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________________ 68 अनेकान्त / (वर्ष 3, किरण 1 शिलालेखोंमें मिलता है और यह एक मार्केकी बात है दिया है / यद्यपि वृक्षोंसे नामोंकी कोई ठीक उपकि देवसेनसूरिने यापनीयके समान द्रविड़ संघको भी पत्ति नहीं बैठती है फिर भी यह माननेमें कोई हर्ज नहीं जैनाभासोंमें गिना है। ...... कि शुरू शुरूमें कुछ संघों या गणोंके नाम वृक्षोंपरसे - प्रायः प्रत्येक संघमें गण, गच्छ, अन्वय, वाल भी पड़े थे। आदि शाखायें रहती थीं / कभी कभी गण गच्छादिको ये पुन्नागवृक्षमूलगण और श्रीमूलमूलगण भी संघ और संघोंको.गण गच्छ भी लिख दिया जाता था। इसी तरहके मालूम होते हैं। नाग नागकेसरको कहते मतलब सबका मुनियोंके एक समूहले था। हैं और श्रीमूल शाल्मलि या सेमरको / बंगला भाषामें संघों और गणोंके नामकी उपपत्ति सेमरको 'शिमूल' कहते हैं जो श्रीमूलका ही अपइन संघों या गणों के नाम कुछ देशोंके नामसे भ्रंश मालूम होता है / कनड़ीमें भी संभव है कि शिमूल जैसे द्रविड़,माथुर, लाड-बागड़ आदि, कुछ ग्रामोंके या श्रीमूलसे ही मिलता जुलता कोई शब्द सेमर के लिए नामसे जैसे कित्तूर, नमिलूर, तगरिल", श्रीपुर, हन- होगा / सोगे आदि, और कुछ दूसरे चिन्होंसे रक्खे गये हैं। . संस्कृत कोषोंमें नन्दि भी एक वृक्षका नाम है, ____ इन्द्रनन्दिने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि इससे कल्पना होती है कि शायद नन्दिसंघ नाम भी शाल्मलिवृक्षमूलसे आये उनका अमुक नाम पड़ा, उक्त वृक्षके कारण पड़ा होगा। ऐसी दशामें मूल संघके जो खण्डकेसरद्रुममूलसे आये उनका अमुक और जो समान अन्य संघोंमें भी नन्दि संघ होना स्वाभाविक है। अशोकवाटिकासे आये उनका अमुक। इस विषयमें हमारा अनुमान है कि पृथ्वीकौङ्गणि महाराजजो मतभेद हैं उनका भी उन्होंने उल्लेख कर के दानपत्रके चन्द्रनन्दि आचार्यके ही प्रशिष्य अपरा१-श्रीमहमिलसंघेस्मिन्नन्दिसंघेऽस्त्यरुंगलः / जितसूरि होंगे। उक्त दानपत्रमें उनके एक शिष्य ' अन्वयो भाति योऽशेषशास्त्रवारीश पारगः // कुमारनन्दिकी ही शिष्यपरम्परा दी है, दूसरे शिष्य . ...श्री द्रमिणगणदनन्दिसंघदरुङ्गलान्वयदाचार्यावलि. बलदेवसूरिकी परम्परामें अपराजिप सूरि हुए होंगे। येन्ते दोड़े...... ____ दानपत्रमें मूलसंघ (दि० स०) के नन्दिसंघसे पृथजैनशिलालेखसंग्रह पृ० 367 २-दक्षिणमहुएजादो दाविडसंघो महामोहो। यत्व प्रकट करने के लिए 'श्रीमूलमू नगणाभिनन्दित विशे___३-७-इन नामोंके स्थान कर्नाटकमें अब भी हैं। पण दिया गया है। बलि, गच्छ और अन्वयके नाम इन्हींपरसे रक्खे गये हैं। क्या शिवार्य भी यापनीय थे ? गित्तूर और कित्तूर एक ही हैं। कित्तूरका पुराना नाम अपराजितसूरि के विषयमें विचार करते हुए मूल कीर्तिपुर है जो पुन्नाट देशकी राजधानी थी / 'एरे' ग्रन्थमें भी कुछ बातें ऐसी मिली हैं जिनसे मुझे उसके कनडीमें को कहते हैं / 'कित्तूर' और 'एरे गित्तर' दोनों ही नामके गण या गच्छ हैं। कर्ता शिवार्य भी यापनीय संघके मालूम होते हैं। देखिए_-ये शाल्मलिमहाद्रुममूलाद्यतयोऽभ्युपगताः / ये खण्डकैसरद्रुममूलान्मुनयः समागताः, प्रथितादशोक 1 इस ग्रंथकी प्रशस्तिमें लिखा है कि आर्य वाटारसमागता ये मुनीश्वराः इत्यादि। जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुत गणि और आर्य मित्र
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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