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________________ कार्तिक ६.६ निर्वाण सं०२४६६] भ० महावीरके शासन में गोत्रकर्भ विज्ञान है । उपर्युक्त उद्धरण इस कथनका साक्षी है। साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए ऊँच-नीच-कुलमें उत्पन्न उसमें धर्मविज्ञानका जो रूप अंकित है, उससे जैन-कर्म- करानेवाले पुद्गलस्कन्धको गोत्र' कहते हैं । सिद्धांतकी भी सिद्धि होती है । कर्म वह सूक्ष्म पुद्गल गोत्रकर्मका सूक्ष्म पुद्गलरूप होना |लाज़िमी है । है जो कषायानुरक्त जीवकी योगक्रियासे आकृष्ट हो आचार्य उसीको स्वीकार करते हुए बताते हैं कि उससे एकमेक बंधको प्राप्त होता है । ऐसी दशामें वे गोत्रकर्मरूप पुद्गलस्कंध जीवको ऊँच-नीच-कुलमें तपस्या-द्वारा नूतन कर्मों की श्रायति ( अास्रव ) रुक उत्पन्न कराते हैं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं हो जाती है और शेष कर्मोकी निर्जरा हो जानेसे जीवको सकता कि ऊँच-नीच-कुलमें जन्म करा देनेके बंधन में रखनेके लिए कारण शेष नहीं रहता-वह पश्चात् गोत्रकर्म निष्क्रिय हो जाता हो; क्योंकि कर्मकी मुक्त होकर ज्ञानादि अनन्त चतुष्टयका उपभोग करता मूल प्रकृतितियोंमें कोई भी ऐसा नहीं है जो जीवके साथ है। कर्मरूप होने योग्य यह सूक्ष्म पद्गल जो लोकमें भरा परम्परा रूपसे हमेशासे नहो और अपना प्रभाव न रखता हुअा है, संसारी जीवसे सम्बद्ध होकर आठ प्रकारोंमें हो। आयुकर्म प्रकृतिका बन्ध यद्यपि जीवनमें एक परिणत हो जाता है। इन्हींको भ० महावीरने आठ बार ही होता है, परन्तु उसका कार्य बराबर जीवनकर्मप्रकृति कहा है अर्थात् (१) ज्ञानावरणी, (२) पर्यन्त होता है । इसी तरह भ० महावीरने गोत्रकर्मका दर्शनावरणी, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, प्रभाव जन्म लेनेके बाद भी जीवन-पर्यन्त होना प्रति. (६) नाम (७) गोत्र और (८) अन्तराय । चीनदेशके पादित किया है और यही मानना आवश्यक है । यही बौद्ध शास्त्रोंमें इनमेंसे केवल छह मूल्य प्रकृतियोंका कारण है कि श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धांत-चक्रवर्ती गोत्र उल्लेख मिलता है--न मालूम उसमें ज्ञानावरण और कर्मके विषयमें लिखते हैं:-- अन्तरायका उल्लेख होनेसे कैसे छूट गया ? जो हो, 'संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सरणा।' यह स्पष्ट है कि भ० महावीरने अपने धर्मका प्रतिपा- अर्थात्-'सन्तानक्रमसे-कुलपरिपाटीसे-चले आये पादन मूलतः कर्मसिद्धांतके आधारसे किया था, अत- जीवके श्राचारणकी ‘गोत्र' संज्ञा है।' एव कर्मसिद्धांतका विवेचन सामान्य न होकर वैज्ञानिक गोत्रकर्मका यह लक्षण उसके कार्यको बतलाता होना चाहिए । जैनागम इसी बातका द्योतक है । है । जीव एक द्रव्य है । अतएव संसारी जीवका कुलपर___पाठकगण, अब अाइये प्रकृत-विषयका विचार म्परागत आचरण काल्पनिक न होकर नियमित और करें । इस लेखके शीर्षकसे स्पष्ट है कि हमें गोत्रकर्मपर जन्म-सुलभ होना चाहिये । जीवके कुल भी एकेन्द्रियादि विचार करना अभीष्ट है । गोत्रकर्म आठ मूल प्रकृति- की अपेक्षा मानने चाहिये-वे काल्पनिक न होने यों से एक है और उसका लक्षण 'धवलसिद्धांत' मे चाहिये । इस विषयको स्पष्ट समझनेके लिये हमें यं बतलाया गया है: संसारी जीवोंके वर्णन पर जरा विचार करना चाहिये। "उच्चनीचकुलेसु उप्पादश्रो पोग्गलखंधो मिच्छत्ता- यह और इस लेखमें अन्य सिद्धांत-उद्धरण दिपच्चएहि जीवसंबंधो गोदमिदि उच्चदे।" 'अनेकाँत'की पर्व प्रकाशित किरणोंमेंसे लिये गये हैं। अर्थात्--मिथ्यात्वादि कारणोंके द्वारा जीवके जिसके लिए हम लेखकोंके आभारी हैं।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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