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________________ ३० अनेकान्त प्रत्येक जैनी जानता है कि संसारी जीव त्रस और स्थावरके रूपमें दो तरह है। त्रसमें दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय श्रौर पंचेन्द्रिय सम्मिलित हैं। पंचेन्द्रियोंमें पशु और मनुष्योंके तिरिक्त देव और नारकी भी सम्मिलित हैं । एकेन्द्रियसे पंचेंद्रिय पशु तक तिर्यच कहलाते हैं । तिर्यञ्चों के अतिरिक्त नारकियों, देवों और मनुयोंका भी पृथक अस्तित्व मिलता है । अब देखना यह है कि किन कारणोंसे जीव नारक - पशु- देव और मनुष्य भवोंमें उच्च-नीच गोत्री होता है । तत्वार्थधिगम सूत्रमें लिखा है कि :— 'परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च चैत्रस्य । तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य । ' अर्थात् -- 'परकी निंदा, अपनी प्रशंसा, परके विद्यमान गुणोंका श्राच्छादन और अपने विद्यमान गुणोंका प्रकाशन, ये नीचगोत्रकर्मके के कारण हैं । इनसे विपरीत अर्थात् अपनी निंदा, परकी प्रशंसा, अपने गुण ढकना और दूसरोंके गुण प्रकाशित करना, नम्रवृत्ति और निरभिमान, ये उच्चगोत्रकर्मके के कारण हैं ।' और इसमें शंका ही नहीं की जा सकती कि जैसा कारण होता है उसीके अनुरूप कार्य होता है - कारणके विरुद्ध कार्य नहीं होता । अतएव उच्च-नीच गोत्र के कारणोंका सम्बन्ध जिस प्रकार धर्माचरण से नहीं है उसी तरह उसका कार्यरूप भी धर्माचरण से संबंधित नहीं किया जा सकता अर्थात् संतान क्रमागत आचरणका भाव सिद्धान्तग्रंथ में धर्माचरण अथवा धर्माचरण नहीं है; बल्कि श्राचरणका भाव सामान्य प्रवृत्ति प्रवृत्ति नरकतिर्यञ्चादि में कुल परम्परासे एक-सी मिलना चाहिये | चूँकि भव-अपेक्षा तिर्यञ्चनारक-देव-मनुष्य पृथक-पृथक हैं, इसलिये उनकी कुल [ वर्ष ३, किरण १ सुलभ प्रवृत्ति अथवा व्यापार भी पृथक्-पृथक् होना श्रावश्यक है। नारकियोंमें जन्म लेते ही जीव ताड़नमारन-छेदन- भेदन रूप संक्लेशमय क्रियाको करने लगता है और वह उसको आयुपर्यन्त कभी न तो 'भूलता है और न छोड़ता ही है । इसलिये नारकियोंका यह व्यापार उनका गोत्रजन्य आचरण है । उनकी यह प्रवृत्ति नियमित, जन्म- सुलभ और शाश्वत है- प्रत्येक नारकी में प्रत्येक समय में वही प्रवृत्ति मिलेगी। इसी तरह तिर्यञ्चों में गोत्रजन्य व्यापार देखना चाहिये । उनका गोत्रजन्य व्यापार भी जन्म सुलभ, नियमित और जीवनपर्यन्त रहने वाला होना चाहिये । तिर्यञ्चों में क्षुधानिवृत्तिके लिये नाना प्रकारसे उद्योग करनेका भाव और प्रवृत्ति सर्वोपरि होती है । अपनी खाद्य वस्तुको खोजने, उसको संभालकर रखने और काम में लानेका चातुर्य प्रत्येक पशुमें जन्मगत देखनेको मिलता है— कोई उनको सिखाता नहीं । शेर, बिल्ली आदि खँ ख्वार जानवरोंको शिकार की घातमें रहनेकी चालाकी किसीने सिखाई नहीं है --बया चिड़ियाको खास तरहका घौंसला बनाना, शहदकी मक्खियोंको अपना छत्ता बनाना और चींटियोंको अपनी बिलें बनाने की शिक्षा किसने दी है ? तिर्यञ्चोंकी यह सब प्रवृत्ति जन्मगत होने से उनका कुल परम्परीण श्राचरण ( व्यापार ) है । अतः यही उनका गोत्रजन्य व्यापार कार्य है । किन्तु प्रश्न यह है कि उनका यह व्यापार शुभ और प्रशंसनीय है अथवा नहीं ? नारकियों की प्रवृत्ति संक्लेशमयी रौद्रताको लिये हुये है, जो जीवके स्वभावसे प्रतिकूल और उसके संसारको बढ़ने वाली है । इसी तरह तिर्यञ्चोंकी प्रवृत्ति मायावी और मूर्छाभावको लिये हुए है । आत्मा का धर्म श्रार्जव है - माया और मूर्छा उससे परेकी चीजें हैं। इसलिये नारक और तिर्यञ्चोंकी प्रवृत्तियाँ
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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