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मीनसंवाद
( जाल में मीन )
[ ? ] क्यों मीन ! क्या सोच रहा पड़ा तू ! देखे नहीं मृत्यु समीप आई ! बोला तभी दुःख प्रकाशता वो“सोचूँ यही, क्या अपराध मेरा !! [ २ ] न मानवको कुछ कष्ट देता, नहीं चुराता धन्य-धान्य कोई । सत्य बोला नहिं मैं कभी भी, कभी तीन वनिता पराई ॥ [ ३ ] संतुष्ट था स्वल्प विभूति में ही, ईर्षा-घृणा थी नहिं पास मेरे | नहीं दिखाता भय था किसीको,
नहीं जाता अधिकार कोई || [ ४ ] विरोधकारी नहीं था किसीका,
निःशस्त्र था, दीन- अनाथ था मैं ! स्वच्छन्द था केलि करूं नदीमें,
रोका मुझे जाल लगा वृथा ही !! [ ५ ] खींचा, घसीटा, पटका यहाँ यों
'मानो न मैं चेतन प्राणि कोई ! होता नहीं दुःख मुझे ज़रा भी !
हूँ काष्ठ-पाषाण- समान ऐसा !!" [ ६ ]. सुना करूँ था नर धर्म ऐसा'हीनापराधी नहिं दंड पाते । न युद्ध होता विरोधियोंसे.
न योग्य हैं वे वधके कहाते ॥ [७] रक्षा करें वीर सुदुर्बलोंकी, निःशस्त्र शस्त्र नहीं उठाते' । बातें सभी झूठ लगें मुझे वो, विरुद्ध दे दृश्य यहाँ दिखाई ॥
[=] या तो विडाल-व्रत ज्यों कथा है, या यों कहो धर्म नहीं रहा है । पृथ्वी हुई वीर-विहीन सारी, स्वार्थान्धता फैल रही यहाँ वा ॥ [ह] बेगारको निन्द्य प्रथा कहें जो, वे भी करें कार्य जघन्य ऐसे ! आश्चर्य होता यह देख भारी, 'अन्याय शोकी अनिश्रयकारी !!" [१०]_ कैसे भला वे स्व-अधीन होंगे ? स्वराज्य लेंगे जगमें कभी भी ? करें पराधीन, सता रहे जो, हिंसाव्रती होकर दूसरोंको !! [??] भला न होगा जग में उन्होंकाबुरा विचारा जिनने किसी का ! दुष्कृतोंसे कुछ भी हैं जो, सदा करें निर्दय कर्म ऐसे !! [१२] क्या कहूँ और कहा न जाता ! aaron प्राण, न बोल आता !! छुरी चलेगी कुछ देर में ही ! स्वार्थी जनों को कब तर्सं आता !!" [P3] यों दिव्य-भाषा सुन मीनकी मैं, धिक्कारने खूब लगा स्वसत्तां । हुआ शोकाकुल और चाहा,
मैं
देऊं छुड़ा बन्ध किसी प्रकार ।। [१४] पैमीनने अन्तिम श्वास खींचा !
मैं देखता हाय ! रहा खड़ा ही !! गंजी ध्वनी अम्बर- लोक में यों
'हा ! वीरका धर्मं नहीं रहा है !!"
- 'युगवीर'