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भ० महावीरके शासनमें गोत्रकर्म
[ले०-बा० कामताप्रसाद जैन, एमआर०ए०एम.]
अगवान् महावीर जैनधर्मके अन्तिम तीर्थंकर थे। निज्जरेथ: यं पनेत्त्य एतरहि कायेन संवुता, वाचाय संव
- उन्होंने स्वयं नवीन मतकी स्थापना नहीं की ता, मनसा संवुता तं प्रायति पापस्स प्रकरणं,इति पुराथी; बल्कि क्षीण हुए जैनधर्मका पुनरुद्धार किया णामं कम्मान तपसा व्यन्तिभावा नवानं कम्मान प्रकरथा-अपने ही दंगसे अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पायति भनवस्सयो, आयति अनवस्सवा कम्मक्खयो, भवके अनुकूल उसका प्रतिपादन किया था। जब नक कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदानाक्खयो, वेदभगवान् महावीर पूर्णसर्वज्ञ नहीं हो लिये थे तब तक नाक्खया सव्वं दुक्खं निज्जिएणं भविस्सति ।" उन्होंने तीर्थ-प्रर्वतनरूप में एक शब्द भी मुखस नहीं
-(मज्झिमनिकाय) निकाला था। जीवनमुक्त परमात्मा होकर ही उन्होंने भावार्थ- "हे महानाम, जब मैंने उनसे ऐसा कहा लोककल्याण भावना-मूलक धर्मका निरूपण किया। तब वे निम्रन्थ इस प्रकार बोले, 'अहो, निर्ग्रन्थ ज्ञातजो कुछ उन्होंने कहा, उसका साक्षात् अनुभव करलिया पत्र (महावीर) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं--वे अशेष ज्ञान था-ज्ञान उनमें मूर्तिमान् हो चमका था । इसलिए और दर्शनोंके ज्ञाता हैं । हमारे चलते, ठहरते, मोते, उन्होंने जो कहा वह वस्तुस्थितिका फोटोमात्र था। उन- जागते,--- ममस्त अवस्थात्रोंमें मदैव उनका ज्ञान का सिद्धांत कारण-कार्य सूत्रपर अवलम्बित था । उससे और दर्शन उपस्थित रहता है । उन्होंने कहाः-... जिज्ञासुत्रोंको पूर्ण सन्तोष मिला था और वे उनकी निर्ग्रन्थों ! तुमने पर्व (जन्म) में पापकर्म किये हैं, शरणमें आये थे । बौद्ध शास्त्रोंके कथनसे यह आभास उनकी इस घोर दुश्कर तपस्यासे निर्जग कर डालो। होता है कि तीर्थंकर महावीरके प्रथम पुण्यमयी प्रवचनका मन, वचन. और कायकी संवृत्तिमे (नये) पाप नहीं प्रतिरूप कैसा था ? उनमें लिखा है कि जब म० गौतम बंधते और तपस्यासे पुराने पापोंका व्यय हो जाता बुद्धने निर्ग्रन्थ ( जैन ) श्रमणांसे घोर तपस्या करनेका है। इस प्रकारके नये पापांके रुक जानेमे और पुराने कारण पूछा तो उन्होंने उत्तर दियाः
__ पापांके व्ययसे प्रायति मक जाती है; अायति __“एवं वुत्ते, महानाम, ते निगराठा मं एतदवोचु, कक जानेस कम्मों का क्षय होता है, कमनयमे निगण्ठो, भावुसो नाथपुत्तो सम्वजु, सन्वदस्सावी भप- दुःवनय होता है, दुःवक्षयसे वेदनाक्षय और वेदनारिसेसं ज्ञाणदस्सनं परिनानातिः चरतो च मे तितो- नयमे सर्वदुःखांकी निर्जरा हो जाती है ।" च सुत्तस्स च नागरस्स च सततं समितं ज्ञाणदस्सनं इस उद्धरणसे भ० महावीरका महान व्यक्तित्व पच्चपट्टितंतिः, सो एवं श्राहः अस्थि खो वो निगण्ठा और उसके द्वारा प्रतिपादित धर्मका वैज्ञानिक स्वरूप पुग्वे पापं कम्मं कतं, तइमाय कटुकाय दुक्करिकारिकाय स्पष्ट है । निस्सन्देह भ० महावीरका धर्म केवल धर्म