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________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] सत्य अनेकान्तात्मक है २७ उदाहरणके लिये 'मनुष्य' को ही ले लीजिये, की अपेक्षा जिसकी पूर्तिके लिये विज्ञानका निर्माण यह कितनी विशाल और बहुरूपात्मक सत्ता है हुआ है, सत्य है और इसलिये उपयोगी है; परन्तु इसका अन्दाजा उन विभिन्न विज्ञानोंको ध्यानमें अन्यदृष्टियों, अन्यप्रयोजनोंकी अपेक्षा और लानेसे हो सकता है जो 'मनुष्य' के अध्ययनके सम्पूर्णसत्यकी अपेक्षा वही विज्ञान निरर्थक है । आधार पर बने हैं । जैसे:-शारीरिक-रचनाविज्ञान अतः यदि उपर्युक्त विज्ञानोंमेंसे किसी एक विज्ञा(Anatomy), शारीरिक व्यापारविज्ञान (Ph. नको सम्पूर्ण मनुष्यविज्ञान मान लिया जाय तो siology), गर्भविज्ञान (Emibryology),भाषा- वह हमारी धारणा मिथ्या होगी । अतः हमारा विज्ञान (Philology), मनोविज्ञान (Psycho ज्ञानगम्य, व्यवहारगम्य सत्य एकांशिक सत्य है, logy), सामाजिक जीवन-विज्ञान (Sociology), सापेक्ष सत्य है । वह अपनी विवक्षित दृष्टि और जातिविज्ञान (Ethnology), मानवविर्वतविज्ञान प्रयोजनकी अपेक्षा सत्य है । यदि उसे अन्यदृष्टि (Anthropology), आदि । इनमें प्रत्येक विज्ञान और अन्यप्रयोजनकी कसौटीसे देखा जाय या अपने अपने क्षेत्रमें बहुत उपयोगी और सत्य है। यदि उसे पूर्ण सत्य मानलिया जाय तो वह निरपरन्तु कोई भी विज्ञान पूर्णसत्य नहीं है, क्योंकि र्थक, अनुपयोगी और मिथ्या होगा । 'मनुष्य' न केवल गर्भस्थ वस्तु है-न केवल सप्तधातु-उपधातु-निर्मित अङ्गोपाङ्ग वाला एक विशेष - + (अ) द्रव्यानुयोगतर्कणा-६-६ आकृतिका स्थूलपदार्थ है-न केवल श्वासोच्छवाम (मा) पञ्चाध्यायी-१११० लेता हुआ चलता-फिरता यन्त्र है-न केवल (इ) निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् । भाषाभाषी है...वह उपर्यक्त सब कुछ होता हुआ -प्राप्तमीमांसा, १०८ । भी इनसे बहुत ज्यादा है । इसलिये प्रत्येक मनुष्य (1) A.E. Taylor-Elements of Metaphysics. P. 214, Postnot "The degree of truth: सम्बन्धी विज्ञान उस दृष्टिकी अपेक्षा जिससे कि a doctrine contains cannot be deterinined 'मनुष्य' का अध्ययन किया गया है-उस प्रयोजन- is meant to fulfil.." - स्मृतिमें रखने योग्य महावाक्य १. नियम एक तरहसे इस जगत्का प्रवर्तक है। ६. इन्द्रियाँ तुम्हें जीतें और तुम सुख मानो, २. जो मनुष्य सत्पुरुषों के चरित्रके रहस्यको इसकी अपेक्षा तुम इन्द्रियोंके जीतनेसे ही सुख, पाता है वह परमेश्वर होजाता है। आनन्द और परमपद प्राप्त करोगे। ३. चंचल चित्त सब विषम दुःखोंका मूल है। ७. राग बिना संसार नहीं और संसार बिना ४. बहुतोंका मिलाप और थोड़ोंके माथ अति राग नहीं। समागम ये दोनों समान दुःखदायक हैं। ८. युवावस्थामें सर्वसंगका परित्याग परम५. समस्वभावीके मिलनेको ज्ञानी लोग एकांत पदको देता है। -श्रीमदराजचन्द apart from consideration of the purpose it कहते हैं।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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