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________________ 140 अनेकान्त [वर्ष 3, किरण 1 गद्य सूत्रोंमें ही हुई है / परन्तु कहीं कहीं गाथा सूत्रोंका बिना नामके ही / ऐसी गाथाएँ बहुतसी 'उक्तं च' रूपसे भी प्रयोग किया गया है। जब कि कषायप्राभृतकी उद्धृत हैं जो गोम्मटसार' में प्रायः ज्योंकी त्यों तथा कहीं संपूर्ण रचना गाथा-सूत्रोंमें ही हुई है / ये गाथा- कहीं कुछ थोड़ेसे पाठ-भेदके साथ उपलब्ध होती हैं / सूत्र बहुत संक्षिप्त हैं और अधिक अर्थके संसूचनको और चूंकि गोम्मटसार धवलादिकसे बहुत बादकी कृति लिये हुए हैं। इसीसे उनकी कुल संख्या 233 है इसलिये वे गाथाएँ इस बातको सूचित करती हैं कि होते हुए भी इनपर 60 हज़ार श्लोक-परिमाण टीका धवलादिकी रचनासे पहले कोई दूसरा महत्वका सिद्धान्त लिखी गई है। ग्रंथ भी मौजूद था जो इस समय अनुपलब्ध अथवा __धवल और जयधवलकी भाषा उक्त प्राकृत भाषाके अप्रसिद्ध जान पड़ता है। ऐसा एक प्राचीन ग्रन्थ अभी अतिरिक्त संस्कृत भाषा भी है—दोनों मिश्रित हैं—दोनों उपलब्ध हुआ है, जिसकी वीरसेवामन्दिर में जाँच हो में संस्कृतका परिमाण अधिक है। और दोनोंमें ही रही है, वह ग्रंथकर्ताके नामसे रहित है। इस प्रकार उभय भाषामें 'उक्तं च' रूपसे पद्य, गाथाएँ तथा गद्य- यह धवल और जयधवलका संक्षेपमें सामान्यप रिचय है। वाक्य उदधृत हैं-कहीं नामके साथ और अधिकांश वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० 20-11 1636 आवश्यक निवेदन निश्चित समय पर प्रकाशित करने के लोभको सँवरण न कर सकने के कारण 150 पृष्ठ के बजाए इस विशेषांक में 140 पृष्ठ ही दिए जासके हैं / इस विवशताको लिए सहृदय पाठकोंके प्रति हम कुछ अपराधी ज़रूर है फिर भी इन दस पृष्ठोंकी पर्ति दूसरी किरणमें कर देनेकी श्राशा रखते हैं। ___ विलम्बके ही भयसे इस किरणमें ऐतिहासिक जैन-व्यक्ति-कोष, सम्पादकीय तथा अन्य आवश्यकीय उपयोगी लेख भी नहीं दिये जासके है / यदि कोई बाधा उपस्थित न हुई तो ऐतिहासिक जैन-व्यक्ति-कोषको-जो पाठकोंके लिए बहुत ही मननीय और आकर्षक लेखमाला होगी-द्वितीय किरणसे क्रमशः प्रारम्भ करनेकी भावना है। धवलादि श्रुत परिचयके 8 पृष्ठके बजाए 16 पृष्ठ के करीब इस किरणमें जारहे हैं और इस लेखमालाको भी स्थायी रूपमें क्रमशः देनेका विचार है / हमें हर्ष है कि हमारी इन योजनाओंका सहर्ष स्वागत हुआ है। जैन लक्षणावलीके 8 पृष्ठ नमूनेके तौर पर अन्तमें दिए गए हैं उससे पाठकोंको विदित होगा कि वीर सेवा मन्दिर में कितना महत्वपूर्ण और स्थायी ठोस कार्य हो रहा है। अब यह अनेकान्त में प्रकाशित न होकर पुस्तक रूपमें कई खण्डोंमें प्रकाशित होगी। ___ अनेकान्तको इस द्वितीय वर्ष में जो भी सफलता प्राप्त हुई है उसका सब श्रेय उन आदरणीय लेखकों, जैनेतर संस्थात्रोंको अनेकान्त भेट स्वरूप भिजवाने वाले दातारों, ग्राहकों और पाठकोंको है। उन्हीं के सहयोग और श्रमका यह फल है / हम भी उनकी इस महती कृपाके कारण अनेकान्तकी कुछ सेवा कर सकने में अनेक त्रुटियाँ होने पर भी अपनेको समर्थ पाते हैं / --व्यवस्थापक
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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