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________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] भ०महावीरके शासन में गोत्रकर्ग उपादेय न होनेके कारण हितकर और प्रशंसनीय नहीं मानना उचित है क्योंकि यह जन्मसुलभ, नियमित है-वे हैं भी अशुभ, क्योंकि नरक और तिर्यञ्च-गतियाँ और मनुष्य जीवन में कमी न बदलने वाली शाश्वती स्वयं अशुभ है । अतएव नारक और तिर्यञ्चोंका गोत्र प्रवृत्ति उसी तरह है जिस तरह देवादिमें उनकी गोत्रभी अशुभ अर्थात् नीच होना चाहिये । सिद्धान्तमन्थोंमें जन्य प्रवृत्ति है । साथ ही, चंकि यह प्रवृत्ति ज्ञानसे उसे नीच ही बताया गया है। साल्लक रखती है, इसलिये श्रेष्ट है-शुभ है। क्योंकि ज्ञान ____ अब रहे केवल मनुष्य और देव । देवोंके प्रास्माका गुण है । अतएव मनुष्यजातिमें बज़ाहिर गोत्रजन्य व्यापारके विषय में मतभेद नहीं है- काल्पनिक भेद-प्रभेद रूप वर्गीकरण होते हुए भी, जैसे उनका श्रानन्दी जीवन है--क्रीड़ा करनेमें ही देव कि देवोंमें भी है, उनको उच्चगोत्री मानना ही ठीक है मग्न रहते हैं । अानन्दी जीवनमें श्राकुलताके लिये श्रीमान् वयोवृद्ध सूरजभानुजी साहबने इस विषयका बहुत-कम स्थान है-श्रानन्द प्रात्माका स्वाभाविक ठीक ही प्रतिपादन किया है । 'ठाणायंत्र' में मनुष्यों के गुण है । इसलिये देवोंकी प्रवृत्ति शुभ है । यही कारण चौदह लाख कोटि कुलोको मोक्षयोग्य ठहराया है। यह है कि देवोंमें ऊँचे-नीचे दर्जेके देवोंका वर्गीकरण होते सिद्धान्त मान्यता तभी ठीक हो सकती है जब कि सब हुए भी सब ही देव उच्च गोत्री कहे गये हैं । अब ही मनुष्योंको उच्चगोत्री माना जायगा । रह जाते हैं केवल मनुष्य ! उनके जन्म-सुलभ व्यापार इसके विपरीत मनुष्योंमें उच्च नीच-गोत्र-जन्य . अथवा गोत्रजन्य प्रवृत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद : ब्यापार यदि मनुष्योंकी लोक-सम्मानित और लोकहै; परन्तु यहाँ पर भी यदि उपर्युक्त देव-नारकादिके निंद्य प्रवृत्तिको माना जाय तो सिद्धान्तमें कही गई गोत्र जन्य ब्यापारकी विशेषताओंका ध्यान रक्खा जाय . बातोंसे विरोध होगा; क्योंकि सिद्धांतमें म्लेच्छ-शूद्र- . तो मतभेदकी संभावना शायद ही रहे । गोत्रजन्य चोर-डाक्-श्रादि लोकनिय मनुष्योंको भी मुनि होते व्यापार जन्म सुलभ, नियमित और शाश्वत होना बताया गया है। इस प्रकरणमें बौद्ध ग्रंथ 'मज्झिमनिचाहिये । अतएव देखना यह चाहिये कि मनुष्योंमें काय' का निम्नलिखित उद्धरण विशेष दृष्टव्य हैं:कौनसी प्रवृत्ति जन्म-सुलभ है, जो जीवन-पर्यन्त “म• गौतम बुद्ध कहते हैं:-"निगंठो, जो लोकमें प्रत्येक देश और प्रत्येक कालके मनुष्योंमें मिलती मिथ्यात्व सौं लेइ अयोगि पर्यंत गुणस्थाननि है ? गौरसे देखिये तो ज्ञात होता है कि एक बालक विषै। मनुष्यके चौदह लाख कोडिकुल कहे हैं, यातें सब होश सँभालने के पहलेसे ही हर बातको जानने की-वस्तु । मनप्यनिके कुलकी संज्ञा मोक्षयोग्य जानी गई । यह के स्वरूपको ग्रहण करनेकी स्वतः ही कोशिस करता है गणोंके यंत्र विर्ष देख लेना।'-चर्चासमाधान मानव जाति के किसी कुलका बालक क्यों न हो, उसमें धवल सिद्धांतमें म्लेच्छोंको मुनिपद धारणेका यह प्रवृत्ति स्वतः ही मिलती है और वह बराबर बनी विधान श्री सूरजभानुजीके लेखसे स्पष्ट है। 'तपणा. रहती है; बल्कि मनुष्य-सन्तानमें उस प्रवृत्तिका संस्कार सार' से भी यह एवं सतशूद्रोंका मुनि होना स्पष्ट जन्मतः दीखता है । इस प्रवृत्तिको श्रुतपर्यवेक्षण-प्रवृत्ति है। क्रूरकर्मा अहिमारक चोर आदिका मुनि होना भी कहना उचित है, और यही मनुष्यका गोत्र जन्य व्यापार भगवती आराधना पृ० ३५३ से स्पष्ट है।
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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