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________________ अनेकान्त (वर्ष 3, किरण 1 सहन करने में असमर्थ है वही वस्त्र ग्रहण करता है। पात्रग्रहण सिद्ध है तो यह ठीक नहीं है / क्योंकि अचे और फिर इस बातकी पुष्टिमें प्राचारांग तथा कल्प२ लताका अर्थ है परिग्रहका त्याग और पांत्र परिग्रह (बृहत्कल्प ) के दो उद्धरण देकर आचारांगका एक है, इसलिए उसका त्यात्र सिद्ध है / अर्थात् वस्त्रऐसा उद्धरण दिया है जिसमें कारणकी अपेक्षा वस्त्र पात्र ग्रहण कारणसापेक्ष है / जो उपकरण कारणग्रहण करनेका विधान है और उसकी टीका करते हुए की अपेक्षा ग्रहण किये जाते हैं उनकी जिस तरह ग्रहणलिखा है कि यह जो कहा है कि हेमन्त ऋतुके समाप्त हो विधि है उसी तरह उनका परिहरण भी अवश्य करना जाने पर परिजीर्ण उपाधिको रख दे, सो इसका अर्थ यह चाहिए / इसलिए बहुतसे सूत्रोंमें अधिकारकी अपेक्षा है कि यदि शीतका कष्ट सहन न हो तो वस्त्र ग्रहण जो वस्त्र-पात्र कहे हैं सो उन्हें ऐसा मानना चाहिए कि कर ले और फिर ग्रीष्मकाल आ जाने पर उसे उतार कारणसापेक्ष ही कहे गये हैं। और जो भावना ( श्रादे / इसमें कारणकी अपेक्षा ग्रहण कहा है। परन्तु चारांगका 24 वाँ अध्ययन ) में कहा है कि भगवान जीर्णको छोड़ दे, इसका मतलब यह नहीं है कि दृढ महावीरने एक वर्ष तक चीवर धारण किया और उसके (मजबूत ) को न छोड़े / अन्यथा अचेलतावचनसे बाद वे अचेलक हो गये, सो इसमें बहुत सी विपत्तिविरोध या जायगा / वस्त्रकी परि जीर्णता कही गई है, पत्तियाँ हैं, बहुतसे विरोध और मतभेद हैं / क्योंकि कुछ प्रेक्षालनादि संस्कारके अभावसे, दृढका त्याग करनेके लोग कहते हैं कि वीर जिनके उसबस्त्रको उसीदिन उस लिए नहीं हैं और यदि ऐना मानोगे कि संयमके लिए लटका देनेवालेने ही ले लिया था दूसरे कहते हैं कि वह काँटों और डालियों ग्रादिसे छह महीने में छिन्न १-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया भिक्षूणाम् / हीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्ब- भिन्न हो गया था। कुछ लोग कहते हैं कि एक वर्षसे मानबीजो वा परीषहसहने वा अमः स गहाति। कुछ अधिक बीत जाने पर खंडलक नामक ब्राह्मणने - २-हिरिहेतुकं व होइ देहदुगंछंतिदेहे जुग्गिदगे धारेज उसे ले लिया था और दूसरे कहते हैं कि जब वह हवासे सियं वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति / उड़ गया और भगवान्ने उसकी उपेक्षा की, तो लट ३-द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं प्राचारांगे विद्यते-अह पुण एवं जाणे काने वालेने फिर उनके कन्धेपर रख दिया / इस तरह ज्ज / पातिकते हेमंतेहिं सुपडि वण्णे से अथ पडिज अनेक विपत्तिपत्तियाँ होने के कारण इस बात में कोई एणमुवधि पदिटावेज्ज / तत्त्व नहीं दिखलाई देता / यदि सचेललिंग प्रकट करने ४-हिमसमये शीतबाधासहः परिब्रह्म चेलं तस्मि- के लिए भगवानने वस्त्र ग्रहण किया था तो फिर उसका न्निष्क्रान्ते ग्रीष्मेसमायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणमपेक्ष्य विनाश क्यों इष्ट हया? उसे मदा. ही धारण किये ग्रहणमाख्यातं / / परिजीर्णविशेषोपादानाडानाम ---- परित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः। प्रक्षाल- स्यापि त्यागः सिद्ध एवेति / तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रमात्रनादि संस्कार विरहात्परिजीर्णता वस्त्रत्य कथिता न ग्रहणं / यदुपकरणं गाते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणतु दृढ़स्यत्यागकथनार्थ पात्रप्रतिष्ठापनासूत्रेणोक्तेति / विधिः ग्रहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव / तस्मासंयमार्थं पात्रग्रहणं सिद्धयति इति मन्यसे, नैव। द्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्त अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति त- तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् /
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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