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________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] / स०२४६६] यापनीय साहित्यकीखोज रहना था और यदि उन्हें पता था कि वह नष्ट हो इसके बाद कहा है कि परीषहसूत्रोंमें (उत्तराध्ययनजायगा तो फिर उसका ग्रहण करना निरर्थक हुआ. में) जो शीत-दंश-मसक तृणस्पर्श-परीषहोंके सहनके वचन और यदि पता नहीं था तो वे अज्ञानी सिद्ध होते हैं। हैं वे सब अचेलताके साधक हैं। क्योंकि जो सचेल या और फिर यदि उन्हें चेलप्रज्ञापना वांछनीय थी तो फिर सवस्त्र हैं उन्हें शीतादिकी बाधा होती ही नहीं है / 2 यह वचन मिथ्या हो जायगा कि पहले और अन्तिम फिर उत्तराध्ययनकी ऐसी नौ गाथायें उद्धृत की हैं तीर्थंकरका धर्म आचेलक्य (निर्वस्त्रता ) था'। जो अचेलताको प्रकट करती हैं। इस तरह इस ____ और जो नवस्थान (?) में कहा है कि जिस आचेलक्य श्रमणकल्पकी समाप्त की गई है। तरह मैं अचेलक हूँ उसी तरह पिछले जिन (तीर्थकर) इससे अच्छी तरह स्पष्ट होजाता है कि व्याख्याकार भी अचेलक होंगे, सो इससे भी विरोध अायगा / इसके यापनीय संघके हैं, वे उन सब आगमों आदिको सिवाय वीर भगवान के समान यदि अन्य तीर्थंकरोंके भी मानते हैं जिनके उद्धरण उन्होंने अचेलकताके प्रकरणमें वस्त्र थे तो उनका वस्त्र-त्याग-काल क्यों नहीं बतलाया दिये हैं / उनका अभिप्राय यह है कि साधुओंको जाता है ? इसलिए यही कहना उचित मालम होता है नग्न रहना चाहिए; नग्न रहनेकी ही आगमोंकी आज्ञा कि सब कुछ त्यागकर जब जिन (वीर भगवान् ) स्थित है और कही कहीं जो वस्त्रादिका उल्लेख मिलता है सो थे तब किसीने उनके ऊपर वस्त्र डाल दिया था और उसका अर्थ इतना ही है कि यदि कभी अनिवार्य ज़रूरत वह एक तरहका उपसर्ग था। श्रा पड़े, शीतादिकी तकलीफब - बेडौल घिनौना हो तो कपड़ा ग्रहण किया जा सकता है १-यच्चभावानायामुक्त-वरिसं चीवरधारि तेण परमचेलगो जिनोति तदुक्तं विप्रतिपतिबहुलत्वात् / कथं ? तेषामपि भवेत् / एवं तु युक्तं वक्तुं सर्वत्यागं कृत्वा केचिद्वदन्ति तस्मिनैव दिने तद्वस्त्रवीरजिनस्य विलम्बन• स्थिते जिने केनचिद्वस्त्रं वस्तुं निचितं उपसर्ग इति / . कारिणा गृहीतमिति / अन्येषण मासाच्छिन्नं तत्कण्टक शाखादिभिरिति / साधिकेन वर्षेण तद्वस्त्रं खण्डलक- २-इदं चाचेलताप्रसाधनपरं शीतदंशमसकतणब्राह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति / केचिद्वातेन स्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु / नहि सचेल शीतापतितमुयेक्षित जिनेनेत्यपरे वदन्ति विलम्बनकारिण दयो वाधन्ते / जिनस्य स्कन्धे तदारोपितमिति / एवं विप्रतिपत्ति बाहुल्या- ३-स्थानाभावसे यहाँ उत्तराध्ययनकी चार ही न दृश्यते तत्त्वं / सचेललिंगप्रकटनार्थ यदि चेलग्रहणं जिनस्य कथं तद्विनाश इष्टः ? सदातद्धारयितव्यम् / किं ___ गाथायें दी जाती हैं न चं, यदि नश्यतीति ज्ञानं निरर्थकं तस्य ग्रहणं, यदि न परिचत्तेसु वत्थेषु ण पुणो चेलमादिए, अचेलपवरोज्ञातमज्ञानस्य प्राप्नोति / अपि च चेलप्रज्ञापना बांछि- भिक्खू जिणरूबधरे सदा / अचेलंगस्स लहस्स संजयस्स ता चेत् 'पाचेलक्को धम्मो पुरिमचरिमाणं' इति वचो तवस्सियो, तणेसु सयमाणस्स णं ते होदि विराहिणा मिथ्या भवेत् / ण मे णिवारणं अस्थि छवित्ताणं ण विज्जई. अहंत २-यदुक्तं 'यथाहमचेली तथा होउ पच्छिमो इति अग्गि सेवामि इदि भिक्ख ण चिंतए // आचेलक्को य होक्खदिति ' तेनापि विरोधः। किं च जिनानामितरेषां जो धम्मो जो वायं पुणरुत्तरो,देसिदो वड्ढमाणेण पासेण वस्त्रत्यागकालः वीरजिनस्येव किं न निर्दिश्यते यदि वस्त्रं य महप्पणा /
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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