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________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] वीतराग प्रतिमाश्रोंकी अजीब प्रतिष्ठा विधि 107 ही करते हैं, बाकी जो सैकड़ों जैनी मंदिरमें आते हैं और अपने हृदयमें बिठाते रहनेसे हृदय में उनकी भक्ति वीतराग प्रतिमाके दर्शन करके सबही तीर्थंकरोंको स्मरण स्तुति करते रहनेसे-हरवक्त ही हमारे भावोंकी शुद्धि होती कर, उनकी भक्ति स्तुति करते हैं और चावल, लौंग, रहती है और यह भक्ति स्तुति हम बार बार हर जगह बादाम आदि हाथमें जो हो वह भक्तिसहित सबही कर सकते हैं / वहाँ प्रतिमा हो या न हो, इस बातकी तीर्थंकरोंकों चढ़ाते हैं, तो क्या स्थापनाके बिना वह कोई ज़रूरत नहीं है; परम वीतरागरूप प्रतिमाके दर्शन उनकी भक्तिस्तुति बिल्कुल ही निरर्थक होती है / इसके तो हमको वीतरागताकी उत्तेजना दे देते हैं, उससे वीतअलावा मंदिरके समयसे अलग जो लोग अपने घरपर रागरूप भावोंकी उत्तेजना होने पर हमारा यह काम है या मंदिरके एक कौनेमें बैठकर 24 तीर्थंकरोंका या पंच- कि परम वीतरागी पुरुषों, अर्हतो, सिद्धों, और साधुओंको परमेष्ठीका जाप करते हैं-हृदयसे उनकी भक्तिस्तुति याद करकर उस वीतरागरूप भावको हृदयमें जमाते और बंदना करते हैं तो क्या स्थापना न करनेसे या रहें और जब जब भी मौका मिले उनके गुणोंकी भक्तिउनकी मूर्ति सामने न होनेसे जिनकी वे भक्तिस्तुति स्तुति और पूजा बंदना अपने हृदय में करते रहें / और करते हैं उनकी वह भक्तिस्तुति या जाप आदि व्यर्थ यदि हो सके तो दिनमें कोई 2 समय ऐसा स्थिर करलें ही जाता है / नहीं नहीं ! व्यर्थ नहीं जाता है / यदि वे जब एकान्तमें बैठकर स्थिर चित्तसे उनकी भक्तिस्तुति उनके वीतरागरूप गुणोंको याद करके, उन गुणोंकी पूजा बंदना कर सकें, जिसके वास्ते हर वक्त प्रतिमा भक्ति स्तुति करते हैं तो बेशक उनका यह कार्य महा- सामने रखने व स्थापना करनेकी ज़रूरत नहीं है। यह कार्यकारी और फलदायक होता है / यह ही जैनशास्त्रों- सब तो हृदय मन्दिरमें ही हो जाती है। .. का स्पष्ट आशय है / जिससे यह साफ़ सिद्ध है कि इस प्रकार जब वीतरागरूप मूर्तिसे मूर्तिका ही काम भक्ति स्तुति और पूजा बंदनाके वास्ते न तो प्रतिमा ही लिया जाता है; उसको साक्षात तीर्थकर माननेसे साफ़ 2 ज़रूरी है और न स्थापना या जलचन्दनादि द्रव्य इनकार किया जाता है। किसी प्रकार भी अपनेको मूर्तिही, किन्तु एकमात्र वीतरागरूप परमेष्ठियोंके वैराग्य पूजक नहीं बताया जाता है। और मूर्ति भी वीतरागरूप और त्यागरूप गुणांकी बड़ाई अपने हृदयमें बैठानेकी ही रखनेकी ताकीद है / कोई वस्त्र अलंकार यहाँ तक ही ज़रूरत है; जिससे हमारे पापी हृदयमेंसे भी रागद्वेष कि अगर एक तागा भी उस पर पड़ जाय तो वह कामरूप मैल कम हो होकर हमारा हृदय भी कुछ पवित्र की नहीं रहती है; तो गर्भ-जन्म, खेल-कूद और राजहोने लग जाय, हमारे * हृदयमें भी वीतरागरूप भावोंको भोग आदिका संस्कार उसमें पैदा करनेकी क्या ज़रूरत स्थान मिलने लग जाय / और हम भी कल्याणके मार्ग है, जो प्रतिष्ठा विधिके द्वारा कुछ दिनोंसे किया जाना पर लगने के योग्य हो जायें। शुरू हो रहा है / हम दिगम्बर-श्राम्नायके माननेवाले ___ बेशक तीर्थंकरोंकी वीतरागरूप , प्रतिमाके दर्शनसे जैनी, तीर्थकर भगवान्की राजअवस्थाकी मूर्तिको भी हमको वैराग्यकी उत्तेजना मिलती है, परन्तु श्री माननेसे साफ़ इनकार करते हैं। अनेक तीर्थंकरोंने तीर्थकरों, सिद्धों और सब ही वीतरागी साधुओंके वीत- विवाह कगया है / यदि उनकी उस अवस्थाकी मूर्ति रागरूप गुणोंको याद करके, उन गुणोंकी प्रतिष्ठा उनकी स्त्रियों सहित बनाई जाय, जो तीर्थकर चक्रवर्ती
SR No.527156
Book TitleAnekant 1939 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, USA_Jain Digest, & USA
File Size18 MB
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