त भी हैं ' इसका संस्कृतानुवाद करना क्यों छोड़ दिया ? जैसे-जिननन्दि, मित्रनन्दि, सर्वगुप्त, नागचन्द, नेमिचन्द्र -भगवती आराधना वचरिकाके अन्तमें उन आदि नामोंसे किसी संघका निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं गाथाओंकी एक सूची दी है जो मूलाचार और भाराधहो सकता है। नामें एकसी हैं और पं०सुखलालजी द्वारा सम्पादित पंच ३-देखो भगवती चाराधना पनिकाकी भूमिका प्रतिक्रमण सूबमें मूलाचास्की उन गाथाओं की सूची दी पृ. 3-6 / है जो भद्रबाहुकृत 'भावश्यकनियुक्ति' में भी हैं।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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